बुधवार, सितंबर 29, 2010

किसका मीडिया, कैसा मीडिया

पार्ट:तीन

ह कोई नई बात नहीं है। पूंजी का यही चरित्र होता है। बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को खा जाती है। अमेरिका के समाचारपत्र और मीडिया उद्योग में यह बहुत पहले ही हो चुका है। वहां 1984 के आसपास 50 मीडिया कंपनियां थीं, वहीं 1987 आते आते इन कंपनियों की संख्या घटकर 26 रह गई जो 1990 में और घटकर 23 से भी कम हो गईं। इसके बाद नई तकनीक और कनवर्जेंस की प्रक्रिया के कारण यह संख्या 1993 में घटकर 20 से भी कम हो गई और 90 के दशक के अंत आते आते मात्र 10 बड़ी मीडिया कंपनियां ही पूरे अमेरिकी मीडिया उद्योग को नियंत्रित करने लगीं।


साफतौर पर इस कन्सॉलिडेशन की वजह समाचारपत्र उद्योग में लागू होनेवाला 'तीन का नियम` (रूल ऑफ थ्री) है जिसे सबसे पहले एमोरी विश्वविद्यालय (अटलांटा, अमेरिका) के प्रो. जगदीश सेठ ने पेश किया था। इस नियम के अनुसार अधिकतर स्थानीय/क्षेत्रीय बाजारों में नंबर एक अखबार (गुणवत्ता नहीं बल्कि पाठक/प्रसार संख्या के आधार पर) राजस्व और मुनाफे का बड़ा हिस्सा उड़ा ले जाता है, दूसरे नंबर का अखबार भी संतोषजनक मुनाफा कमा लेता है जबकि तीसरे नंबर का अखबार किसी तरह 'ब्रेक इवेन` यानी बहुत थोड़ा मुनाफा बना पाता है। इन तीन के अलावा बाकी सभी व्यावसायिक रूप से घाटा झेलते हैं। वे तभी चल सकते हैं जब उनका कोई और संस्करण मुनाफा कमा रहा हो या किसी और व्यवसाय से उसकी भरपाई हो रही हो।

समाचार मीडिया में इस संकेन्द्रण नतीजा अख़बारों और चैनलों के कंटेंट और कवरेज पर पड़ना तय है। जैसे-जैसे छोटे और मंझोले अख़बार और चैनल कमजोर होंगें या बंद होंगे, समाचार मीडिया में विविधता और बहुलता और काम होगी। जब कुछ ही अखबार और चैनल समूह होंगें तो जाहिर है कि पाठकों/दर्शकों को उतने ही कम विचार, दृष्टिकोण और कवरेज मुहैया होंगे। यहां एक और गौर करनेवाली बात यह है कि कुछ ही समूहों के बीच प्रतियोगिता होने के कारण कंटेंट की गुणवत्ता में वृद्धि या सुधार के बजाय एक-दूसरे के सफल फार्मूलों की नक़ल बढ़ जाती है।

टी.वी में यह नक़ल बिलकुल साफ दिखती है लेकिन अखबारों में भी धीरे-धीरे फर्क खत्म होता जा रहा है। उदाहरण के लिए टी.आर.पी में हिंदी के दो नंबर एक और दो चैनल आज तक और इंडिया टी.वी में जैसे कोई फर्क करना मुश्किल है, वैसे ही टी.ओ.आई और एच.टी में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। यही बात काफी हद तक जागरण और भाष्कर के बारे में भी कही जा सकती है।

इन चैनलों और अखबारों में मौलिकता, नयापन, विचारों और कवरेज-कंटेंट के स्तर पर विविधता और बहुलता लगातार समाप्त होती जा रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए काफी हद तक मौजूदा प्रतियोगिता और बाज़ार में होड़ में बने रहने का दबाव जिम्मेदार है। लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि आनेवाले समय में अखबारों और चैनलों में गरीबों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों के सवालों और संघर्षों की कवरेज न सिर्फ और घटती जाएगी बल्कि उनके प्रति समाचार माध्यमों का आक्रामक रवैया और "होस्टाइल" होता जायेगा।

असल में, किसी अखबार समूह की व्यावसायिक सफलता उसके अंतर्वस्तु की गुणवत्ता से कहीं अधिक मार्केटिंग की आक्रामक रणनीति से तय हो रही है। इस प्रक्रिया में अखबारों के अंदर संपादकीय विभाग का महत्व और कम हुआ है और प्रबंधन का दबदबा बढ़ा है। यहां तक कि अखबार की अंतर्वस्तु के निर्धारण में संपादकीय विभाग की भूमिका कम हुई है और मार्केटिंग मैनेजरों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है।

अधिकांश अखबार समूहों में संपादक की भूमिका मैनेजर की हो गयी है और नयी पीढ़ी के संपादकों की पहली प्राथमिकता अखबार की अन्तर्वस्तु नहीं बल्कि उसे एक 'बिक्री योग्य लोकप्रिय उत्पाद` में बदलने की है। भाषाई समाचारपत्रों में संपादक और वरिष्ठ पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने की रणनीति बनाने से लेकर एडवर्टोरियल लिखते हुए आसानी से देखा जा सकता है।

अखबार समूहों के राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय का प्रतिशत और घट गया है जबकि विज्ञापन का हिस्सा और बढ़ गया है। दरअसल, अखबार समूहों के बीच बढ़ती प्रतियोगिता के बीच पाठकों को लुभाने के लिए कीमतों में कटौती से लेकर मुफ्त उपहार आदि की आक्रामक मार्केटिंग रणनीति का असर यह पड़ा है कि अखबारों के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय का हिस्सा लगातार घटा है। स्थिति यह हो गयी है कि अंग्रेजी के बड़े अखबारों (जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स आदि) के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय 5 से 10 प्रतिशत रह गयी है।

भाषाई अखबारों में यह प्रतिशत 25 से 30 प्रतिशत है। इस तरह समाचारपत्र के कुल राजस्व में विज्ञापन का हिस्सा दो तिहाई से लेकर 90 फीसदी तक हो गया है। उल्लेखनीय है कि 25-30 वर्षों पहले तक प्रसार और विज्ञापन से होनेवाली आय का अनुपात 50:50 होता था और प्रथम प्रेस आयोग (1953) ने 127 समाचारपत्रों के सर्वेक्षण में यह अनुपात 60:40 का पाया था।

साफ है कि समाचारपत्रों की विज्ञापनों पर निर्भरता अत्यधिक बढ़ गयी है। नतीजा यह हुआ है कि अखबारों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव काफी बढ़ गया है। वे न सिर्फ अपनी शर्तें (जैसे उनकी कंपनी के बारे में नकारात्मक खबर नहीं जानी चाहिए या कोई सकारात्मक खबर छापनी होगी) थोप रहे हैं बल्कि कुलमिलाकर समाचारपत्र की अंतर्वस्तु को भी प्रभावित कर रहे हैं। अधिकांश सफल समाचारपत्रों में आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के खिलाफ समाचार/टिप्पणियों का प्रकाशन संभव नहीं है या छिटपुट और असंतुलित है।

अधिकांश अखबारों के संपादकीय पढ़ जाइए, बिना किसी अपवाद के सभी आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण का समर्थन करते हैं। इनमें से कुछ अखबार(जैसे, टाइम्स ऑफ इंडिया, इकोनॉमिक टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस आदि) तो अपने संपादकीय टिप्पणियों में न सिर्फ बहुत आक्रामक तरीके से नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का समर्थन करते हैं बल्कि इन नीतियों के विरोधियों का मज़ाक उड़ाने से लेकर उनके खिलाफ अशालीन भाषा का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाते हैं।

इन अखबारों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति इस हद तक मोह दिखाई पड़ता है कि वे उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करते हैं। यही कारण है कि इन नीतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे गरीबों, आदिवासियों, दलितों और मजदूरों के संघर्षों को जानबूझकर अनदेखा किया जाता है। सबसे ध्यान देनेवाली बात यह है कि धीरे धीरे ये सभी अखबार नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्ष में काम करनेवाले दबाव समूह में बदलते जा रहे हैं जो निरंतर केन्द्र और राज्य सरकारों को इन नीतियों को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं।

इसका एक प्रचलित तरीका यह है कि समय समय पर कुछ अखबार, पत्रिकाएं और चैनल सबसे बेहतरीन केन्द्रीय मंत्री, सबसे बेहतरीन राज्य सरकार और सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री आदि का चुनाव करते रहते हैं जिसकी सबसे प्रमुख कसौटी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का पालन होती है। यह और बात है कि अधिकांश सर्वश्रेष्ठ केन्द्रीय मंत्री, राज्य सरकारें और मुख्यमंत्री चुनाव हार जाते हैं।
 
जारी...

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