बुधवार, सितंबर 22, 2010

डराओ और कमाओ

समाचार चैनलों को दर्शकों को डराने में बड़ा मजा आता है. उन्हें लगता है कि जितना बड़ा डर, उतने अधिक दर्शक. जितना टिकाऊ डर, उतने देर चैनल से चिपके दर्शक. कहते भी हैं: “इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स.” चैनलों की दुनिया में इस कथन का सिक्का अब भी उतना ही चलता है, जितना पहले चलता था. नतीजा हम सबके सामने है. चैनल हमेशा किसी ऐसी ‘खबर’ की तलाश में रहते हैं जिससे दर्शकों को डराया और चैनल से चिपकाया जा सके. खासकर प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप, आतंकवादी हमलों के प्रति उनका ‘उत्साह’ देखते ही बनता है.

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें हर बाढ़, भूकंप या आतंकवादी हमला एकसमान उत्साहित करता है. अगर वह बाढ़, भूस्खलन, आतंकवादी हमला दिल्ली या मुंबई या पश्चिमी-उत्तरी भारत से जितनी दूर होगी, उसके प्रति चैनलों का उत्साह उसी अनुपात में कम होता चला जाता है. लेकिन अगर वह आपदा बड़े टी.आर.पी शहरों या दिल्ली-मुंबई जैसे महा(टी.आर.पी)नगरों पर आने को हो या आ जाए तो चैनलों की उत्तेजना और उत्साह का जैसे ठिकाना नहीं रहता है.

चैनलों के इस रवैये के कारण कई बार ऐसा लगता है जैसे वे विपदाओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं. उस गिद्ध की तरह जो अकाल का इंतज़ार करता रहता है ताकि उसका महाभोज हो सके. याद कीजिये, ‘पीपली लाइव’ में अकाल के बीच एक किसान की आत्महत्या की ‘खबर’ दिखाने के लिए गिद्धों की तरह पीपली गांव में उतरे चैनलों को जो नाथ जैसे किसानों के दुख-दर्द से ज्यादा लाइव आत्महत्या दिखाने को बेताब थे. हालांकि वह फिल्म थी और बहुतों को लग रहा था कि उसमें चैनलों का अतिरेकपूर्ण चित्रण किया गया है.

लेकिन शायद अब अतिरेक और चैनल एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि चैनलों ने पिछले दिनों जैसे ही दिल्ली में “बाढ़” की ‘संभावना’ देखी, वे उसे भुनाने के लिए यमुना में कूद पड़े. स्टार राजनीतिक रिपोर्टरों से लेकर नत्थू-खैरे रिपोर्टर तक यमुना में उतर पड़े. कोई लाइफ जैकेट और नाव के साथ डूबती दिल्ली की खोज-खबर ले रहा था तो कोई घुटने भर और कोई कमर भर पानी में खड़ा होकर चढ़ती यमुना की पल-पल की खबर देने लगा. गोया खतरे का निशान उनके साढ़े पांच फुट के शरीर पर बना हो.

बिल्कुल फ़िल्मी दृश्य. वही नाटकीयता, सस्पेंस (आपके घर से कितना दूर है पानी), रिपोर्टरों की उत्तेजना और थरथराहट से फटी जा रही आवाज़, कैमरे के कमाल से वास्तविकता से कहीं ज्यादा उफनती यमुना और रही-सही कसर पूरा करते स्टूडियो में बैठे भाषा के खिलाड़ी- ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली में प्रलय आ गई हो. हालांकि बाढ़ तो न आनी थी और न आई लेकिन चैनलों ने अपनी उत्तेजना और उत्साह में दिल्ली को बाढ़ में डुबोने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी.

जाहिर है कि चैनल दिल्ली को डूबाने वाली बाढ़ लाने में इसलिए लगे थे क्योंकि वे लोगों को डराकर अधिक से अधिक दर्शक जुटाने और उसकी टी.आर.पी को भुनाने की कोशिश कर रहे थे. असल में, समाचार चैनलों को सबसे आसान और सस्ता तरीका यह लगता है कि लोगों को किसी भी तरह से डराकर चैनल से चिपकाये रखा जाए. इसके लिए वे कई बार कुछ हद तक वास्तविक और आम तौर पर बहुत बनावटी खतरे गढ़ते हैं लेकिन मकसद दर्शकों को आश्वस्त करना नहीं बल्कि उनमें और अधिक घबराहट, बेचैनी और खौफ पैदा करना होता है.

दरअसल, कई शोध सर्वेक्षणों और विशेषज्ञों का मानना है कि आमतौर पर समाचारों के कम लेकिन निश्चित दर्शक होते हैं लेकिन किसी राजनीतिक, सामुदायिक या प्राकृतिक संकट के समय दर्शकों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है. खासकर अगर वह संकट सीधे दर्शकों के खुद और अपने करीबियों और उनके जीवन और भविष्य से जुड़ा हो तो उनकी उत्सुकता, बेचैनी, संलग्नता और सक्रियता बहुत बढ़ जाती है. इसका सीधा कारण लोगों के मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है.

माना जाता है कि लोग समाचार इसलिए भी पढ़ते-देखते-सुनते है क्योंकि वह हमारे अंदर बैठे “अज्ञात के भय” से निपटने में मदद करता है. समाजशास्त्रियों के मुताबिक सभ्यता की शुरुआत से ही लोग समाचारों में इसलिए दिलचस्पी लेते रहे हैं क्योंकि यह उन्हें अपने सीधे प्रत्यक्ष अनुभव से इतर “अज्ञात के भय” से निगोशिएट करने में मदद करता है. लोग हर उस खबर को जानना चाहते हैं जो किसी भी रूप में चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष उन्हें और उनके करीबियों को प्रभावित कर सकती है.

लेकिन चैनलों की इस “डराओ और उससे कमाओ” नीति का पहला शिकार तथ्य होते हैं. इसमें तथ्यों और वास्तविकता के बजाय मनमुताबिक तथ्य और वास्तविकता गढ़ने की कोशिश की जाती है. तथ्यों और वास्तविकता को हमेशा परिप्रेक्ष्य और उसकी पृष्ठभूमि से काटकर पेश किया जाता है. इस सबकी कीमत अंततः उनके दर्शक ही चुकाते हैं. कारण, ऐसी खबरों से अफवाहों को पैर मिल जाते हैं. लोग घबराहट में उल्टे-सीधे फैसले करने लगते हैं. राहत और बचाव में लगी एजेंसियों के लिए अपना काम करना मुश्किल होने लगता है.

लेकिन इधर अच्छी बात हुई है कि लोग चैनलों के इस खेल को समझने लगे हैं. अब बारी चैनलों के डरने की है.

(तहलका, 30 सितम्बर'10)

1 टिप्पणी:

ओशो रजनीश ने कहा…

मिडिया के पास अब कुछ बचा ही नहीं तो और क्या करेंगे ....

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