सोमवार, सितंबर 06, 2010

खबरों के सौदे के खतरे

सिर्फ पेड न्यूज ही नहीं, खबरों की खरीद-फरोख्त के और कई तरीके हैं जो वास्तव में पेड न्यूज की जड़ में हैं...

पाक्षिक पत्रिका “प्रथम प्रवक्ता” के मुताबिक दिल्ली में होनेवाले राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के कर्ता-धर्ताओं को कुछ महीनों पहले देश के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार समूह की ओर ‘पार्टनरशिप’ का प्रस्ताव मिला था. अगर उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया होता तो पिछले कई सप्ताहों से उस अखबार समूह और उसके न्यूज चैनल में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और कुव्यवस्था की सुर्ख़ियों के बजाय शायद यह छप और दिखाया जा रहा होता कि आयोजन समिति कितना बेहतर काम कर रही है और कैसे दिल्ली में अब तक के सबसे शानदार राष्ट्रमंडल खेल आयोजित होंगे. यही नहीं, तब शायद सुर्ख़ियों में सुरेश कलमाड़ी की गडबडियों, अक्षमताओं और अनियमितताओं के बजाय उनकी नेतृत्व और आयोजन क्षमता की तारीफों के पुल बांधे जा रहे होते.

हालांकि एकबारगी इस रिपोर्ट पर यकीन नहीं होता है, हैरानी होती है और उसे पचा पाना थोड़ा मुश्किल लगता है लेकिन पेड न्यूज और प्राइवेट ट्रीटी के युग में शायद अब कुछ भी असंभव नहीं रह गया है. पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ गंगा-यमुना में बहुत पानी बह गया है और दोनों नदियां गन्दा नाला बनती जा रही हैं वैसे ही ‘मानो या न मानो लेकिन यह सच है’ की तर्ज पर मीडिया कंपनियों में भी बहुत बदलाव आया है. कई दशकों पहले ‘आछे दिन, पाछे गए’ की पराड़कर जी की भविष्यवाणी के मुताबिक अब अखबार और न्यूज चैनल खूब चमकीले-चमकदार तो हो गए हैं लेकिन वे लोगों को देश-समाज और राजकाज के बारे में सूचित और शिक्षित करने के लिए खबरें नहीं देते हैं बल्कि उनका मकसद खबरों के इस व्यवसाय से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना हो गया है.

नतीजा हम-सबके सामने है. खबरों के बाजार में अब दबे-छुपे नहीं, खुलेआम ‘खबरों का सौदा’ हो रहा है. तात्पर्य यह कि खबरें बिकाऊ हो गई या बना दी गई हैं और कहिये कि उन्हीं खबरों का महत्व रह गया है जो बिकाऊ हैं. खबरों को बिकाऊ बनाने के लिए उनमें नमक-मिर्च-मसाला लगाने और मिलावट को जरूरी मान लिया गया है. वे दिन कब के गए जब खबर की इतनी पवित्रता थी या कम-से-कम मानी जाती थी कि उससे छेडछाड, जोड़तोड़ और मिलावट को लगभग ईशनिंदा के बराबर माना जाता था. कहते हैं कि समाचार और विज्ञापन के बीच चर्च की दीवार थी. दोनों के बीच घालमेल की मनाही थी. हालांकि पत्रकारिता की आचार संहिताएं तब और अब भी कहती हैं कि समाचार को बिना किसी मिलावट के सच्चाई, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और संतुलन के साथ पाठक तक पहुँचाया जाना चाहिए.

लेकिन लगता है कि वह कोई और ही युग था, अब नहीं है. निश्चय ही, इस नए कारपोरेट मीडिया युग की शुरुआत का श्रेय सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार समूह के मालिक को जाना चाहिए जिन्होंने डंके की चोट पर दावा किया कि किसी भी अन्य उत्पाद यानी साबुन, टूथ पेस्ट आदि की तरह समाचार भी एक उत्पाद है. इसके बाद तो खबरों की बिक्री के लिए उन्हें मनोरंजक, हल्का-फुल्का और सनसनीखेज बनाने से लेकर उनकी पैकेजिंग, मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर जोर बढ़ने लगा. संपादकों की भूमिका सीमित और मार्केटिंग मैनेजरों की हैसियत बढ़ती गई. फिर अपने स्वभाव और जिम्मेदारी के मुताबिक मैनेजरों ने संस्थानिक तौर पर खबरों की खरीद-बिक्री के लिए ऐसी-ऐसी स्कीमें शुरू कीं कि ‘खबर’ की कब्र खोद डाली.

लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि आलोचनाओं के बावजूद उनकी जबरदस्त व्यावसायिक सफलता की ही तार्किक परिणति अब पेड न्यूज के रूप में सामने आई है. इस प्रवृत्ति ने देखते-देखते इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर मुख्यधारा के समूचे समाचार मीडिया को अपनी चपेट में ले लिया है. खबरों की खरीद-बिक्री में अब समाचार मीडिया कंपनियों को कोई संकोच नहीं रह गया है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पेड न्यूज पर पिछले साल-डेढ़ साल में इतना हंगामा होने के बावजूद प्रेस काउन्सिल की दो सदस्यी जांच समिति की रिपोर्ट को कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों के दबाव में सिर्फ इसलिए अभिलेखागार में डाल दिया गया क्योंकि उसने पेड न्यूज के भ्रष्टाचार में शामिल अखबारों और नेताओं का नाम लिया था. ऊपर से मजाक यह कि प्रेस काउन्सिल ने एक ऐसी नख-दन्त विहीन रिपोर्ट पेश की जिसमें पेड न्यूज के दोषियों का कोई जिक्र नहीं है.

सलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार समूह ने राष्ट्रमंडल खेलों के कर्ता-धर्ताओं को ‘पाजिटिव कवरेज’ (ख़बरें खरीदने) का प्रस्ताव रखा था और उसे स्वीकार न करने का खामियाजा कलमाड़ी एंड कंपनी उठा रही है. यह कहने का आशय यह कतई नहीं है कि राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति और उसके अधिकारी दूध के धुले हैं. सच तो यह है कि आयोजन में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और बद-इन्तजामियों की जो रिपोर्टें अखबारों और चैनलों पर आई हैं, वे राष्ट्रमंडल महाघोटाले के आइसबर्ग की टिप भर हैं. लेकिन यहां मुद्दा यह नहीं बल्कि यह है कि अगर राष्ट्रमंडल खेलों के कर्ता-धर्ताओं ने लूट में बड़े अखबार समूहों और चैनलों को पार्टनर बना लिया होता तो देश को राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन सम्बन्धी जो पाजिटिव पी.आर ‘खबरें’ दिन-रात चलतीं, उनसे शायद महाघोटाले की टिप का भी पता नहीं चलता.

निश्चय ही, खेलों के इतने भारी बजट के बावजूद कलमाड़ी एंड कंपनी जरूर अफसोस कर रही होगी कि उसने ‘खबरें’ पहले क्यों नहीं खरीदीं? लेकिन देर से ही सही, लगता है कि केन्द्र और दिल्ली सरकार के साथ-साथ राष्ट्रमंडल खेलों के कर्ता-धर्ताओं को पेड न्यूज के महत्व का अंदाज़ा हो गया है और ऐसा लगता है कि बड़े मीडिया समूहों को बड़ी ख़ामोशी से यथाशक्ति खबरों की कीमत चुकाकर चुप किया जा रहा है. ऐसा अनुमान लगाने के पीछे कारण पिछले कुछ दिनों में राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं सम्बन्धी खबरों की सुर्ख़ियों में आई गिरावट है. आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ दिनों में ऐसी क्रिटिकल खबरें पूरी तरह से गायब हो जाएं और पेड न्यूज के रूप में पाजिटिव कवरेज छा जाए. आखिर पेड न्यूज की यही तो ताकत है.

यह उसी की ताकत है जिसने समाचार माध्यमों को अपनी पहरेदार (वाचडाग) की भूमिका छोड़कर राजनीतिक और कारपोरेट सत्ता के आगे दुम हिलाने के लिए मजबूर कर दिया है. यह पेड न्यूज का ही प्रभाव है कि ताकतवर और प्रभावशाली लोगों के लिए खबरों को अपने अनुकूल मैनेज करने में सक्षम बना दिया गया है. इसकी पहुंच और प्रभाव का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अखबारों और चैनलों में ताकतवर लोगों के खिलाफ रोज जितनी खबरें छपती हैं, उससे अधिक किसी के पक्ष में छपती/दिखाई जाती हैं और उससे भी अधिक दबा या तोड़-मरोड़ दी जाती हैं. दरअसल, वह समाचार माध्यमों में एक ऐसा दुर्भेद्य फ़िल्टर बन गया है जिससे निकलकर किसी भी सही, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और पक्षपातरहित समाचार के लिए पाठकों/दर्शकों तक पहुंच पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है.

लेकिन जैसे खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिए घातक है और उनके भरोसे के साथ खिलवाड़ है, वैसे ही समाचारों में यह मिलावट और खरीद-बिक्री पाठकों/दर्शकों के मानसिक स्वास्थ्य (जानकारी, समझदारी और सरोकार) के लिए नुकसानदेह है और उनके भरोसे को तोड़ना है. यह लोकतंत्र के लिए भी घातक है जिसका एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, विविधता और बहुलतापूर्ण समाचार मीडिया के बिना जीवित रहना लगभग असंभव है. लेकिन चिंता की बात यह है कि पेड न्यूज और उसके विभिन्न रूप समाचार मीडिया की इस स्वतंत्रता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता का ही सौदा कर रहे हैं. एक मायने में, समाचार मीडिया संस्थान पाठकों/दर्शकों के जानने के हक और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का सौदा कर रहे हैं जिससे उन्हें चाहे जितना मुनाफा हो लेकिन सबसे अधिक घाटे में पाठक/दर्शक ही रहते हैं.

जाहिर है कि इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. समय आ गया है कि सबसे जवाबदेही की मांग करनेवाले समाचार मीडिया से भी जवाबदेही की मांग की जाए. यह लोकतंत्र का तकाजा है और एक स्वस्थ, स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के लिए अनिवार्य भी है. लोकतंत्र में किसी को भी बिना जवाबदेही के इतनी ताकत नहीं दी जा सकती है. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि पेड न्यूज और उसके विभिन्न रूपों के इस्तेमाल के खिलाफ और उसके दोषी मीडिया संस्थानों पर कार्रवाई की मांग को लेकर केंद्र सरकार और प्रेस काउन्सिल/चुनाव आयोग/सेबी/एडिटर्स गिल्ड जैसी नियामक और प्रोफेशनल संस्थाओं पर दबाव बढ़ाया जाए. इस मुद्दे को अब और नजरंदाज करना ठीक नहीं है.

अच्छी बात यह है कि प्रेस काउन्सिल के ढुलमुल रवैये के बावजूद पेड न्यूज और उसके विभिन्न रूपों को लेकर सार्वजनिक प्रतिरोध और बहस कमजोर नहीं पड़ी है. यही नहीं, झिझकते हुए ही सही लेकिन चुनाव आयोग और सेबी जैसी नियामक संस्थाओं ने हाल में पेड न्यूज और उसके अन्य रूपों पर अंकुश लगाने के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए हैं. चुनाव आयोग ने बाकायदा सर्कुलर निकलकर सभी राज्यों के निर्वाचन अधिकारियों को पेड न्यूज पर कड़ी नजर रखने को कहा है. चुनाव आयोग ने अपने निर्देश में पेड न्यूज एक गंभीर चुनावी अनियमितता बताते हुए उसकी रोकथाम के लिए राज्य और जिला निर्वाचन अधिकारियों को कई कदम उठाने को कहा है. इन निर्देशों की पहली परीक्षा बिहार विधानसभा चुनावों में होगी. उम्मीद करनी चाहिए कि पेड न्यूज के कई माहिर खिलाड़ी समाचार समूहों की मौजूदगी के बावजूद न सिर्फ चुनाव आयोग सख्ती दिखायेगा बल्कि पत्रकार और नागरिक समाज के लोग भी खबरों की खुली और दबी-छिपी खरीद-बिक्री के खेल का पर्दाफाश करने में पीछे नहीं रहेंगे.
दूसरी ओर, इस सिलसिले में शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी के उस ताजा निर्देश का भी स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें उसने सभी मीडिया कंपनियों के लिए यह सार्वजनिक घोषणा या खुलासा करना अनिवार्य कर दिया है कि उनका अन्य किस कंपनी/कंपनियों में हिस्सेदारी है. इस निर्देश के मुताबिक अगर किसी मीडिया कंपनी की किसी अन्य कंपनी में हिस्सेदारी है तो उसके अखबार/चैनल को उस कंपनी के बारे में कोई समाचार/रिपोर्ट/संपादकीय/लेख/टी.वी चर्चा करते हुए यह अनिवार्य रूप से बताना होगा कि उसका उस कंपनी में कितना हिस्सा है. यही नहीं, मीडिया कंपनियों को अपनी वेबसाइट पर अन्य कंपनियों के साथ किए गए उन प्राइवेट ट्रीटी के बारे में पूरा ब्यौरा देना होगा जो वास्तव में, पेड न्यूज का ही एक संस्थागत रूप है.

यहां उल्लेखनीय है कि प्राइवेट ट्रीटी एक ऐसी स्कीम है जिसमें कोई कंपनी किसी मीडिया कंपनी को अपनी मार्केटिंग, ब्रांडिंग और प्रचार के लिए नकद का भुगतान न करके कुछ हिस्सेदारी (१० से २० प्रतिशत शेयर) दे देती है. आम तौर पर ऐसी गैर-मीडिया कंपनियां या तो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं या उसकी तैयारी कर रही होती हैं. जाहिर है कि जब मीडिया कंपनी किसी अन्य कंपनी में हिस्सेदार हो जाती है तो उसका पूरा जोर उस कंपनी की वैल्यू में बढ़ोत्तरी पर होता है क्योंकि इसी से उसके अपने शेयरों की भी कीमत बढ़ती है. इसके लिए मीडिया कंपनी उस पार्टनर कंपनी का न सिर्फ विज्ञापन और मार्केटिंग करती है बल्कि उसके बारे में ‘सकारात्मक खबरें’ (पाजिटिव कवरेज) भी छापती/दिखाती है. साफ है कि यह पेड न्यूज का ही एक और रूप है क्योंकि पाठक/दर्शक को यह पता नहीं होता है कि अखबार/चैनल में जिस कंपनी और उसके उत्पादों की इतनी प्रशंसा छपी/दिखाई जा रही है, वह कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष राय नहीं है बल्कि उस कंपनी द्वारा खरीदी हुई ‘खबर’ है.

सेबी का कहना है कि यह साफ तौर पर निवेशकों के साथ धोखाधड़ी है और साथ ही, हितों के टकराव का भी मामला है. उसका यह भी मानना है कि मीडिया कंपनियों द्वारा बिना पर्याप्त और स्पष्ट खुलासे के ब्रांडिंग की यह रणनीति न तो निवेशकों के हित में है और न ही वित्तीय बाजार के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त है. सेबी का तर्क है कि जब पत्रकारों और विशेषज्ञों पर वित्तीय बाजार में कंपनियों पर रिपोर्टिंग या चर्चा के दौरान उनमें अपनी हिस्सेदारी या हितों का खुलासा करना जरूरी है तो यही नियम मीडिया कंपनियों पर भी क्यों नहीं लागू किया जाना चाहिए. निश्चय ही, कई मीडिया समूहों की प्राइवेट ट्रीटी जैसी स्कीमों को लेकर सेबी के सवाल और चिंताएं स्वाभाविक हैं और यह समाचार मीडिया की जवाबदेही और शुचिता को सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी हो गया है कि मीडिया कंपनियां प्राइवेट ट्रीटी जैसी स्कीमों के बारे में सम्पूर्ण और स्पष्ट सार्वजनिक खुलासे के उसके निर्देशों का अक्षरश: और उसकी भावना के मुताबिक पालन करें.

यह इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि खबरों की खरीद-बिक्री सीधे-सीधे हमारे-आपके जानने के अधिकार का मखौल उड़ा रही है. आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजी के उसी बड़े अखबार ने पिछले पखवाड़े पुणे के पास बन रहे ‘आज़ाद भारत के पहले निजी हिल स्टेशन’-लवासा के बारे में केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय की महाराष्ट्र सरकार से पर्यावरण मंजूरी सम्बन्धी पूछताछ की खबर को पूरी तरह से दबा दिया. इसके उलट विवाद शुरू होने के बाद उसने अखबार में लवासा के बारे में करीब आधा दर्जन आधे पृष्ठ के विज्ञापन छापे. आखिर क्यों? ज्यादा अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है. उस अखबार समूह का लवासा की प्रोमोटर कंपनी के साथ प्राइवेट ट्रीटी है. यहां तक कि इस महान अखबार ने सेबी के ताजा निर्देशों की खबर को भी ब्लैकआउट कर दिया. यह बिल्कुल ताजा उदाहरण है लेकिन आज के कारपोरेट मीडिया में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है.
(जनसत्ता, 3 सितम्बर'10)

2 टिप्‍पणियां:

माधव( Madhav) ने कहा…

comprehensive analysis, eye opener

Unknown ने कहा…

सर ,
खबरों के होते बाजारीकरण के इस दौर में एक आम पाठक क्या कर सकता है ,वह इस समस्या से कैसे लड़ सकता है.
आपका छात्र
दिवाकर
आर टीवी