आनंद प्रधान
कारपोरेट मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद के इस बयान पर कारपोरेट जगत में हंगामा खड़ा हो गया है कि कम्पनियों को अपने आला अधिकारियों और मैनेजरों को ’’अश्लील’’ तनख्वाह देने से बचना चाहिए। श्री खुर्शीद का तर्क है कि जब सरकार बचत और सादगी पर जोर दे रही है तो वह कारपोरेट क्षेत्र के मैनेजरो की तनख्वाहों के प्रति आंखें मूंदे नही रह सकती है। उनके इस बयान पर कारपोरेट क्षेत्र की बेचैनी और नाराजगी छुपाए नही छुप रही है। हालांकि जाहिरा तौर पर कारपोरेट और औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों ने खुर्शीद के इस बयान का स्वागत किया है लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से साफ है कि उन्हें कारपोरेट क्षेत्र की तनख्वाहों और दूसरे भत्तों-सुविधाओं पर किसी भी तरह की पाबंदी स्वीकार नही है।
कारपोरेट क्षेत्र में तनख्वाहों पर किसी भी किस्म की पाबंदी या सीमा तय करने के विरोधी उद्योगपतियों और मैनेजरों का यह कहना है कि जब एक क्रिकेटर को विज्ञापनों आदि के जरिये सालाना 180 करोड़ रूपए से अधिक की आमदनी हो रही है तो उस पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जाता, फिर उससे कम तनख्वाह पाने वाले कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (सीईओ) और मैनेजरों की तनख्वाहों पर सवाल क्यों खड़ा किया जा रहा है? उनका यह तर्क है कि निजी क्षेत्र में मैनेजरों और अधिकारियों का वेतन उनकी योग्यता,कार्य क्षमता और प्रदर्शन के आधार पर तय किया जाता है और इसमें सरकार को हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नही है।
उनका यह भी कहना है कि कारपोरेट क्षेत्र मैनेजरों के अच्छे प्रदर्शन को प्रोत्साहित करने के लिए उंची तनख्वाहें देता है। इस तरह, जो सीईओ कम्पनी को जितना अधिक मुनाफा कमवाता है, उसे पुरस्कार के रूप में उतनी उंची तनख्वाह मिलती है। इससे किसी को क्यों शिकायत होनी चाहिए? उनकी दलील है कि कम्पनियों को प्रतिभाशाली मैनेजरों को आक्रर्षित करने के लिए उंची तनख्वाहें देनी पड़ती हैं। इसमें में भी मांग और आपूर्ति का नियम काम करता है। बाजार में प्रतिभाशाली मैनेजर कम हैं, इसलिए उनकी कीमत उंची है। यही नहीं, उनका यह भी तर्क है कि यह कम्पनियों का अंदरूनी मामला है। इसमें सरकार की कोई भूमिका नही है।
कहने की जरूरत नही है कि कारपोरेट क्षेत्र में दी जानेवाली उंची और मोटी तनख्वाहों के पक्ष में दिये जानेवाले ये तर्क नये नही हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ वर्षों खासकर वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की शुरूआत के बाद देश के अंदर और बाहर यह मुद्दा काफी जोर-शोर से उठने लगा है। वित्तीय संकट के बाद अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में पिछले एक साल में यह सवाल सबसे तीखी बहस का मुद्दा बन चुका है। यहां तक कि अभी पिछले पखवाडे़ अमेरिका के पीट्सबर्ग में जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में भी इस मुद्दे पर न सिर्फ चर्चा हुई बल्कि वित्तीय क्षेत्र की कम्पनियों के आला मैनेजरों की तनख्वाहों को निश्चित सीमा में रखने का फैसला किया गया है।
यह फैसला करने की जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में निजी क्षेत्र की कम्पनियों ने अपने सीईओ और दूसरे आला मैनेजरों को भारी मुनाफा कमाने की एवज में इस हद तक मनमानी तनख्वाहें और भत्ते आदि दिये हैं कि उनमें और अधिक मुनाफा बनाने के लिए अनुचित तौर तरीके अपनाने और अत्यधिक जोखिम लेने की होड़ शुरू हो गयी। इसकी देखा-देखी अधिकांश कम्पनियों में आला मैनेजरों में तात्कालिक और लघु अवधि के लिए अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के वास्ते अत्यधिक जोखिम लेने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि तात्कालिक तौर पर तो इन कम्पनियों ने भारी मुनाफा कमाया लेकिन दीर्घकालिक तौर पर ऐसे संकट में फंसी कि एक के बाद एक दिवालिया होने लगीं और पूरी अर्थव्यवस्था को ही संकट में फंसा दिया।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि मौजूदा वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी बड़ी कम्पनियों के आला मैनेजरों की इसी लालच और मनमानी का नतीजा है। लेकिन मजे की बात यह है कि जब कम्पनियां डूबने लगीं और सरकार से बचाव और बेल-आउट पैकेज की मांग करने लगीं तो उस समय किसी ने यह नहीं पूछा कि उन आला मैनेजरों को इसकी क्या सजा मिलनी चाहिए? आखिर मुनाफे के बदले में मोटी तनख्वाह के तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो घाटे की सजा क्यों नही होनी चाहिए? यही कारण है कि पूरी दुनिया में आर्थिक विशेषज्ञों और नीति नियंताओं में यह समझ बनी है कि भविष्य में मौजूदा आर्थिक संकट और मंदी जैसी स्थिति को फिर से पैदा होने से रोकने के लिए कारपोरेट क्षेत्र के सख्त विनियमन (रेग्यूलेशन) की जरूरत है। इसके तहत अत्यधिक जोखिम लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के वास्ते आला मैनेजरों की तनख्वाहों पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए।
जाहिर है कि भारत का कारपोरेट क्षेत्र इस समझ का अपवाद नही है। सत्यम जैसे घोटालों के सामने आने के बाद निदेशकों और आला मैनेजरों की भूमिका वैसे भी सवालों के घेरे में है। यही नहीं, भारत जैसे देश के लिए इस सवाल का एक नैतिक पक्ष भी है। एक ऐसे देश में, अगर किसी सीईओ को एक करोड़ रूपए से अधिक की सालाना तनख्वाह मिल रही हो जो एक आम भारतीय की औसत सालाना आय (38084 रूपए सालाना) से 262 गुना अधिक हो तो उसका नैतिक औचित्य साबित करना बहुत मुश्किल है। यहीं नहीं, जिस देश की 78 फीसदी आबादी सालाना 7200 रूपए से भी कम की आय पर गुजर बसर कर रही हो, वहां एक सीईओ को उससे 1388 गुना अधिक तनख्वाह देने का क्या औचित्य हो सकता है?
लेकिन आपको यह जानकर हैरत होगी कि पिछले वर्ष आर्थिक मंदी और व्यापक पैमाने पर कामगारों की छंटनी के बावजूद शेयर बाजार में पंजीकृत कम्पनियों में एक करोड़ रूपए से अधिक आय वाले निदेशकों की संख्या बढ़कर 640 पहुंच गयी जबकि उसके पिछले साल उनकी संख्या 570 थी। यही नहीं, एक अनुमान के मुताबिक ऐसे आला मैनेजरों की संख्या लगभग 3000 से अधिक बताई जा रही है जिनकी सालाना तनख्वाह एक करोड़ रूपए से अधिक है। उन मालिक मैनेजरों की तादाद भी सैकड़ो में है जो अपनी कम्पनियों से दस से लेकर 50 करोड़ रूपए सालाना कमा रहे हैं। एक गरीब देश में जहां 78 फीसदी आबादी 20 रूपए प्रतिदिन से कम पर गुजारा करने के लिए मजबूर हो, वहां किसी सीईओ को प्रतिदिन 27 लाख रूपए मिलें, उससे अधिक अश्लील चीज और क्या हो सकती है? क्या इसपर पाबंदी लगाने का समय नही आ गया है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें