आनंद प्रधान
गृहमंत्री पी चिदम्बरम की अगुवाई में गृह मंत्रालय कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गया है। इस अधिक और दायरे से बाहर जा रही सक्रियता का ताजा उदाहरण है- प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ’द टाइम्स आफ इंडिया’ के दो पत्रकारों के खिलाफ इस आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज कराने का फैसला कि उन्होंने भारत-चीन सीमा पर चीनी सैनिकों और भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) के बीच कथित फायरिंग में आइटीबीपी के दो जवानों के ’घायल’ होने की मनगढंत खबर दी। गृह मंत्रालय का यह फैसला न सिर्फ हैरान करनेवाला और अपनी सीमा लांघनेवाला है बल्कि उसमें स्वतंत्र पत्रकारिता के खिलाफ बदले की भावना की बू भी आती है। अगर खुद गृह मंत्रालय इस तरह से पत्रकारों के खिलाफ बात-बात पर एफआईआर दर्ज कराने लगेगा तो इससे न सिर्फ प्रेस परिषद जैसी वैद्यानिक संस्था बेमानी हो जाएगी बल्कि पत्रकारों के लिए ’बिना किसी भय या लोभ’ के स्वतंत्र पत्रकारिता करना भी मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन यह कहने के बाद समाचार मीडिया के बड़े हिस्से के इस व्यवहार पर भी बात करना जरूरी है जो स्वतंत्र और जिम्मेदार पत्रकारिता के दायरे में नहीं आता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज कराने का गृह मंत्रालाय का फैसला जितना हैरान करने और अपनी सीमा लांघनेवाला है उससे कम चिंचित और हैरान करनेवाला व्यवहार समाचार मीडिया का नहीं है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों चीन के खिलाफ एक सुनियोजित सा दिखनेवाला संगठित प्रचार (प्रोपेगैंडा) अभियान छेड़ रखा है। इस अभियान के तहत कथित चीनी घुसपैठ की खबरों को न सिर्फ बहुत बढ़ा चढ़ाकर दिखाया और बताया जा रहा है बल्कि कुछ बिल्कुल झूठी और मनगढंत (उदाहरण के लिए चीनी सेना और आइटीबीपी के बीच फायरिंग) खबरें भी दी जा रही हैं। यह सचमुच,हैरान और संदेह पैदा करनेवाली बात है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि समाचार मीडिया के एक हिस्से में चीन विरोधी खबरों की न सिर्फ भरमार हो गयी बल्कि उन्हें इस तरह से उछाला जा रहा है?
हद तो यह हो गयी कि समाचार मीडिया के एक हिस्से ने चीन के खिलाफ एक तरह का युद्वोन्मादी माहौल तैयार करना शुरू कर दिया। निश्चय ही, यह किसी भी तरह से जिम्मेदार पत्रकारिता नही है। इस पत्रकारिता में न सिर्फ पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों यानी तथ्यों की शुद्धता, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता का ध्यान नही रखा जा रहा है बल्कि इसमें कुछ निहित स्वार्थो और हित समूहों के एजेंडे को आगे बढ़ाने की मंशा के साथ चीन विरोधी प्रोपेगैंडा अभियान चलाया जा रहा है। कहने की जरूरत नही है कि इस तरह के अभियानों से दो देशों के संबंधों पर कितना बुरा असर पड़ रहा है। अफसोस की बात यह है कि भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से में आमतौर पर पाकिस्तान और अक्सर चीन के खिलाफ चलाये जा रहे इन अभियानों के कारण इन दोनों पड़ोसी देशों के साथ भारत के पहले से चले आ रहे जटिल संबंधों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया कितनी कठिन हो गयी है।
यह भी सच है कि इस तरह का माहौल बनाने में सरकार और राजनीतिक दलों की भी भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। चीन के मामले में ही जितनी खबरें छपी वे सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर से ही निकली और उनका खंडन करने में सरकार ने जानबूझकर बहुत देर लगाई। सच तो यह है कि इस मामले में सरकार और सरकार से बाहर बैठे लोगों ने मीडिया का इस्तेमाल किया। और उसके बाद उसे ही जिम्मेदार भी ठहरा दिया। लेकिन सवाल यह है कि मीडिया ने इसका मौका ही क्यों दिया ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें