आनंद प्रधान
आज जब अमेरिकी शहर पीट्सबर्ग में समूह 20 (जी-20) के विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्राध्यक्ष एक साथ बैठेंगे तो निश्चय ही उनके चेहरों पर वह बेचैनी और घबराहट नही होगी जो पिछले साल वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की मार के बीच नवम्बर में वाशिंगटन में आयोजित जी-20 देशों की पहली विशेष बैठक के दौरान दिख रहा था। पिछले एक साल के दौरान वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी से निपटने के लिए जी-20 देशों की यह तीसरी शिखर बैठक है। इस बीच, पिछले कुछ महीनों में वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार के प्रारंभिक संकेत दिखाई पड़ने लगे हैं। हालांकि सुधार की गति और व्यापकता को लेकर विशेषज्ञों में मतभेद बने हुए हैं लेकिन इतना सभी स्वीकार कर रहे हैं कि वैश्विक वित्तीय संकट का सबसे बदतर समय निकल चुका है।
इस कारण स्वाभाविक है कि जी-20 देशों के राष्ट्राध्यक्ष न सिर्फ संकट काबू में आ जाने की वजह से राहत महसूस कर रहे हैं बल्कि उनमें से कई निश्चिंत भी दिख रहे हैं। हालांकि इस शिखर बैठक में जलवायु परिवर्तन समेत और कई मुद्दों पर चर्चा होनी है, इसके बावजूद इसमें सबसे बड़ा सवाल यही बना हुआ है कि वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी से बाहर निकल रही वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने और उनमें आ रहे शुरुआती सुधार की गति को संभालने के लिए और क्या किया जाए? सवाल यह भी है कि वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी से निपटने के लिए जी-20 के पिछले शिखर सम्मेलनों में जो फैसले किए गये थे, उन्हें कितनी ईमानदारी से लागू किया जा रहा है?
असल में, ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गये हैं क्योंकि वैश्विक खासकर अमेरिकी और यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सुधार के प्रारंभिक लक्षणों के दिखाई देने के बाद से विकसित देशों में एक तरह की निश्चिन्तता आती दिखाई दे रही है। उन्हें यह लग रहा है कि जब स्थितियां सुधरने लगी हैं तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर अतिरिक्त चिंता करने की अब कोई खास जरूरत नही रह गयी है। इस कारण अमेरिका और यूरोपीय संघ समेत जी-20 के कई विकसित देश उन वायदों और फैसलों को पूरा करने से पीछे हटते दिखाई दे रहे हैं जो उन्होंने वित्तीय संकट से निपटने के दौरान किए थे।
उदाहरण के लिए, विकसित देशों ने वित्तीय संकट से निपटने के लिए हुए जी-20 के शिखर सम्मेलनों में वायदा किया था कि एक नया अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचा तैयार किया जाएगा। इसके तहत न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था की सख्त निगरानी और नियमन के उपाय किये जाने का फैसला किया गया था बल्कि यह भी वायदा किया गया था कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को और लोकतांत्रिक और व्यापक आधार वाला बनाने के लिए उसमें विकासशील देशों को और अधिक हिस्सा और अधिकार दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि ये दोनों संस्थाएं इस हद तक अलोकतांत्रिक और विकसित देशों की कठपुतली बनी हुई हैं कि उनमें विकासशील देशों का न सिर्फ मताधिकार बहुत सीमित है बल्कि विश्व बैंक का अध्यक्ष हमेशा कोई अमेरिकी नागरिक और आईएमएफ का अध्यक्ष यूरोपीय होता है।
यही कारण है कि विकासशील देशों की ओर से बहुत लंबे समय से यह मांग चली आ रही है कि विश्व बैंक खासकर आईएमएफ में विकासशील देशों की भागीदारी बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ के मतभार को मौजूदा 40 फीसदी से घटाकर कम किया जाए क्योंकि यूरोपीय संघ का आज दुनिया की अर्थव्यवस्था मे हिस्सा सिर्फ 25 फीसदी रह गया है। जी-20 के लंदन शिखर सम्मेलन में यह तय हुआ था कि विश्व बैंक और आइएमएफ में भारत और चीन जैसे विकासशील देशों की हिस्सेदारी मौजूदा दो और तीन फीसदी से बढाई जाय। लेकिन अब जब वैश्विक अर्थव्यवस्था पटरी पर आती हुई दिखाई दे रही है तो विकसित देश अपने वायदे से पीछे हटते हुए दिखाई दे रहे हैं।
यही नहीं, विकसित देश नई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था और उसकी सख्त निगरानी और नियमन के फैसलो को लागू करने को लेकर बहुत उत्सुक नही दिखाई दे रहे है। कुल मिलाकर विकसित देशों का रूख संकट गुजर जाने के बाद निश्चिन्तता और पहले की तरह जारी कारबार का हो गया है। इसके कारण वे मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गये हैं या उन्हें अनदेखा किया जा रहा है जिनके कारण पिछले साल वित्तीय संकट पैदा हुआ था। अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था खासकर बडी वित्तीय कम्पनियों और संस्थाओं की गतिविधियों और कारबार पर निगरानी और नियमन में कोई खास दिलचस्पी नही रह गयी है। इसका सबूत यह है कि अमेरिका समेत अन्य विकसित देशों में एकबार फिर से बडी वित्तीय पूंजी और उसके पैरोकार किसी भी तरह के नियंत्रण और नियमन का विरोध करने लगे है।
विकसित देशों में निश्चिन्तता का आलम यह है कि जी-20 के इस शिखर सम्मेलन में अमेरिका यह प्रस्ताव कर रहा है कि घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के लिए जो बडे उत्प्रेरक (स्टिमुलस) पैकेज घोषित किये गये थे, उन्हें धीरे-धीरे या तो कम किया जाए या पूरी तरह से वापस लिया जाए। हालांकि यूरोपीय संघ के कई देश इस प्रस्ताव से सहमत नही है लेकिन इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार और उसे सहारा देने को लेकर अब एक राय नही रह गयी है। यही नहीं, विकसित देश खासकर अमेरिका और यूरोपीय संघ वायदे के बावजूद ऐसे संरक्षणवादी फैसले कर रहे हैं जिनका एकमात्र मकसद घरेलू बाजार में विकासशील देशों के उत्पादों को आने से रोकना है। यह और बात है कि जी-20 के पिछले शिखर सम्मेलनों में संरक्षणवाद के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठी थी।
कहने की जरूरत नही है कि इस तरह का रवैया एकबार फिर से संकट को न्यौता देने जैसा है। इसकी वजह यह है कि संकट पूरी तरह से गया नही है और न ही दुनिया मंदी से पूरी तरह से बाहर आयी है। इस समय सुधरती वैश्विक अर्थव्यवस्था को न सिर्फ संभालने और सहारा देने की जरूरत है बल्कि ऐसे पक्के उपाय करने की भी जरूरत है ताकि भविष्य में ऐसा वित्तीय संकट दोबारा न आए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि एकबार फिर से उन्हीं गलतियों को दोहराने की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है जिनके कारण मौजूदा संकट आया।
ऐसे में, भारत जैसे देशों की भूमिका बढ़ जाती है जो इस बार तो वित्तीय संकट के चपेट में उस हद तक नहीं आए लेकिन इसबात की कोई गारंटी नहीं की अगली बार भी भाग्य इसी तरह साथ दे। इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर विकसित देशों पर उन फैसलों और वायदों को पूरा करने का दबाव बनाना चाहिए जो पिछले शिखर सम्मेलनों मे किए गये थे। इसके बिना यह शिखर सम्मेलन भी सिर्फ गपशप का मंच बनकर रह जाएगा।
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