आनंद प्रधान
यू पी ए सरकार विधानसभा चुनावों के बाद माओवादियों के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा सैन्य अभियान- ग्रीन हंट/ आपरेशन आल आउट - शुरू करने जा रही है. इस सैन्य अभियान से पहले केंद्र सरकार ने नक्सलवादियों / माओवादियों के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक युद्घ छेड़ दिया है. इस अभियान का निशाना बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ-साथ वे पत्रकार भी हैं जिनके बारे में सत्ता प्रतिष्ठान का आरोप है कि वे नक्सलियों के प्रति सहानुभूति या उनके साथ सम्बन्ध रखते हैं. केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने बिलकुल पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की तर्ज़ पर चेतावनी देते हुए कहा है कि या तो आप हमारे साथ हैं या फिर माओवादियों के साथ. केंद्रीय गृह मंत्री से इशारा मिलते ही कई राज्य सरकारों ने बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को धमकाना, गिरफ्तार करना और नोटिस देना शुरू कर दिया है.
कहने की जरुरत नहीं है कि इस अभियान के जरिये केंद्र सरकार न सिर्फ माओवादियों के खिलाफ शुरू होने जा रहे सैन्य अभियान के पक्ष में जनमत तैयार करने की कोशिश कर रही है बल्कि उन बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों का मुंह भी बंद करना चाहती है जो सरकार के इरादों पर सवाल उठाने से लेकर से लेकर सैन्य अभियान में होने वाली ज्यादतियों की पोल खोल सकते हैं. असल में, सरकार को भी ये अच्छी तरह से पता है कि माओवादियों के खिलाफ प्रस्तावित सैन्य अभियान में सबसे ज्यादा निर्दोष लोग खासकर गरीब आदिवासी मारे जायेंगे और वो कतई नहीं चाहती है कि ये सच्चाई बाहर आये. वो ये भी नहीं चाहती है कि माओवादियों से निपटने में उसकी वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विफलताओं पर कोई उंगली उठाये और ऐसे सैन्य अभियानो की निरर्थकता को मुद्दा बनाये.
साफ है कि सरकार नहीं चाहती है कि बुद्धिजीवी, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता अपना काम भयमुक्त होकर करें. कहने की जरुरत नहीं है कि एक जीवंत लोकतंत्र में मीडिया, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका सरकार का गुणगान करना नहीं बल्कि उसकी कमियों-गलतियों पर उंगली उठाना है. लेकिन यू पी ए सरकार एक चापलूस और सरकारी भोंपू की तरह व्यव्हार करनेवाला मीडिया और बुद्धिजीवी समुदाय चाहती है. इसीलिए वो भय और चुप्पी का एक ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश कर रही है जिसमें कोई बोलने की हिम्मत न कर सके. इस कारण, एक अघोषित आपातकाल का माहौल बनता जा रहा है. अभिव्यक्ति की आज़ादी दांव पर लगती हुई दिख रही है.
हो सकता है कि कुछ लोगों को ये बढा-चढाकर दिखाया जा रहा खतरा लगे लेकिन सच ये है कि ये एक वास्तविक खतरा है. सरकार आज माओवादियों से सहानुभूति रखनेवाले बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है और उन्हें चुप करने में सफल रहने के बाद कल वो विकास में रोड़ा अटकाने या राष्ट्रीय एकता और अखंडता को चोट पहुंचाने या फिर ऐसे ही किसी और बहाने पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का मुंह बंद करने की कोशिश करने से नहीं चूकेगी. याद रखिये हिटलर और नाजियों ने भी पहले यहूदियों, फिर कम्युनिस्टों , उसके बाद ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, फिर मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया और बाकी उनसे मुंह मोडे रहे क्योंकि वो इनमें से कोई नहीं थे लेकिन जब वो आम लोगों को मारने लगे तो उनके लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था.
हालांकि ये कोई नई बात नहीं है. देश कांग्रेस के नेतृत्व में पहले भी आपातकाल भुगत चुका है. लेकिन अब से पहले समाज के तमाम वर्गों की ओर से ऐसे प्रयासों का कड़ा विरोध हुआ. इस बार सबसे अधिक चिंता और अफसोस की बात ये है कि कारपोरेट मीडिया भी सरकार के भोंपू की तरह न सिर्फ माओवादियों बल्कि उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी आग उगल रहा है जो इस मुद्दे पर सरकार की हां में हां मिलाने के लिए तैयार नहीं हैं और अपना धर्म निभा रहे हैं. ऐसा करते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी की कसमें खानेवाला कारपोरेट मीडिया अपनी आज़ादी खुद ही गिरवी रखने पर तुल गया है. खतरे की घंटी बज चुकी है.
2 टिप्पणियां:
आपने ठीक कहा. एक व्यापक जनमत तैयार कर मूल समस्या से लोगो का ध्यान भटकाया जा रहा है. पहला सवाल तो ये है की वो क्या परिस्थितियां हैं जिन में एक भूखा प्यासा, गरीब इंसान इस तरह के तंत्र का हिस्सा बनने की सोचता है. इस देश में जहाँ हर स्टार पर भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद पसरा है. आम इंसान को जिस तरह एक तंत्र से रोजाना दो चार होना पड़ता है वहां नक्सलवाद से ज्यादा उसे पैदा करने वाले कारक से निबटना ज़रूरी है. हिंसा कभी भी सही विकल्प नहीं होती और ना ही प्रति हिंसा. आखिर मरने वाला पहले इंसान होता है. मगर हम तो इंसान वाली गिनती भूल ही चुके हैं. हम तो मेरे आदमी तेरे आदमी वाले तंत्र में उलझे हैं.
क्यों नहीं आज़ादी के बासठ साल बाद भी आम आदमी को उसकी ज़रूरतें पूरी करने का हक हासिल हुआ? अभी भी व्यवस्था पर एक ख़ास तबके का कब्जा है. जब तक अमीर और गरीब के बीच की खाई ख़त्म नहीं होगी और व्यवस्था की खामियों का फायदा उठाने वाले शोषित और शुचित वर्ग के लिए सांस लेने भर का रास्ता नहीं छोड़ते, इस तरह की भटकी हुई आवाजें बुलंद होती रहेंगी.
दरअसल, सरकार सिर्फ नरेगा और कर्जमाफी की योजना को लागू कर सोचती है कि नक्सलवाद से मुक्ति पाई जा सकती है। वो ये नहीं जानती कि जिन इलाको में पिछले 60 साल या उससे भी ज्यादा से( अंग्रेजों के वक्त से) संसधानों की लूट जारी है उन इलाको के बाशिंदों के पैर में चप्पल तक तक क्यों नहीं है। हमारे हुक्मरान सोचते हैं कि 65 रुपया रोज की दर से मजदूरी देकर गरीबों और शोषितों को फुसलाया जा सकता है। मुझे आजतक ये नहीं पता चला कि देश के खनिज संसाधनों से भरपूर इलाकों के स्थानीय लोगो की हालत क्यों नहीं सुधर पाई, जबकि देश के महानगरों में सेठों की कोठियों की कीमत 100-300 करोड़ तक पहुंच गई है। अभी इस देश में कामनवेल्थ गेम करवाने का क्या तुक था जहां एक-एक फ्लाई ओवर पर 100-100 करोड़ रुपये फूंके गए हैं और ठेकेदारों की तिजोड़ियां भरी गई है। दिल्ली में जितना पैसा यहां के फ्लाईओवरों पर खर्च किया गया है उतने पैसे में देश के 100 नक्सल प्रभावित जिलों में सड़क,हास्पिटल और स्कूल खोले जा सकते थे-लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में तकरीबन 100 से ज्याद फ्लाईओवर हैं जिसकी लागत 50 से लेकर 200 करोड़ तक है। ये आंकड़ें आंख खोल देने के लिए काफी है। अब वक्त आ गया है कि हमारी औद्योंगिक नीतियों में मूलभूत बदलाव किया जाए-और जिन इलाकों से खनिज निकलता है वहां उस उससे हुई आय का एक खास हिस्सा खर्च किया जाए और स्थानीय लोगों को एक खास संख्या में नौकरी दी जाए। देश के गरीबों ने पिछले 60 साल से इंतजार किया है, उन्हे महज संविधान में लिखे आरक्षण के खूबसूरत लफ्जों, नरेगा, कर्जमाफी और पंचायतों में होनेवाली लूट से नहीं बरगलाया जा सकता। सरकार अगर सुरक्षावलों की नियुक्ति में होनेवाले खर्च का आधा भी इन इलाकों में इमानदारी से खर्च कर दे तो नक्सलवाद या माओवाद चुटकी में शांत हो जाए। लेकिन सरकार तो अपनी ही जनता से लड़ने को आमादा है।
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