देश सांस्थानिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हार चुका है
इस खबर से शायद ही किसी को हैरानी हुई होगी कि दुनिया के भ्रष्टतम देशों की काली सूची में भारत तीन पायदान और खिसककर ८७वें स्थान पर पहुंच गया है. इस सूची में भारत के और नीचे गिरने की वजह कामनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार की खबरों को माना जा रहा है जिसके कारण दुनिया भर में उसकी खासी किरकिरी हुई है. यह जानकर भी शायद ही किसी को हैरानी होगी कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा इस सप्ताह जारी भ्रष्ट देशों सूची में भारत का स्थान चीन, ब्राजील, भूटान, दक्षिण अफ्रीका, बोत्सवाना जैसे दर्जनों देशों से भी नीचे है.
इससे कुछ ही दिनों पहले ही ग्लोबल फिनांशियल इंटीग्रिटी रिपोर्ट आई थी जिसके मुताबिक इस दशक की शुरुआत से लेकर वर्ष २००८ के बीच देश से भ्रष्ट तरीकों से कमाए गए लगभग १२५ अरब डालर (५८७५ अरब रूपये) देश से बाहर चले गए. इस जानकारी ने भी शायद ही किसी को चौंकाया हो. कारण, यह चर्चा आम जनमानस में बहुत पहले से है कि देश में सार्वजनिक सम्पदा और संसाधनों की लूट और भ्रष्ट तरीकों से कमाए गए पैसे का एक बड़ा हिस्सा विदेशी बैंकों खासकर स्विस बैंक में चला जाता है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक स्विस बैंकों में सबसे अधिक पैसा भारतीयों का लगभग १.४ खरब डालर जमा है. पिछले चुनावों के दौरान यह मुद्दा विपक्ष ने उछाला भी था. लेकिन ‘रात गई, बात गई’ की तर्ज पर चुनाव बीत जाने के साथ यह मुद्दा भी नेपथ्य में चला गया.
असल में, यह भ्रष्टाचार के प्रति सार्वजनिक जीवन में बढ़ती स्वीकार्यता और सहनशीलता का सबूत है. आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट को भी हाल में आजिज आकार तंज करना पड़ा कि क्यों न भ्रष्टाचार को कानूनी मान्यता दे दी जाए? लेकिन भ्रष्टाचार को आधिकारिक तौर पर कानूनी मान्यता भले हासिल नहीं हो पर सभी व्यावहारिक अर्थों में भ्रष्टाचार को सांस्थानिक और अलिखित कानूनी मान्यता मिल चुकी है. आज भ्रष्टाचार सार्वजनिक जीवन के रंध्र-रंध्र में इस कदर समा गया है कि वह उसकी सबसे बड़ी पहचान बन गया है. यह एक आम धारणा बन चुकी है कि सत्ता के शीर्ष से लेकर उसके सबसे निचले पायदान तक बिना हथेली गर्म किए या ‘कट’ दिए या ‘सुविधा शुल्क’ चुकाए कोई काम या फ़ाइल आगे नहीं बढ़ सकती है.
अब तो हालत यह हो गई है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर कोई शिकायत करने पर राजनेता और पार्टियां, दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचार के उदाहरण गिनाने लगती हैं. इस आरोप-प्रत्यारोप में मूल मुद्दा अक्सर पीछे छूट जाता है. भ्रष्टाचार के आरोपों में अब शायद ही कोई मंत्री या मुख्यमंत्री या केन्द्रीय मंत्री इस्तीफा देता है. यह भ्रष्टाचार के प्रति बढ़ती सहनशीलता का ही एक और प्रमाण यह है कि पिछले कुछ महीनों में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश करने वाले आठ कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.
हद तो यह कि सार्वजनिक तौर पर इस धारणा को धीरे-धीरे मान्यता मिलती जा रही है कि सार्वजनिक-सांस्थानिक व्यवस्था की गतिशीलता और बेहतर कार्यक्षमता के लिए भ्रष्टाचार की ‘चिकनाई’ (ग्रीज) जरूरी हो गई है. इसे एक तरह का अनिवार्य ‘प्रोत्साहन’ मान लिया गया है जो नौकरशाही और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं को सक्रियता की शर्त बन गया है. आश्चर्य नहीं कि अगर किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत करने पर आपको यह तर्क सुनने को मिले कि कोई बात नहीं, काम तो हो रहा है. कई भ्रष्ट मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की इस बात के लिए खुलकर प्रशंसा सुनने को मिल जाती है कि वे काम तो कर रहे हैं. यानी भ्रष्टाचार नहीं, काम देखिये.
गरज यह कि विकास चाहिए तो भ्रष्टाचार सहने के लिए तैयार रहिये क्योंकि उसके बिना व्यवस्था काम ही नहीं करती है. इस तरह, भ्रष्टाचार अब सार्वजनिक जीवन का ऐसा सत्य है जिसके अलावा बाकी सभी बातें मिथ्या लगती हैं. जब प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता (जीरो टालरेंस) की बातें करते हैं, सुप्रीम कोर्ट के जज भ्रष्टाचार पर तंज करते हैं, विपक्षी दल के नेता स्विस बैंकों से कालाधन वापस लाने की मुहिम चलाने का ऐलान करते हैं और मीडिया में भ्रष्टाचार के किस्से छपते हैं तो यह सभी बातें भ्रष्टाचार के अमर सत्य के आगे ‘मिथ्या’ लगती हैं.
यह इतना बड़ा ‘सच’ है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जितने अभियान चलते हैं, जितने कानून बनते हैं, जितने छापे पड़ते हैं, भ्रष्टाचार के तहत मांगी जानेवाली घूस, सुविधा शुल्क या किकबैक की रकम उसी अनुपात में और बढ़ जाती है. सिद्धांत बिल्कुल स्पष्ट है: “जितना अधिक जोखिम, उतनी बड़ी घूस की रकम.” यही कारण है कि कई विश्लेषक भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाये जाने या इसे रोके जाने के उपाय करने को गैरजरूरी मानने लगे हैं. उनके मुताबिक इससे कोई फायदा तो नहीं होता उल्टे बेवजह भ्रष्टाचार की लागत बढ़ जाती है.
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सार्वजनिक जीवन और संस्थाओं से भ्रष्टाचार के निर्मूलन को लेकर कैसी निराशा और हताशा का माहौल है. सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार को और बढ़ने से रोका या उसपर अंकुश लगाया जा सकता है? इसका उदास करनेवाला उत्तर है कि नहीं. असल में, मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार को काबू में करना लगभग नामुमकिन हो चुका है. इसकी दो वजहें हैं. पहली यह कि भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है. उसने सांस्थानिक भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है. दूसरे कि व्यवस्था के अंदर वास्तव में, भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई लड़ना नहीं चाहता है.
इसलिए देश में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक डान क्विक्जोटी लड़ाई बन चुकी है जो घाव पहुंचने से अधिक हवा में तलवार भांजने की लड़ाई है. इसलिए आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ वर्षों में भ्रष्ट देशों की काली सूची में भारत और नीचे लुढक जाए. लेकिन वास्तव में, इसकी चिंता किसे है जब देश वित्त मंत्री के शब्दों में, नौ प्रतिशत की जादुई वृद्धि दर छूने के करीब है, हर ओर विकास का फील गुड है और बाजारों में गुलाबी माहौल है? आखिर भ्रष्टाचार और 'कार्पोरेट विकास' के बीच चोली-दामन का साथ है. पी. साईंनाथ के शब्दों को कुछ तोड़-मरोडकर कहूं तो ‘भ्रष्टाचार सभी को लुभाता है.’
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३० अक्तूबर'१० को प्रकाशित)
शनिवार, अक्टूबर 30, 2010
गुरुवार, अक्टूबर 28, 2010
किसकी धुन पर नाच रहा है शेयर बाजार?
आवारा पूंजी पर ऐसे आँख मूंदकर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है
मुंबई शेयर बाजार एक बार फिर 20 हजार अंकों के ऊपर पहुंच चुका है. पिछले कुछ महीनों खासकर सप्ताहों में शेयर बाजार की तेज रफ़्तार ने सबको चौंका दिया है. हालांकि दीपावली अभी दूर है लेकिन शेयर बाजार में अभी से पटाखे छूट रहे हैं. बाजार के जानकारों को भरोसा है कि दीपावली तक बाजार 21 हजार अंकों के अपने पिछले रिकार्ड को आराम से तोड़ देगा. याद रहे कि पिछली बार 8 जनवरी’08 को सेंसेक्स ने 21078 अंकों का रिकार्ड बनाया था. वैसे दावा करनेवाले तो यह भी कह रहे हैं कि सब कुछ ठीक चला तो दीपावली के आसपास सेंसेक्स 22 हजार का नया रिकार्ड भी बना सकता है. कुछ उत्साही तेजड़िए अगले साल बजट तक बाजार के 25 हजार अंकों तक पहुँचने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं.
गरज यह कि बाजार के अधिकांश विश्लेषक मानकर चल रहे हैं कि आनेवाले दिनों में सेंसेक्स इसी तरह चढ़ता रहेगा. उनके इस आत्मविश्वास की सबसे बड़ी वजह विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.एफ.आई) हैं जो एक बार फिर भारतीय बाजार पर खासे मेहरबान हैं. आंकड़ों के मुताबिक इस साल अक्टूबर के आखिरी सप्ताह तक देश में लगभग 24.48 अरब डालर का एफ.एफ.आई निवेश आ चुका है. यह किसी एक वर्ष में एफ.एफ.आई निवेश का रिकार्ड है. यही नहीं, अकेले अक्टूबर में अब तक 6.11 अरब डालर के एफ.एफ.आई निवेश ने बाजार को गरमाया हुआ है. यह भी किसी एक महीने में सर्वाधिक एफ.एफ.आई निवेश का रिकार्ड है.
माना जा रहा है कि आनेवाले महीनों में भी एफ.एफ.आई निवेश की बाढ़ का प्रवाह इसी तरह बना रहेगा. इसकी वजह यह है कि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में अत्यधिक उदार मौद्रिक नीति के कारण बाजार सस्ती मौद्रिक तरलता से लबालब है. असल में, अमरीका और अन्य यूरोपीय देशों की सरकारों और केन्द्रीय बैंकों ने घरेलू मंदी से लड़ने के लिए शुरूआती वित्तीय उत्प्रेरक (फिस्कल स्टिमुलस) की रणनीति छोड़कर अति उदार मौद्रिक नीति पर जोर बढ़ा दिया है. इस कारण, अमरीका आदि देशों में लगभग शून्य प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध है. इन देशों की छोटी-बड़ी वित्तीय संस्थाएं इसका जमकर फायदा उठा रही हैं.
इनकी रणनीति यह है कि वे इस उदार मौद्रिक नीति का फायदा उठाते हुए बैंकों से भारी मात्रा में कर्ज उठा रही हैं और उसे उन भारत जैसे अन्य ‘उभरते हुए बाजारों’ में निवेश कर रही हैं, जहां उन्हें ज्यादा मुनाफा मिल रहा है. इसके जरिये वे 07-08 में अमेरिका में सब-प्राइम संकट के कारण पैदा हुए वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी के दौरान हुए भारी आर्थिक नुकसान की भरपाई करने में जुटे हैं. असल में, अमेरिका समेत अन्य विकसित देशों की सरकारों और उनके केन्द्रीय बैंकों ने इन वित्तीय संस्थाओं की मदद के लिए ही जानबूझकर ऐसी मौद्रिक नीति को बढ़ावा दिया है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले एक साल में सिर्फ भारत ही नहीं, ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भी भारी मात्रा में एफ.एफ.आई निवेश आया है. इससे इन सभी देशों में शेयर बाजार के अलावा जिंस बाजार में भी खासा उछाल देखा जा रहा है. कुछ विश्लेषकों के मुताबिक इस साल दुनिया भर के उभरते हुए बाजारों में आये एफ.एफ.आई निवेश का लगभग 40 प्रतिशत अकेले भारतीय बाजारों में आया है. हालांकि ज्यादातर बाजार विश्लेषक इसे एफ.एफ.आई निवेशकों की भारतीय बाजार में बढ़ते भरोसे का प्रतीक मानते हैं. लेकिन दबी जुबान में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि एफ.एफ.आई निवेश की मात्रा और गति दोनों, कुछ ज्यादा ही तेज हैं.
साफ है कि एफ.एफ.आई निवेशक शेयर बाजार में जमकर सट्टेबाजी कर रहे हैं. कारण यह कि वे यहां जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक मुनाफा बनाने आये हैं. सट्टेबाजी उनका स्वाभाव है. जैसे ही किसी और देश के बाजार में उन्हें अधिक मुनाफा दिखेगा, वे यहां से मुनाफा बनाकर और पैसा निकलकर चल देंगे. इसी कारण उन्हें आवारा पूंजी भी कहा जाता है. इस पूंजी से वास्तविक अर्थव्यवस्था को कोई खास फायदा नहीं होता है लेकिन जोखिम जरूर बढ़ जाता है.
आज शेयर बाजार पूरी तरह से उनके कब्जे में है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भारतीय शेयर बाजार अभी भी न तो बहुत गहरा है और न ही व्यापक. उनकी ताकत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी सब-प्राइम संकट के बाद जब उन्होंने बाजार से पैसा निकलना शुरू किया, उसके कारण ढाई साल पहले 21 हजार अंकों तक पहुंच चुका सेंसेक्स कुछ ही महीनों में लुढककर 8 हजार अंकों तक पहुंच गया था.
हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है. पिछले डेढ़ दशकों से अधिक समय से मुंबई शेयर बाजार का सेंसेक्स इस आवारा पूंजी की धुन पर ही नाच रहा है. लेकिन इस बार मंदी से उबरती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एफ.एफ.आई पूंजी पर अत्यधिक निर्भरता खतरे से खाली नहीं है. वैश्विक मंदी के बादल अभी पूरी तरह से छंटे नहीं हैं. अगर किसी भी कारण से यह आवारा पूंजी अचानक देश छोड़ती है तो उससे पूरी अर्थव्यवस्था अस्थिर हो सकती है. दूसरे, उनके अत्यधिक मात्रा में आने से रूपये पर दबाव बढ़ रहा है और पिछले कुछ महीनों में रूपया, डालर की तुलना में लगभग 6 से 8 प्रतिशत तक महंगा हो गया है. इसके कारण निर्यात पर नकारात्मक असर पड़ने की आशंका बढ़ रही है.
लेकिन सबसे अफसोस की बात यह है कि इस सट्टेबाजी पर रोक लगाने के बजाय पिछली सभी सरकारों और उनके वित्त मंत्रियों ने इसे अपनी नीतियों की सफलता के बतौर पेश करते हुए और बढ़ावा दिया है. मौजूदा वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी भी इसके अपवाद नहीं हैं. उनका कहना है कि एफ.एफ.आई निवेश की तेज रफ़्तार को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है और न ही अभी उनपर कोई अंकुश लगाने की जरूरत है.
यहां उल्लेख करना जरूरी है कि ब्राजील ने इस आवारा पूंजी के अत्यधिक प्रवाह और सट्टेबाजी पर अंकुश लगाने के लिए कुछ महीने पहले दो प्रतिशत की दर से टैक्स लगा दिया था जिसे इसी महीने बढ़ाकर चार प्रतिशत कर दिया. थाईलैंड ने भी इसी महीने एफ.एफ.आई निवेश पर ब्राजील की तर्ज पर दो प्रतिशत का टैक्स लगाने का ऐलान किया है. हैरानी की बात यह है कि यह जानते हुए भी कि इस आवारा पूंजी से वास्तविक अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं होता, उल्टे उसके लिए मुश्किलें बढ़ जाती हैं, प्रणव मुखर्जी जाने क्यों उसपर कोई अंकुश लगाने से हिचकिचा रहे हैं? क्या वह संकट के आने का इंतज़ार कर रहे हैं.
('दैनिक भास्कर' में २८ अक्तूबर'१० को प्रकाशित)
मुंबई शेयर बाजार एक बार फिर 20 हजार अंकों के ऊपर पहुंच चुका है. पिछले कुछ महीनों खासकर सप्ताहों में शेयर बाजार की तेज रफ़्तार ने सबको चौंका दिया है. हालांकि दीपावली अभी दूर है लेकिन शेयर बाजार में अभी से पटाखे छूट रहे हैं. बाजार के जानकारों को भरोसा है कि दीपावली तक बाजार 21 हजार अंकों के अपने पिछले रिकार्ड को आराम से तोड़ देगा. याद रहे कि पिछली बार 8 जनवरी’08 को सेंसेक्स ने 21078 अंकों का रिकार्ड बनाया था. वैसे दावा करनेवाले तो यह भी कह रहे हैं कि सब कुछ ठीक चला तो दीपावली के आसपास सेंसेक्स 22 हजार का नया रिकार्ड भी बना सकता है. कुछ उत्साही तेजड़िए अगले साल बजट तक बाजार के 25 हजार अंकों तक पहुँचने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं.
गरज यह कि बाजार के अधिकांश विश्लेषक मानकर चल रहे हैं कि आनेवाले दिनों में सेंसेक्स इसी तरह चढ़ता रहेगा. उनके इस आत्मविश्वास की सबसे बड़ी वजह विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.एफ.आई) हैं जो एक बार फिर भारतीय बाजार पर खासे मेहरबान हैं. आंकड़ों के मुताबिक इस साल अक्टूबर के आखिरी सप्ताह तक देश में लगभग 24.48 अरब डालर का एफ.एफ.आई निवेश आ चुका है. यह किसी एक वर्ष में एफ.एफ.आई निवेश का रिकार्ड है. यही नहीं, अकेले अक्टूबर में अब तक 6.11 अरब डालर के एफ.एफ.आई निवेश ने बाजार को गरमाया हुआ है. यह भी किसी एक महीने में सर्वाधिक एफ.एफ.आई निवेश का रिकार्ड है.
माना जा रहा है कि आनेवाले महीनों में भी एफ.एफ.आई निवेश की बाढ़ का प्रवाह इसी तरह बना रहेगा. इसकी वजह यह है कि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में अत्यधिक उदार मौद्रिक नीति के कारण बाजार सस्ती मौद्रिक तरलता से लबालब है. असल में, अमरीका और अन्य यूरोपीय देशों की सरकारों और केन्द्रीय बैंकों ने घरेलू मंदी से लड़ने के लिए शुरूआती वित्तीय उत्प्रेरक (फिस्कल स्टिमुलस) की रणनीति छोड़कर अति उदार मौद्रिक नीति पर जोर बढ़ा दिया है. इस कारण, अमरीका आदि देशों में लगभग शून्य प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध है. इन देशों की छोटी-बड़ी वित्तीय संस्थाएं इसका जमकर फायदा उठा रही हैं.
इनकी रणनीति यह है कि वे इस उदार मौद्रिक नीति का फायदा उठाते हुए बैंकों से भारी मात्रा में कर्ज उठा रही हैं और उसे उन भारत जैसे अन्य ‘उभरते हुए बाजारों’ में निवेश कर रही हैं, जहां उन्हें ज्यादा मुनाफा मिल रहा है. इसके जरिये वे 07-08 में अमेरिका में सब-प्राइम संकट के कारण पैदा हुए वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी के दौरान हुए भारी आर्थिक नुकसान की भरपाई करने में जुटे हैं. असल में, अमेरिका समेत अन्य विकसित देशों की सरकारों और उनके केन्द्रीय बैंकों ने इन वित्तीय संस्थाओं की मदद के लिए ही जानबूझकर ऐसी मौद्रिक नीति को बढ़ावा दिया है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले एक साल में सिर्फ भारत ही नहीं, ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भी भारी मात्रा में एफ.एफ.आई निवेश आया है. इससे इन सभी देशों में शेयर बाजार के अलावा जिंस बाजार में भी खासा उछाल देखा जा रहा है. कुछ विश्लेषकों के मुताबिक इस साल दुनिया भर के उभरते हुए बाजारों में आये एफ.एफ.आई निवेश का लगभग 40 प्रतिशत अकेले भारतीय बाजारों में आया है. हालांकि ज्यादातर बाजार विश्लेषक इसे एफ.एफ.आई निवेशकों की भारतीय बाजार में बढ़ते भरोसे का प्रतीक मानते हैं. लेकिन दबी जुबान में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि एफ.एफ.आई निवेश की मात्रा और गति दोनों, कुछ ज्यादा ही तेज हैं.
साफ है कि एफ.एफ.आई निवेशक शेयर बाजार में जमकर सट्टेबाजी कर रहे हैं. कारण यह कि वे यहां जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक मुनाफा बनाने आये हैं. सट्टेबाजी उनका स्वाभाव है. जैसे ही किसी और देश के बाजार में उन्हें अधिक मुनाफा दिखेगा, वे यहां से मुनाफा बनाकर और पैसा निकलकर चल देंगे. इसी कारण उन्हें आवारा पूंजी भी कहा जाता है. इस पूंजी से वास्तविक अर्थव्यवस्था को कोई खास फायदा नहीं होता है लेकिन जोखिम जरूर बढ़ जाता है.
आज शेयर बाजार पूरी तरह से उनके कब्जे में है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भारतीय शेयर बाजार अभी भी न तो बहुत गहरा है और न ही व्यापक. उनकी ताकत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी सब-प्राइम संकट के बाद जब उन्होंने बाजार से पैसा निकलना शुरू किया, उसके कारण ढाई साल पहले 21 हजार अंकों तक पहुंच चुका सेंसेक्स कुछ ही महीनों में लुढककर 8 हजार अंकों तक पहुंच गया था.
हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है. पिछले डेढ़ दशकों से अधिक समय से मुंबई शेयर बाजार का सेंसेक्स इस आवारा पूंजी की धुन पर ही नाच रहा है. लेकिन इस बार मंदी से उबरती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एफ.एफ.आई पूंजी पर अत्यधिक निर्भरता खतरे से खाली नहीं है. वैश्विक मंदी के बादल अभी पूरी तरह से छंटे नहीं हैं. अगर किसी भी कारण से यह आवारा पूंजी अचानक देश छोड़ती है तो उससे पूरी अर्थव्यवस्था अस्थिर हो सकती है. दूसरे, उनके अत्यधिक मात्रा में आने से रूपये पर दबाव बढ़ रहा है और पिछले कुछ महीनों में रूपया, डालर की तुलना में लगभग 6 से 8 प्रतिशत तक महंगा हो गया है. इसके कारण निर्यात पर नकारात्मक असर पड़ने की आशंका बढ़ रही है.
लेकिन सबसे अफसोस की बात यह है कि इस सट्टेबाजी पर रोक लगाने के बजाय पिछली सभी सरकारों और उनके वित्त मंत्रियों ने इसे अपनी नीतियों की सफलता के बतौर पेश करते हुए और बढ़ावा दिया है. मौजूदा वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी भी इसके अपवाद नहीं हैं. उनका कहना है कि एफ.एफ.आई निवेश की तेज रफ़्तार को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है और न ही अभी उनपर कोई अंकुश लगाने की जरूरत है.
यहां उल्लेख करना जरूरी है कि ब्राजील ने इस आवारा पूंजी के अत्यधिक प्रवाह और सट्टेबाजी पर अंकुश लगाने के लिए कुछ महीने पहले दो प्रतिशत की दर से टैक्स लगा दिया था जिसे इसी महीने बढ़ाकर चार प्रतिशत कर दिया. थाईलैंड ने भी इसी महीने एफ.एफ.आई निवेश पर ब्राजील की तर्ज पर दो प्रतिशत का टैक्स लगाने का ऐलान किया है. हैरानी की बात यह है कि यह जानते हुए भी कि इस आवारा पूंजी से वास्तविक अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं होता, उल्टे उसके लिए मुश्किलें बढ़ जाती हैं, प्रणव मुखर्जी जाने क्यों उसपर कोई अंकुश लगाने से हिचकिचा रहे हैं? क्या वह संकट के आने का इंतज़ार कर रहे हैं.
('दैनिक भास्कर' में २८ अक्तूबर'१० को प्रकाशित)
बुधवार, अक्टूबर 27, 2010
क्या लेकर आ रहे हैं ओबामा?
भारत पर परमाणु उत्तरदायित्व कानून में बदलाव से लेकर अमेरिकी कंपनियों के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने का दबाव बढ़ रहा है
दिल्ली एक बार फिर सज रही है. खासकर संसद भवन को झाडा-पोछा और सजाया जा रहा है. संसद के कर्मचारियों की वर्दी को बदलने और उसे नया रंग देने पर विचार चल रहा है. पांच सितारा होटल आई.टी.सी मौर्या शेरेटन को तीन दिन के लिए बुक कर दिया गया है. पकवानों की सूची बन रही है. सुरक्षा बंदोबस्त को चुस्त-दुरुस्त किया जा रहा है. दिल्ली की ही तरह मुंबई में भी सडकों को ठीक किया जा रहा है. लब्बोलुआब यह कि सरकार मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.
जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोई सामान्य मेहमान नहीं हैं. भारतीय शासक वर्गों ने जब से अमेरिका को अपना ‘स्वाभाविक मित्र’ मानते हुए उसके साथ अपना वर्तमान और भविष्य जोड़ लिया है, तब से उनके लिए हर अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा ईश्वरीय आगमन से कम नहीं होता है. नतीजा, यू.पी.ए सरकार ओबामा के स्वागत में बिछी जा रही है. ओबामा को खुश करने के लिए हर जतन किया जा रहा है. हालांकि वे नवंबर के पहले सप्ताह में भारत पहुंच रहे हैं. लेकिन इस यात्रा के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक सरगर्मियां पिछले कई महीनों से जारी हैं. यात्रा की तैयारी में दोनों देशों के दर्जनों छोटे-बड़े अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक की आवाजाही लगी है.
हमेशा की तरह कारपोरेट मीडिया इस यात्रा को लेकर माहौल बनाने में जुट गया है. इस यात्रा से भारत-अमेरिका सामरिक और रणनीतिक मैत्री के और गहरे होने से लेकर ओबामा से भारत को और क्या मिल सकता है, इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं. कई देशी-विदेशी थिंक टैंक भारत-अमेरिका मैत्री का रोड मैप पेश करते हुए यह बताने में लग गए हैं कि इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए दोनों सरकारों को क्या करना चाहिए?
बुश प्रशासन के दो बड़े अधिकारियों से सजे थिंक टैंक- सेंटर फार ए न्यू अमेरिकन सेक्यूरिटी (सी.एन.ए.एस) ने बाकायदा एक परचा जारी करके इस बात की वकालत की है कि एशिया में चीन की बढ़ती ताकत से गड़बडाते शक्ति संतुलन को दुरुस्त करने के लिए भारत का मजबूत होना जरूरी है.
थिंक टैंक के मुताबिक इसके लिए अमरीका को न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारतीय दावे का खुलकर समर्थन करना चाहिए बल्कि भारत को उच्च तकनीक के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को भी हटाना चाहिए. लेकिन अमेरिकी थिंक टैंक के अनुसार बदले में भारत को भी कुछ वायदे और नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए. सी.एन.ए.एस के अनुसार भारत को तेजी से सिविल परमाणु समझौते को लागू करना चाहिए जो कि परमाणु उत्तरदायित्व सम्बन्धी विवादों के कारण लटक गया है.
दरअसल, अमेरिका चाहता है कि भारत हाल ही में संसद में पारित परमाणु उत्तरदायित्व कानून में संशोधन करके दुर्घटना की स्थिति में परमाणु रिएक्टर सप्लाई करनेवाली अमेरिकी कंपनियों के उत्तरदायित्व को कम करे. हालांकि परमाणु उत्तरदायित्व कानून उतना कठोर नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था लेकिन इसके बावजूद परमाणु रिएक्टर और अन्य साजो-सामान सप्लाई करने को आतुर अमेरिकी कंपनियां- जेनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस आदि इस कानून के कई प्रावधानों को लेकर परेशान और नाराज हैं.
वे किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं उठाना चाहती हैं. उन्हें सबसे अधिक आपत्ति परमाणु उत्तरदायित्व कानून की धारा १७(बी) को लेकर है. उनकी मांग है कि भारत सरकार को इस प्रावधान को हल्का करना चाहिए जो त्रुटिपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति के कारण परमाणु दुर्घटना की स्थिति में भारतीय आपरेटर को सप्लायर के खिलाफ राइट टू रिकोर्स का अधिकार देता है.
अमेरिकी कंपनियां चाहती हैं कि उत्तरदायित्व कानून से यह प्रावधान हटाया जाए और अगर ऐसा करना संभव न हो तो भारत सरकार परमाणु बिजली संयंत्र के आपरेटर यानी न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन आफ इंडिया(एन.पी.सी.आई.एल) को द्विपक्षीय समझौते में यह अधिकार छोड़ते हुए अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न करने का स्वैछिक ‘वचन’(अंडरटेकिंग) देने के लिए तैयार करे. हैरानी की बात यह है कि अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम में कुछ भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं जो भारतीय परमाणु बिजली कारोबार के बाज़ार में अपना हिस्सा तो चाहती हैं लेकिन दुर्घटना की स्थिति में सीमित और न्यूनतम उत्तरदायित्व के लिए भी तैयार नहीं हैं.
यही नहीं, अमेरिकी कंपनियां यू.पी.ए सरकार पर यह भी दबाव बनाये हुए हैं कि परमाणु उत्तरदायित्व कानून को प्रचलित करने के लिए बनाये जानेवाले नियमों, विनियमों और प्रक्रियाओं को हल्का और ढीला रखा जाए. साफ है कि ये बड़ी और प्रभावशाली अमेरिकी कंपनियां भारतीय संसद द्वारा पास कानून और उसकी भावना के विपरीत उसे बेमानी बनाने पर तुली हुई हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रपति ओबामा और उनका प्रशासन अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम के साथ खुलकर खड़ा है.
वह हर तरह से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. इसी रणनीति के तहत ओबामा प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह परमाणु संधि को लागू करने के लिए पहले अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन आन सप्लीमेंट्री कंपनसेशन फार न्यूक्लियर डेमेज (सी.एस.सी) पर हस्ताक्षर करे. भारत इसके लिए तैयार है लेकिन अमेरिका का कहना है कि इसपर हस्ताक्षर करने से पहले भारत को अपने परमाणु उत्तरदायित्व कानून को इसके प्रावधानों के अनुकूल बनाना होगा.
ओबामा की यात्रा की तैयारी के सिलसिले में हाल ही में भारत आये राजनीतिक मामलों के विदेश उपमंत्री विलियम बर्न्स ने साफ संकेत दिया कि भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के प्रावधानों के मुताबिक नहीं है. इसका अर्थ साफ है कि अगर भारत को सी.एस.सी पर हस्ताक्षर करना है तो उसे अपने संसद द्वारा पारित घरेलू कानून को बदलना पड़ेगा. जबकि भारतीय अधिकारियों का कहना है कि उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के अनुकूल है और सी.एस.सी में कहीं नहीं कहा गया है कि यह घरेलू राष्ट्रीय कानूनों के ऊपर है.
इसके बावजूद अमेरिका दबाव बनाये हुए है. ओबामा ने अपनी यात्रा से ठीक एक पखवाड़े पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बाबत चिट्ठी लिखकर दबाव और बढ़ा दिया है. इस चिट्ठी में ओबामा ने भारत से अमेरिकी अपेक्षाओं का उल्लेख किया है. जाहिर है कि ओबामा की विश लिस्ट बहुत भारी-भरकम है. ओबामा चाहते हैं कि दौरे के दौरान भारत न सिर्फ कई लंबित रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जाए बल्कि कई बड़े रक्षा सौदों जैसे लगभग ५.८ अरब डालर (२६ हजार करोड़ रूपये) के युद्धक मालवाही विमान सी-१७ ग्लोबमास्टर आदि की खरीद को भी हरी झंडी दिखाए.
ओबामा चीन के खिलाफ भारत को ‘मजबूत बनाने’ के लिए यह भी चाहते हैं कि भारत अपने खुदरा व्यापार क्षेत्र को विदेशी खासकर वालमार्ट जैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले. इसके अलावा वे अमेरिकी कंपनियों के लिए वित्तीय क्षेत्र खासकर पेंशन-बीमा आदि को भी और उदार बनाने की मांग कर रहे हैं. वह यह भी चाहते हैं कि भारत अपना घरेलू बाजार अमेरिकी कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए खोले. लेकिन दूसरी ओर, खुद ओबामा घरेलू राजनीति के दबावों के कारण भारतीय कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग के दरवाजे बंद करने की हर जुगत कर रहे हैं. यही नहीं, वे सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के दावे पर भी कोई प्रतिबद्धता नहीं देना चाहते हैं.
इस मामले में अमेरिकी रणनीति बिल्कुल साफ है. किसी भी दोस्ती में उसकी दिलचस्पी तभी तक है जब तक वह उसके आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक हितों को पूरा करती है. असल में, उसे अपने फायदे के अलावा कुछ नहीं दिखता है. भारत में भी अमेरिकी दिलचस्पी की वजहें स्पष्ट हैं. अमेरिका भारत को अपने अपने उद्योगों और सेवाओं के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखता है. उसे मालूम है कि मरते अमेरिकी परमाणु रिएक्टर उद्योग और अन्य साजो-सामानों के साथ-साथ रक्षा उपकरणों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है. दूसरी ओर, वह रणनीतिक तौर पर चीन के खिलाफ भारत के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ही अमेरिका उच्च तकनीकी निर्यात सम्बन्धी प्रतिबंधों को हटाने, परमाणु रिएक्टरों की आपूर्ति आदि भारत अनुकूल दिखनेवाले फैसले कर रहा है या करने को तैयार है. साफ है कि अमेरिका के लिए यह ‘दोस्ती’ किसी भावना या आदर्श के आधार पर नहीं बल्कि ठोस राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक हितों पर आधारित है. इस मामले में वह किसी मुगालते में नहीं है. ऐसे में, भारत को सोचना है कि उसके हित इस ‘दोस्ती’ में कहां तक सध रहे हैं? देखने होगा कि ओबामा भारत से जो मांग रहे हैं, उसके बदले दे क्या रहे हैं?
इस सवाल पर विचार करना इसलिए जरूरी है कि अमेरिका भारत को दोस्त की तरह कम और अपने एक ‘क्लाइंट स्टेट’ की तरह अधिक देखता है. यही कारण है कि अमेरिकी कंपनियां न सिर्फ परमाणु उत्तरदायित्व कानून की जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि अमेरिका अपनी ‘दोस्ती’ की कीमत भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति छोड़कर अमेरिकी विदेश नीति के साथ नत्थी करने के रूप में मांग रहा है. सवाल है कि वह ‘दोस्ती’ की जो ‘कीमत’ मांग रहा है, क्या भारत वह कीमत चुकाने को तैयार है?
('राष्ट्रीय सहारा' में २७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख का विस्तारित रूप)
दिल्ली एक बार फिर सज रही है. खासकर संसद भवन को झाडा-पोछा और सजाया जा रहा है. संसद के कर्मचारियों की वर्दी को बदलने और उसे नया रंग देने पर विचार चल रहा है. पांच सितारा होटल आई.टी.सी मौर्या शेरेटन को तीन दिन के लिए बुक कर दिया गया है. पकवानों की सूची बन रही है. सुरक्षा बंदोबस्त को चुस्त-दुरुस्त किया जा रहा है. दिल्ली की ही तरह मुंबई में भी सडकों को ठीक किया जा रहा है. लब्बोलुआब यह कि सरकार मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.
जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोई सामान्य मेहमान नहीं हैं. भारतीय शासक वर्गों ने जब से अमेरिका को अपना ‘स्वाभाविक मित्र’ मानते हुए उसके साथ अपना वर्तमान और भविष्य जोड़ लिया है, तब से उनके लिए हर अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा ईश्वरीय आगमन से कम नहीं होता है. नतीजा, यू.पी.ए सरकार ओबामा के स्वागत में बिछी जा रही है. ओबामा को खुश करने के लिए हर जतन किया जा रहा है. हालांकि वे नवंबर के पहले सप्ताह में भारत पहुंच रहे हैं. लेकिन इस यात्रा के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक सरगर्मियां पिछले कई महीनों से जारी हैं. यात्रा की तैयारी में दोनों देशों के दर्जनों छोटे-बड़े अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक की आवाजाही लगी है.
हमेशा की तरह कारपोरेट मीडिया इस यात्रा को लेकर माहौल बनाने में जुट गया है. इस यात्रा से भारत-अमेरिका सामरिक और रणनीतिक मैत्री के और गहरे होने से लेकर ओबामा से भारत को और क्या मिल सकता है, इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं. कई देशी-विदेशी थिंक टैंक भारत-अमेरिका मैत्री का रोड मैप पेश करते हुए यह बताने में लग गए हैं कि इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए दोनों सरकारों को क्या करना चाहिए?
बुश प्रशासन के दो बड़े अधिकारियों से सजे थिंक टैंक- सेंटर फार ए न्यू अमेरिकन सेक्यूरिटी (सी.एन.ए.एस) ने बाकायदा एक परचा जारी करके इस बात की वकालत की है कि एशिया में चीन की बढ़ती ताकत से गड़बडाते शक्ति संतुलन को दुरुस्त करने के लिए भारत का मजबूत होना जरूरी है.
थिंक टैंक के मुताबिक इसके लिए अमरीका को न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारतीय दावे का खुलकर समर्थन करना चाहिए बल्कि भारत को उच्च तकनीक के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को भी हटाना चाहिए. लेकिन अमेरिकी थिंक टैंक के अनुसार बदले में भारत को भी कुछ वायदे और नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए. सी.एन.ए.एस के अनुसार भारत को तेजी से सिविल परमाणु समझौते को लागू करना चाहिए जो कि परमाणु उत्तरदायित्व सम्बन्धी विवादों के कारण लटक गया है.
दरअसल, अमेरिका चाहता है कि भारत हाल ही में संसद में पारित परमाणु उत्तरदायित्व कानून में संशोधन करके दुर्घटना की स्थिति में परमाणु रिएक्टर सप्लाई करनेवाली अमेरिकी कंपनियों के उत्तरदायित्व को कम करे. हालांकि परमाणु उत्तरदायित्व कानून उतना कठोर नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था लेकिन इसके बावजूद परमाणु रिएक्टर और अन्य साजो-सामान सप्लाई करने को आतुर अमेरिकी कंपनियां- जेनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस आदि इस कानून के कई प्रावधानों को लेकर परेशान और नाराज हैं.
वे किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं उठाना चाहती हैं. उन्हें सबसे अधिक आपत्ति परमाणु उत्तरदायित्व कानून की धारा १७(बी) को लेकर है. उनकी मांग है कि भारत सरकार को इस प्रावधान को हल्का करना चाहिए जो त्रुटिपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति के कारण परमाणु दुर्घटना की स्थिति में भारतीय आपरेटर को सप्लायर के खिलाफ राइट टू रिकोर्स का अधिकार देता है.
अमेरिकी कंपनियां चाहती हैं कि उत्तरदायित्व कानून से यह प्रावधान हटाया जाए और अगर ऐसा करना संभव न हो तो भारत सरकार परमाणु बिजली संयंत्र के आपरेटर यानी न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन आफ इंडिया(एन.पी.सी.आई.एल) को द्विपक्षीय समझौते में यह अधिकार छोड़ते हुए अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न करने का स्वैछिक ‘वचन’(अंडरटेकिंग) देने के लिए तैयार करे. हैरानी की बात यह है कि अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम में कुछ भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं जो भारतीय परमाणु बिजली कारोबार के बाज़ार में अपना हिस्सा तो चाहती हैं लेकिन दुर्घटना की स्थिति में सीमित और न्यूनतम उत्तरदायित्व के लिए भी तैयार नहीं हैं.
यही नहीं, अमेरिकी कंपनियां यू.पी.ए सरकार पर यह भी दबाव बनाये हुए हैं कि परमाणु उत्तरदायित्व कानून को प्रचलित करने के लिए बनाये जानेवाले नियमों, विनियमों और प्रक्रियाओं को हल्का और ढीला रखा जाए. साफ है कि ये बड़ी और प्रभावशाली अमेरिकी कंपनियां भारतीय संसद द्वारा पास कानून और उसकी भावना के विपरीत उसे बेमानी बनाने पर तुली हुई हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रपति ओबामा और उनका प्रशासन अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम के साथ खुलकर खड़ा है.
वह हर तरह से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. इसी रणनीति के तहत ओबामा प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह परमाणु संधि को लागू करने के लिए पहले अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन आन सप्लीमेंट्री कंपनसेशन फार न्यूक्लियर डेमेज (सी.एस.सी) पर हस्ताक्षर करे. भारत इसके लिए तैयार है लेकिन अमेरिका का कहना है कि इसपर हस्ताक्षर करने से पहले भारत को अपने परमाणु उत्तरदायित्व कानून को इसके प्रावधानों के अनुकूल बनाना होगा.
ओबामा की यात्रा की तैयारी के सिलसिले में हाल ही में भारत आये राजनीतिक मामलों के विदेश उपमंत्री विलियम बर्न्स ने साफ संकेत दिया कि भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के प्रावधानों के मुताबिक नहीं है. इसका अर्थ साफ है कि अगर भारत को सी.एस.सी पर हस्ताक्षर करना है तो उसे अपने संसद द्वारा पारित घरेलू कानून को बदलना पड़ेगा. जबकि भारतीय अधिकारियों का कहना है कि उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के अनुकूल है और सी.एस.सी में कहीं नहीं कहा गया है कि यह घरेलू राष्ट्रीय कानूनों के ऊपर है.
इसके बावजूद अमेरिका दबाव बनाये हुए है. ओबामा ने अपनी यात्रा से ठीक एक पखवाड़े पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बाबत चिट्ठी लिखकर दबाव और बढ़ा दिया है. इस चिट्ठी में ओबामा ने भारत से अमेरिकी अपेक्षाओं का उल्लेख किया है. जाहिर है कि ओबामा की विश लिस्ट बहुत भारी-भरकम है. ओबामा चाहते हैं कि दौरे के दौरान भारत न सिर्फ कई लंबित रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जाए बल्कि कई बड़े रक्षा सौदों जैसे लगभग ५.८ अरब डालर (२६ हजार करोड़ रूपये) के युद्धक मालवाही विमान सी-१७ ग्लोबमास्टर आदि की खरीद को भी हरी झंडी दिखाए.
ओबामा चीन के खिलाफ भारत को ‘मजबूत बनाने’ के लिए यह भी चाहते हैं कि भारत अपने खुदरा व्यापार क्षेत्र को विदेशी खासकर वालमार्ट जैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले. इसके अलावा वे अमेरिकी कंपनियों के लिए वित्तीय क्षेत्र खासकर पेंशन-बीमा आदि को भी और उदार बनाने की मांग कर रहे हैं. वह यह भी चाहते हैं कि भारत अपना घरेलू बाजार अमेरिकी कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए खोले. लेकिन दूसरी ओर, खुद ओबामा घरेलू राजनीति के दबावों के कारण भारतीय कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग के दरवाजे बंद करने की हर जुगत कर रहे हैं. यही नहीं, वे सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के दावे पर भी कोई प्रतिबद्धता नहीं देना चाहते हैं.
इस मामले में अमेरिकी रणनीति बिल्कुल साफ है. किसी भी दोस्ती में उसकी दिलचस्पी तभी तक है जब तक वह उसके आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक हितों को पूरा करती है. असल में, उसे अपने फायदे के अलावा कुछ नहीं दिखता है. भारत में भी अमेरिकी दिलचस्पी की वजहें स्पष्ट हैं. अमेरिका भारत को अपने अपने उद्योगों और सेवाओं के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखता है. उसे मालूम है कि मरते अमेरिकी परमाणु रिएक्टर उद्योग और अन्य साजो-सामानों के साथ-साथ रक्षा उपकरणों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है. दूसरी ओर, वह रणनीतिक तौर पर चीन के खिलाफ भारत के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ही अमेरिका उच्च तकनीकी निर्यात सम्बन्धी प्रतिबंधों को हटाने, परमाणु रिएक्टरों की आपूर्ति आदि भारत अनुकूल दिखनेवाले फैसले कर रहा है या करने को तैयार है. साफ है कि अमेरिका के लिए यह ‘दोस्ती’ किसी भावना या आदर्श के आधार पर नहीं बल्कि ठोस राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक हितों पर आधारित है. इस मामले में वह किसी मुगालते में नहीं है. ऐसे में, भारत को सोचना है कि उसके हित इस ‘दोस्ती’ में कहां तक सध रहे हैं? देखने होगा कि ओबामा भारत से जो मांग रहे हैं, उसके बदले दे क्या रहे हैं?
इस सवाल पर विचार करना इसलिए जरूरी है कि अमेरिका भारत को दोस्त की तरह कम और अपने एक ‘क्लाइंट स्टेट’ की तरह अधिक देखता है. यही कारण है कि अमेरिकी कंपनियां न सिर्फ परमाणु उत्तरदायित्व कानून की जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि अमेरिका अपनी ‘दोस्ती’ की कीमत भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति छोड़कर अमेरिकी विदेश नीति के साथ नत्थी करने के रूप में मांग रहा है. सवाल है कि वह ‘दोस्ती’ की जो ‘कीमत’ मांग रहा है, क्या भारत वह कीमत चुकाने को तैयार है?
('राष्ट्रीय सहारा' में २७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख का विस्तारित रूप)
मंगलवार, अक्टूबर 26, 2010
‘बिग बॉस’ यानी ‘मनोरंजन से मौत’
एक बार फिर ‘बिग बॉस’ का घर सज गया है. मनोरंजन चैनल ‘कलर्स’ पर बिग बॉस सलमान खान की अगुवाई में इस लोकप्रिय रीयलिटी शो के सीजन-४ की धूमधाम से शुरुआत हो चुकी है. हमेशा की तरह ‘बिग बॉस’ के इस नए संस्करण ने भी पर्याप्त विवादों को जन्म दिया है. शो में विवादास्पद यहां तक कि आपराधिक मामलों में आरोपित कथित सेलिब्रिटीज की मौजूदगी पर सवाल उठ रहे हैं. कहा जा रहा है कि इससे अच्छा होता कि ‘बिग बॉस’ का सेट तिहाड़ जेल में लगाया जाता और वहीँ की शूटिंग दिखाई जाती.
दूसरी ओर, शिव सेना और एम.एन.एस ने ‘बिग बॉस’ के घर में दो पाकिस्तानी कलाकारों- वीना मलिक और बेगम नवाजिश अली को शामिल किए जाने को मुद्दा बनाते हुए उन्हें शो से तुरंत निकालने की मांग की है. इस मांग को न मानने पर सेना ने इस शो को बंद करने की धमकी भी दी है. लोनावाला जहां बिग बॉस की शूटिंग चल रही है, वहां सेना के आह्वान पर एक दिन का बंद हो चुका है.
मतलब यह कि ‘बिग बॉस’ सुर्ख़ियों में है. चैनल को और क्या चाहिए? कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, ‘बिग बॉस’ की जिस दिन शुरुआत हुई, उस दिन उसने टी.आर.पी की दौड़ में कामनवेल्थ खेलों के भव्य उद्घाटन समारोह को भी पीछे छोड़ दिया. असल में, सारा खेल ही टी.आर.पी के लिए है. टी.आर.पी के लिए जरूरी है कि विवाद और हंगामे हों. इससे सुर्खियाँ मिलती है. सुर्ख़ियों से दर्शक आकर्षित होते हैं और उससे टी.आर.पी बढती है.
इस तरह, किसी शो की सफलता का फार्मूला यह बन गया है कि जितना बड़ा विवाद, उतनी अधिक टी.आर.पी. और उसी अनुपात में बढता चैनल का मुनाफा. इसलिए, हर चैनल और उसके रियलिटी शो विवादों को न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि विवाद पैदा करने के लिए हर जुगत भिड़ाते हैं. इस मायने में उनकी रणनीति यह होती है कि ‘बदनाम हुए तो क्या नाम नहीं होगा.’ सच पूछिए तो जैसे रियलिटी शो की ‘रियलिटी’ हमेशा से सवालों के घेरे में रही है, उसी तरह से उनसे जुड़े विवादों की ‘वास्तविकता’ भी किसी से छुपी नहीं है.
यही नहीं, चैनल और उनके शो खासकर बिग बॉस जैसे रियलिटी शो अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए लगातार विवादों को हवा देते रहते हैं, नए-नए विवाद पैदा करते हैं और ‘विवाद’ रचने में भी पीछे नहीं रहते हैं. आश्चर्य नहीं कि ‘बिग बॉस’ सीजन-४ के लिए ऐसे लोगों को चुना गया है जो पहले से ही किसी न किसी विवाद में रहे हैं और जिनका ‘सेलिब्रिटी’ स्टेटस विवादों पर ही टिका है. जैसे चैनल विवादों के बिना नहीं रह सकते हैं, उसी तरह से ये सभी देवियाँ और सज्जन बिना विवादों के नहीं रह सकते हैं. दोनों एक दूसरे की जरूरत हैं. एक दूसरे की मदद से ही इनका शो बिजनेस चलता है.
ऐसा लगता है कि इनका मन्त्र है- ‘मनोरंजन के लिए कुछ भी करेगा’ लेकिन बिग बॉस-४ में तो हद ही हो गई है. ऐसे-ऐसे लोगों को चुना गया जिन्हें शामिल करने का तर्क शायद शो के निर्माताओं के पास भी नहीं होगा. सवाल है कि उनके जरिए ‘बिग बॉस’ के क्या सन्देश देना चाहते हैं? क्या यह अपराध और अनैतिक कार्यों को महिमा मंडित (ग्लैमराइज) करने की कोशिश नहीं है? माफ़ कीजियेगा, बिग बॉस का घर कोई सुधार गृह नहीं है और न ही वहां कोई सुधरने के लिए लाया गया है. सच तो यह है कि वे सुधरना भी चाहें या अपने को एक बेहतर व्यक्तित्व के रूप में पेश करना चाहें तो चैनल उन्हें ऐसा करने नहीं देगा.
असल में, यह इस शो के अलिखित स्क्रिप्ट का हिस्सा है. इस शो के प्रतिभागियों से अनैतिक, अभद्र, अश्लील, आक्रामक और अटपटे व्यवहार की अपेक्षा की जा रही है. इसके शुरूआती एपिसोडों से यह दिखने भी लगा है. प्रतिभागियों के बीच से धड़ल्ले से द्विअर्थी संवाद बोले जा रहे हैं, कृत्रिम प्रेम सम्बन्ध रचे जा रहे हैं, एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र चल रहे हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश की जा रही है, झगड़े हो रहे हैं, रोना-गाना चल रहा है और अश्लीलता के नए मानदंड रचे जा रहे हैं. इससे साफ है कि इस शो का मकसद दर्शकों का मनोरंजन करने से अधिक उनकी बुद्धि के सबसे निम्नतम स्तर (लोएस्ट कामन डिनोमिनेटर) को सहलाना है.
असल में, ‘बिग बॉस’ जैसे रीयलिटी शो दर्शकों को इन कथित सेलिब्रिटीज के आपसी झगडों, षड्यंत्रों, अश्लीलताओं, रोने-गाने, प्रेम-नफ़रत और घर से विदाई में एक परपीड़क आनंद देते हैं. इससे भी बढ़कर वे दर्शकों को चौबीसों घंटे इन सेलिब्रिटीज के घर में ताक-झांक का मौका देते हैं जिससे उन्हें एक खास तरह का रतिसुख मिलता है. यह कहना गलत नहीं होगा कि बिग बॉस जैसे कार्यक्रम दर्शकों को परपीडक और रति सुख के आदी बना रहे हैं.
इस तरह, बिग बॉस जैसे कार्यक्रम एक ऐसा मध्यवर्गीय दर्शक वर्ग पैदा कर रहे हैं जो उदात्त मानवीय भावनाओं को आगे बढ़ाने के बजाय दूसरों के दुख और कष्ट में लुत्फ़ लेता है, जो दूसरों के घरों में अनुचित ताक-झांक करने में संकोच नहीं करता, जो दूसरों के झगडों में मजा लेता है और जो पीठ पीछे निंदा, चुगली, चापलूसी और षड्यंत्र करने को सफलता के लिए जरूरी मानता है.
क्या इसे ही मनोरंजन कहते हैं? अगर यह मनोरंजन है तो यह ‘मनोरंजन से मौत’ (डेथ बाई इंटरटेनमेंट) का उदाहरण है.
(तहलका के ३० अक्तूबर'१० के अंक में प्रकाशित)
दूसरी ओर, शिव सेना और एम.एन.एस ने ‘बिग बॉस’ के घर में दो पाकिस्तानी कलाकारों- वीना मलिक और बेगम नवाजिश अली को शामिल किए जाने को मुद्दा बनाते हुए उन्हें शो से तुरंत निकालने की मांग की है. इस मांग को न मानने पर सेना ने इस शो को बंद करने की धमकी भी दी है. लोनावाला जहां बिग बॉस की शूटिंग चल रही है, वहां सेना के आह्वान पर एक दिन का बंद हो चुका है.
मतलब यह कि ‘बिग बॉस’ सुर्ख़ियों में है. चैनल को और क्या चाहिए? कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, ‘बिग बॉस’ की जिस दिन शुरुआत हुई, उस दिन उसने टी.आर.पी की दौड़ में कामनवेल्थ खेलों के भव्य उद्घाटन समारोह को भी पीछे छोड़ दिया. असल में, सारा खेल ही टी.आर.पी के लिए है. टी.आर.पी के लिए जरूरी है कि विवाद और हंगामे हों. इससे सुर्खियाँ मिलती है. सुर्ख़ियों से दर्शक आकर्षित होते हैं और उससे टी.आर.पी बढती है.
इस तरह, किसी शो की सफलता का फार्मूला यह बन गया है कि जितना बड़ा विवाद, उतनी अधिक टी.आर.पी. और उसी अनुपात में बढता चैनल का मुनाफा. इसलिए, हर चैनल और उसके रियलिटी शो विवादों को न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि विवाद पैदा करने के लिए हर जुगत भिड़ाते हैं. इस मायने में उनकी रणनीति यह होती है कि ‘बदनाम हुए तो क्या नाम नहीं होगा.’ सच पूछिए तो जैसे रियलिटी शो की ‘रियलिटी’ हमेशा से सवालों के घेरे में रही है, उसी तरह से उनसे जुड़े विवादों की ‘वास्तविकता’ भी किसी से छुपी नहीं है.
यही नहीं, चैनल और उनके शो खासकर बिग बॉस जैसे रियलिटी शो अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए लगातार विवादों को हवा देते रहते हैं, नए-नए विवाद पैदा करते हैं और ‘विवाद’ रचने में भी पीछे नहीं रहते हैं. आश्चर्य नहीं कि ‘बिग बॉस’ सीजन-४ के लिए ऐसे लोगों को चुना गया है जो पहले से ही किसी न किसी विवाद में रहे हैं और जिनका ‘सेलिब्रिटी’ स्टेटस विवादों पर ही टिका है. जैसे चैनल विवादों के बिना नहीं रह सकते हैं, उसी तरह से ये सभी देवियाँ और सज्जन बिना विवादों के नहीं रह सकते हैं. दोनों एक दूसरे की जरूरत हैं. एक दूसरे की मदद से ही इनका शो बिजनेस चलता है.
ऐसा लगता है कि इनका मन्त्र है- ‘मनोरंजन के लिए कुछ भी करेगा’ लेकिन बिग बॉस-४ में तो हद ही हो गई है. ऐसे-ऐसे लोगों को चुना गया जिन्हें शामिल करने का तर्क शायद शो के निर्माताओं के पास भी नहीं होगा. सवाल है कि उनके जरिए ‘बिग बॉस’ के क्या सन्देश देना चाहते हैं? क्या यह अपराध और अनैतिक कार्यों को महिमा मंडित (ग्लैमराइज) करने की कोशिश नहीं है? माफ़ कीजियेगा, बिग बॉस का घर कोई सुधार गृह नहीं है और न ही वहां कोई सुधरने के लिए लाया गया है. सच तो यह है कि वे सुधरना भी चाहें या अपने को एक बेहतर व्यक्तित्व के रूप में पेश करना चाहें तो चैनल उन्हें ऐसा करने नहीं देगा.
असल में, यह इस शो के अलिखित स्क्रिप्ट का हिस्सा है. इस शो के प्रतिभागियों से अनैतिक, अभद्र, अश्लील, आक्रामक और अटपटे व्यवहार की अपेक्षा की जा रही है. इसके शुरूआती एपिसोडों से यह दिखने भी लगा है. प्रतिभागियों के बीच से धड़ल्ले से द्विअर्थी संवाद बोले जा रहे हैं, कृत्रिम प्रेम सम्बन्ध रचे जा रहे हैं, एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र चल रहे हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश की जा रही है, झगड़े हो रहे हैं, रोना-गाना चल रहा है और अश्लीलता के नए मानदंड रचे जा रहे हैं. इससे साफ है कि इस शो का मकसद दर्शकों का मनोरंजन करने से अधिक उनकी बुद्धि के सबसे निम्नतम स्तर (लोएस्ट कामन डिनोमिनेटर) को सहलाना है.
असल में, ‘बिग बॉस’ जैसे रीयलिटी शो दर्शकों को इन कथित सेलिब्रिटीज के आपसी झगडों, षड्यंत्रों, अश्लीलताओं, रोने-गाने, प्रेम-नफ़रत और घर से विदाई में एक परपीड़क आनंद देते हैं. इससे भी बढ़कर वे दर्शकों को चौबीसों घंटे इन सेलिब्रिटीज के घर में ताक-झांक का मौका देते हैं जिससे उन्हें एक खास तरह का रतिसुख मिलता है. यह कहना गलत नहीं होगा कि बिग बॉस जैसे कार्यक्रम दर्शकों को परपीडक और रति सुख के आदी बना रहे हैं.
इस तरह, बिग बॉस जैसे कार्यक्रम एक ऐसा मध्यवर्गीय दर्शक वर्ग पैदा कर रहे हैं जो उदात्त मानवीय भावनाओं को आगे बढ़ाने के बजाय दूसरों के दुख और कष्ट में लुत्फ़ लेता है, जो दूसरों के घरों में अनुचित ताक-झांक करने में संकोच नहीं करता, जो दूसरों के झगडों में मजा लेता है और जो पीठ पीछे निंदा, चुगली, चापलूसी और षड्यंत्र करने को सफलता के लिए जरूरी मानता है.
क्या इसे ही मनोरंजन कहते हैं? अगर यह मनोरंजन है तो यह ‘मनोरंजन से मौत’ (डेथ बाई इंटरटेनमेंट) का उदाहरण है.
(तहलका के ३० अक्तूबर'१० के अंक में प्रकाशित)
रविवार, अक्टूबर 17, 2010
फ्रेंच मजदूरों के संघर्ष का गीत
फ्रांस में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और मजदूर विरोधी फैसलों के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल ने सरकार को हिला दिया है. हालाँकि यह सिर्फ फ्रांस तक सीमित परिघटना नहीं है. वैश्विक मंदी के बाद से पैदा हुए वित्तीय संकट से यूरोप अभी भी बाहर नहीं निकल पाया है. इस संकट से निपटने के नाम पर यूरोप की सरकारें सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों में बजट कटौती से लेकर मजदूरों की छंटनी और उनके अधिकारों पर हमले कर रही हैं. इसके खिलाफ पिछले कई महीनों से ग्रीस, इटली, स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और हालैंड में लाखों मजदूर सडकों पर उतरकर संघर्ष कर रहे हैं.
फ्रांस के श्रमिकों का संघर्ष पूंजीवाद के नए हमलों के खिलाफ यूरोप भर में जारी संघर्षों की ही ताजा कड़ी है. इस आन्दोलन ने फ्रांस के एक बैंड के इस गीत को अपने संघर्ष का गीत बना लिया है. इसका फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत है. इसे आप भी पढ़िए:
Never Give an Inch
फ्रांस के श्रमिकों का संघर्ष पूंजीवाद के नए हमलों के खिलाफ यूरोप भर में जारी संघर्षों की ही ताजा कड़ी है. इस आन्दोलन ने फ्रांस के एक बैंड के इस गीत को अपने संघर्ष का गीत बना लिया है. इसका फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत है. इसे आप भी पढ़िए:
Never Give an Inch
by HK & les Saltimbanks
From the bottom of my urban project
Deep into your countryside
The reality has changed
Deep into your countryside
The reality has changed
And the revolt is brewing everywhere
In this world there was no place for us
We didn't look the part
We were not to the manor born
Not on daddy's plastic
In this world there was no place for us
We didn't look the part
We were not to the manor born
Not on daddy's plastic
The homeless, the unemployed, workers
Farmers, immigrants, the undocumented
They wanted to divide us
And to say they succeeded
इसका वीडियो आप यहाँ देख सकते हैं:
Farmers, immigrants, the undocumented
They wanted to divide us
And to say they succeeded
As long as it was every man for himself
Their system could prosper
But one day we had to wake up
The heads had to roll
We'll never give an inch
They told us about equality
But one day we had to wake up
The heads had to roll
We'll never give an inch
They told us about equality
And like fools we believed them
"Democracy" makes me laugh
If we had had it we would have known it
What's the worth of our votes
Up against the law of the market?
They say "my dear fellow countrymen"
But we're fucked all the same
And what's the worth of human rights
Up against the airbus sale?
The bottom line, there's only one law, in sum:
"Sell yourself more to sell more."
"Democracy" makes me laugh
If we had had it we would have known it
What's the worth of our votes
Up against the law of the market?
They say "my dear fellow countrymen"
But we're fucked all the same
And what's the worth of human rights
Up against the airbus sale?
The bottom line, there's only one law, in sum:
"Sell yourself more to sell more."
The republic is a whore
Walking the street of dictators
We no longer believe
Their beautiful words
Our leaders are liars
We'll never give an inch
So stupid, so trite,
To speak of peace and brotherhood
When the homeless are dying in the streets
And the undocumented are being driven out
Crumbs are thrown to proles
That's just in the history of the silent
They don't attack millionaire bosses
"Too important for our society"
It's crazy the way they are protected
All our rich and powerful
Not to mention the help they get
For being the friends of the president
Dear comrades, dear "voters"
Dear "citizen-consumers"
The alarm is ringing
It's time
To reset to zero
As long as there's struggle and hope
As long as there's life and battle
As long as we're fighting, we're standing
Here's the key
We're standing, we won't give an inch
The passion for victory runs in our blood
Now you know why we are fighting
Our ideal, more than a dream
Another world, we have no choice
Walking the street of dictators
We no longer believe
Their beautiful words
Our leaders are liars
We'll never give an inch
So stupid, so trite,
To speak of peace and brotherhood
When the homeless are dying in the streets
And the undocumented are being driven out
Crumbs are thrown to proles
That's just in the history of the silent
They don't attack millionaire bosses
"Too important for our society"
It's crazy the way they are protected
All our rich and powerful
Not to mention the help they get
For being the friends of the president
Dear comrades, dear "voters"
Dear "citizen-consumers"
The alarm is ringing
It's time
To reset to zero
As long as there's struggle and hope
As long as there's life and battle
As long as we're fighting, we're standing
Here's the key
We're standing, we won't give an inch
The passion for victory runs in our blood
Now you know why we are fighting
Our ideal, more than a dream
Another world, we have no choice
इसका वीडियो आप यहाँ देख सकते हैं:
http://www.saltimbanques.fr/Artistes/HK-les-Saltimbanks/Videos/MAP-On-lache-rien
(We'll never give an inch"On lâche rien," a song by HK & les Saltimbanks (Kadour Haddadi and his band), has been adopted by French workers on strike against the Sarkozy-Woerth plan to raise the retirement age.)
(We'll never give an inch"On lâche rien," a song by HK & les Saltimbanks (Kadour Haddadi and his band), has been adopted by French workers on strike against the Sarkozy-Woerth plan to raise the retirement age.)
शुक्रवार, अक्टूबर 15, 2010
कर्नाटक से लेकर झारखंड तक भाजपा का दोहरा चरित्र
कर्नाटक के बारे में मेरी टिप्पणी पर ‘फेसबुक’ के मेरे कई नौजवान दोस्त नाराज हैं. उनका ख्याल है कि कर्नाटक में भाजपा जो कुछ भी कर रही है, वह कांग्रेस को उसी की भाषा में करारा जवाब है. युवा साथी संदीप झा का कहना है कि ‘दुश्चरित्र दलों के दुष्कृत्यों का भाजपा ने उसी अंदाज़ में जवाब दिया तो कईयों के पेट में मरोड़ उठ गया. जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को गिराने की कोशिश को चुपचाप बर्दाश्त कर लेते और कांग्रेस-जे.डी(एस) की सरकार बनवाने में मदद करते तो आपलोगों को अच्छा लगता.’
उन्हें यह भी लगता है कि मुख्य विपक्षी दल के विन्ध्य के उस पार विस्तार को कांग्रेस अब तक पचा नहीं पाई है. इसलिए वह उसे गिराने के लिए राज्यपाल का इस्तेमाल कर रही है. केरल में पहली विपक्षी सरकार गिराने से लेकर अब तक कांग्रेस की मानसिकता नहीं बदली है. संदीप के अनुसार ‘कांग्रेस का वश चलता तो देश की सभी गैर कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगा देती.’
मेरे एक और दोस्त आलोक कुमार की भी शिकायत कुछ ऐसी ही है. उनके मुताबिक कर्नाटक में भाजपा की आलोचना करनेवाले ‘कांग्रेस को उसी की भाषा में दिए गए जवाब से तिलमिलाए लोगों का रूख है.’ आलोक का मानना है कि ‘देश में जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार नहीं है. कर्नाटक की सरकार पांच साल के लिए चुनी गई है, इसलिए शांत रहा जाए.’ आलोक ने भी राज्यपालों के कांग्रेसी एजेंट की तरह काम करने की तीखी आलोचना की है.
निश्चय ही, कांग्रेस और जे.डी (एस) जैसी पार्टियों की करतूतों को कभी भी अनदेखा और माफ़ नहीं किया जाना चाहिए. यह भी सौ फीसदी सही है कि देश में भ्रष्ट, दलाल, अनैतिक और पतित राजनीतिक संस्कृति की जन्मदाता कांग्रेस ही है. लेकिन क्या इस आधार पर भाजपा को भ्रष्ट और पतित राजनीति करने का लाइसेंस मिल जाता है?
मुझे उम्मीद है कि मेरे नौजवान दोस्त भी यह स्वीकार करेंगे कि भाजपा इस भ्रष्ट और पतित कांग्रेसी संस्कृति में में पूरी तरह से रंग चुकी है. दोनों में कोई फर्क नहीं है, सिवाय इसके कि एक कट्टर सांप्रदायिक पार्टी है और दूसरी अवसरवादी और साफ्ट सांप्रदायिक पार्टी. अफसोस की बात यह है कि आज तीसरे मोर्चे की भी सभी पार्टियां इस कांग्रेसी संस्कृति की सबसे बड़ी झंडाबरदार बन चुकी हैं.
इसलिए सवाल है कि क्या कर्नाटक में भाजपा सचमुच कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब दे रही है या यह खुद भाजपा के अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ की राजनीति की शर्मनाक वास्तविकता है? कर्नाटक में भाजपा कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब दे रही है या भाजपा की यही भाषा है? कृपया, तथ्यों पर गौर कीजिये.
२००७ के चुनावों में कर्नाटक में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था और येदियुरप्पा ने निर्दलियों की मदद से दक्षिण भारत में पहली भाजपा सरकार बनाई थी. निर्दलियों ने इसकी पूरी कीमत वसूली. २००८ में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व की सहमति से येदियुरप्पा ने अपनी सरकार की स्थिरता के लिए खरीद-फरोख्त का खेल शुरू किया. ‘आपरेशन कमाल’ के तहत एक दर्जन से अधिक कांग्रेस और जे.डी (एस) विधायकों को तोडा गया.
साफ है कि शुरुआत किसने की? लेकिन इसके बावजूद वे माइनिंग किंग रेड्डी बंधुओं की खुली बगावत को नहीं रोक सके. रेड्डी बंधुओं ने किस तरह से दो सप्ताह तक भाजपा की दक्षिण भारत की पहली सरकार को राजनीतिक रूप से पंगु और बंधक बना करके रखा, यह किसी से छुपा नहीं है.
पूरे देश ने देखा कि किस तरह से भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं के आगे समर्पण करना पड़ा. जाहिर है कि यह सब कांग्रेस की शह पर नहीं हुआ था. यह भाजपा की अपना ‘चाल,चरित्र और चेहरा’ था.
इसके बाद भी, पिछले ढाई वर्षों में भाजपा की कर्नाटक इकाई और सरकार जिस तरह से गुटों में बंटी और सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए आपस में खुलेआम लड़ती-झगडती रही है, वह कांग्रेस और अन्य पार्टियों की सरकारों से किसी मामले में बेहतर नहीं बल्कि बदतर ही रहा है. मंत्री बनने के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शन, धरना और पार्टी से बगावत तक हो गई.
असल में, कर्नाटक में कांग्रेस और जे.डी (एस) भाजपा के खुद के घर मची घमासान का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि राज्यपाल कांग्रेस के एजेंट की तरह से काम कर रहे हैं.
इसीलिए, कर्नाटक में येदियुरप्पा की अवैध सरकार का जाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कि कांग्रेस और जे.डी (एस) को एक अवसरवादी और खरीद-फरोख्त पर खड़ी की गई सरकार न बनाने दिया जाए. कर्नाटक में चाहे भाजपा हो या कांग्रेस-जे.डी(एस)- किसी को लोकतंत्र को रौंदने और उसके साथ बलात्कार करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. इसके लिए लोकतंत्र में सबसे बेहतर तरीका जनता के पास वापस जाना है. साफ है कि नए चुनावों के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
लोहिया ने कहा था कि ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं.’ कर्नाटक की जनता भी पांच साल इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है.
(जल्दी ही, भाजपा की राजनीति पर कुछ और बातें..इंतजार कीजिये... )
उन्हें यह भी लगता है कि मुख्य विपक्षी दल के विन्ध्य के उस पार विस्तार को कांग्रेस अब तक पचा नहीं पाई है. इसलिए वह उसे गिराने के लिए राज्यपाल का इस्तेमाल कर रही है. केरल में पहली विपक्षी सरकार गिराने से लेकर अब तक कांग्रेस की मानसिकता नहीं बदली है. संदीप के अनुसार ‘कांग्रेस का वश चलता तो देश की सभी गैर कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगा देती.’
मेरे एक और दोस्त आलोक कुमार की भी शिकायत कुछ ऐसी ही है. उनके मुताबिक कर्नाटक में भाजपा की आलोचना करनेवाले ‘कांग्रेस को उसी की भाषा में दिए गए जवाब से तिलमिलाए लोगों का रूख है.’ आलोक का मानना है कि ‘देश में जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार नहीं है. कर्नाटक की सरकार पांच साल के लिए चुनी गई है, इसलिए शांत रहा जाए.’ आलोक ने भी राज्यपालों के कांग्रेसी एजेंट की तरह काम करने की तीखी आलोचना की है.
निश्चय ही, कांग्रेस और जे.डी (एस) जैसी पार्टियों की करतूतों को कभी भी अनदेखा और माफ़ नहीं किया जाना चाहिए. यह भी सौ फीसदी सही है कि देश में भ्रष्ट, दलाल, अनैतिक और पतित राजनीतिक संस्कृति की जन्मदाता कांग्रेस ही है. लेकिन क्या इस आधार पर भाजपा को भ्रष्ट और पतित राजनीति करने का लाइसेंस मिल जाता है?
मुझे उम्मीद है कि मेरे नौजवान दोस्त भी यह स्वीकार करेंगे कि भाजपा इस भ्रष्ट और पतित कांग्रेसी संस्कृति में में पूरी तरह से रंग चुकी है. दोनों में कोई फर्क नहीं है, सिवाय इसके कि एक कट्टर सांप्रदायिक पार्टी है और दूसरी अवसरवादी और साफ्ट सांप्रदायिक पार्टी. अफसोस की बात यह है कि आज तीसरे मोर्चे की भी सभी पार्टियां इस कांग्रेसी संस्कृति की सबसे बड़ी झंडाबरदार बन चुकी हैं.
इसलिए सवाल है कि क्या कर्नाटक में भाजपा सचमुच कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब दे रही है या यह खुद भाजपा के अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ की राजनीति की शर्मनाक वास्तविकता है? कर्नाटक में भाजपा कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब दे रही है या भाजपा की यही भाषा है? कृपया, तथ्यों पर गौर कीजिये.
२००७ के चुनावों में कर्नाटक में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था और येदियुरप्पा ने निर्दलियों की मदद से दक्षिण भारत में पहली भाजपा सरकार बनाई थी. निर्दलियों ने इसकी पूरी कीमत वसूली. २००८ में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व की सहमति से येदियुरप्पा ने अपनी सरकार की स्थिरता के लिए खरीद-फरोख्त का खेल शुरू किया. ‘आपरेशन कमाल’ के तहत एक दर्जन से अधिक कांग्रेस और जे.डी (एस) विधायकों को तोडा गया.
साफ है कि शुरुआत किसने की? लेकिन इसके बावजूद वे माइनिंग किंग रेड्डी बंधुओं की खुली बगावत को नहीं रोक सके. रेड्डी बंधुओं ने किस तरह से दो सप्ताह तक भाजपा की दक्षिण भारत की पहली सरकार को राजनीतिक रूप से पंगु और बंधक बना करके रखा, यह किसी से छुपा नहीं है.
पूरे देश ने देखा कि किस तरह से भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं के आगे समर्पण करना पड़ा. जाहिर है कि यह सब कांग्रेस की शह पर नहीं हुआ था. यह भाजपा की अपना ‘चाल,चरित्र और चेहरा’ था.
इसके बाद भी, पिछले ढाई वर्षों में भाजपा की कर्नाटक इकाई और सरकार जिस तरह से गुटों में बंटी और सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए आपस में खुलेआम लड़ती-झगडती रही है, वह कांग्रेस और अन्य पार्टियों की सरकारों से किसी मामले में बेहतर नहीं बल्कि बदतर ही रहा है. मंत्री बनने के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शन, धरना और पार्टी से बगावत तक हो गई.
असल में, कर्नाटक में कांग्रेस और जे.डी (एस) भाजपा के खुद के घर मची घमासान का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि राज्यपाल कांग्रेस के एजेंट की तरह से काम कर रहे हैं.
इसीलिए, कर्नाटक में येदियुरप्पा की अवैध सरकार का जाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कि कांग्रेस और जे.डी (एस) को एक अवसरवादी और खरीद-फरोख्त पर खड़ी की गई सरकार न बनाने दिया जाए. कर्नाटक में चाहे भाजपा हो या कांग्रेस-जे.डी(एस)- किसी को लोकतंत्र को रौंदने और उसके साथ बलात्कार करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. इसके लिए लोकतंत्र में सबसे बेहतर तरीका जनता के पास वापस जाना है. साफ है कि नए चुनावों के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
लोहिया ने कहा था कि ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं.’ कर्नाटक की जनता भी पांच साल इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है.
(जल्दी ही, भाजपा की राजनीति पर कुछ और बातें..इंतजार कीजिये... )
गुरुवार, अक्टूबर 14, 2010
कर्नाटक:जनता का विश्वास खो चुकी है यह विधानसभा, नए चुनाव कराइए
कहते हैं कि बंगलुरु के मौसम का कोई ठिकाना नहीं है. यहां मौसम पल-पल में बदलता रहता है. इस शहर में सर्दी, गर्मी और बरसात सभी एक साथ चलते हैं. कम से कम पिछले कुछ दिनों में मेरा अनुभव तो यही है. सच कहूं तो मैं इसका खूब लुत्फ़ उठा रहा हूँ. पिछले तीन-चार दिनों से बी.बी.सी की एक वर्कशाप के सिलसिले में बंगलुरु में हूँ. यहां का मौसम सचमुच सुहावना है. कुछ वैसा ही जैसे दिल्ली में नवंबर के आखिरी सप्ताहों में होता है. सिहरन पैदा करती सुबह की ठण्ड, दोपहर में हलकी गुनगुनी गर्मी, शाम होते-होते सम मौसम को देर शाम की हलकी बारिश फिर ठंडी कर देती है.
लेकिन इन दिनों बंगलुरु के मौसम से ज्यादा यहां की राजनीति का कोई ठिकाना नहीं है. यहां राजनीति पल-पल में बदल रही है. बंगलुरु का मौसम भले सुहावना हो लेकिन कर्नाटक की राजनीति में उबाल आया हुआ है. उसकी गर्मी बंगलुरु से लेकर दिल्ली तक महसूस की जा रही है. मौसम से ज्यादा तेजी से रंग बदलनेवाले राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के निर्देश पर बी.एस. येदियुरप्पा की ढाई साल की भाजपा सरकार चार दिनों में दूसरी बार “विश्वासमत” हासिल कर लिया है.
हालांकि यह किसी ‘फार्स’ से कम नहीं था. यह पहले ही तय हो चुका था क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष के.जी बोपैया के आशीर्वाद और तिकडमों से येदियुरप्पा को एक बार फिर अपना ‘बहुमत’ साबित करने और “विश्वासमत” हासिल करने में कोई दिक्कत नहीं होनी थी.
लेकिन इसके बावजूद कोई नहीं जानता कि येदियुरप्पा सरकार कितने दिनों की मेहमान है? कारण कि गेंद अब कर्नाटक हाई कोर्ट के पाले में है. अब काफी हद तक कोर्ट को फैसला करना है कि ग्यारह भाजपा और पांच निर्दलीय विधायकों को अयोग्य ठहराने का विधानसभा अध्यक्ष फैसला संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर कितना खरा है?
कोर्ट ने आज के विश्वासमत को पहले ही अंतिम न्यायिक फैसले के साथ जोड़ रखा है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हाई कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अयोग्य घोषित सोलह विधायकों की अयोग्यता को अवैध ठहरा दिया तो येदियुरप्पा सरकार फिर से अल्पमत में आ जायेगी.
उस स्थिति में राज्यपाल येदियुरप्पा को फिर से विश्वासमत हासिल करने के लिए कह सकते हैं और मौजूदा अंकगणित के हिसाब से येदियुरप्पा सरकार की विदाई तय हो जायेगी. लेकिन अगर कोर्ट ने ग्यारह भाजपा विधायकों की अयोग्यता के निर्णय को सही और पांच निर्दलीय विधायकों की अयोग्यता को गैरकानूनी ठहरा दिया तो उस स्थिति में येदियुरप्पा के पक्ष में १०६ और विपक्ष में भी १०६ मत होंगे और विधानसभा अध्यक्ष का कास्टिंग वोट निर्णायक हो जायेगा.
संभव है कि उस स्थिति में येदियुरप्पा सरकार बच जाए लेकिन विधानसभा अध्यक्ष के वोट पर टिकी सरकार एक तरह से इंटेंसिव केयर यूनिट में भर्ती आखिरी घड़ियाँ गिनते मरीज की तरह होगी. यह एक दिन से दूसरे दिन के बीच एक-एक साँस गिन-गिनकर चलेगी. कब तक? अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
सच पूछिए तो दक्षिण भारत में भाजपा की पहली सरकार सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार खो चुकी है. पिछले ढाई साल के कार्यकाल में येदियुरप्पा सरकार एक संकट से दूसरे संकट के बीच झूलती रही है. इसके लिए कोई बाहरी राजनीतिक दल से ज्यादा खुद भाजपा की अपनी राजनीति और अंदरूनी झगड़े जिम्मेदार रहे हैं.
सबसे शर्मनाक यह है कि ये झगड़े किसी नीतिगत विषय पर नहीं बल्कि सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए होते रहे हैं. जगजाहिर है, पिछली बार येदियुरप्पा सरकार को बेल्लारी के बेताज खनन बादशाह (माईनिंग किंग) रेड्डी बंधुओं ने लगभग गिरा दिया था. भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को सरकार बचाने के लिए न सिर्फ रेड्डी बंधुओं की सभी मांगें माननी पड़ी थीं और आंसू बहाते येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं के घुटनों पर झुकने पर मजबूर किया गया था.
विडम्बना देखिये कि इस बार येदियुरप्पा सरकार को बचाने की मुहिम में रेड्डी बंधु सबसे आगे थे. साफ है कि आखिरी सांसे गिन रही येदियुरप्पा सरकार अब अपने अस्तित्व के लिए रेड्डी बंधुओं के समर्थन पर और ज्यादा निर्भर होगी. इस समर्थन की कीमत क्या होगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस स्थिति में यह सरकार जितने दिन और सत्ता में रहेगी, वह कर्नाटक के लोगों की भलाई के लिए नहीं बल्कि खनन माफिया से लेकर रीयल इस्टेट माफिया की लूट और कमाई के लिए काम करेगी.
बंगलुरु की सडकों पर घूमते हुए आम लोगों से बात करते या थ्री व्हीलर के ड्राइवरों से बात करते हुए यह महसूस हुआ कि यह सरकार आम लोगों का समर्थन भी खो चुकी है. कम से कम यह सरकार सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार काफी पहले गवां चुकी है. धीरे-धीरे यह आम धारणा बनती जा रही है कि यह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी और निकम्मी सरकार है. यहां तक कि खुद मुख्यमंत्री के पुत्र पर अवैध तरीके से जमीन कब्जाने के आरोप लग चुके हैं. कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस या जे.डी (एस) भी कोई दूध की धुली नहीं हैं. उनकी सरकारों पर भी भ्रष्टाचार के ऐसे ही गंभीर आरोप रहे हैं. खनन माफिया से उनके सम्बन्ध भी किसी से छुपे नहीं हैं. माना जा रहा है कि येदियुरप्पा सरकार को गिराने में इस बार खनन माफिया के उस हिस्से की अति सक्रिय भूमिका रही है जो रेड्डी बंधुओं के दबदबे और येदियुरप्पा के लौह अयस्क के निर्यात पर रोक लगाने से नाराज था. इसी तरह, कांग्रेस और जे.डी (एस) की ताजा दोस्ती और मिलजुलकर सरकार बनाने की कोशिश भी अवसरवाद की इन्तहां है.
लेकिन जब राजनीति का उद्देश्य किसी भी तरह से सत्ता हासिल करना और उस सत्ता का इस्तेमाल सरकारी और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के लिए हो तो वास्तव में, भाजपा, कांग्रेस और जे.डी(एस) के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता है. इस हमाम्म में सभी नंगे हैं. कर्नाटक की राजनीति में यह नंगापन कुछ ज्यादा ही खुलकर सामने आ गया है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि येदियुरप्पा सरकार को और ढाई साल तक बर्दाश्त किया जाए. कहने की जरूरत नहीं है कि नैतिकता और आदर्शों की बात करनेवाली भाजपा आनेवाले दिनों में कर्नाटक में नकली ‘बहुमत’ हासिल करने के लिए आनेवाले दिनों में कांग्रेस और जे.डी(एस) के विधायकों को खरीदने की कोशिश करेगी. आज अपने विधायकों की खरीद-फरोख्त पर शोर मचा रही भाजपा कर्नाटक में इसी तरह के खरीद-फरोख्त कर चुकी है.
ऐसे में, जरूरी है कि कर्नाटक में नए सिरे से चुनाव कराए जाएं. कर्नाटक का मौजूदा राजनीतिक गतिरोध का फैसला हाई कोर्ट या राजभवन में नहीं बल्कि जनता के कोर्ट में होना चाहिए. लोकतंत्र में जनता की अदालत से बड़ी अदालत कोई नहीं है. कर्नाटक की राजनीतिक गन्दगी की सफाई भी जनता के झाड़ू से ही होगा.
लेकिन इन दिनों बंगलुरु के मौसम से ज्यादा यहां की राजनीति का कोई ठिकाना नहीं है. यहां राजनीति पल-पल में बदल रही है. बंगलुरु का मौसम भले सुहावना हो लेकिन कर्नाटक की राजनीति में उबाल आया हुआ है. उसकी गर्मी बंगलुरु से लेकर दिल्ली तक महसूस की जा रही है. मौसम से ज्यादा तेजी से रंग बदलनेवाले राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के निर्देश पर बी.एस. येदियुरप्पा की ढाई साल की भाजपा सरकार चार दिनों में दूसरी बार “विश्वासमत” हासिल कर लिया है.
हालांकि यह किसी ‘फार्स’ से कम नहीं था. यह पहले ही तय हो चुका था क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष के.जी बोपैया के आशीर्वाद और तिकडमों से येदियुरप्पा को एक बार फिर अपना ‘बहुमत’ साबित करने और “विश्वासमत” हासिल करने में कोई दिक्कत नहीं होनी थी.
लेकिन इसके बावजूद कोई नहीं जानता कि येदियुरप्पा सरकार कितने दिनों की मेहमान है? कारण कि गेंद अब कर्नाटक हाई कोर्ट के पाले में है. अब काफी हद तक कोर्ट को फैसला करना है कि ग्यारह भाजपा और पांच निर्दलीय विधायकों को अयोग्य ठहराने का विधानसभा अध्यक्ष फैसला संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर कितना खरा है?
कोर्ट ने आज के विश्वासमत को पहले ही अंतिम न्यायिक फैसले के साथ जोड़ रखा है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हाई कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अयोग्य घोषित सोलह विधायकों की अयोग्यता को अवैध ठहरा दिया तो येदियुरप्पा सरकार फिर से अल्पमत में आ जायेगी.
उस स्थिति में राज्यपाल येदियुरप्पा को फिर से विश्वासमत हासिल करने के लिए कह सकते हैं और मौजूदा अंकगणित के हिसाब से येदियुरप्पा सरकार की विदाई तय हो जायेगी. लेकिन अगर कोर्ट ने ग्यारह भाजपा विधायकों की अयोग्यता के निर्णय को सही और पांच निर्दलीय विधायकों की अयोग्यता को गैरकानूनी ठहरा दिया तो उस स्थिति में येदियुरप्पा के पक्ष में १०६ और विपक्ष में भी १०६ मत होंगे और विधानसभा अध्यक्ष का कास्टिंग वोट निर्णायक हो जायेगा.
संभव है कि उस स्थिति में येदियुरप्पा सरकार बच जाए लेकिन विधानसभा अध्यक्ष के वोट पर टिकी सरकार एक तरह से इंटेंसिव केयर यूनिट में भर्ती आखिरी घड़ियाँ गिनते मरीज की तरह होगी. यह एक दिन से दूसरे दिन के बीच एक-एक साँस गिन-गिनकर चलेगी. कब तक? अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
सच पूछिए तो दक्षिण भारत में भाजपा की पहली सरकार सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार खो चुकी है. पिछले ढाई साल के कार्यकाल में येदियुरप्पा सरकार एक संकट से दूसरे संकट के बीच झूलती रही है. इसके लिए कोई बाहरी राजनीतिक दल से ज्यादा खुद भाजपा की अपनी राजनीति और अंदरूनी झगड़े जिम्मेदार रहे हैं.
सबसे शर्मनाक यह है कि ये झगड़े किसी नीतिगत विषय पर नहीं बल्कि सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए होते रहे हैं. जगजाहिर है, पिछली बार येदियुरप्पा सरकार को बेल्लारी के बेताज खनन बादशाह (माईनिंग किंग) रेड्डी बंधुओं ने लगभग गिरा दिया था. भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को सरकार बचाने के लिए न सिर्फ रेड्डी बंधुओं की सभी मांगें माननी पड़ी थीं और आंसू बहाते येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं के घुटनों पर झुकने पर मजबूर किया गया था.
विडम्बना देखिये कि इस बार येदियुरप्पा सरकार को बचाने की मुहिम में रेड्डी बंधु सबसे आगे थे. साफ है कि आखिरी सांसे गिन रही येदियुरप्पा सरकार अब अपने अस्तित्व के लिए रेड्डी बंधुओं के समर्थन पर और ज्यादा निर्भर होगी. इस समर्थन की कीमत क्या होगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस स्थिति में यह सरकार जितने दिन और सत्ता में रहेगी, वह कर्नाटक के लोगों की भलाई के लिए नहीं बल्कि खनन माफिया से लेकर रीयल इस्टेट माफिया की लूट और कमाई के लिए काम करेगी.
बंगलुरु की सडकों पर घूमते हुए आम लोगों से बात करते या थ्री व्हीलर के ड्राइवरों से बात करते हुए यह महसूस हुआ कि यह सरकार आम लोगों का समर्थन भी खो चुकी है. कम से कम यह सरकार सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार काफी पहले गवां चुकी है. धीरे-धीरे यह आम धारणा बनती जा रही है कि यह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी और निकम्मी सरकार है. यहां तक कि खुद मुख्यमंत्री के पुत्र पर अवैध तरीके से जमीन कब्जाने के आरोप लग चुके हैं. कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस या जे.डी (एस) भी कोई दूध की धुली नहीं हैं. उनकी सरकारों पर भी भ्रष्टाचार के ऐसे ही गंभीर आरोप रहे हैं. खनन माफिया से उनके सम्बन्ध भी किसी से छुपे नहीं हैं. माना जा रहा है कि येदियुरप्पा सरकार को गिराने में इस बार खनन माफिया के उस हिस्से की अति सक्रिय भूमिका रही है जो रेड्डी बंधुओं के दबदबे और येदियुरप्पा के लौह अयस्क के निर्यात पर रोक लगाने से नाराज था. इसी तरह, कांग्रेस और जे.डी (एस) की ताजा दोस्ती और मिलजुलकर सरकार बनाने की कोशिश भी अवसरवाद की इन्तहां है.
लेकिन जब राजनीति का उद्देश्य किसी भी तरह से सत्ता हासिल करना और उस सत्ता का इस्तेमाल सरकारी और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के लिए हो तो वास्तव में, भाजपा, कांग्रेस और जे.डी(एस) के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता है. इस हमाम्म में सभी नंगे हैं. कर्नाटक की राजनीति में यह नंगापन कुछ ज्यादा ही खुलकर सामने आ गया है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि येदियुरप्पा सरकार को और ढाई साल तक बर्दाश्त किया जाए. कहने की जरूरत नहीं है कि नैतिकता और आदर्शों की बात करनेवाली भाजपा आनेवाले दिनों में कर्नाटक में नकली ‘बहुमत’ हासिल करने के लिए आनेवाले दिनों में कांग्रेस और जे.डी(एस) के विधायकों को खरीदने की कोशिश करेगी. आज अपने विधायकों की खरीद-फरोख्त पर शोर मचा रही भाजपा कर्नाटक में इसी तरह के खरीद-फरोख्त कर चुकी है.
ऐसे में, जरूरी है कि कर्नाटक में नए सिरे से चुनाव कराए जाएं. कर्नाटक का मौजूदा राजनीतिक गतिरोध का फैसला हाई कोर्ट या राजभवन में नहीं बल्कि जनता के कोर्ट में होना चाहिए. लोकतंत्र में जनता की अदालत से बड़ी अदालत कोई नहीं है. कर्नाटक की राजनीतिक गन्दगी की सफाई भी जनता के झाड़ू से ही होगा.
मंगलवार, अक्टूबर 12, 2010
भोजन के अधिकार के नाम पर आम आदमी को ठेंगा
माफ़ कीजिये, दिल्ली में कामनवेल्थ के नाम पर जो लूट मची हुई है और गरीबों को उजाडने का अभियान चल रहा है, वह केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है. सच पूछिए तो यह यूपीए-दो के नेतृत्व में गरीबों को ठेंगा दिखाने के राष्ट्रीय खेल का ही हिस्सा है.
सूचनाओं के मुताबिक सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) की ताजा बैठक में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने साफ-साफ कह दिया है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करनेवालों को हर महीने तीन रूपये किलो की दर से ३५ किलो चावल या गेहूं देने का कानूनी अधिकार अगली पंचवर्षीय योजना यानी २०१२ से पहले लागू करना संभव नहीं होगा.
यही नहीं, रिपोर्टों के मुताबिक प्रधानमंत्री से लेकर यू.पी.ए सरकार के अधिकांश मंत्री और अफसर खाद्य सुरक्षा के किसी व्यापक कानूनी अधिकार को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. एन.ए.सी की बैठक में अहलुवालिया ने कहा कि परिषद के सदस्यों के सुझाये मुताबिक अगर कानून बना तो खाद्य सब्सिडी का खर्च एक लाख दस हजार करोड़ रूपये तक पहुंच जायेगा जिसके लिए मौजूदा योजना में प्रावधान नहीं है. उनका यह भी कहना था कि ऐसी स्थिति में इसे लागू करने के लिए मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं के मद में से ही कटौती करनी पड़ेगी.
बैठक में मौजूद केन्द्र सरकार के अन्य आला अफसरों ने भी इशारों ही इशारों में कह दिया कि खाद्य सुरक्षा का व्यापक प्रावधान मौजूदा संसाधनों के बीच संभव नहीं है. ऐसे संकेत हैं कि खुद सोनिया गांधी भी एन.ए.सी के कई उत्साही सदस्यों से सहमत नहीं हैं और किसी बीच के रास्ते के पक्ष में हैं.
उधर, प्रधानमंत्री ने सड़ाने के बजाय गरीबों में मुफ्त अनाज बांटने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जवाब में जिस तरह से साफ-साफ कह दिया है कि मुफ्त अनाज बांटना संभव नहीं है, उससे स्पष्ट है कि उनकी सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं?
ऐसे में, एक खाद्य सुरक्षा के एक व्यापक कानूनी अधिकार की उम्मीदें दिन पर दिन कमजोर पड़ती जा रही हैं. खबरों के मुताबिक यू.पी.ए सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर एक आधे-अधूरे, सीमित और मौजूदा प्रावधानों में ही जोड़-घटाव करके एक ऐसा कानून बनाने की तैयारी कर रही है जिसमें अधिक से अधिक बी.पी.एल परिवारों को प्रति माह तीन रूपये किलो की दर से ३५ किलो गेहूं या चावल देने का प्रावधान हो सकता है.
सरकार इसमें दालें और खाद्य तेल भी शामिल करने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि यह संभावना है कि समझौते के बतौर बी.पी.एल परिवारों की संख्या योजना आयोग के मौजूदा अनुमानों के बजाय तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर ३७ प्रतिशत स्वीकार कर ली जाए.
यह भी चर्चा है कि भोजन के सार्वभौम अधिकार के बजाय इस सीमित खाद्य सुरक्षा कानून को स्वीकार करने के बारगेन में योजना आयोग बी.पी.एल परिवारों की संख्या को बढ़ाने के लिए भी तैयार है. लेकिन वह यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि बी.पी.एल और ए.पी.एल के कृत्रिम और बेमानी विभाजन को खतम करके सभी को एक व्यापक और पोषणयुक्त भोजन का कानूनी अधिकार दिया जाए. इसके बजाय वह ए.पी.एल परिवारों को अनाजों के आर्थिक मूल्य यानी खरीद और रख-रखाव मूल्य पर २५ किलो तक अनाज देने का प्रस्ताव कर रहा है.
मजे की बात यह है कि इस मामले में सोनिया गांधी भी योजना आयोग के तर्कों से सहमत हैं. बताया जाता है कि उन्होंने बैठक में सवाल उठाया कि क्या गरीबों को बुरा नहीं लगेगा कि गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को भी उनकी तरह ही अनाज मिल रहा है? क्या मासूम सवाल है?
‘कौन न मर जाए ए खुदा इस सादगी पर, लड़ते तो हैं पर हाथ में तलवार नहीं!’ लेकिन वास्तव में, यह तर्कों और तथ्यों को सिर के बल खड़ा करने का एक और उदाहरण है. जिस देश में खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोई ७८ फीसदी आबादी प्रतिदिन २० रूपये से भी कम पर गुजर करने के लिए मजबूर है, वहां बी.पी.एल और ए.पी.एल जैसे विभाजन का से बेमानी बात और क्या हो सकती है?
लेकिन जो सरकार गरीबों को उजाडने और बर्बाद करने पर तुली है, वह उनके खाद्य सुरक्षा के लिए भला क्यों चिंतित होने लगी. आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए सरकार इन सीमित प्रस्तावों को भी एक साथ पूरे देश में लागू करने के तैयार नहीं है. इसके बजाय वह इन्हें शुरू में देश के सबसे पिछड़े १५० जिलों में लागू करने के पक्ष में है. हैरानी और अफसोस की बात यह है कि एन.ए.सी को भी इससे कोई खास ऐतराज नहीं है.
साफ है कि कई जन पक्षधर सामाजिक कार्यकर्ताओं और अर्थशास्त्रियों की मौजूदगी और सुपर कैबिनेट के दर्जे के बावजूद एन.ए.सी भी थोड़े फेरबदल के साथ यू.पी.ए के नव उदारवादी गरीब विरोधी आर्थिक-सामाजिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में हिस्सेदार बनती जा रही है. खाद्य सुरक्षा के नाम पर होने जा रहे इस मजाक पर मुहर लगाने का आखिर और क्या मतलब निकला जा सकता है?
("समकालीन जनमत", अक्तूबर में प्रकाशित)
सूचनाओं के मुताबिक सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) की ताजा बैठक में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने साफ-साफ कह दिया है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करनेवालों को हर महीने तीन रूपये किलो की दर से ३५ किलो चावल या गेहूं देने का कानूनी अधिकार अगली पंचवर्षीय योजना यानी २०१२ से पहले लागू करना संभव नहीं होगा.
यही नहीं, रिपोर्टों के मुताबिक प्रधानमंत्री से लेकर यू.पी.ए सरकार के अधिकांश मंत्री और अफसर खाद्य सुरक्षा के किसी व्यापक कानूनी अधिकार को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. एन.ए.सी की बैठक में अहलुवालिया ने कहा कि परिषद के सदस्यों के सुझाये मुताबिक अगर कानून बना तो खाद्य सब्सिडी का खर्च एक लाख दस हजार करोड़ रूपये तक पहुंच जायेगा जिसके लिए मौजूदा योजना में प्रावधान नहीं है. उनका यह भी कहना था कि ऐसी स्थिति में इसे लागू करने के लिए मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं के मद में से ही कटौती करनी पड़ेगी.
बैठक में मौजूद केन्द्र सरकार के अन्य आला अफसरों ने भी इशारों ही इशारों में कह दिया कि खाद्य सुरक्षा का व्यापक प्रावधान मौजूदा संसाधनों के बीच संभव नहीं है. ऐसे संकेत हैं कि खुद सोनिया गांधी भी एन.ए.सी के कई उत्साही सदस्यों से सहमत नहीं हैं और किसी बीच के रास्ते के पक्ष में हैं.
उधर, प्रधानमंत्री ने सड़ाने के बजाय गरीबों में मुफ्त अनाज बांटने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जवाब में जिस तरह से साफ-साफ कह दिया है कि मुफ्त अनाज बांटना संभव नहीं है, उससे स्पष्ट है कि उनकी सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं?
ऐसे में, एक खाद्य सुरक्षा के एक व्यापक कानूनी अधिकार की उम्मीदें दिन पर दिन कमजोर पड़ती जा रही हैं. खबरों के मुताबिक यू.पी.ए सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर एक आधे-अधूरे, सीमित और मौजूदा प्रावधानों में ही जोड़-घटाव करके एक ऐसा कानून बनाने की तैयारी कर रही है जिसमें अधिक से अधिक बी.पी.एल परिवारों को प्रति माह तीन रूपये किलो की दर से ३५ किलो गेहूं या चावल देने का प्रावधान हो सकता है.
सरकार इसमें दालें और खाद्य तेल भी शामिल करने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि यह संभावना है कि समझौते के बतौर बी.पी.एल परिवारों की संख्या योजना आयोग के मौजूदा अनुमानों के बजाय तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर ३७ प्रतिशत स्वीकार कर ली जाए.
यह भी चर्चा है कि भोजन के सार्वभौम अधिकार के बजाय इस सीमित खाद्य सुरक्षा कानून को स्वीकार करने के बारगेन में योजना आयोग बी.पी.एल परिवारों की संख्या को बढ़ाने के लिए भी तैयार है. लेकिन वह यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि बी.पी.एल और ए.पी.एल के कृत्रिम और बेमानी विभाजन को खतम करके सभी को एक व्यापक और पोषणयुक्त भोजन का कानूनी अधिकार दिया जाए. इसके बजाय वह ए.पी.एल परिवारों को अनाजों के आर्थिक मूल्य यानी खरीद और रख-रखाव मूल्य पर २५ किलो तक अनाज देने का प्रस्ताव कर रहा है.
मजे की बात यह है कि इस मामले में सोनिया गांधी भी योजना आयोग के तर्कों से सहमत हैं. बताया जाता है कि उन्होंने बैठक में सवाल उठाया कि क्या गरीबों को बुरा नहीं लगेगा कि गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को भी उनकी तरह ही अनाज मिल रहा है? क्या मासूम सवाल है?
‘कौन न मर जाए ए खुदा इस सादगी पर, लड़ते तो हैं पर हाथ में तलवार नहीं!’ लेकिन वास्तव में, यह तर्कों और तथ्यों को सिर के बल खड़ा करने का एक और उदाहरण है. जिस देश में खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोई ७८ फीसदी आबादी प्रतिदिन २० रूपये से भी कम पर गुजर करने के लिए मजबूर है, वहां बी.पी.एल और ए.पी.एल जैसे विभाजन का से बेमानी बात और क्या हो सकती है?
लेकिन जो सरकार गरीबों को उजाडने और बर्बाद करने पर तुली है, वह उनके खाद्य सुरक्षा के लिए भला क्यों चिंतित होने लगी. आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए सरकार इन सीमित प्रस्तावों को भी एक साथ पूरे देश में लागू करने के तैयार नहीं है. इसके बजाय वह इन्हें शुरू में देश के सबसे पिछड़े १५० जिलों में लागू करने के पक्ष में है. हैरानी और अफसोस की बात यह है कि एन.ए.सी को भी इससे कोई खास ऐतराज नहीं है.
साफ है कि कई जन पक्षधर सामाजिक कार्यकर्ताओं और अर्थशास्त्रियों की मौजूदगी और सुपर कैबिनेट के दर्जे के बावजूद एन.ए.सी भी थोड़े फेरबदल के साथ यू.पी.ए के नव उदारवादी गरीब विरोधी आर्थिक-सामाजिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में हिस्सेदार बनती जा रही है. खाद्य सुरक्षा के नाम पर होने जा रहे इस मजाक पर मुहर लगाने का आखिर और क्या मतलब निकला जा सकता है?
("समकालीन जनमत", अक्तूबर में प्रकाशित)
सोमवार, अक्टूबर 11, 2010
अयोध्या:अन्याय से नहीं, न्याय से आएगी स्थाई शांति
अतीत से भागिए मत, उसे बदलिए
अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के फैसले ने संवैधानिक मूल्यों और कानून के राज में भरोसा करनेवाले सभी लोगों को हिला कर रख दिया है. उच्च न्यायालय ने फैसले के लिए कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों के बजाय जिस तरह से संकीर्ण और पिछड़ी धार्मिक आस्थाओं और विश्वास को आधार बनाया है, मिथ और इतिहास को गड्डमड्ड कर दिया है, वह आधुनिक संविधान और कानून के राज के लिए बहुत खतरनाक नजीर बन सकता है.
बहुतेरे कानूनविदों ने इस फैसले की इस आधार पर ठीक ही आलोचना की है कि यह कानून पर आधारित न्यायिक फैसला कम और न्यायिक प्रक्रिया के दायरे से बाहर निकलकर पंचायत की तर्ज पर किया गया राजनीतिक फैसला अधिक लगता है.
लेकिन दूसरी ओर, मीडिया के बड़े हिस्से, कई जानेमाने बुद्धिजीवियों और सिविल सोसाइटी के नेताओं ने ‘सभी पक्षों को खुश करनेवाले’ इस फैसले का इस आधार पर स्वागत भी किया है कि इससे दोनों पक्षों - हिंदू और मुस्लिम समुदाय – में सुलह और समझौते का रास्ता साफ होगा. कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के नए मसीहा दिग्विजय सिंह के मुताबिक मौजूदा स्थियों में इससे बेहतर फैसला नहीं हो सकता था.
इन सभी लोगों को इस फैसले में इसलिए भी ‘उम्मीद की किरण’ दिखाई दे रही है कि उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर जताई जा रही तमाम आशंकाओं और चेतावनियों के बावजूद देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी रही. इससे उत्साहित इन लोगों का तर्क है कि देश १९९२ से बहुत आगे निकल आया है और अब समय आ गया है कि जब पीछे देखने के बजाय आगे देखा जाए.
इन उदार धर्मनिरपेक्ष महानुभावों के कहने का तात्पर्य यह है कि कानूनी खामियों और सीमाओं के बावजूद इस फैसले को स्वीकार कीजिये क्योंकि २१वीं सदी के इस दशक में अतीत के इस बोझ- अयोध्या विवाद - को उतार फेंकने का यह अच्छा मौका है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश ८०-९० के सांप्रदायिक उन्माद और विध्वंस के आत्मघाती दशक से आगे बढ़ना चाहता है और बढ़ भी रहा है.
लेकिन सवाल यह है कि वह आगे कैसे बढ़े जब न्यायालय धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों पर फैसला देकर उसे फिर से १६वीं शताब्दी में खींच ले जाना चाहता है? देश आगे कैसे बढ़े जब ‘न्याय’ उन सांप्रदायिक उन्मादियों के साथ खड़ा नजर आता हैं जो देश को मध्ययुगीन अंध आस्था से बाहर नहीं निकलने देने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं?
आश्चर्य नहीं कि फैसले से पहले तक धार्मिक आस्था और विश्वासों को कानून और न्याय प्रक्रिया से ऊपर माननेवाले संघ ब्रिगेड ने न्यायालय के फैसले का न सिर्फ स्वागत किया है बल्कि सबसे पहले शांति-सौहार्द्र और सुलह-समझौते की बातें करनी शुरू कर दीं हैं. कल से लेकर आज तक जो “मंदिर वहीँ बनाएंगे” का नारा लगाते नहीं थकते, उनकी मांग है कि इस फैसले को सभी- खासकर मुस्लिम स्वीकार कर लें और वहां ‘भव्य राममंदिर’ बनाने में योगदान करें.
उनका भी कहना है कि सुप्रीम कोर्ट जाने के बजाय सुलह-समझौते का रास्ता बेहतर है. लेकिन उनके लिए सुलह-समझौते का एक ही मतलब है कि मुस्लिम समुदाय उदारता दिखाते हुए कोर्ट के फैसले के तहत मिली एक तिहाई जमीन के मालिकाने को भी ‘भव्य मंदिर’ निर्माण के लिए छोड़ दे.
इसके बावजूद बहुतेरे उदारवादियों को लगता है कि अब अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने की जरूरत है तो ऐसा लगता है कि इतिहास से नजरें चुराने की कोशिश की जा रही है. सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि ये सभी भलेमानुष इस बात को लेकर डरे हुए और परेशान हैं कि इस फैसले की आलोचना या विरोध करने से अयोध्या विवाद को लेकर अतीत की कडवी स्मृतियाँ फिर ताजा हो जाएंगी, पुराने जख्म याद आयेंगे और दोनों समुदायों में कड़वाहट बढ़ सकती है. लेकिन याद रखना चाहिए कि इतिहास से नजरें चुरानेवाले उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं.
असल में, जो इतिहास से जितना भागते हैं, इतिहास उनका उतना ही पीछा करता है. लैटिन अमेरिका पर अपनी हालिया किताब से मशहूर हुए उरुग्वाई लेखक एदुआर्दो गलिआनो के मुताबिक, “कुछ लोग इस दोषपूर्ण विचार की वकालत करते हैं कि याद रखना बहुत घातक होता है क्योंकि याद रखने से इतिहास खुद को एक दु:स्वपन की तरह दोहरा सकता है..लेकिन यह स्मृति दोष है जो इतिहास को दोहराने और एक दु:स्वपन की तरह दोहराने का मौका देता है. स्मृति दोष का अर्थ है अपराधियों को खुली छूट और खुली छूट का मतलब है अपराधों को और बढ़ावा.”
कहने की जरूरत नहीं है कि अयोध्या मामले में भी ‘आगे बढ़ने’ की वकालत करनेवाले अपनी तमाम अच्छी मंशाओं के बावजूद इसी स्मृति दोष के शिकार हैं. उनके इस स्मृति दोष का राजनीतिक फायदा सांप्रदायिक उन्मादी शक्तियों को हो रहा है जो बड़ी चालाकी से अपने जघन्य अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं.
आखिर इसे कैसे और क्यों भुलाया जाना चाहिए कि अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद को एक बड़े सांप्रदायिक फासीवादी प्रोजेक्ट के तहत उठाया और जबरदस्त सांप्रदायिक मुहिम के बतौर आगे बढ़ाया गया? इसे कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि आर.एस.एस और उसके अनुषंगी संगठनों -विहिप,बजरंग दल आदि और बाद में सीधे भाजपा के नेतृत्व में चले ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ के जहरीले सांप्रदायिक अभियान में हजारों निर्दोष लोगों की जानें चली गईं?
इसे कैसे माफ़ किया जा सकता है कि मामले के कोर्ट में होने के बावजूद ६ दिसंबर’९२ को अयोध्या में कानून और संविधान को खुलेआम ठेंगा दिखाते हुए बाबरी मस्जिद गिरा दी गई? इसे कैसे भुला जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने देश को भरोसा दिया था कि मस्जिद वहीँ बनाई जायेगी?
सवाल है कि अगर यह सब भुलाकर आगे बढ़ने की बात हो रही है तो फैसले के तुरंत बाद वहां ‘भव्य मंदिर’ बनाने की याद क्यों हो आई? क्या मंदिर इस भूलने और आगे बढ़ने में शामिल नहीं है? असल में, जो लोग भी भूलने और माफ़ करके आगे बढ़ने की बात कर रहे हैं, वे परोक्ष रूप से संघ परिवार की चुनिन्दा और धूर्ततापूर्ण स्मृति दोष की राजनीति का समर्थन कर रहे हैं जो मस्जिद को भूलने और भव्य मंदिर को याद रखने की वकालत करती है.
अफसोस की बात यह है कि अयोध्या विवाद में न्यायालय का फैसला भी इसी चुनिन्दा स्मृति दोष से ग्रस्त नजर आता है. न्यायालय के फैसले पर यह सवाल उठ रहा है कि उसने ९२ में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का उल्लेख क्यों नहीं किया है?
यह ठीक है कि बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का आपराधिक मुक़दमा अलग से चल रहा है लेकिन इस सवाल को अनदेखा कैसे किया जा सकता है कि अगर ९२ में बाबरी मस्जिद को आपराधिक षड्यंत्र के तहत गिराया नहीं गया होता तो भी क्या उच्च न्यायालय के तीनों माननीय जज उसे आस्था और विश्वास के आधार पर राम जन्मभूमि घोषित करते हुए बाकी विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला कर पाते?
पूर्व सालिसिटर जनरल टी.आर अन्ध्यारुजीना का यह कहना बिल्कुल तार्किक है कि इस फैसले ने एक तरह से बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को कानूनी जामा पहना दिया है क्योंकि न्यायालय का आदेश इस आधार पर है कि आज उस विवादित स्थल पर कोई मस्जिद नहीं है. उनका यह भी कहना है कि यह फैसला एक तरह से कानून अपने हाथ में लेनेवाले उपद्रवियों को पुरस्कृत करने की तरह है.
अतीत के बोझ से मुक्त होना और आगे देखने की बातें ठीक हैं लेकिन इतिहास का यह भी सबक है कि सांप्रदायिक अपराध और अन्याय को न्याय घोषित करके और उसके आधार पर होनेवाला कोई भी सुलह-समझौता स्थाई नहीं हो सकता है. यह मांग करके एक खतरनाक नजीर कायम करने की कोशिश की जा रही है.
हालिया इतिहास गवाह है कि अयोध्या में १९४९ में मस्जिद में मूर्तियां रखने से लेकर ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ के सांप्रदायिक अभियान के बाद मस्जिद का ताला खुलवाने, शिलान्यास करवाने, मस्जिद ढहाने और अब विवादित भूमि को रामलला का जन्मस्थान घोषित करने तक अन्याय का सिलसिला इसी सुलह-समझौते और ‘आगे देखने’ की आड़ में चला है.
निश्चय ही, मुस्लिम समुदाय इससे आहत और छला हुआ महसूस कर रहा है. उसमें बेचैनी और गुस्सा भी है. उसका अलगाव और बढ़ा है. इसके बावजूद उसने बहुत सब्र और परिपक्वता का परिचय दिया है. लेकिन जो लोग इस बात से निश्चिंत से हो गए हैं कि फैसले के बाद भी देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी हुई है और इसे इस बात के सबूत के रूप में देख रहे हैं कि अयोध्या मुद्दा लोगों के लिए बेमानी हो चुका है, वे गलती कर रहे हैं.
यह शांति और सामान्यता सतह के ऊपर की शांति है जिसके नीचे चल रही बेचैनी, अलगाव और गुस्से की हलचल को सुनना और समझना जरूरी है. इस शांति और सामान्यता को स्थाई बनाने के लिए लोगों में जिसकी लाठी उसकी भैंस के बजाय कानून के राज के प्रति विश्वास पैदा करना होगा जो तर्क और तथ्य आधारित न्याय के बिना असंभव है.
दरअसल, यह मसला सिर्फ अयोध्या की बाबरी मस्जिद तक सीमित नहीं है. देश में सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति करनेवाली शक्तियों के लिए अयोध्या विवाद देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के उनके लंबे राजनीतिक अभियान का एक पड़ाव भर है. पहली बात तो यह है कि सुलह-समझौते की बातें उनके शब्दकोष में केवल दिखाने के लिए हैं. टकराव हमेशा से उनकी राजनीति की बुनियाद में रहा है.
उनके पास अयोध्या विवाद जैसे ज्वलनशील मामले अनगिनत हैं. याद रखिये कि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक, बहु भाषी, बहु धार्मिक, बहु एथनिक और विभिन्नताओं वाले देश में अनेक ऐतिहासिक कारणों से ऐसी कई सांप्रदायिक-एथनिक दरारें (फाल्टलाइन्स) हैं जिनका राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने में सांप्रदायिक शक्तियां कभी पीछे नहीं रहती हैं.
वह फिर मौके की तलाश में हैं. यह ठीक है कि जनता द्वारा पहले २००४ और फिर २००९ के आम चुनावों में नकारे जाने के बाद ये शक्तियां कमजोर हुई हैं लेकिन अयोध्या विवाद में न्यायालय के फैसले के बाद इनका हौसला बढ़ा है. उनकी मंशा और कोशिश यही है कि एक बार फिर अयोध्या विवाद को राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बना दिया जाए.
लेकिन इसका जवाब कांग्रेस की तरह न तो अयोध्या मुद्दे से नजरें चुराकर और राजनीतिक पलायन से दिया जा सकता है और न ही सुलह-समझौते के नाम पर अयोध्या मामले में न्यायिक अन्याय को स्वीकार करने की वकालत करके दिया जा सकता है.
असल मुद्दा है साम्प्रदायिकता से सीधी लड़ाई का. लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब भी साम्प्रदायिकता से सीधी लड़ाई का मौका आता है, खुद को साम्प्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता का चैम्पियन बतानेवाली कांग्रेस घबराने और लड़खड़ाने लगती है. वह तय नहीं कर पाती है कि दायें जाए या बाएं जाए?
नतीजा, वह लीपापोती पर उतर आती है या साम्प्रदायिकता के आदमखोर से समझौते की कोशिश करने लगती है. एक बार फिर कांग्रेस की लड़खड़ाहट, लीपापोती और समझौते की कोशिशें साफ दिख रही हैं. लेकिन इससे सांप्रदायिक शक्तियों का हौसला और बढ़ रहा है. वे अयोध्या से लेकर कश्मीर तक पर कांग्रेस को घेरने में जुट गई हैं.
यह अच्छा संकेत नहीं है. लेकिन यह समझना जरूरी है कि कांग्रेस जेनेटिक तौर पर साम्प्रदायिकता से लड़ने में अक्षम है. वह जिस नरम हिन्दुवाद की राजनीति करती है, वह गरम हिन्दुवाद से कैसे लड़ सकता है? दूसरे, कांग्रेस की साम्प्रदायिकता विरोध की राजनीति का एजेंडा वोटों के ध्रुवीकरण से मिलनेवाले राजनीतिक फायदे तक सीमित है. यही समस्या सपा-बसपा और राजद जैसी दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ भी है. इस मामले में कांग्रेस के साथ-साथ उनकी भी पोल खुल चुकी है.
दरअसल, साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी सच्ची लड़ाई हर तरह से उससे बेहतर राजनीति के जरिये ही लड़ी जा सकती है. मध्ययुगीन पिछड़ी राजनीति का मुकाबला आधुनिक और प्रगतिशील राजनीति ही कर सकती है. एक ऐसी राजनीति जो गरीब-गुरबों के हक-हुकूक, रोजी-रोटी, इज्जत के साथ एक बेहतर भारत बनाने की लड़ाई में विश्वास करती हो, वही स्थाई रूप से साम्प्रदायिकता के शेर को काबू में कर सकती है.
अफसोस, इस मामले में कांग्रेस या सपा-राजद जैसों की राजनीति कोई उम्मीद नहीं पैदा करती. अयोध्या के फैसले के बाद उभरती राष्ट्रीय राजनीति का सबसे बड़ा सबक यही है.
(जनसत्ता, ११ अक्तूबर'१०)
अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के फैसले ने संवैधानिक मूल्यों और कानून के राज में भरोसा करनेवाले सभी लोगों को हिला कर रख दिया है. उच्च न्यायालय ने फैसले के लिए कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों के बजाय जिस तरह से संकीर्ण और पिछड़ी धार्मिक आस्थाओं और विश्वास को आधार बनाया है, मिथ और इतिहास को गड्डमड्ड कर दिया है, वह आधुनिक संविधान और कानून के राज के लिए बहुत खतरनाक नजीर बन सकता है.
बहुतेरे कानूनविदों ने इस फैसले की इस आधार पर ठीक ही आलोचना की है कि यह कानून पर आधारित न्यायिक फैसला कम और न्यायिक प्रक्रिया के दायरे से बाहर निकलकर पंचायत की तर्ज पर किया गया राजनीतिक फैसला अधिक लगता है.
लेकिन दूसरी ओर, मीडिया के बड़े हिस्से, कई जानेमाने बुद्धिजीवियों और सिविल सोसाइटी के नेताओं ने ‘सभी पक्षों को खुश करनेवाले’ इस फैसले का इस आधार पर स्वागत भी किया है कि इससे दोनों पक्षों - हिंदू और मुस्लिम समुदाय – में सुलह और समझौते का रास्ता साफ होगा. कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के नए मसीहा दिग्विजय सिंह के मुताबिक मौजूदा स्थियों में इससे बेहतर फैसला नहीं हो सकता था.
इन सभी लोगों को इस फैसले में इसलिए भी ‘उम्मीद की किरण’ दिखाई दे रही है कि उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर जताई जा रही तमाम आशंकाओं और चेतावनियों के बावजूद देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी रही. इससे उत्साहित इन लोगों का तर्क है कि देश १९९२ से बहुत आगे निकल आया है और अब समय आ गया है कि जब पीछे देखने के बजाय आगे देखा जाए.
इन उदार धर्मनिरपेक्ष महानुभावों के कहने का तात्पर्य यह है कि कानूनी खामियों और सीमाओं के बावजूद इस फैसले को स्वीकार कीजिये क्योंकि २१वीं सदी के इस दशक में अतीत के इस बोझ- अयोध्या विवाद - को उतार फेंकने का यह अच्छा मौका है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश ८०-९० के सांप्रदायिक उन्माद और विध्वंस के आत्मघाती दशक से आगे बढ़ना चाहता है और बढ़ भी रहा है.
लेकिन सवाल यह है कि वह आगे कैसे बढ़े जब न्यायालय धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों पर फैसला देकर उसे फिर से १६वीं शताब्दी में खींच ले जाना चाहता है? देश आगे कैसे बढ़े जब ‘न्याय’ उन सांप्रदायिक उन्मादियों के साथ खड़ा नजर आता हैं जो देश को मध्ययुगीन अंध आस्था से बाहर नहीं निकलने देने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं?
आश्चर्य नहीं कि फैसले से पहले तक धार्मिक आस्था और विश्वासों को कानून और न्याय प्रक्रिया से ऊपर माननेवाले संघ ब्रिगेड ने न्यायालय के फैसले का न सिर्फ स्वागत किया है बल्कि सबसे पहले शांति-सौहार्द्र और सुलह-समझौते की बातें करनी शुरू कर दीं हैं. कल से लेकर आज तक जो “मंदिर वहीँ बनाएंगे” का नारा लगाते नहीं थकते, उनकी मांग है कि इस फैसले को सभी- खासकर मुस्लिम स्वीकार कर लें और वहां ‘भव्य राममंदिर’ बनाने में योगदान करें.
उनका भी कहना है कि सुप्रीम कोर्ट जाने के बजाय सुलह-समझौते का रास्ता बेहतर है. लेकिन उनके लिए सुलह-समझौते का एक ही मतलब है कि मुस्लिम समुदाय उदारता दिखाते हुए कोर्ट के फैसले के तहत मिली एक तिहाई जमीन के मालिकाने को भी ‘भव्य मंदिर’ निर्माण के लिए छोड़ दे.
इसके बावजूद बहुतेरे उदारवादियों को लगता है कि अब अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने की जरूरत है तो ऐसा लगता है कि इतिहास से नजरें चुराने की कोशिश की जा रही है. सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि ये सभी भलेमानुष इस बात को लेकर डरे हुए और परेशान हैं कि इस फैसले की आलोचना या विरोध करने से अयोध्या विवाद को लेकर अतीत की कडवी स्मृतियाँ फिर ताजा हो जाएंगी, पुराने जख्म याद आयेंगे और दोनों समुदायों में कड़वाहट बढ़ सकती है. लेकिन याद रखना चाहिए कि इतिहास से नजरें चुरानेवाले उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं.
असल में, जो इतिहास से जितना भागते हैं, इतिहास उनका उतना ही पीछा करता है. लैटिन अमेरिका पर अपनी हालिया किताब से मशहूर हुए उरुग्वाई लेखक एदुआर्दो गलिआनो के मुताबिक, “कुछ लोग इस दोषपूर्ण विचार की वकालत करते हैं कि याद रखना बहुत घातक होता है क्योंकि याद रखने से इतिहास खुद को एक दु:स्वपन की तरह दोहरा सकता है..लेकिन यह स्मृति दोष है जो इतिहास को दोहराने और एक दु:स्वपन की तरह दोहराने का मौका देता है. स्मृति दोष का अर्थ है अपराधियों को खुली छूट और खुली छूट का मतलब है अपराधों को और बढ़ावा.”
कहने की जरूरत नहीं है कि अयोध्या मामले में भी ‘आगे बढ़ने’ की वकालत करनेवाले अपनी तमाम अच्छी मंशाओं के बावजूद इसी स्मृति दोष के शिकार हैं. उनके इस स्मृति दोष का राजनीतिक फायदा सांप्रदायिक उन्मादी शक्तियों को हो रहा है जो बड़ी चालाकी से अपने जघन्य अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं.
आखिर इसे कैसे और क्यों भुलाया जाना चाहिए कि अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद को एक बड़े सांप्रदायिक फासीवादी प्रोजेक्ट के तहत उठाया और जबरदस्त सांप्रदायिक मुहिम के बतौर आगे बढ़ाया गया? इसे कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि आर.एस.एस और उसके अनुषंगी संगठनों -विहिप,बजरंग दल आदि और बाद में सीधे भाजपा के नेतृत्व में चले ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ के जहरीले सांप्रदायिक अभियान में हजारों निर्दोष लोगों की जानें चली गईं?
इसे कैसे माफ़ किया जा सकता है कि मामले के कोर्ट में होने के बावजूद ६ दिसंबर’९२ को अयोध्या में कानून और संविधान को खुलेआम ठेंगा दिखाते हुए बाबरी मस्जिद गिरा दी गई? इसे कैसे भुला जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने देश को भरोसा दिया था कि मस्जिद वहीँ बनाई जायेगी?
सवाल है कि अगर यह सब भुलाकर आगे बढ़ने की बात हो रही है तो फैसले के तुरंत बाद वहां ‘भव्य मंदिर’ बनाने की याद क्यों हो आई? क्या मंदिर इस भूलने और आगे बढ़ने में शामिल नहीं है? असल में, जो लोग भी भूलने और माफ़ करके आगे बढ़ने की बात कर रहे हैं, वे परोक्ष रूप से संघ परिवार की चुनिन्दा और धूर्ततापूर्ण स्मृति दोष की राजनीति का समर्थन कर रहे हैं जो मस्जिद को भूलने और भव्य मंदिर को याद रखने की वकालत करती है.
अफसोस की बात यह है कि अयोध्या विवाद में न्यायालय का फैसला भी इसी चुनिन्दा स्मृति दोष से ग्रस्त नजर आता है. न्यायालय के फैसले पर यह सवाल उठ रहा है कि उसने ९२ में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का उल्लेख क्यों नहीं किया है?
यह ठीक है कि बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का आपराधिक मुक़दमा अलग से चल रहा है लेकिन इस सवाल को अनदेखा कैसे किया जा सकता है कि अगर ९२ में बाबरी मस्जिद को आपराधिक षड्यंत्र के तहत गिराया नहीं गया होता तो भी क्या उच्च न्यायालय के तीनों माननीय जज उसे आस्था और विश्वास के आधार पर राम जन्मभूमि घोषित करते हुए बाकी विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला कर पाते?
पूर्व सालिसिटर जनरल टी.आर अन्ध्यारुजीना का यह कहना बिल्कुल तार्किक है कि इस फैसले ने एक तरह से बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को कानूनी जामा पहना दिया है क्योंकि न्यायालय का आदेश इस आधार पर है कि आज उस विवादित स्थल पर कोई मस्जिद नहीं है. उनका यह भी कहना है कि यह फैसला एक तरह से कानून अपने हाथ में लेनेवाले उपद्रवियों को पुरस्कृत करने की तरह है.
अतीत के बोझ से मुक्त होना और आगे देखने की बातें ठीक हैं लेकिन इतिहास का यह भी सबक है कि सांप्रदायिक अपराध और अन्याय को न्याय घोषित करके और उसके आधार पर होनेवाला कोई भी सुलह-समझौता स्थाई नहीं हो सकता है. यह मांग करके एक खतरनाक नजीर कायम करने की कोशिश की जा रही है.
हालिया इतिहास गवाह है कि अयोध्या में १९४९ में मस्जिद में मूर्तियां रखने से लेकर ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ के सांप्रदायिक अभियान के बाद मस्जिद का ताला खुलवाने, शिलान्यास करवाने, मस्जिद ढहाने और अब विवादित भूमि को रामलला का जन्मस्थान घोषित करने तक अन्याय का सिलसिला इसी सुलह-समझौते और ‘आगे देखने’ की आड़ में चला है.
निश्चय ही, मुस्लिम समुदाय इससे आहत और छला हुआ महसूस कर रहा है. उसमें बेचैनी और गुस्सा भी है. उसका अलगाव और बढ़ा है. इसके बावजूद उसने बहुत सब्र और परिपक्वता का परिचय दिया है. लेकिन जो लोग इस बात से निश्चिंत से हो गए हैं कि फैसले के बाद भी देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी हुई है और इसे इस बात के सबूत के रूप में देख रहे हैं कि अयोध्या मुद्दा लोगों के लिए बेमानी हो चुका है, वे गलती कर रहे हैं.
यह शांति और सामान्यता सतह के ऊपर की शांति है जिसके नीचे चल रही बेचैनी, अलगाव और गुस्से की हलचल को सुनना और समझना जरूरी है. इस शांति और सामान्यता को स्थाई बनाने के लिए लोगों में जिसकी लाठी उसकी भैंस के बजाय कानून के राज के प्रति विश्वास पैदा करना होगा जो तर्क और तथ्य आधारित न्याय के बिना असंभव है.
दरअसल, यह मसला सिर्फ अयोध्या की बाबरी मस्जिद तक सीमित नहीं है. देश में सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति करनेवाली शक्तियों के लिए अयोध्या विवाद देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के उनके लंबे राजनीतिक अभियान का एक पड़ाव भर है. पहली बात तो यह है कि सुलह-समझौते की बातें उनके शब्दकोष में केवल दिखाने के लिए हैं. टकराव हमेशा से उनकी राजनीति की बुनियाद में रहा है.
उनके पास अयोध्या विवाद जैसे ज्वलनशील मामले अनगिनत हैं. याद रखिये कि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक, बहु भाषी, बहु धार्मिक, बहु एथनिक और विभिन्नताओं वाले देश में अनेक ऐतिहासिक कारणों से ऐसी कई सांप्रदायिक-एथनिक दरारें (फाल्टलाइन्स) हैं जिनका राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने में सांप्रदायिक शक्तियां कभी पीछे नहीं रहती हैं.
वह फिर मौके की तलाश में हैं. यह ठीक है कि जनता द्वारा पहले २००४ और फिर २००९ के आम चुनावों में नकारे जाने के बाद ये शक्तियां कमजोर हुई हैं लेकिन अयोध्या विवाद में न्यायालय के फैसले के बाद इनका हौसला बढ़ा है. उनकी मंशा और कोशिश यही है कि एक बार फिर अयोध्या विवाद को राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बना दिया जाए.
लेकिन इसका जवाब कांग्रेस की तरह न तो अयोध्या मुद्दे से नजरें चुराकर और राजनीतिक पलायन से दिया जा सकता है और न ही सुलह-समझौते के नाम पर अयोध्या मामले में न्यायिक अन्याय को स्वीकार करने की वकालत करके दिया जा सकता है.
असल मुद्दा है साम्प्रदायिकता से सीधी लड़ाई का. लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब भी साम्प्रदायिकता से सीधी लड़ाई का मौका आता है, खुद को साम्प्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता का चैम्पियन बतानेवाली कांग्रेस घबराने और लड़खड़ाने लगती है. वह तय नहीं कर पाती है कि दायें जाए या बाएं जाए?
नतीजा, वह लीपापोती पर उतर आती है या साम्प्रदायिकता के आदमखोर से समझौते की कोशिश करने लगती है. एक बार फिर कांग्रेस की लड़खड़ाहट, लीपापोती और समझौते की कोशिशें साफ दिख रही हैं. लेकिन इससे सांप्रदायिक शक्तियों का हौसला और बढ़ रहा है. वे अयोध्या से लेकर कश्मीर तक पर कांग्रेस को घेरने में जुट गई हैं.
यह अच्छा संकेत नहीं है. लेकिन यह समझना जरूरी है कि कांग्रेस जेनेटिक तौर पर साम्प्रदायिकता से लड़ने में अक्षम है. वह जिस नरम हिन्दुवाद की राजनीति करती है, वह गरम हिन्दुवाद से कैसे लड़ सकता है? दूसरे, कांग्रेस की साम्प्रदायिकता विरोध की राजनीति का एजेंडा वोटों के ध्रुवीकरण से मिलनेवाले राजनीतिक फायदे तक सीमित है. यही समस्या सपा-बसपा और राजद जैसी दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ भी है. इस मामले में कांग्रेस के साथ-साथ उनकी भी पोल खुल चुकी है.
दरअसल, साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी सच्ची लड़ाई हर तरह से उससे बेहतर राजनीति के जरिये ही लड़ी जा सकती है. मध्ययुगीन पिछड़ी राजनीति का मुकाबला आधुनिक और प्रगतिशील राजनीति ही कर सकती है. एक ऐसी राजनीति जो गरीब-गुरबों के हक-हुकूक, रोजी-रोटी, इज्जत के साथ एक बेहतर भारत बनाने की लड़ाई में विश्वास करती हो, वही स्थाई रूप से साम्प्रदायिकता के शेर को काबू में कर सकती है.
अफसोस, इस मामले में कांग्रेस या सपा-राजद जैसों की राजनीति कोई उम्मीद नहीं पैदा करती. अयोध्या के फैसले के बाद उभरती राष्ट्रीय राजनीति का सबसे बड़ा सबक यही है.
(जनसत्ता, ११ अक्तूबर'१०)
शनिवार, अक्टूबर 09, 2010
इस ‘सामान्य’ में छिपे ‘असामान्य’ को पढ़िए
युवा आगे की ओर देख रहे हैं लेकिन उन्हें आगे का एजेंडा भी चाहिए
यू.पी.ए सरकार के कर्ता-धर्ताओं के साथ-साथ अधिकांश समाचार माध्यमों और उनके टिप्पणीकारों को लगता है कि आशंकाओं और चेतावनियों के विपरीत अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद पूरे देश में शांति और सद्भाव का बने रहना इस बात का सबूत है कि देश ८० और ९० के दशक के सांप्रदायिक उन्माद से बाहर आ चुका है.
वे इसे इस रूप में देख रहे हैं कि पिछले दो दशकों में देश में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की लहर के बीच युवाओं की जो नई पीढ़ी जवान हुई है, वह अतीत में अटके रहने के बजाय आगे की ओर देख रही है. इन टिप्पणीकारों का यह भी मानना है कि इस युवा पीढ़ी के सपने, आकांक्षाएं, उम्मीदें और जरूरतें बिल्कुल अलग हैं. उसपर अतीत का बोझ नहीं है और वह धार्मिक उन्माद और झगडों के तंग दायरे के बजाय मेल-मिलाप की खुली दुनिया में जीना चाहती है.
यह सच है लेकिन पूरा सच नहीं है. यह कहना गलत नहीं होगा कि नई पीढ़ी हमेशा आगे देखना चाहती है. चाहे वह आज की युवा पीढ़ी हो या ८०-९० के दशक की युवा पीढ़ी. लेकिन इसके साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि युवा पीढ़ी कोई एकरूपी इकाई नहीं है बल्कि उसमें भी विभिन्नताएं और श्रेणियाँ हैं.
उदाहरण ९० के दशक में युवाओं का एक हिस्सा अगर राम जन्मभूमि निर्माण के लिए चले सांप्रदायिक अभियान में कारसेवकों की अगली कतार में शामिल था तो दूसरी ओर, एक हिस्सा सामाजिक न्याय की लड़ाई में अपना भविष्य देख रहा था और तीसरी ओर, युवाओं का एक छोटा लेकिन प्रभावी हिस्सा क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव के संघर्ष के साथ खड़ा था.
याद कीजिये, बाबरी मस्जिद गिराए जाने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में हुए छात्रसंघ चुनावों में आइसा के नेतृत्व में इन युवाओं ने “दंगा नहीं, रोजगार चाहिए, जीने का अधिकार चाहिए” नारे के साथ सांप्रदायिक ताकतों को धूल चटा दी. इसके बाद ही, पूरे प्रदेश में ऐसा माहौल बना कि जबरदस्त सांप्रदायिक उभार के बावजूद १९९३ में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया.
कहने का आशय यह है कि अपने मिजाज और सोच से युवा भविष्य की ओर देखनेवाला होता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अतीत से उसका कोई रिश्ता नहीं होता है.
दूसरे, अगर आगे की ओर कुछ नहीं दिख रहा हो, भविष्य के सपनों के साथ तालमेल नहीं बैठ रहा हो और एक निराशा का माहौल हो, तो वही युवा जो स्वाभाव और सोच से आगे देखनेवाले होते हैं, पलटकर पीछे भी देखने लगते हैं. वे अतीत से ही प्रेरणा लेने लगते हैं. अतीत का महिमामंडन उन्हें आकर्षित करने लगता है.
८० और ९० के दशकों में इसकी झलक मिल चुकी है. इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं है कि युवा पीढ़ी खुद-ब-खुद प्रगतिशील विचारों के साथ खड़ी हो जायेगी बल्कि उन्हें अपने प्रगतिशील एजेंडे के साथ जोड़ने के लिए सांप्रदायिक-उन्मादी शक्तियों की तुलना में ज्यादा गंभीर और ईमानदार प्रयास करने होंगे.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई युवाओं को तब तक बहुत आकर्षित नहीं कर सकती जब तक कि वह देश के सामने उससे बेहतर प्रगतिशील राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक एजेंडा न पेश करे. तात्पर्य यह कि अयोध्या विवाद पर कोर्ट के फैसले के बाद देश में कायम ‘शांति और सौहार्द्र’ के ‘सामान्य’ माहौल के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि देश अब १९९२ से आगे बढ़ना चाहता है या युवा पीढ़ी अतीत के बजाय आगे की ओर देख रही है. यह चीजों को देखने का बहुत सतही तरीका है. इसमें अति सामान्यीकरण के साथ-साथ साम्प्रदायिकता को लेकर निश्चिंत हो जाने का भी खतरा है.
मुझे यह कहने के लिए माफ़ कीजिये लेकिन देश में इस ‘सामान्य’ से दिख रहे माहौल में छिपे ‘असामान्य’ को पढ़ने-देखने की जरूरत है. इतिहास गवाह है कि कई बार जब सतह पर सब कुछ बहुत सामान्य और शांत दिख रहा होता है, तब सतह के नीचे काफी बेचैनी, हलचल और उथल-पुथल चल रही होती है. उसे सतह से ऊपर आने के लिए सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत होती है.
मौजूदा ख़ामोशी को भी इसलिए सुनने की जरूरत है क्योंकि देश में सांप्रदायिक फाल्टलाईन्स भी मौजूद हैं और उन्हें भुनाने के लिए हमेशा तत्पर रहनेवाली सांप्रदायिक शक्तियां भी कमजोर होने के बावजूद मौके की तलाश में हैं.
यही कारण है कि चाहे देश में सब कुछ कितना भी ‘सामान्य और शांत’ क्यों नहीं दिख रहा हो, इन सांप्रदायिक शक्तियों को नजरअंदाज़ करना मुश्किल है. हाई कोर्ट के फैसले के बाद उनमें नई जान आ गई है. इतिहास का अगर कोई सबक है तो वह यह कि वे चुप नहीं बैठेंगे.
उनकी ओर से ‘भव्य मंदिर’ बनाने का अभियान कभी भी शुरू हो सकता है. इसके अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको उठाकर सांप्रदायिक गोलबंदी तेज करने की कोशिश शुरू हो सकती है. इसके संकेत भी मिलने लगे हैं.
दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय खासकर उसके युवाओं के एक हिस्से में बढ़ती बेचैनी, अलगाव, हताशा और गुस्से की भावना को भी अनदेखा करना मुश्किल है. इस बेचैनी, अलगाव और हताशा का सम्बन्ध सिर्फ बाबरी मस्जिद के विध्वंस से नहीं है बल्कि उसके बाद गुजरात में हुए राज्य प्रायोजित नरसंहार से भी है.
यही नहीं, इस अलगाव और हताशा के बीच मुस्लिम युवाओं के एक हिस्से के बीच ‘बदले’ की अंध भावना भी जगह बना रही है. इंडियन मुजाहिदीन जैसे घरेलू संगठनों का खड़ा होना इसका सबूत है. दूसरी ओर, ‘अभिनव भारत’ जैसे संगठनों का सिर उठाना भी इस बात का प्रमाण है कि स्थितियां ‘सामान्य’ नहीं हैं.
याद रखिये कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ वाली शुतुरमुर्गी मानसिकता से स्थितियाँ ‘सामान्य’ होनेवाली नहीं हैं. वास्तव में, स्थितियां तब तक सामान्य नहीं हो सकती हैं, जब तक सभी समुदायों खासकर अल्पसंख्यक समुदायों में यह विश्वास न पैदा किया जाए कि वे भी इस देश के पहले दर्जे के नागरिक हैं और इस देश में उनका भी भविष्य है. यह भी कि कानून की निगाह में सभी बराबर हैं और देश में कानून का राज है. साथ ही, देश के तमाम संसाधनों पर उनका भी उतना ही हक है जितना बाकी समुदायों का.
अफसोस की बात यह है कि पिछले कुछ दशकों में यह विश्वास बुरी तरह से टूटा है. हाई कोर्ट के फैसले से यह विश्वास बहाल नहीं हुआ है, उल्टे और दरक गया है. जाहिर है कि बिना विश्वास के किसी भी मेलमिलाप और सुलह की जमीन बहुत भुरभुरी होती है और उसका स्थायित्व हमेशा संदेहों के घेरे में होता है.
न्याय पर टिकी शांति स्थाई और अन्याय पर टिकी शांति हमेशा अस्थाई और असामान्य होती है. इसलिए यहां यह समझना जरूरी है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई न्याय को आधार बनाकर ही लड़ी जा सकती है.
यह लड़ाई सिर्फ गाल बजाकर नहीं बल्कि एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज बनाने के सपने के साथ शुरू होनेवाली व्यापक बदलाव की लड़ाई का हिस्सा बनकर ही लड़ी जा सकती है. युवा आगे की ओर देख रहे हैं लेकिन उन्हें बेहतर भविष्य की गारंटी देनेवाला आगे का एजेंडा भी चाहिए.
('राष्ट्रीय सहारा' के 'हस्तक्षेप' के ९अक्तूबर'१०)
यू.पी.ए सरकार के कर्ता-धर्ताओं के साथ-साथ अधिकांश समाचार माध्यमों और उनके टिप्पणीकारों को लगता है कि आशंकाओं और चेतावनियों के विपरीत अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद पूरे देश में शांति और सद्भाव का बने रहना इस बात का सबूत है कि देश ८० और ९० के दशक के सांप्रदायिक उन्माद से बाहर आ चुका है.
वे इसे इस रूप में देख रहे हैं कि पिछले दो दशकों में देश में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की लहर के बीच युवाओं की जो नई पीढ़ी जवान हुई है, वह अतीत में अटके रहने के बजाय आगे की ओर देख रही है. इन टिप्पणीकारों का यह भी मानना है कि इस युवा पीढ़ी के सपने, आकांक्षाएं, उम्मीदें और जरूरतें बिल्कुल अलग हैं. उसपर अतीत का बोझ नहीं है और वह धार्मिक उन्माद और झगडों के तंग दायरे के बजाय मेल-मिलाप की खुली दुनिया में जीना चाहती है.
यह सच है लेकिन पूरा सच नहीं है. यह कहना गलत नहीं होगा कि नई पीढ़ी हमेशा आगे देखना चाहती है. चाहे वह आज की युवा पीढ़ी हो या ८०-९० के दशक की युवा पीढ़ी. लेकिन इसके साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि युवा पीढ़ी कोई एकरूपी इकाई नहीं है बल्कि उसमें भी विभिन्नताएं और श्रेणियाँ हैं.
उदाहरण ९० के दशक में युवाओं का एक हिस्सा अगर राम जन्मभूमि निर्माण के लिए चले सांप्रदायिक अभियान में कारसेवकों की अगली कतार में शामिल था तो दूसरी ओर, एक हिस्सा सामाजिक न्याय की लड़ाई में अपना भविष्य देख रहा था और तीसरी ओर, युवाओं का एक छोटा लेकिन प्रभावी हिस्सा क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव के संघर्ष के साथ खड़ा था.
याद कीजिये, बाबरी मस्जिद गिराए जाने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में हुए छात्रसंघ चुनावों में आइसा के नेतृत्व में इन युवाओं ने “दंगा नहीं, रोजगार चाहिए, जीने का अधिकार चाहिए” नारे के साथ सांप्रदायिक ताकतों को धूल चटा दी. इसके बाद ही, पूरे प्रदेश में ऐसा माहौल बना कि जबरदस्त सांप्रदायिक उभार के बावजूद १९९३ में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया.
कहने का आशय यह है कि अपने मिजाज और सोच से युवा भविष्य की ओर देखनेवाला होता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अतीत से उसका कोई रिश्ता नहीं होता है.
दूसरे, अगर आगे की ओर कुछ नहीं दिख रहा हो, भविष्य के सपनों के साथ तालमेल नहीं बैठ रहा हो और एक निराशा का माहौल हो, तो वही युवा जो स्वाभाव और सोच से आगे देखनेवाले होते हैं, पलटकर पीछे भी देखने लगते हैं. वे अतीत से ही प्रेरणा लेने लगते हैं. अतीत का महिमामंडन उन्हें आकर्षित करने लगता है.
८० और ९० के दशकों में इसकी झलक मिल चुकी है. इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं है कि युवा पीढ़ी खुद-ब-खुद प्रगतिशील विचारों के साथ खड़ी हो जायेगी बल्कि उन्हें अपने प्रगतिशील एजेंडे के साथ जोड़ने के लिए सांप्रदायिक-उन्मादी शक्तियों की तुलना में ज्यादा गंभीर और ईमानदार प्रयास करने होंगे.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई युवाओं को तब तक बहुत आकर्षित नहीं कर सकती जब तक कि वह देश के सामने उससे बेहतर प्रगतिशील राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक एजेंडा न पेश करे. तात्पर्य यह कि अयोध्या विवाद पर कोर्ट के फैसले के बाद देश में कायम ‘शांति और सौहार्द्र’ के ‘सामान्य’ माहौल के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि देश अब १९९२ से आगे बढ़ना चाहता है या युवा पीढ़ी अतीत के बजाय आगे की ओर देख रही है. यह चीजों को देखने का बहुत सतही तरीका है. इसमें अति सामान्यीकरण के साथ-साथ साम्प्रदायिकता को लेकर निश्चिंत हो जाने का भी खतरा है.
मुझे यह कहने के लिए माफ़ कीजिये लेकिन देश में इस ‘सामान्य’ से दिख रहे माहौल में छिपे ‘असामान्य’ को पढ़ने-देखने की जरूरत है. इतिहास गवाह है कि कई बार जब सतह पर सब कुछ बहुत सामान्य और शांत दिख रहा होता है, तब सतह के नीचे काफी बेचैनी, हलचल और उथल-पुथल चल रही होती है. उसे सतह से ऊपर आने के लिए सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत होती है.
मौजूदा ख़ामोशी को भी इसलिए सुनने की जरूरत है क्योंकि देश में सांप्रदायिक फाल्टलाईन्स भी मौजूद हैं और उन्हें भुनाने के लिए हमेशा तत्पर रहनेवाली सांप्रदायिक शक्तियां भी कमजोर होने के बावजूद मौके की तलाश में हैं.
यही कारण है कि चाहे देश में सब कुछ कितना भी ‘सामान्य और शांत’ क्यों नहीं दिख रहा हो, इन सांप्रदायिक शक्तियों को नजरअंदाज़ करना मुश्किल है. हाई कोर्ट के फैसले के बाद उनमें नई जान आ गई है. इतिहास का अगर कोई सबक है तो वह यह कि वे चुप नहीं बैठेंगे.
उनकी ओर से ‘भव्य मंदिर’ बनाने का अभियान कभी भी शुरू हो सकता है. इसके अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको उठाकर सांप्रदायिक गोलबंदी तेज करने की कोशिश शुरू हो सकती है. इसके संकेत भी मिलने लगे हैं.
दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय खासकर उसके युवाओं के एक हिस्से में बढ़ती बेचैनी, अलगाव, हताशा और गुस्से की भावना को भी अनदेखा करना मुश्किल है. इस बेचैनी, अलगाव और हताशा का सम्बन्ध सिर्फ बाबरी मस्जिद के विध्वंस से नहीं है बल्कि उसके बाद गुजरात में हुए राज्य प्रायोजित नरसंहार से भी है.
यही नहीं, इस अलगाव और हताशा के बीच मुस्लिम युवाओं के एक हिस्से के बीच ‘बदले’ की अंध भावना भी जगह बना रही है. इंडियन मुजाहिदीन जैसे घरेलू संगठनों का खड़ा होना इसका सबूत है. दूसरी ओर, ‘अभिनव भारत’ जैसे संगठनों का सिर उठाना भी इस बात का प्रमाण है कि स्थितियां ‘सामान्य’ नहीं हैं.
याद रखिये कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ वाली शुतुरमुर्गी मानसिकता से स्थितियाँ ‘सामान्य’ होनेवाली नहीं हैं. वास्तव में, स्थितियां तब तक सामान्य नहीं हो सकती हैं, जब तक सभी समुदायों खासकर अल्पसंख्यक समुदायों में यह विश्वास न पैदा किया जाए कि वे भी इस देश के पहले दर्जे के नागरिक हैं और इस देश में उनका भी भविष्य है. यह भी कि कानून की निगाह में सभी बराबर हैं और देश में कानून का राज है. साथ ही, देश के तमाम संसाधनों पर उनका भी उतना ही हक है जितना बाकी समुदायों का.
अफसोस की बात यह है कि पिछले कुछ दशकों में यह विश्वास बुरी तरह से टूटा है. हाई कोर्ट के फैसले से यह विश्वास बहाल नहीं हुआ है, उल्टे और दरक गया है. जाहिर है कि बिना विश्वास के किसी भी मेलमिलाप और सुलह की जमीन बहुत भुरभुरी होती है और उसका स्थायित्व हमेशा संदेहों के घेरे में होता है.
न्याय पर टिकी शांति स्थाई और अन्याय पर टिकी शांति हमेशा अस्थाई और असामान्य होती है. इसलिए यहां यह समझना जरूरी है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई न्याय को आधार बनाकर ही लड़ी जा सकती है.
यह लड़ाई सिर्फ गाल बजाकर नहीं बल्कि एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज बनाने के सपने के साथ शुरू होनेवाली व्यापक बदलाव की लड़ाई का हिस्सा बनकर ही लड़ी जा सकती है. युवा आगे की ओर देख रहे हैं लेकिन उन्हें बेहतर भविष्य की गारंटी देनेवाला आगे का एजेंडा भी चाहिए.
('राष्ट्रीय सहारा' के 'हस्तक्षेप' के ९अक्तूबर'१०)
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