गुरुवार, जनवरी 27, 2011

अँधेरे में रिजर्व बैंक का तीर

महंगाई से रिजर्व बैंक ने भी हार मान ली है  



महंगाई ने आम आदमी की तरह रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव का जीना भी दूभर कर रखा है. इसका सबूत है, ताजा तिमाही मौद्रिक समीक्षा जिसमें रिजर्व बैंक ने बेकाबू मुद्रास्फीति दर को अर्थव्यवस्था और विकास दर के लिए सबसे बड़ा खतरा माना है. जाहिर है कि तात्कालिक तौर पर रिजर्व बैंक के लिए सबसे बड़ी चिंता और चुनौती बढ़ती मुद्रास्फीति को काबू में करना है. इसलिए जैसीकि उम्मीद थी, रिजर्व बैंक ने एक बार फिर बढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू करने के इरादे से ब्याज दरों में चौथाई फीसदी की वृद्धि कर दी है.

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि पिछले एक साल से कम समय में रिजर्व बैंक ने सातवीं बार रेपो और रिवर्स रेपो दर में वृद्धि की है. इसके साथ ही, रेपो दर अब ६.५ प्रतिशत और रिवर्स रेपो दर ५.५ प्रतिशत तक पहुंच गई है. रेपो दर वह ब्याज दर है जिसपर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है जबकि रिवर्स रेपो वह ब्याज दर है जो व्यावसायिक बैंकों को रिजर्व बैंक में उनके जमा पर मिलती है. हालांकि रिजर्व बैंक ने मुद्रा बाजार में तरलता की समस्या को देखते हुए कैश रिजर्व रेशियो (सी.आर.आर) में कोई बदलाव नहीं किया है और न ही एस.एल.आर के साथ कोई छेडछाड की है.

लेकिन असली सवाल यह है कि क्या रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से बेकाबू मुद्रास्फीति दर पर कोई असर होगा? पिछले एक से अनुभव से तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं बनती है. खुद रिजर्व बैंक और उसके गवर्नर सुब्बाराव इस तथ्य से वाकिफ हैं. उन्हें अच्छी तरह से पता है कि महंगाई से लड़ने के लिए ब्याज दरों में सीमित और क्रमिक वृद्धि की रिजर्व बैंक की नीति का मुद्रास्फीति की लगातार ऊँची दर पर कोई खास असर नहीं पड़ रहा है. अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि मौद्रिक नीति के जरिये मुद्रास्फीति को काबू में करने की नीति काफी हद तक विफल साबित हुई है.

एक तरह से खुद रिजर्व बैंक ने भी महंगाई को काबू करने में अपनी विफलता स्वीकार कर ली है. ताजा मौद्रिक समीक्षा में रिजर्व बैंक ने मार्च तक मुद्रास्फीति की दर के अपने पिछले अनुमान में कोई डेढ़ फीसदी की वृद्धि करते हुए मान लिया है कि मुद्रास्फीति दर लगभग ७ प्रतिशत के आसपास रहेगी. इसके पहले रिजर्व बैंक लगातार दावा कर रहा था कि मार्च तक मुद्रास्फीति की दर घटकर ५.५० फीसदी रह जायेगी.

असल में, यह महंगाई से निपटने में रिजर्व बैंक से अधिक यू.पी.ए सरकार और उसकी आर्थिक नीतियों की हार है. सरकार ने जिस तरह से महंगाई के आगे घुटने टेकते हुए उससे लड़ने की जिम्मेदारी अकेले रिजर्व बैंक और उसकी मौद्रिक नीति के मत्थे मढ़ दी है, उसमें रिजर्व बैंक के पास कोई खास विकल्प भी नहीं रह गया है.

हालांकि यह सबको पता है कि महंगाई में लगातार बढ़ोत्तरी मांग में वृद्धि से अधिक नीतिगत और संरचनागत कारणों से हो रही है. इस तरह की महंगाई से निपटने में मौद्रिक नीति की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं. नतीजा, रिजर्व बैंक भी एक तरह से दिखावे के लिए मांग पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरों में मामूली वृद्धि कर रहा है. यह एक तरह से अँधेरे में तीर चलाने जैसा है.

अगर रिजर्व बैंक को सचमुच ऐसा लगता है कि बढ़ती महंगाई न सिर्फ आम आदमी को परेशान कर रही है बल्कि अर्थव्यवस्था को भी अस्त-व्यस्त कर सकती है और यह मांग में अत्यधिक बढ़ोत्तरी के कारण है तो उसे ब्याज दर में सिर्फ चौथाई फीसदी के बजाय कम से कम आधे से लेकर पौन फीसदी की वृद्धि करनी चाहिए थी.

तथ्य यह है कि बैंक और मुद्रा बाजार में ब्याज दरों में आधे फीसदी की अपेक्षा की भी जा रही थी लेकिन रिजर्व बैंक ने एक बार फिर फूंक-फूंककर, धीमे और संभलकर चलने की अपनी नीति जारी रखी. दरअसल, इस नीति के पीछे रिजर्व बैंक की एक बड़ी दुविधा भी है. उसे महंगाई से निपटते हुए आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखने की चिंता भी करनी है. आर्थिक वृद्धि दर को प्रोत्साहित करने के लिए निवेश को बढ़ाना जरूरी है जिसके लिए जरूरी है कि ब्याज दरें कम रहें. आश्चर्य नहीं कि ब्याज दरों में ताजा मामूली वृद्धि की भी उद्योग जगत ने आलोचना की है.

हालांकि रिजर्व बैंक के मुताबिक, आर्थिक वृद्धि की दर संतोषजनक है और उसका अनुमान है कि इस साल जी.डी.पी की विकास दर ८.५ प्रतिशत रहेगी लेकिन औद्योगिक उत्पादन दर में जिस तरह से नवंबर माह में तेज गिरावट दर्ज की गई है और वह सिर्फ २.७ प्रतिशत रह गई है, उससे रिजर्व बैंक का चिंतित होना स्वाभाविक है. निश्चय ही, रिजर्व बैंक की यह एक बड़ी चिंता है कि अर्थव्यवस्था की विकास दर को नुकसान पहुंचाए बिना महंगाई को कैसे काबू में किया जाए? गवर्नर सुब्बाराव की मुश्किल यह है कि उनके पास बहुत सीमित विकल्प हैं. यही नहीं, सच यह भी है कि उनके तरकश में जितने सीमित हथियार उपलब्ध थे, उन्होंने उन सभी का इस्तेमाल पिछले एक साल में कर लिया है.

आश्चर्य नहीं कि रिजर्व बैंक ने ताजा मौद्रिक नीति में महंगाई से लड़ने के मुद्दे को यह कहकर केन्द्र सरकार खासकर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के पाले में सरका दिया है कि मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए केन्द्र सरकार को वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना चाहिए. इसका अर्थ हुआ कि रिजर्व बैंक चाहता है कि जब अगले महीने वित्त मंत्री सालाना बजट पेश करें तो उसमें वित्तीय घाटे को काबू करने यानी सरकार की आय में बढ़ोत्तरी और खर्चों में कटौती पर सबसे अधिक जोर दें. मतलब बिल्कुल साफ है. रिजर्व बैंक महंगाई से लड़ने के लिए एक सख्त बजट चाहता है.

लेकिन असली सवाल यह है कि एक ऐसे दौर में जब महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है और आम आदमी का जीवन दूभर हुआ जा रहा है, उस समय एक सख्त बजट क्या आम आदमी पर दोहरी मार की तरह नहीं होगी? सवाल यह भी है कि मांग को नियंत्रित करने के जरिये मुद्रास्फीति को काबू में करने की रणनीति की असली कीमत कौन चुका रहा है?

याद रहे, मुद्रास्फीति भी एक तरह से बाजार का अपना तरीका है जिसके जरिये वह मांग को नियंत्रित करता है यानी जब दाल की कीमत बढ़कर १०० रूपये प्रति किलो हो जाती है तो इसके जरिये वह आबादी के एक बड़ा तबके की पहुंच से दूर हो जाती है. ऐसे में, इस सवाल पर जरूर विचार होना चाहिए कि मांग प्रबंधन के नाम पर बाजार से किस तबके को बाहर किया जा रहा है?

(दैनिक राष्ट्रीय सहारा में २७ जनवरी'११ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

issbaar ने कहा…

साधुवाद! लेकिन एक शिकायत भी। आप दुखित और व्यथित जितना रिजर्व बैंक के गर्वनर के ‘दूभर’ होती जिंदगी से हैं; उतना आमआदमी से नहीं। ‘दूभर’ शब्द का इस्तेमाल आपने दोनों के लिए की है। पर क्या स्थितियाँ एकसमान है? क्या रिजर्ब बैंक के गर्वनर भी उसी सूरत-ए-हाल में गुजर-बसर कर रहे हैं जिस स्थिति में जनता? आपको पता नहीं तो जानिए हुजूर? शब्दकोश में शब्दावलियों का अकाल नहीं, पर विचार कितने ठिगने और बौने हो चुके हैं, हमें पता हैं? आमआदमी तो अपनी भुक्तभोगी चिंताओं को भी अपनी बोली-वाणी में नहीं प्रकट कर सकता मीडिया-मंच पर। उसके कहे ‘कोटेशननुमा’ छप जरूर सकते हैं, पर पूरा पेज उसे मिले संभव नहीं। प्रतिष्ठित, नामचीन और ख्यातनाम का टैग लटकाए लोगों को चाहिए कि भुगन काका, अघोरी दादा, पुतुल आजी और आसिया बीबी को भी संपादकीय में छापे कि वे क्यों नहीं अभी तक पलस्तर करा सके अपना घर जिसे इंदिरा आवास के सहारे बनवाया था? उनके घर की खूंटी पर कोई बल्ब क्यों नहीं जलता बिजली का? जिस मेहनत से आलू बोया था अपने 2 कट्ठा जमीन में; जठिया-टूटना पाला मार गया उसे; ऐसे में वो भला इस नुकसान की भारपाई कैसे करेंगी? सौरी, थोड़ा इमोशनल हो गया। ऐसी बात तो मुझे अपने महामना की तपोभूमि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अकादमिक सुधी जनों के बीच बोलनी-रखनी चाहिए...शोध-पत्र की भाषा में। है न!
-राजीव रंजन प्रसाद, शोध-छात्र, प्रयोजनमूलक हिन्दी, पत्रकारिता, हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी