रविवार, जनवरी 02, 2011

तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और चौड़ी होती इंडिया और भारत के बीच की खाई

अर्थव्यवस्था का हाल तो अच्छा है लेकिन लोगों का नहीं


२१ वीं सदी का दूसरा दशक शुरू हो चुका है. यही सही समय है जब पिछले दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का लेखा-जोखा लिया जाए और उसके आधार पर अगले दशक की उम्मीदों और संभावनाओं को टटोला जाए. कहने की जरूरत है कि अगर अर्थव्यवस्था की विकास दर के लिहाज से देखा जाए तो इस सदी के पहले दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कई तरह के उतार-चढ़ावों के बावजूद अच्छा रहा है.

आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. कुलमिलाकर, इस दशक में अर्थव्यवस्था की औसत सालाना वृद्धि दर ७ से ८ फीसदी के बीच रही है. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर आर. रंगराजन के मुताबिक, २००५-०६ के बाद अर्थव्यवस्था की औसत सालाना वृद्धि दर ८.५ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. आज भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़कर एक खराब डालर की हो चुकी है.

यही नहीं, आज जिन्हें अर्थव्यवस्था की प्रगति का सूचकांक माना जाता है, उनमें से भी कई सूचकांकों पर भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही है. जैसे इन दस सालों में शेयर बाज़ार ने लंबी छलांग लगाई है. इन दस वर्षों में शेयर बाज़ार के कुल पूंजीकरण में दस गुने की वृद्धि हुई है. इस बीच, शेयर बाज़ार का सूचकांक ४००० से पांच गुना अधिक बढ़कर २०००० के आसपास पहुंच चुका है. २००० के आखिर में बाज़ार का कुल पूंजीकरण लगभग ७ लाख करोड़ रूपये के आसपास था जो अब बढ़कर 72,96,725 करोड़ रूपये तक पहुंच चुका है. सच पूछिए तो अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन की चांदी शेयर बाज़ार के बड़े और संगठित निवेशक ही काट रहे हैं.

इसी तरह, विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़कर २७० अरब डालर के ऊपर पहुंच चुका है. संस्थागत विदेशी निवेश हो या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश- भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी पूंजी के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है. निर्यात में भी उतार-चढाव के बावजूद एक संतोषजनक वृद्धि दर बनी हुई है. नतीजा, अमीर और मध्यम वर्गों की आय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इससे भारत एक विशाल बाज़ार के रूप में उभर रहा है. यह इस भारतीय अर्थव्यवस्था और बढ़ते बाज़ार का ही आकर्षण है कि पिछले साल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँचों सदस्य देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्रियों ने भारत की यात्रा करना जरूरी समझा.

लेकिन अर्थव्यवस्था की इस गुलाबी तस्वीर के साथ एक निराश करनेवाली तस्वीर भी है. अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन का फायदा अभी भी देश का एक छोटा हिस्सा ही उठा रहा है. विकास दर की तेज रफ़्तार से पैदा होनेवाली समृद्धि का लाभ हर घर तक नहीं पहुंच पा रहा है. उल्टे ऐसा लगता है कि देश के एक बड़े हिस्से को यह समृद्धि बाईपास करके निकाल गई है.

खासकर देश के उन ७८ प्रतिशत लोगों को जिन्हें अभी भी प्रतिदिन २० रूपये से भी कम की आय में गुजारा करना पड़ता है. यहां मेक्सिको के पूर्व राष्ट्रपति कारदोसो का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसी ही स्थिति का बयान करते हुए कहा था कि, ‘ अर्थव्यवस्था का हाल तो अच्छा है लेकिन लोगों का नहीं.’

आश्चर्य नहीं कि पिछले दशक में अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर और सेंसेक्स के २० वें आसमान में पहुँचने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भारत अभी भी ११९ वें स्थान पर है. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान ८८ देशों की सूची में ६७ वां है. इस मामले में भारत का प्रदर्शन कई अफ़्रीकी और अन्य गरीब देशों से भी बुरा है. नतीजा, देश में लगभग ४२ प्रतिशत बच्चे कुपोषण ग्रस्त हैं. यही नहीं, यह तो सरकार भी स्वीकार कर रही है कि तेज विकास दर के बावजूद रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं पैदा हुए हैं. सच पूछिए तो यह ‘रोजगारविहीन विकास’ रहा है जिसके कारण बेरोजगारी की दर २००९-१० में ९.४ प्रतिशत तक पहुंच गई है.

सवाल है कि अगला दशक अर्थव्यवस्था के लिए कैसा रहेगा? सबसे पहले गुलाबी तस्वीर जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थक पेश कर रहे हैं. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर आर. रंगराजन के मुताबिक, अर्थव्यवस्था उच्च आर्थिक विकास दर के श्रेणीक्रम में पहुंच चुकी है और आनेवाले वर्षों अर्थव्यवस्था ९ से १० प्रतिशत की दर से बढ़ेगी. खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री की राय भी कुछ ऐसी ही है. उन्हें भी विश्वास है कि अगले दशक में जी.डी.पी की विकास दर नौ से दस प्रतिशत के आसपास रहेगी. अगर सचमुच ऐसा हुआ तो अगले दस वर्षों में क्या होगा?

एक बाज़ार निवेश कंपनी एडेल्विस के मताबिक, अगर भारतीय अर्थव्यवस्था अगले १० वर्षों तक औसतन सालाना ९ प्रतिशत की दर से बढ़ती रहे तो २०२० में भारत की जी.डी.पी करीब चार गुना बढ़कर मौजूदा उस समय प्रति व्यक्ति आय मौजूदा ५० हजार रूपये प्रति व्यक्ति से तीन गुना बढ़कर लगभग १.५ लाख रूपये हो जायेगी. ऐसे अमीर परिवारों की संख्या लगभग १.८ करोड़ होगी जिनकी आय १६ लाख रूपये से अधिक होगी. इसके अलावा, १.५ लाख से १६ लाख रूपये की आय वाले परिवारों की संख्या करीब १८ करोड़ होगी. जबकि १.५ लाख रूपये से कम की आय वाले वंचित परिवारों की संख्या लगभग १० करोड़ होगी.

इस एजेंसी के अनुमानों के मुताबिक, अर्थव्यवस्था के सबसे तेज बढ़ने वाले क्षेत्रों में शिक्षा क्षेत्र में ५.७ गुना, दवा और स्वास्थ्य सेवा में ६ गुना, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में ५ गुना, आटोमोबाइल में ४.८ गुना, संगठित खुदरा व्यापार में ६.३ गुना और शहरी आवास कारोबार में ६.५ गुना की वृद्धि दर्ज की जायेगी. जाहिर है कि यह अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर है जो कुछ शर्तों के साथ २०२० में दिखाई दे सकती है. लेकिन यह आधी सच्चाई है.

अर्थव्यवस्था में उछाल के बावजूद २०२० में सबसे बड़ी चिंता आर्थिक गैरबराबरी की होगी. अनुमानों के मुताबिक, आर्थिक गैरबराबरी मापने वाला गिनी इंडेक्स ३६ होगा जो भारत को आर्थिक रूप से दुनिया के सबसे ज्यादा गैरबराबरी वाले देशों की श्रेणी में पहुंचा देगा. इसका अर्थ यह हुआ कि अगले दस वर्षों में अर्थनीति में कोई बदलाव नहीं हुआ और समृद्धि में न्यायपूर्ण और समान बंटवारे के ठोस उपाय नहीं किए गए तो न सिर्फ अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होता चला जायेगा बल्कि ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच का फासला न पाटे की हद तक बढ़ जायेगा.

बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसा ‘इंडिया’ और उसका विकास स्थाई हो पायेगा? क्या यह देश में एक ऐसी खाई नहीं पैदा कर देगा जिसमें गरीब और वंचित भारत निराशा और हताशा में अमीर होते इंडिया के खिलाफ खड़ा हो जाए? आप चाहें तो देश में इसके संकेत अभी ही देख सकते हैं. देश के आधे से अधिक हिस्से में गरीबों, वंचितों, आदिवासियों, दलितों और किसानों के बीच विद्रोह के हालात हैं. यह एक चेतावनी है कि अगर मौजूदा नीतियों को नहीं बदला गया तो देश में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा होने से रोक पाना मुश्किल हो जायेगा.

(दैनिक 'हरिभूमि' में २ जनवरी'११ को प्रकाशित आलेख)

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