सक्रिय और सतर्क पाठकों और दर्शकों के मीडिया एक्टिविज्म से बदलाव आएगा
पिछला साल मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया के लिए अच्छा नहीं रहा. खबरों की खरीद-फरोख्त (पेड न्यूज) के गंभीर आरोपों से घिरे कारपोरेट मीडिया की साख को नीरा राडिया प्रकरण से गहरा धक्का लगा. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट मीडिया का संकट गहराता जा रहा है. यह उसकी साख का संकट है. उसकी विश्वसनीयता पर सवाल दर सवाल उठ रहे हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि उन सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं. नतीजा, कारपोरेट मीडिया के कारनामों के कारण लोगों का उसमें भरोसा कम हुआ/हो रहा है.
इसका एक नतीजा यह भी हुआ है कि लोग समाचार मीडिया को लेकर जागरूक हो रहे हैं. पाठक, श्रोता और दर्शक अब आँख मूंदकर उसपर भरोसा नहीं कर रहे हैं. वे खुद भी खबरों की पड़ताल करने लगे हैं. इसमें न्यू मीडिया उनकी मदद कर रहा है. न्यू मीडिया और खासकर सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, ब्लॉग आदि के कारण न सिर्फ उनकी सक्रियता बढ़ी है बल्कि उनका आपस में संवाद भी बढ़ा है. पाठकों-दर्शकों का एक छोटा सा ही सही लेकिन सक्रिय वर्ग कारपोरेट समाचार मीडिया पर कड़ी निगाह रख रहा है और उसकी गलतियों और भटकावों को पकड़ने और हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचाने में देर नहीं कर रहा है.
एक ताजा उदाहरण देखिए. वैसे तो अंग्रेजी समाचार चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन और इसके संपादक राजदीप सरदेसाई की साख और प्रतिष्ठा बहुत अच्छी है लेकिन पिछले दिनों इस चैनल और खुद उनके कार्यक्रम में एक ऐसी घटना घटी जिसे पत्रकारीय नैतिकता की कसौटी पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है. हुआ यह कि इस चैनल पर नीरा राडिया प्रसंग में इस मुद्दे पर बहस का कार्यक्रम प्रसारित किया गया कि ‘क्या लाबीइंग को कानूनी बना देना चाहिए ?’ इस कार्यक्रम के दौरान चैनल पर दर्शकों की राय पेश करने के नाम पर कई ट्विट पेश किए गए जिसमें अधिकांश में लाबीइंग को कानूनी बनाने की वकालत की गई थी.
बाद में एक गुमनाम दर्शक ने खोज निकाला कि इनमें से सभी ट्वीट्स फर्जी थे. उसने अपनी जांच पड़ताल में पाया कि जिन लोगों के नाम से ये ट्वीट्स लिखे और पेश किए गए, उन नामों से ट्विटर पर कोई एकाउंट ही नहीं है. उसने यह जानकारी अपने ब्लॉग (दलाल मीडिया) पर डाल दी जहां से वह दर्शकों और पाठकों के एक बड़े समुदाय तक पहुंच गया.
जाहिर है कि इन ट्वीट्स को न्यूज रूम में ही लिखा गया और वह भी लाबीइंग की वकालत करते हुए. यह एक तरह से अपने दर्शकों के साथ धोखा ही नहीं बल्कि अत्यंत विवादास्पद विषय लाबीइंग के पक्ष में फर्जी तरीके से जनमत बनाने की कोशिश भी थी. इससे सी.एन.एन-आई.बी.एन की इतनी किरकिरी हुई कि उन्हें अपने दर्शकों से माफ़ी तक मांगनी पड़ी.
लेकिन यह घटना कोई अपवाद नहीं थी. इससे पता चलता है कि चैनलों या अख़बारों में दर्शकों-पाठकों की राय के नाम पर जो कुछ पेश किया जाता है, उसमें कितना गढा हुआ (मैन्युफैक्चर्ड) और तोड़-मरोड़ (मैनिपुलेटेड) शामिल है. समाचार मीडिया में ऐसे कार्यक्रमों और सर्वेक्षणों को खासी जगह मिलती है जिसमें कथित तौर पर विभिन्न मुद्दों पर दर्शकों-पाठकों या आम लोगों की राय दिखाई या छापी जाती है. इनसे किसी मुद्दे खासकर विवादास्पद मुद्दों पर जनमत बनता या प्रभावित होता है.
लेकिन हैरानी की बात यह है कि ऐसे अधिकांश कार्यक्रमों और सर्वेक्षणों में लोगों की राय इकठ्ठा करने के तरीके से लेकर उनके विश्लेषण तक में न सिर्फ अपेक्षित पारदर्शिता नहीं होती है बल्कि उनका तरीका अवैज्ञानिक और पूर्वाग्रहों से भरा होता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे मैनिपुलेटेड कार्यक्रम या सर्वेक्षण पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को भ्रष्ट बनाते हैं. कल्पना कीजिये कि चैनल पर लाबीइंग को कानूनी दर्जा देने पर बहस चल रही है और उसमें ट्विट के जरिये आ रही दर्शकों की राय अगर लाबीइंग को कानूनी दर्जा देने के पक्ष में है तो उसका आम दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
असल में, लोकतंत्र जनमत से चलता है और यही कारण है कि विभिन्न प्रकार के निहित स्वार्थ जनमत को प्रभावित करने की कोशिश करते रहते हैं. कारपोरेट मीडिया हमेशा से इस खेल का हिस्सा रहा है लेकिन हाल के वर्षों में दांव जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, जनमत गढ़ने और तोड़ने-मरोड़ने का खेल भी बड़ा और बारीक़ होता जा रहा है. लाबीइंग इसी खेल का एक हथियार है.
याद करिए, कारपोरेट लाबीस्ट नीरा राडिया ने समाचार मीडिया और उनके स्टार संपादकों-पत्रकारों की मदद से कई राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों जैसे प्राकृतिक गैस के स्वामित्व और कीमत पर अपने क्लाइंट रिलायंस के पक्ष में परोक्ष रूप से जनमत बनाने की कोशिश की और बहुत हद तक सफल भी रही. रिलायंस को इसका फायदा भी मिला. आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट समाचार मीडिया की मदद से निहित स्वार्थ छवि निर्माण, छवि प्रबंधन (परसेप्शन मैनेजमेंट) से लेकर मुद्दा प्रबंधन (इशू मैनेजमेंट) तक कर रहे हैं जो और कुछ नहीं जनमत को मैनिपुलेट करना और पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया प्रदूषित करना है.
लेकिन अच्छी खबर यह है कि पाठकों-दर्शकों के एक हिस्से ने कारपोरेट मीडिया की निगरानी और उनकी गलतियों और विचलनों पर खुली चर्चा शुरू कर दी है. यह एक नए तरह का मीडिया एक्टिविज्म है जिसके निशाने पर खुद कारपोरेट मीडिया है. निश्चय ही, इससे कारपोरेट मीडिया की साख पर असर पड़ा है. एक मायने में यह कारपोरेट समाचार मीडिया के लिए खतरे की घंटी है. पहले वह गलतियां करके बच निकलता था. उसके विचलनों पर चर्चा नहीं होती थी. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. कारपोरेट मीडिया के चतुर सुजान- सावधान ! वर्ष २०११ इस मीडिया एक्टिविज्म के नाम रहनेवाला है.
(तहलका के जनवरी'11 अंक में प्रकाशित)
2 टिप्पणियां:
टीआरपी ने मीडिया का पूरा चेहरा बदला आज बहस टीआरपी नीति के खत्म करने तक पहुच गई है , यह अच्छी बात है लोगो ने कॉरपोरेट मीडिया के चश्मे को उतार दिया है लेकिन इसमें अभी भी लम्बी दूरी तय करनी पड़ेगी क्योकि सत्ता प्रतिष्ठानों ने आम आदमी को इतना उलझा का रख दिया की वो दो वक्त की रोटी के अलवा कुछ सोच ही नहीं पता.
टीआरपी ने मीडिया का पूरा चेहरा बदला आज बहस टीआरपी नीति के खत्म करने तक पहुच गई है , यह अच्छी बात है लोगो ने कॉरपोरेट मीडिया के चश्मे को उतार दिया है लेकिन इसमें अभी भी लम्बी दूरी तय करनी पड़ेगी क्योकि सत्ता प्रतिष्ठानों ने आम आदमी को इतना उलझा का रख दिया की वो दो वक्त की रोटी के अलवा कुछ सोच ही नहीं पता.
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