तेलंगाना से निकलेगी नई राह
जस्टिस श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट के बाद अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर आंध्र प्रदेश के साथ-साथ केन्द्र की राजनीति गर्मा गई है. इस रिपोर्ट ने इस मामले को सुलझाने से अधिक उलझा दिया है. वैसे भी तकनीकी विशेषज्ञों की समिति से एक गंभीर राजनीतिक सवाल के हल की अपेक्षा करना ठीक नहीं था. यह शुरू से साफ था कि केन्द्र की यू.पी.ए सरकार तेलंगाना मुद्दे पर कोई फैसला नहीं लेना चाहती थी और उसने मामले के टालने के लिए जस्टिस श्रीकृष्ण समिति का गठन किया था. अपनी इन सीमाओं के बावजूद जस्टिस श्रीकृष्ण समिति ने तेलंगाना मुद्दे की गेंद को एक बार फिर केन्द्र सरकार के पाले में डाल दिया है.
अब फैसला कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को करना है. लेकिन कांग्रेस इस मुद्दे पर कोई साफ और नीतिगत निर्णय लेने के बजाय अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण मामले को लटकाने और अपने पुराने राजनीतिक दांव-पेंच पर उतर आई है. इससे इस पूरे मामले के शांति, सौहार्द और न्यायोचित तरीके से सुलझने के बजाय बिगड़ने का खतरा बढ़ता जा रहा है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपने पुराने अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. उसके संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की राजनीति के कारण ही ८० के दशक में पंजाब और असम जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो गईं थीं.
कहने की जरूरत नहीं है कि तेलंगाना के मुद्दे पर एक बार फिर ऐसी राजनीतिक गलती देश को बहुत भारी पड़ सकती है. असल में, तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेस अपनी अवसरवादी और संकीर्ण स्वार्थों की राजनीति के कारण फंस गई है. कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश में दांव बहुत उंचे हैं. कांग्रेस के सबसे अधिक करीब ३५ सांसद आंध्र से ही आते हैं. देश के बड़े राज्यों में कांग्रेस की सत्ता केवल आंध्र प्रदेश में ही है क्योंकि महाराष्ट्र में वह एन.सी.पी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है. दक्षिण भारत में आंध्र एकमात्र राज्य है जहां कांग्रेस को भविष्य की राजनीति के लिहाज से सबसे अधिक उम्मीदें हैं.
जाहिर है कि कांग्रेस आंध्र गंवाने का जोखिम नहीं ले सकती है लेकिन आंध्र की सत्ता को बचाने के लिए कांग्रेस जिस तरह का दांव-पेंच कर रही है, उसके कारण वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से आंध्र और तेलंगाना दोनों गंवाने के कगार पर पहुंच गई है बल्कि दोनों खित्तों को आग में भी झोंकती दिखाई पड़ रही है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर एक सैद्धांतिक और नीतिगत रूख अपनाने के बजाय अपने राजनीतिक फायदे-नुकसान की राजनीति के आधार पर मामले को लटकाने और उलझाने की आत्मघाती राजनीति कर रही है.
दरअसल, कांग्रेस दूर तक नहीं देख पा रही है. उसकी राजनीति तात्कालिकता और अवसरवाद से संचालित हो रही है. इसके कारण आंध्र प्रदेश में वह सच और न्याय के पक्ष को अनदेखा करने की कोशिश कर रही है. क्या यह सच नहीं है कि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का मुद्दा आंध्र कांग्रेस के घोषणापत्र और यू.पी.ए – प्रथम के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल था?
क्या यह अवसरवाद नहीं है कि उस समय कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टी.आर.एस) का समर्थन लेने के लिए अलग राज्य का वायदा किया था लेकिन बाद में मुकर गई? कांग्रेस और वामपंथी दलों को इस बात पर जरूर विचार करना चाहिए कि क्या कारण है कि तेलंगाना अलग राज्य बनाए जाने का एक लोकतान्त्रिक आंदोलन भाजपा और टी.आर.एस जैसी सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और अवसरवादी शक्तियों के हाथ में चला गया है.
कांग्रेस ही क्यों, तेलंगाना के मुद्दे पर लगभग हर पार्टी का अवसरवादी और दोमुंहा रवैया उजागर हो चुका है. आज भाजपा तेलंगाना को अलग राज्य बनाए जाने की सबसे बड़ी चैम्पियन बन रही है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अपने चुनाव घोषणापत्र में वायदे के बावजूद उसने वर्ष २००० में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के साथ तेलंगाना को अलग राज्य नहीं बनाया?
तथ्य यह है कि भाजपा उस समय केन्द्र में अपनी सरकार बचाने के लिए पीछे हट गई. वाजपेयी सरकार चन्द्र बाबू नायडू की टी.डी.पी के समर्थन से चल रही थी. इसी तरह, खुद टी.डी.पी का अवसरवाद यह है कि उसने पिछले चुनावों में अपनी डूबती नैय्या को बचाने के लिए टी.आर.एस के साथ समझौता करके चुनाव लड़ा लेकिन अब तेलंगाना के मुद्दे पर दाएं-बाएं कर रहे हैं.
इस मुद्दे पर वामपंथी पार्टियों खासकर माकपा का रूख सैद्धांतिक तौर पर राज्य विभाजन का विरोध करने के बावजूद राजनीतिक रूप से एक अलग तरह के अवसरवाद से प्रेरित है. माकपा पूरे देश में राज्य विभाजन और छोटे राज्यों का सिर्फ इस कारण से विरोध करती रही है कि वह पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड के विरोध में है. हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों को इस अवसरवादी राजनीति का यह खामियाजा भुगतना पड़ रहा है कि आन्ध्र में सभी पार्टियां दो हिस्सों में बंट गई हैं. यही नहीं, उनकी इस अवसरवादी राजनीति के कारण आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और राज्य के अन्य हिस्सों – तटीय आंध्र और रायलसीमा के बीच गृह युद्ध के आसार पैदा हो गए हैं.
सच यह है कि अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन को अब और नहीं टाला जा सकता है. तेलंगाना एक ऐसी ऐतिहासिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सच्चाई और विचार है जिसका समय आ गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि तेलंगाना शुरू से ही यहां तक कि तेलुगु भाषी राज्य के रूप में आंध्र के गठन से पहले से ही यह एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र, सांस्कृतिक रूप से अलग और आर्थिक रूप से सक्षम इकाई रहा है. इस सच्चाई को जितनी जल्दी स्वीकार किया जायेगा, वह आंध्र और पूरे देश के लिए उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इस अपरिहार्य फैसले को टालने या लटकाने के नतीजे किसी के लिए भी अच्छे नहीं होंगे.
असल में, १९५६ में तेलंगाना को उसकी इच्छा के विरुद्ध आंध्र प्रदेश में मिलाया गया था. प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी इस एकीकरण की सिफारिश नहीं की थी. उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि तेलंगाना को अगले पांच सालों यानी १९६१ तक अलग राज्य बनाए रखा जाए. इसके बाद अगर दो तिहाई निर्वाचित प्रतिनिधि एकीकरण के पक्ष में राय व्यक्त करते हैं तो एकीकरण होना चाहिए.
यही नहीं, हैदराबाद राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.आर.के. राव ने इस आधार पर दोनों के एकीकरण का विरोध किया था कि दोनों इलाके सांस्कृतिक रूप से काफी अलग हैं. इन्हीं आशंकाओं के मद्देनजर एकीकरण के वक्त ‘जेंटलमैन एग्रीमेंट’ हुआ जिसमें एकीकृत राज्य में तेलंगाना के हितों को सुरक्षित रखने का वायदा किया गया था.
इस समझौते में ही तेलंगाना के चौतरफा विकास के लिए अलग से एक क्षेत्रीय परिषद के गठन के साथ-साथ यह भी वायदा किया गया था कि दोनों क्षेत्रों के विकास पर आनुपातिक रूप से व्यय करने के बाद बजट में जो रकम बच जायेगी, वह तेलंगाना के विकास पर खर्च की जायेगी. लेकिन तेलंगाना के लोगों का आरोप है कि जेंटलमैन एग्रीमेंट में किए गए वायदे पूरे नहीं किए गए. लेकिन जेंटलमेन एग्रीमेंट को ईमानदारी से लागू करना तो दूर उल्टे १९७३ में तेलंगाना के विकास के लिए गठित क्षेत्रीय परिषद को भंग कर दिया गया. विडम्बना देखिए कि अब एक बार फिर श्रीकृष्ण समिति ने अनेक विकल्पों में एक तेलंगाना के लिए क्षेत्रीय परिषद के गठन का प्रस्ताव किया है.
तथ्य यह है कि तेलंगाना की उपेक्षा के खिलाफ १९६८-६९ में जबरदस्त आंदोलन चला जिसके बाद इस आरोप की जांच के लिए ललित समिति का गठन किया गया कि तेलंगाना के हिस्से के संसाधन अन्य इलाकों में खर्च किए जा रहे हैं. इस समिति ने माना कि १९५६ से १९६८ के बीच तेलंगाना के हिस्से का अधिशेष १०० करोड़ रूपये से अधिक है जिसका वर्तमान मूल्य लगभग २३०० करोड़ रूपये बैठता है.
यही नहीं, हैदराबाद को छोड़ भी दिया जाए तो ताजा अध्ययनों के मुताबिक, २००३-०४ से २००६-०७ के बीच आंध्र प्रदेश के कुल राजस्व का आधे से अधिक तेलंगाना क्षेत्र से आ रहा था. राज्य के कुल सेल्स टैक्स का ७५ प्रतिशत और उत्पाद कर का ६६ फीसदी तेलंगाना क्षेत्र से आता है. लेकिन तेलंगाना के विकास पर उस अनुपात में खर्च नहीं होता है.
इसके बावजूद यह सच है कि तेलंगाना आर्थिक तौर पर उतना पिछड़ा नहीं है जितना अकसर दावा किया जाता है. इस तथ्य की पुष्टि श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट ने भी की है. लेकिन तेलंगाना के लोगों की शिकायत यह है कि तेलंगाना के कई इलाकों के विकास में राज्य की भूमिका बहुत कम है. उन्हें इस विकास की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. उदाहरण के लिए, जहां तटीय आंध्र के कई जिलों में नहर से सिंचाई की सुविधा है, वहीँ तेलंगाना में ७५ फीसदी से अधिक इलाकों में ट्यूब वेल से सिंचाई करनी पड़ती है जिसकी आर्थिक और पर्यावरणीय लागत बहुत ज्यादा है. इसी तरह, उनकी यह भी शिकायत है कि आंध्र की सिंचाई परियोजनाओं में तेलंगाना को उसका जायज हिस्सा नहीं मिलता है.
नतीजा, तेलंगाना इलाके में निरंतर सूखे की समस्या के कारण सबसे ज्यादा आप्रवासन और किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आती हैं. आश्चर्य नहीं कि आंध्र में १९९८ से २००६ के बीच किसानों की कुल आत्महत्याओं में दो तिहाई से ज्यादा आत्महत्याएं तेलंगाना इलाके में ही हुईं. तेलंगाना के आंदोलनकारियों की यह भी शिकायत है कि पिछले तीन-चार दशकों में उनसे किए गए अधिकांश वायदे पूरे नहीं किए गए जिसके कारण इलाके के लोगों में यह भावना मजबूती से बैठ गई है कि अलग राज्य के अलावा अब और कोई रास्ता नहीं है.
यह आकांक्षा पिछले कई चुनावों में लोगों के राजनीतिक जनादेश में भी दिख चुकी है. सच यह है कि अलग राज्य की मांग तेलंगाना की आम जन भावना बन चुकी है. यह किसी एक पार्टी या नेता का आंदोलन नहीं है. अब के. चंद्रशेखर राव और टी.आर.एस चाहें भी तो पीछे नहीं लौट सकते हैं.
दरअसल, ऐतिहासिक कारणों से अलग और अपने राज्य की यह भावना इतनी गहरी हो चुकी है कि तेलंगाना का सवाल अब पिछडेपन बनाम विकास का मुद्दा नहीं रह गया है. यह तेलंगाना के लोगों के लिए आत्म सम्मान का मुद्दा बन गया है. यही कारण है कि इस पूरे सवाल को अब पिछडेपन बनाम विकास की बहस के सन्दर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए जैसाकि श्रीकृष्ण समिति या कुछ और विश्लेषक कर रहे हैं.
ऐसे में, सबसे बेहतर रास्ता यही है कि मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के देखते हुए तेलंगाना को न सिर्फ अलग राज्य बनाया जाए बल्कि ऐतिहासिक रूप से उसका हिस्सा रहे हैदराबाद को भी उसके साथ रखा जाए. इसके बदले में, सीमान्ध्रा को नई राजधानी के निर्माण के लिए एकमुश्त पैकेज दिया जा सकता है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस समाधान के लिए कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों को न सिर्फ जरूरी राजनीतिक साहस दिखाना होगा बल्कि सीमान्ध्रा के लोगों को बातचीत के जरिये सहमत करना होगा. जहां तक तेलंगाना बनने से देश के अन्य हिस्सों में अलग राज्यों के आंदोलन तेज होने का सवाल है, उसके लिए राजनीतिक दलों और देश को भारत विभाजन की उस भयग्रंथि से भी बाहर निकलना होगा जो अलग राज्यों के आन्दोलनों को हमेशा अलगाववादी आंदोलन की तरह देखती है.
अच्छा तो यह होता कि यू.पी.ए सरकार इस पूरे मुद्दे पर तदर्थवादी और अवसरवादी तरीके से फैसला करने के बजाय द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करती और ऐसी सभी मांगों पर खुले और लोकतान्त्रिक तरीके से विचार का माहौल बनाती. तेलंगाना ने यह अवसर दिया है. इससे एक नई राह निकल सकती है. इसे गंवाना नहीं चाहिए.
('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर जनवरी'११ को प्रकाशित)
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