रविवार, जनवरी 09, 2011

राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है नव उदारवादी सुधारों ने

 भ्रष्टाचार और पूंजीवाद के बीच जैविक रिश्ता है

उदारीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म की तीसरी और अंतिम किस्त

उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई है. खासकर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोलतोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई है. यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ानेवाला और उसके निवेश और मुनाफे की राह से रोड़े हटानेवाला बना दिया गया.

नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.

इसके लिए नव उदारवादी सुधारों के तहत ऐसी नीतियां तैयार की गईं हैं जो कीमती और दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को कार्पोरेट्स के हवाले करने का रास्ता साफ करती हैं. कहने का अर्थ यह कि भ्रष्टाचार और घोटालों से इतर कार्पोरेट्स के पक्ष में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे कानूनी अर्थों में भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है क्योंकि वह सब कानून और नियमों के अनुकूल है.

उदाहरण के लिए, भाजपा-एन.डी.ए की पिछली सरकार ने टेलीकाम कंपनियों को फायदा पहुंचने के लिए नीतियों को ही बदल दिया. इससे जो कंपनियां एक कानूनी समझौते के तहत निश्चित लाइसेंस फ़ीस देने के लिए बाध्य थीं, उन्हें राजस्व साझेदारी व्यवस्था में शिफ्ट कर दिया गया जिससे सरकारी खजाने को नुकसान और कंपनियों को भारी फायदा हुआ.

जाहिर है कि यह अकेला उदाहरण नहीं है. सच पूछिए तो पिछले दो दशकों में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक हितों की कीमत पर जिस तरह से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया गया है, उससे बड़ा घोटाला और कोई नहीं है. इस नए निजाम में सबसे ज्यादा जोर कंपनियों के मनमाने मुनाफे को बढ़ाने पर है और इसके लिए उन्हें जो रियायतें और छूट दी जा सकती हैं, बिना किसी शर्म-संकोच के दी जा रही हैं. उदाहरण के लिए, हर साल बजट में कंपनियों और कारोबारियों को विभिन्न तरह के टैक्सों में अरबों रूपये की छूट दी जा रही है जो एक तरह की सब्सिडी ही है.

खुद सरकार के अनुमानों के मुताबिक वर्ष २००९-१० के बजट में विभिन्न टैक्स रियायतों और छूटों के कारण सरकारी खजाने को लगभग ५,४०,२६९ करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है. इसमें अकेले कारपोरेट टैक्स और कारपोरेट आयकर में छूट के जरिये सरकार ने कारपोरेट क्षेत्र को ७९५५४ करोड़ रूपये था.

इसी तरह, पिछले दो दशकों में राज्य सरकारों ने निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर जिस तरह से देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, बिजली, पानी और अन्य सुविधाएँ लगभग मुफ्त बांटी हैं, अगर उसकी जांच हो तो पता चलेगा कि हर रंग की सरकारों ने कंपनियों को लाखों करोड़ के संसाधन और रियायतें बांटे हैं.

असल में, नव उदारवादी सुधारों के तहत नीति निर्णय पूरी तरह से कंपनियों और उनके राजनीतिक नुमाइंदों के हाथ में चला गया है. इस दौर में नीति निर्णयों में कंपनियों की भागीदारी और लाबीइंग को बाकायदा संस्थाबद्ध कर दिया गया है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में देश के सभी बड़े उद्योगपति मौजूद हैं जो आर्थिक नीतियों की दिशा तय करते हैं.

इसी तरह, सी.आई.आई से लेकर फिक्की तक सभी औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों का मुख्य काम नीतियों को कार्पोरेट्स के हितों के अनुकूल बनवाने के लिए लाबीइंग करना है. उनकी लाबीइंग की ही ताकत है कि वे नीतियों से लेकर बजट तक सब कुछ कार्पोरेट्स के हितों के मुताबिक बनवाने में कामयाब हो रहे हैं.

यही उदारीकरण है जिसने बड़ी पूंजी और राजनीति के बीच के गठजोड़ को इस कदर संस्थाबद्ध कर दिया है कि दोनों के बीच का फर्क मिट गया है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री से लेकर बड़े अफसर तक हर बड़े-छोटे मंच पर बड़ी पूंजी के हितों की पैरोकारी करते नजर आते हैं. यह मान लिया गया है कि सरकार का काम बड़ी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाना और सभी जरूरी सुविधाएँ मुहैया कराना या फैसिलिटेट करना है.

नतीजा यह कि बिना किसी के अपवाद के सभी सरकारी संस्थाएं और विभाग कार्पोरेट्स के जायज और ज्यादातर मौकों पर नाजायज हितों को पूरा करने के लिए हाथ बांधकर तैयार मिलते हैं. इसलिए सार्वजनिक बैंकों से लेकर अन्य सरकारी वित्तीय संस्थाएं कंपनियों की उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि पिछले दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने कारपोरेट क्षेत्र के नान परफार्मिंग एसेट्स- एन.पी.ए को माफ़ करने के नाम पर अरबों रूपये का उपहार दिया है. यही नहीं, छोटे-बड़े कार्पोरेट्स ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के संसाधनों को मनमाने तरीके और अक्सर नियमों को तोड़कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है. २ जी घोटाले में भी यह सच्चाई उभरकर सामने आ गई है जिसमें कई सरकारी बैंकों और एल.आई.सी जैसी सरकारी वित्तीय संस्था ने नियमों को तोड़कर नए टेलीकाम लाइसेंस धारकों को हजारों करोड़ का कर्ज मुहैया कराया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि ये घोटाले अपवाद नहीं है. यही अब नियम हैं. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि हाल के महीनों में जो घोटाले सामने आए हैं, वे वास्तव में ‘टिप आफ आइसबर्ग’ हैं. वास्तविक घोटाले तो वे हैं जिन्हें नव उदारवादी सुधारों के तहत बाकायदा नियमों और कानूनों की आड़ में आगे बढ़ाया गया है. इस मायने में, नव उदारवाद खुद में एक बड़ा घोटाला है. क्रोनी कह लीजिए या रोबर कैपिटलिज्म यानी लुटेरा पूंजीवाद इसकी कोख से ही पैदा हुआ है. यह कोई भटकाव नहीं बल्कि पूंजीवाद की असलियत है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि देश में भ्रष्टाचार और घोटालों पर चल रही बहस में इसकी चर्चा सबसे कम हो रही है. कारपोरेट मीडिया तो अब भी यही साबित करने में लगा है कि हालिया घोटाले कुछ भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों तक सीमित हैं और उनके जरिये आया क्रोनी कैपिटलिज्म एक भटकाव भर है जिसे विनियामक संस्थाओं- रेगुलेटर्स को मजबूत बना के और अधिक पारदर्शिता के जरिये ठीक किया जा सकता है. लेकिन पिछले दो दशकों के अनुभवों से साफ है कि सच्चाई इसके ठीक उलट है. अधिकांश मौकों पर रेगुलेटर भी उसी कीचड़ में पाए गए हैं जिसमें नेता, अफसर और कार्पोरेट्स पाए गए हैं.

समाप्त : 'समकालीन जनमत' के जनवरी'११ अंक में प्रकाशित

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