सोमवार, जनवरी 10, 2011

कांग्रेस संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा है भ्रष्टाचार

लेकिन आज सभी दल इस कांग्रेस संस्कृति में रम चुके हैं  
 
भ्रष्टाचार के खिलाफ बिल्कुल बर्दाश्त न करने (जीरो टालरेंस) की बातें करना एक बात है और उसपर अमल करना बिल्कुल दूसरी बात है. इस सच को यू.पी.ए सरकार और उसके ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री से ज्यादा बेहतर कौन जानता है. इसलिए यू.पी.ए सरकार पर भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों के बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही खुद को संदेहों से ऊपर रखने के लिए संसद की लोक लेखा समिति (पी.ए.सी) के सामने पेश होने का प्रस्ताव करें लेकिन सच यह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में खुद प्रधानमंत्री की भूमिका पर संदेह बढ़ता जा रहा है. यह किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा है कि जब प्रधानमंत्री पी.ए.सी के सामने पेश होने के लिए तैयार हैं तो संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी) से जांच से उन्हें और कांग्रेस को इतना परहेज क्यों है?

आखिर किस बात की पर्दादारी है कि कांग्रेस जे.पी.सी की गठन की मांग मान नहीं रही है? सवाल यह भी है कि किसे बचाने की जिद में जे.पी.सी से इंकार करके संसद का पूरा शीतकालीन सत्र जाया होने दिया गया? कांग्रेस और यू.पी.ए के कर्ताधर्ता मानें या न मानें लेकिन सच यह है कि यू.पी.ए सरकार जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरती जा रही है और भ्रष्टाचार की कालिख केवल घटक दलों तक सीमित न रहकर खुद कांग्रेसी मंत्रियों को लपेटती जा रही है, उसमें जे.पी.सी जांच से इंकार करने तर्क लगातार घटते जा रहे हैं. कांग्रेस के पास जे.पी.सी से इंकार के लिए राजनीतिक वजहें भले बची हों लेकिन नैतिक वजहें लगातार कम होती जा रही हैं.

हालांकि कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का बहुत दम भरती है और अपने दागी मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से तुरंत इस्तीफा लेने को सबूत के बतौर पेश करती है. गोया इस्तीफा कोई सजा हो. लेकिन तथ्य यह है कि ऐसी सजा से कोई कांग्रेसी नहीं डरता है क्योंकि उसे पता है कि जब घोटाले पर लीपापोती हो जायेगी और थोड़ा समय निकाल जायेगा, उसके बाद उनका राजनीतिक पुनर्वास हो जायेगा.

यही कारण है कि भ्रष्टाचार कांग्रेस संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. कांग्रेस भले स्वीकार न करे लेकिन कम से कम जनता में यही धारणा है कि कांग्रेस और भ्रष्टाचार एक-दूसरे के पर्याय हैं. अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं, सांसदों, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को सजा देना तो दूर, पार्टी से बाहर तक नहीं निकाला जाता है?

असल में, कांग्रेस ने कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई नहीं लड़ी है और न आज भी लड़ना चाहती है. अलबत्ता, लोगों के आँख में धूल झोंकने के लिए वह भ्रष्टाचार से लड़ते हुए जरूर दिखना चाहती है. लेकिन यह खेल इतनी बार दोहराया जा चुका है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस की लड़ाई अब एक सस्ते नाटक से अधिक नहीं लगती है.

सच पूछिए तो कांग्रेस आज भ्रष्टाचार के बिना जिन्दा नहीं रह सकती है. भ्रष्टाचार ही कांग्रेस की प्राण वायु है. गौर से देखिये तो कांग्रेस में पदों और टिकटों के लिए जो लाबीइंग होती है, मारामारी मची रहती है, गुटबाजी होती है, घात-प्रतिघात चलता रहता है, वह जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए होता है.

यहां तक कि इस गुटबाजी और मारामारी पर कुछ अंकुश लगाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को कांग्रेस महाधिवेशन में कहना पड़ा कि कांग्रेस में सब्र रखने से ‘सबका नंबर आता है.’ सवाल है कि किस चीज का नंबर आता है? कोई खुलकर भले न स्वीकार करे लेकिन सब जानते हैं कि इसका मतलब है, सत्ता की मलाई में हिस्सा. आश्चर्य नहीं कि जिसका नंबर आता है, वह बिना किसी अपवाद के मौके का पूरा इस्तेमाल करता है.

कांग्रेस के सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की घोषित-अघोषित संपत्ति इसका सबूत है. पैसा बनाने में उनका कोई सानी नहीं है. सच पूछिए तो भ्रष्टाचार को संस्थाबद्ध करने और पूरी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बनाने का पूरा श्रेय कांग्रेस को जाता है.

यह ठीक है कि अब भ्रष्टाचार में भाजपा और तीसरे मोर्चे की पार्टियां भी पीछे नहीं हैं लेकिन अगर कभी भारत की भ्रष्टाचार गाथा लिखी गई तो उसमें अधिकांश मुख्य पात्र कांग्रेस के होंगे और अन्य पार्टियों के हिस्से चरित्र भूमिकाएं ही आएंगी. प्रधानमंत्री नेहरु के कार्यकाल से लेकर मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक कांग्रेस के भ्रष्ट मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की सूची बहुत लंबी है. यहां तक कि उनके कई प्रधानमंत्रियों का दामन भ्रष्टाचार के आरोपों से सना रहा है. इसके बाद भी कांग्रेस अगर खुद को पाक-साफ और भ्रष्टाचार से लड़नेवाली पार्टी बताती है तो उसके दावे पर हँसने के सिवाय क्या किया जा सकता है.

असल में, कांग्रेस जे.पी.सी जांच से इंकार करके भाजपा और सांप्रदायिक शक्तियों की ही मदद कर रही है. कांग्रेस नेतृत्व ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लीपापोती का और अड़ियल रवैया अपनाकर भाजपा को भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई का चैम्पियन बनने का मौका दे दिया है. एक तरह से कांग्रेस की गलतियों से भाजपा को राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई है.

ऐसे में, कांग्रेस चाहे भगवा सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ चाहे जितना आग उगले लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी अपनी राजनीति के कारण भाजपा को पुनर्जीवन मिल रहा है. यह सही है कि भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा का रिकार्ड कांग्रेस से अच्छा नहीं है और उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का कोई नैतिक हक नहीं है लेकिन विडम्बना देखिये कि यही भाजपा आज कांग्रेस की कृपा से भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई की चैम्पियन बनती दिख रही है.
   
('समकालीन जनमत' के जनवरी'११ अंक में प्रकाशित )

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