शनिवार, जनवरी 08, 2011

फ्री मार्केट का मतलब है सार्वजनिक संसाधनों के लूट की खुली छूट

कौन कहता है कि कोटा-परमिट और लाईसेंस राज खत्म हो गया?

उदारीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म की दूसरी किस्त

पी. नोट्स के बारे में रिजर्व बैंक से लेकर सेबी तक सबने अनेकों बार चिंता व्यक्त की है. इनसे बाज़ार की स्थिरता के लिए खतरा तो था ही, उनपर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि पी. नोट्स के जरिये माफिया, अपराधी और यहां तक कि आतंकवादी संगठन भी भारतीय बाज़ारों में निवेश कर रहे हैं. हालत यह हो गई थी कि एक समय कुल विदेशी संस्थागत निवेश का लगभग ५० प्रतिशत पी. नोट्स से आ रहा था, जिसके स्रोत के बारे में एफ.आई.आई के अलावा किसी को पता नहीं था. काफी हंगामा होने और दबाव पड़ने के बाद सेबी ने इस साल अप्रैल में पी. नोट्स पर कुछ शर्तें लगाईं लेकिन आज भी कुल एफ.आई.आई निवेश का १५ प्रतिशत पी. नोट्स से ही आ रहा है.


पी. नोट्स के अलावा विदेशों में गया कालाधन हवाला के जरिये रीयल इस्टेट और निर्माण उद्योग में भी आ रहा है. यहां बिना किसी नुकसान के उसके आसानी से सफ़ेद होने की संभावना है. यह और बात है कि सफ़ेद होकर भी यह और कालाधन पैदा करता है. इसकी इसी क्षमता के कारण इसमें सबसे ज्यादा निवेश हो रहा है. बड़ी-बड़ी कंपनियां लैंड बैंक बनाने में जुटी हैं.

यह अकारण नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में अर्थव्यवस्था के सबसे तेज बढ़नेवाले क्षेत्रों में रीयल इस्टेट और निर्माण उद्योग शामिल हैं. इसके कारण जमीन की कीमत में भारी इजाफा हुआ है. इससे विभिन्न राज्यों में जमीन के आवंटन का विशेषाधिकार रखनेवाले मुख्यमंत्रियों की पौ बारह है. आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार के सबसे अधिक आरोप सार्वजनिक जमीन के कौडियों के भाव आवंटन में लगे हैं.

इसी तरह, माइनिंग लाइसेंसों और पट्टों की भी मारामारी मची हुई है. यह मारामारी इसलिए तेज हुई है क्योंकि उदारीकरण के बाद माइनिंग क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया. इसके खुलते ही लौह अयस्क से लेकर अन्य खनिजों के खनन के लिए अधिक से अधिक माइनिंग पट्टों और लाइसेंसों को कब्जाने की कंपनियों में होड़ सी शुरू हो गई. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की दुर्लभता के कारण उन्हें हासिल करने के लिए दिए जानेवाले सुविधा शुल्क में भी उसी अनुपात में वृद्धि हुई. यही नहीं, अवैध खनन को भी बढ़ावा दिया गया क्योंकि उसमें राज्य के खजाने में बिना कुछ शेयर किए पूरा पैसा खनन कंपनी और मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, अफसरों और अपराधियों की जेब में पहुंच जाता है.

पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में इस वैध और अवैध खनन को मंत्रियों-अफसरों और कंपनियों ने किस तरह से सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी की तरह इस्तेमाल किया है, इस लूट का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि झारखंड में एक निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने सिर्फ दो वर्षों में पांच हजार करोड़ रूपये से अधिक का साम्राज्य खड़ा कर लिया.

यही नहीं, माइनिंग उद्योग की ताकत का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश के कई राज्यों जैसे कर्नाटक, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उडीसा में वास्तव में ये माईनिंग कंपनियां और खनन माफिया ही राज्य सरकारें चला रहे हैं. कर्नाटक में भाजपा की येदियुरप्पा सरकार को बेल्लारी के माइनिंग किंग कहे जानेवाले रेड्डी बंधुओं ने पूरी तरह से हाइजैक कर लिया है जबकि झारखंड में माइनिंग माफिया ने ही जोड़तोड़ करके भाजपा-झामुमो की सरकार बनवाई है.

यही मामला एक और दुर्लभ और कीमती संसाधन स्पेक्ट्रम के बंटवारे में भी दोहराई गई है. चाहे वह कांग्रेस के सुखराम के ज़माने में टेलीकाम लाइसेंसों के आवंटन हुई धांधली हो या भाजपाई प्रमोद महाजन के ज़माने में लाइसेंसों के आवंटन और टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस से राजस्व साझेदारी की व्यवस्था में शिफ्ट करने में बरती गई अनियमितताएं हों या अब यू.पी.ए के ए. राजा के कार्यकाल में २ जी लाइसेंसों के आवंटन में हुई मनमानी हो- सरकार चाहे जिस रंग और पार्टी की रही हो, स्पेक्ट्रम आवंटन में हमेशा सैकड़ों-हजारों करोड़ रूपये के वारे-न्यारे हुए हैं. हालत यह हो गई है कि जैसे-जैसे स्पेक्ट्रम कम होता जा रहा है, उसपर कब्जे के लिए मारामारी बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही स्पेक्ट्रम पर कब्जे के दांव भी उंचे होते जा रहे हैं.

यहां तक कि स्पेक्ट्रम के लिए कंपनियों में कारपोरेट युद्ध तक शुरू हो गया है जिससे पूरी सरकार हिल गई है. असल में हो यह रहा है कि स्पेक्ट्रम की कमी और कंपनियों के बीच उसके लिए मची मारामारी के कारण नेताओं और अफसरों के भाव बहुत ज्यादा बढ़ गए हैं. नतीजा यह कि उन्हें प्रभावित करने के लिए लाबीइंग से लेकर तमाम भ्रष्ट तौर तरीके आजमाए गए और मंत्रियों-अफसरों ने इसका फायदा उठाकर अपने चहेतों को लाइसेंस बांटे.

इसे ही कुछ अर्थशास्त्री और विश्लेषक क्रोनी कैपिटलिज्म यानी रिश्तेदारों, चहेतों और करीबियों के एक छोटे से समूह को वैध-अवैध तरीकों से फायदा पहुंचानेवाला पूंजीवाद कहते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उदारीकरण के बाद यह क्रोनी कैपिटलिज्म सबसे ज्यादा फला-फूला है.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई कारणों से हुई है. पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा. सच यह है कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी. लेकिन नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो गए हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना लाइसेंस-कोटा-परमिट है. अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है.

जारी...कल पढ़िए, नव उदारवादी सुधारों के दौर में कार्पोरेट्स की बढती ताकत का...
('समकालीन जनमत' के जनवरी'११ में प्रकाशित)

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