बुधवार, जनवरी 05, 2011

नहीं चल पा रहा चैनलों में सेल्फ रेगुलेशन

कंटेंट रेगुलेशन से ज्यादा बड़ा मुद्दा है मालिकाने का रेगुलेशन


लेकिन प्रसारकों की इस शिकायत में दम है कि अभी तक नियमन के आड़ में सरकार परोक्ष रूप से चैनलों की लगाम अपने हाथ में ही रखने की कोशिश करती रही है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो सरकार ने अब तक प्रसारण क्षेत्र के नियमन के लिए जो भी प्रयास किए हैं, उनमें सीधे या परोक्ष रूप से कमान अपने हाथ में रखने की मंशा को साफ देखा जा सकता है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि नियमन का अर्थ किसी भी रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना या उसे मनमाने तरीके से नियंत्रित करना नहीं है. नियमन के किसी भी स्वरुप का केंद्रबिंदु बिना किसी अपवाद के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा और उसे संरक्षण होना चाहिए. यही नहीं, नियमन के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित या बाधित करने का जरूर विरोध होना चाहिए.


लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रसारण क्षेत्र के किसी भी किस्म के नियमन की जरूरत नहीं है. तथ्य यह है कि दुनिया के सभी विकसित उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में मीडिया खासकर प्रसारण क्षेत्र का नियमन अब एक स्थापित और स्वीकार्य विचार बन चुका है. अमेरिका से लेकर स्वीडन तक सभी देशों में नियमन की व्यवस्था वर्षों से काम कर रही है और प्रसारण उद्योग उसके साथ सामंजस्य भी बैठ चुका है. इस मामले में भारतीय प्रसारकों खासकर कुछ बड़े विदेशी प्रसारकों द्वारा अभी भी एक स्वतंत्र, स्वायत्त, पारदर्शी और नियम आधारित नियमन का परोक्ष विरोध हैरान करनेवाला है.

लेकिन हाल के वर्षों में चैनलों में बढ़ती हिंसा, अश्लीलता, द्विअर्थी संवादों, अनैतिक व्यवहार, महिला विरोधी रुझान और लफंगई को प्रोत्साहन के कारण जैसे-जैसे उन पर दबाव बढ़ रहा है, चैनलों ने स्वतंत्र नियमन को रोकने के लिए स्व-नियमन का कोरस गाना शुरू कर दिया है. खासकर पिछले कुछ महीनों में नियमन के पक्ष में बनते सार्वजनिक जनमत के कारण जब से चैनलों को यह लग गया है कि अब वे नियमन को नहीं रोक पाएंगे, तब से चैनल बहुत गंभीरता और जोर-शोर से स्व-नियमन की बातें करने लगे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्व नियमन से बेहतर कोई भी व्यवस्था नहीं हो सकती है. लेकिन आज स्व नियमन की बातें करने वाले चैनल इसे सिर्फ स्वतंत्र नियमन की व्यवस्था को रोकने के बहाने के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं.

सच पूछिए तो स्वतंत्र नियमन की शायद ऐसी मांग ही नहीं उठती, अगर चैनलों ने स्व नियमन का ईमानदारी से पालन किया होता. ऐसा नहीं है कि चैनलों को नहीं पता है कि १९९५ के केबल नेटवर्क्स रेगुलेशन कानून के तहत कार्यक्रम कोड और विज्ञापन कोड पहले से ही मौजूद हैं. यही नहीं, अब तक उनसे स्व नियमन की अपीलें ही की जा रही थी.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों के अनुभव से साफ जाहिर है कि एक अत्यधिक प्रतिस्पर्धी टी.वी बाज़ार में स्व नियमन लगभग असंभव होता जा रहा है. तथ्य यह है कि चैनलों ने स्व नियमन को अपनी सुविधा के अनुसार पारिभाषित करके अपनी मनमानी को उचित ठहराना शुरू कर दिया है. यही नहीं, पिछले कुछ महीनों के अनुभव से भी स्पष्ट है कि चैनलों के बीच टी.आर.पी की गलाकाट होड़ में सबसे पहली बलि स्व नियमन की ही चढ़ती है.

स्व नियमन की वास्तव में क्या स्थिति है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि तीस से अधिक समाचार चैनलों की संस्था न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोशियेशन- एन.बी.ए ने जिस धूमधाम के साथ स्व नियमन की सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस वर्मा की अध्यक्षता में एक अंतर चैनल व्यवस्था कायम की और अपने कोड जारी किए, वह पहले ही टेस्ट में लडखडा गई.

हुआ यह कि जस्टिस वर्मा ने पहली ही शिकायत में इंडिया टी.वी को आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी पाया और उसपर एक लाख रूपये का जुरमाना ठोंक दिया लेकिन चैनल ने माफ़ी मांगने और जुर्माना चुकाने के बजाय तुरंत एन.बी.ए छोड़ने का एलान कर दिया. बाद में किसी तरह मान-मनुहार करके इंडिया टी.वी को ऐसा न करने के लिए मनाया गया. इससे पता चलता है कि चैनल स्व नियमन की अपनी ही व्यवस्था की कितनी कद्र करते हैं?

यही नहीं, उसके बाद भी इंडिया टी.वी पर दिन और रात समाचारों और सम सामयिक कार्यक्रमों के नाम पर जो दिखाया जाता है, वह किसी से छुपा नहीं है. अफसोस की बात यह है कि इंडिया टी.वी परिघटना अब सिर्फ इंडिया टी.वी तक सीमित नहीं है बल्कि आज तक और स्टार न्यूज समेत अधिकांश प्रमुख चैनल उसकी नक़ल करने में जुटे हैं. संभव है कि यह उनके स्व नियमन की लक्ष्मण रेखा के दायरे में आता हो लेकिन समाचार चैनलों से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या वे सचमुच स्व नियमन की भावना का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं? दूसरे, यह नियमन का मुद्दा भले न हो लेकिन समाचार चैनलों में जो कुछ और जैसे दिखाया जाता है, उसपर गंभीर सवाल हैं.

इसलिए मौजूदा दौर में स्व नियमन की व्यवस्था कारगर हो पायेगी, इसे लेकर गंभीर सवाल हैं. यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दिल्ली हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कंटेंट नियमन के लिए कोई दो साल पहले टी.वी. उद्योग, नागरिक समाज और मंत्रालय के अधिकारियों के सहयोग से एक विस्तृत गाइडलाइन तैयार की थी, लेकिन सबकी सहमति से तैयार उस गाइड लाइन को आज भी लागू नहीं कराया जा सका है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए प्रसारकों की लाबी और सरकार की मौजूदा तदर्थ व्यवस्था में छिपे निहित स्वार्थ सबसे महत्वपूर्ण कारण हैं.

इधर एक बार फिर नियमन की चर्चाएं शुरू हो गईं हैं. जाहिर है कि सबसे अधिक बातचीत कंटेंट रेगुलेशन की ही हो रही है लेकिन टी.वी उद्योग का अनमनापन और सरकार पर दबाव डालकर इसे रुकवाने की कोशिशें भी शुरू हो गईं हैं. ऐसी हर कोशिश का नागरिक समाज और आम दर्शकों की ओर से विरोध होना चाहिए. साथ ही, यह भी मांग उठानी चाहिए कि स्व नियमन के किसी पिटे हुए माडल की बजाय वास्तव में एक सरकारी नियंत्रण और प्रसारकों के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त एक स्वतंत्र, पारदर्शी, नियम आधारित, व्यापक और प्रभावी नियमन प्राधिकरण बनाया जाना चाहिए. इसके लिए होनी वाली चर्चा में आम दर्शकों और नागरिक समाज की अधिकतम संभव भागीदारी के लिए खुली और लोकतान्त्रिक चर्चाएं होनी चाहिए. इससे कम कुछ भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.

लेकिन नियमन को लेकर चल रही बहस में उसके एक पक्ष की बिल्कुल चर्चा नहीं हो रही है जबकि वह सबकी जड़ में है. यह मुद्दा है, प्रसारण उद्योग में मालिकाने के स्वरुप और उद्योग में कुछ ही खिलाडियों के बढ़ते दबदबे का है. इसके कारण शुरू हुई तीखी प्रतियोगिता के कारण न सिर्फ चैनलों के कंटेंट पर नकारात्मक असर पड़ रहा है बल्कि हितों के टकराव की भी स्थिति पैदा हो गई है. हो यह रहा है कि कुछ बड़े देशी-विदेशी प्रसारकों का न सिर्फ अधिकांश चैनलों के मालिकाने पर कब्ज़ा है बल्कि कार्यक्रम निर्माण कंपनियों और वितरण के विभिन्न प्लेटफार्म- एम.एस.ओ, केबल, डी.टी.एच पर भी उनका ही कब्ज़ा है.

पूरी दुनिया खासकर विकसित उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में इसे प्रसारण के क्षेत्र में बहुलता और विविधता को बनाये रखने की जरूरत के विरुद्ध माना जाता है. इसे नियंत्रित करने के लिए इन देशों में क्रास मीडिया प्रतिबंधों को नियमन का अनिवार्य हिस्सा माना जाता है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत में अभी भी इस मुद्दे को नियमन का सवाल नहीं माना जा रहा है. जबकि कंटेंट नियमन से ज्यादा बड़ा और जरूरी मुद्दा मालिकाने के नियमन का है ताकि प्रसारण उद्योग में एकाधिकार और अल्पाधिकार (ओलिगोपोली) की स्थिति पैदा होने से रोकी जा सके.

समाप्त...
'कथादेश' के जनवरी'११ अंक में प्रकाशित आलेख की दूसरी किस्त