क्या मध्यवर्गीय युवा यथास्थितिवादी होता जा रहा है?
राष्ट्रीय युवा दिवस पर एक बहस
क्या भारतीय युवा का बदलाव की राजनीति और वैचारिकी में भरोसा कम होता जा रहा है? क्या वह बदलाव के बजाय यथास्थितिवादी होता जा रहा है? क्या वह परंपरा भंजक के बजाय परंपरा पूजक होता जा रहा है? २१ वीं सदी के दूसरे दशक की शुरुआत में युवाओं के देश माने-जानेवाले भारत में ये और ऐसे ही कई सवाल बहुत लोगों को अटपटे लग सकते हैं लेकिन मेरी नजर में बहुत महत्वपूर्ण हैं. आमतौर पर माना जाता है कि युवा का मतलब है परम्पराओं को चुनौती देनेवाला और बदलाव में विश्वास करनेवाला वर्ग. समाज का वह हिस्सा जो हमेशा किसी देश में बदलाव का अगुवा होता है.
सच पूछिए तो युवा वर्ग की पहचान है - उसकी बेचैनी, उसका आक्रोश, उसकी सृजनात्मकता और स्थापित व्यवस्था को चुनौती देनेवाला उसका मिजाज. यही मिजाज उसे बदलाव के लिए व्यवस्था से टकराने का हौसला और हर जोखिम उठाने का साहस देता है.
लेकिन क्या यह तथ्य आपको हैरान नहीं करता है कि जिस देश की ५१ फीसदी आबादी २५ वर्ष से कम उम्र और ६६ प्रतिशत आबादी ३५ साल से कम उम्र की है, उस देश में बदलाव की वैसी कोई हलचल नहीं है जो इतने बड़े पैमाने पर युवा समुदाय की मौजूदगी का अहसास कराती हो? इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो पूरे देश के युवा समुदाय में बदलाव की वह बेचैनी, गुस्सा और आंदोलन दिखाई नहीं दे रहा है जिसके लिए उसे जाना जाता है.
इसके उलट ऐसा लगता है जैसे हाल के वर्षों में युवा खासकर मध्यमवर्गीय युवा धारा के विरुद्ध नहीं, धारा के साथ तैरने लगा है. परंपरा को चुनौती देने के बजाय परंपरा के साथ खड़ा है. बदलाव के बजाय यथास्थिति में भविष्य देख रहा है. कुछ साल पहले मुख्यतः मध्यमवर्गीय युवाओं के रुझान को लेकर हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश के ६० फीसदी युवा मौजूदा हालात में अपनी स्थितियों से खुश हैं. सर्वेक्षण के अनुसार, इस समय भारतीय युवा दुनिया के सबसे खुश और संतुष्ट युवाओं में हैं. यही नहीं, परंपरा और धर्म में उनका गहरा विश्वास है.
इसके संकेत आप अपने आस-पास भी देख सकते हैं. मंदिरों-मस्जिदों और गुरुद्वारों में आप युवाओं की बड़ी तादाद को पूजा-पाठ और धार्मिक रीती-रिवाजों को पूरा करते देख सकते हैं. धार्मिक कर्मकांडों से उसे परहेज नहीं है. युवाओं का एक बड़ा हिस्सा ऊँची पढाई और आधुनिकता में रचे-बसे होने के बावजूद माता-पिता की पसंद से अरेंज्ड शादियाँ कर रहे हैं या उसमें विश्वास करते हैं. अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के प्रति आकर्षण कम दिखाई दे रहा है. वे सामाजिक जकडबंदियों से टकराने के बजाय अकसर उससे समझौता करने के मूड में दिखाई देते हैं.
सबसे बड़ी बात यह है कि आज का युवा खुद में सिमटा हुआ है. उसकी दुनिया खुद तक सीमित है जिसमें उसकी चिंताओं का सरोकार अपने और अपने परिवार से आगे नहीं जाता है. उसे अपने कैरियर से आगे कुछ दिखाई नहीं देता. कैरियर के लिए वह सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहता है. कैरियर और अपने फायदे के लिए उसे किसी के भी कंधे पर पैर रखकर आगे बढ़ने से गुरेज नहीं है. अवसरवाद इस युवा की सबसे बड़ी विचारधारा है. यथास्थितिवाद में उसे सबसे अधिक फायदा दिखाई देता है. संभव है कि यह बात सभी युवाओं के लिए सही नहीं हो लेकिन महानगरीय और मध्यवर्गीय युवाओं के एक बड़े तबके के लिए यह चरित्रीकरण काफी हद तक सही है.
यथास्थितिवाद में उनकी आस्था क्यों नहीं हो जब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अगले दशक में निजी क्षेत्र में पैदा होनेवाले रोजगार के आकर्षक अवसरों का लाभ उसी को मिलेगा जो अंग्रेजी बोलना और लिखना-पढ़ना जानता होगा. यह भी कि पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का सबसे ज्यादा फायदा भी इन्हीं युवाओं को मिला है. स्वाभाविक तौर पर मौजूदा व्यवस्था के ऐसे ही बने रहने और चलने में उसका निहित स्वार्थ है. दूसरी ओर, इस व्यवस्था का स्वार्थ भी इसी युवा के साथ जुड़ा है क्योंकि इस बाज़ार व्यवस्था का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी वही है.
लेकिन इस युवा में इस व्यवस्था के स्थायित्व और उसमें अपनी स्थिति को लेकर गहरी आशंका भी दिखाई देती है. इसके कारण, उसके अंदर गहरा असुरक्षा बोध भी है जिसका प्रतिबिम्ब उसके धार्मिक झुकावों में देखा जा सकता है. यही असुरक्षा उसे मंदिरों से लेकर ज्योतिषियों, वास्तु विशेषज्ञों और अरेंज्ड मैरेज आदि की ओर ले जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह उसकी एक बड़ी ‘स्प्लिट पर्सनालिटी’ उभरती है जिसमें एक ओर वह आधुनिक उपभोक्ता के रूप दिखाई देता है और दूसरी ओर, अपनी असुरक्षाओं का समाधान परम्परा और धर्म में ढूंढता है.
लेकिन इस सबसे अलग देश में ऐसे युवाओं की तादाद कहीं ज्यादा है जो ग्रामीण, गरीब, पिछड़े और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों और आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं. तथ्य यह है कि इस वर्ग के लिए मौजूदा व्यवस्था में बहुत कम जगह है. अधिक से अधिक इन युवाओं का एक हिस्सा इस व्यवस्था में लो पेड और शारीरिक श्रम आधारित रोजगार पा सकता है.
लेकिन उसके लिए खासकर अंग्रेजी न जाननेवालों के लिए इस व्यवस्था में अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं. इन युवाओं में भी बेहतर जीवन का सपना है. उनमें अपनी परिस्थितियों को लेकर बेचैनी और गुस्सा भी बहुत है लेकिन उनके पास बदलाव का विचार और आंदोलन नहीं है. आश्चर्य नहीं कि इन युवाओं का गुस्सा अकसर अराजक शक्ल में सडकों पर उतर आता है.
दरअसल, इस दौर में शासक वर्गों की ओर से युवाओं को बदलाव की चेतना और आन्दोलनों से दूर रखने और इन आन्दोलनों को कमजोर करने की योजनाबद्ध कोशिश हुई है और कहना पड़ेगा कि उन्हें काफी हद तक कामयाबी भी मिली है. भारतीय शासक वर्ग को मालूम है कि दुनिया के जिस देश में भी उसकी ५० फीसदी से अधिक आबादी २५ साल से कम की हुई है, वहां सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और परिवर्तनों की लहर को रोकना असंभव हो गया है.
लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है. आगे भी नहीं होगा, ऐसा निष्कर्ष निकालने से बड़ी बेवकूफी कुछ नहीं हो सकती है. सच यह है कि दो तिहाई से अधिक युवा आबादी के साथ देश में बड़े उथल-पुथल की परिस्थितियाँ तैयार हैं. जरूरत सिर्फ एक ट्रिगर की है.
('राष्ट्रीय सहारा' के परिशिष्ट हस्तक्षेप में ८ जनवरी'११ को प्रकाशित )
3 टिप्पणियां:
समकालीन भारतीय युवा मन की गहरी और व्यापक पड़ताल की है आपने।
हर युवा आगे बढ़ने की तमन्ना रखता है। पदानुक्रम (हायरेरकी) पर आधारित हमारी व्यवस्था में आगे बढ़ने के लिए अवसरवाद और स्वार्थ का ही एकमात्र सहारा उसे दिखायी देता है। इस क्रम में वह कई बार कमीनेपन और अनैतिक उपायों का सहारा लेने से भी गुरेज नहीं करता है।
ऐसी विचारधारा या नेतृत्व का कोई अनुकरणीय उदाहरण आज के युवाओं के समक्ष मौजूद नहीं है जो उसे कन्विन्स कर सके। तो, युवा जिनसे कन्विन्स हो रहा है, उसकी तरफ बढ़ भी रहा है।
सर वाकई आप सत्य के काफी करीब है ..लेकिन मौजूदा व्यवस्था ने उस युवा की बैचैनी,उसके जोश ,उसकी सृजनात्मकता को कुचल दिया है. उसे लगता कि हालात अब सुधरने लायक नहीं बचे इसलिए वो समझौता करना बेहतर मान रहा है.लेकिन युवाओ के ये गुण केवल कुचले गये है समाप्त नहीं हुए है....न जाने कब ये चिंगारी भड़क उठे.
आपने काफी गंभीर बात उठाई सर , दरअसल आज का युवा चाटुकारिता के माध्यम से केवल नोकरी की ही तलाश में रह रहा है उसकी जिंदगी अपने तक ही सिमट गई , देश के प्रति जज्बा केवल २६जन्वरी या १५ अगस्त को छूटी मना कर ही दीखता है, देखा जाए तो इन सबके पीछे हमारी व्यवस्था काफी ज़िम्मेदार रही है साथ ही हम भी, व्यवस्था ने हमेशा अपने अनुरूप हमे ढालने की कोशिश की , हमारी व्यक्तिगत सोच किताबी बात लगती है केवल भीड़ की सोच ही हमारी सोच बन चुकी है. देश के विकास में युवा कितना योगदान दे रहा है ये हमेशा बहस का विषय रहा है लेकिन केवल किसी सड़क , मॉल बनाने वाली कंपनी या डॉक्टर बनकर काम करना योगदान देना नहीं कहा जा सकता, देश में विकास भोतिक योगदान देने से नहीं बल्कि समाज में मूल्यों को अपनाने से है इस मामले में वाकई में इस देश का युवा काफी पीछे है , बदलाव केवल नोकरी की तरक्की तक सिमट रह गया है .
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