रविवार, जनवरी 30, 2011

रजनीगन्धा क्रांति की सुगंध


अरब जगत में परिवर्तन की लहर के आगे दमनकारी सत्ताएं लड़खड़ाने लगी हैं


रजनीगन्धा की सुगंध तेजी से फ़ैल रही है. ट्यूनीशिया से शुरू हुई रजनीगन्धा क्रांति अब मध्य पूर्व के ह्रदय मिस्र तक पहुंच गई है. मिस्र एक कमल क्रांति से गुजर रहा है. वैसे तो पूरा अरब जगत उबल रहा है. लेकिन ट्यूनीशिया से लेकर अल्जीरिया, यमन, जोर्डन और मिस्र में लोगों का गुस्सा सडकों पर फूट पड़ा है. ‘इकानामिस्ट’ पत्रिका ने लिखा है कि अली बाबा (बेन अली) गए. क्या अब अरब जगत के चालीस चोरों की बारी है?

ऐसा लगता है कि ट्यूनिशियाई राष्ट्रपति बेन अली के बाद अब मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के तख़्त और ताज को उछाले जाने की बारी आ गई है. पूरे मिस्र में जिस तरह से लोग मुबारक सरकार के खिलाफ सडकों पर उतर आए हैं, उसे देखते हुए यह साफ हो गया है कि मुबारक अब कुछ दिनों के ही मेहमान हैं.

पिछले पांच दिनों से राजधानी काहिरा में विद्रोह की स्थिति है जो दिन पर दिन और ताकतवर होता जा रहा है. कर्फ्यू और सैनिक टैंकों की मौजूदगी के बावजूद के बावजूद हजारों-लाखों लोग सड़कों पर उतर आए है. वे राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं. ऐसे ही प्रदर्शनों की खबरें पूरे देश से आ रही हैं.

पिछले तीस साल से मिस्र की सत्ता को कब्जा किए बैठे मुबारक के पास अब विकल्प नहीं रह गए हैं. किसी भी अन्य तानाशाह की तरह मुबारक भी लोगों पर गोलियाँ चलवा सकते हैं, सेना को उतारकर नरसंहार करवा सकते हैं लेकिन शुक्रवार के प्रदर्शनों से साफ हो गया है कि लोगों में अब दमन का डर खत्म हो गया है. वे हर क़ुरबानी देने के लिए तैयार दिख रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे हालात में सेना और पुलिस के पास भी कोई खास विकल्प नहीं रह जाते हैं. जब आम लोग सडकों पर उतर आते हैं तो दमनकारी सत्ताओं का दमन भी जवाब देने लगता है. ट्यूनीशिया में यही हुआ. जब लोग सडकों पर उतर आए और उन्होंने पीछे हटने से इंकार कर दिया तो सेना ने भी उनपर गोलियाँ चलाने से मना कर दिया. नतीजा बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा.

इस घटना ने सोए हुए अरब जगत खासकर मिस्र को जगा दिया है. मिस्र में लोगों खासकर नौजवानों को यह महसूस हुआ कि जब छोटा से देश ट्यूनीशिया के लोग बेन अली के पुलिस राज को चुनौती दे सकते हैं तो वे क्यों नहीं?

कहते हैं कि मिस्र के लोगों में बहुत सब्र है. पिछले तीस साल से वे मुबारक को झेल रहे हैं लेकिन सहने की भी एक सीमा होती है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि मुबारक के नेतृत्व में मिस्र राजनीतिक रूप से अमेरिकी कठपुतली बन गया है. लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ चुनाव का धोखा है. न बोलने की आज़ादी है और न अपने हकों के लिए गोलबंद होने की. एक तरह का पुलिस राज है जहां विरोध का मतलब जेल, पुलिसिया उत्पीडन और मौत है. ऊपर से बेरोजगारी और महंगाई आसमान छू रही है. नौजवानों के सामने कोई भविष्य नहीं है.

लेकिन जब से लोगों को पता चला है कि मुबारक अपने बेटे गमाल को राष्ट्रपति बनाने की तैयारी कर रहे हैं, लोगों का धैर्य जवाब दे गया है. लोगों खासकर नौजवानों का गुस्सा फूट पड़ा है. ऐसा लगता है कि सैनिक और पुलिस ताकत के बल पर जबरन लोगों का मुंह बंद रखने और हर तरह के विरोध को कुचल देने वाली मुबारक हुकूमत ने मिस्र में जिस तरह राज कायम रखा था, उसकी सीवन उधड़ने लगी लगी है.

कहने की जरूरत नहीं है कि ट्यूनीशिया से लेकर मिस्र तक परिवर्तन की इस नई लहर ने लोगों में नई उम्मीदें जगा दी हैं. हालांकि अभी यह कहना थोड़ी जल्दी होगी कि यह रजनीगन्धा क्रांति अरब जगत को कहां ले जायेगी? लेकिन इतना तय है कि अरब जगत में लोग परिवर्तन चाहते हैं. आइये, इसका स्वागत करें.

देहरादून, ३० जनवरी'११

गुरुवार, जनवरी 27, 2011

अँधेरे में रिजर्व बैंक का तीर

महंगाई से रिजर्व बैंक ने भी हार मान ली है  



महंगाई ने आम आदमी की तरह रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव का जीना भी दूभर कर रखा है. इसका सबूत है, ताजा तिमाही मौद्रिक समीक्षा जिसमें रिजर्व बैंक ने बेकाबू मुद्रास्फीति दर को अर्थव्यवस्था और विकास दर के लिए सबसे बड़ा खतरा माना है. जाहिर है कि तात्कालिक तौर पर रिजर्व बैंक के लिए सबसे बड़ी चिंता और चुनौती बढ़ती मुद्रास्फीति को काबू में करना है. इसलिए जैसीकि उम्मीद थी, रिजर्व बैंक ने एक बार फिर बढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू करने के इरादे से ब्याज दरों में चौथाई फीसदी की वृद्धि कर दी है.

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि पिछले एक साल से कम समय में रिजर्व बैंक ने सातवीं बार रेपो और रिवर्स रेपो दर में वृद्धि की है. इसके साथ ही, रेपो दर अब ६.५ प्रतिशत और रिवर्स रेपो दर ५.५ प्रतिशत तक पहुंच गई है. रेपो दर वह ब्याज दर है जिसपर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है जबकि रिवर्स रेपो वह ब्याज दर है जो व्यावसायिक बैंकों को रिजर्व बैंक में उनके जमा पर मिलती है. हालांकि रिजर्व बैंक ने मुद्रा बाजार में तरलता की समस्या को देखते हुए कैश रिजर्व रेशियो (सी.आर.आर) में कोई बदलाव नहीं किया है और न ही एस.एल.आर के साथ कोई छेडछाड की है.

लेकिन असली सवाल यह है कि क्या रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से बेकाबू मुद्रास्फीति दर पर कोई असर होगा? पिछले एक से अनुभव से तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं बनती है. खुद रिजर्व बैंक और उसके गवर्नर सुब्बाराव इस तथ्य से वाकिफ हैं. उन्हें अच्छी तरह से पता है कि महंगाई से लड़ने के लिए ब्याज दरों में सीमित और क्रमिक वृद्धि की रिजर्व बैंक की नीति का मुद्रास्फीति की लगातार ऊँची दर पर कोई खास असर नहीं पड़ रहा है. अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि मौद्रिक नीति के जरिये मुद्रास्फीति को काबू में करने की नीति काफी हद तक विफल साबित हुई है.

एक तरह से खुद रिजर्व बैंक ने भी महंगाई को काबू करने में अपनी विफलता स्वीकार कर ली है. ताजा मौद्रिक समीक्षा में रिजर्व बैंक ने मार्च तक मुद्रास्फीति की दर के अपने पिछले अनुमान में कोई डेढ़ फीसदी की वृद्धि करते हुए मान लिया है कि मुद्रास्फीति दर लगभग ७ प्रतिशत के आसपास रहेगी. इसके पहले रिजर्व बैंक लगातार दावा कर रहा था कि मार्च तक मुद्रास्फीति की दर घटकर ५.५० फीसदी रह जायेगी.

असल में, यह महंगाई से निपटने में रिजर्व बैंक से अधिक यू.पी.ए सरकार और उसकी आर्थिक नीतियों की हार है. सरकार ने जिस तरह से महंगाई के आगे घुटने टेकते हुए उससे लड़ने की जिम्मेदारी अकेले रिजर्व बैंक और उसकी मौद्रिक नीति के मत्थे मढ़ दी है, उसमें रिजर्व बैंक के पास कोई खास विकल्प भी नहीं रह गया है.

हालांकि यह सबको पता है कि महंगाई में लगातार बढ़ोत्तरी मांग में वृद्धि से अधिक नीतिगत और संरचनागत कारणों से हो रही है. इस तरह की महंगाई से निपटने में मौद्रिक नीति की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं. नतीजा, रिजर्व बैंक भी एक तरह से दिखावे के लिए मांग पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरों में मामूली वृद्धि कर रहा है. यह एक तरह से अँधेरे में तीर चलाने जैसा है.

अगर रिजर्व बैंक को सचमुच ऐसा लगता है कि बढ़ती महंगाई न सिर्फ आम आदमी को परेशान कर रही है बल्कि अर्थव्यवस्था को भी अस्त-व्यस्त कर सकती है और यह मांग में अत्यधिक बढ़ोत्तरी के कारण है तो उसे ब्याज दर में सिर्फ चौथाई फीसदी के बजाय कम से कम आधे से लेकर पौन फीसदी की वृद्धि करनी चाहिए थी.

तथ्य यह है कि बैंक और मुद्रा बाजार में ब्याज दरों में आधे फीसदी की अपेक्षा की भी जा रही थी लेकिन रिजर्व बैंक ने एक बार फिर फूंक-फूंककर, धीमे और संभलकर चलने की अपनी नीति जारी रखी. दरअसल, इस नीति के पीछे रिजर्व बैंक की एक बड़ी दुविधा भी है. उसे महंगाई से निपटते हुए आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखने की चिंता भी करनी है. आर्थिक वृद्धि दर को प्रोत्साहित करने के लिए निवेश को बढ़ाना जरूरी है जिसके लिए जरूरी है कि ब्याज दरें कम रहें. आश्चर्य नहीं कि ब्याज दरों में ताजा मामूली वृद्धि की भी उद्योग जगत ने आलोचना की है.

हालांकि रिजर्व बैंक के मुताबिक, आर्थिक वृद्धि की दर संतोषजनक है और उसका अनुमान है कि इस साल जी.डी.पी की विकास दर ८.५ प्रतिशत रहेगी लेकिन औद्योगिक उत्पादन दर में जिस तरह से नवंबर माह में तेज गिरावट दर्ज की गई है और वह सिर्फ २.७ प्रतिशत रह गई है, उससे रिजर्व बैंक का चिंतित होना स्वाभाविक है. निश्चय ही, रिजर्व बैंक की यह एक बड़ी चिंता है कि अर्थव्यवस्था की विकास दर को नुकसान पहुंचाए बिना महंगाई को कैसे काबू में किया जाए? गवर्नर सुब्बाराव की मुश्किल यह है कि उनके पास बहुत सीमित विकल्प हैं. यही नहीं, सच यह भी है कि उनके तरकश में जितने सीमित हथियार उपलब्ध थे, उन्होंने उन सभी का इस्तेमाल पिछले एक साल में कर लिया है.

आश्चर्य नहीं कि रिजर्व बैंक ने ताजा मौद्रिक नीति में महंगाई से लड़ने के मुद्दे को यह कहकर केन्द्र सरकार खासकर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के पाले में सरका दिया है कि मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए केन्द्र सरकार को वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना चाहिए. इसका अर्थ हुआ कि रिजर्व बैंक चाहता है कि जब अगले महीने वित्त मंत्री सालाना बजट पेश करें तो उसमें वित्तीय घाटे को काबू करने यानी सरकार की आय में बढ़ोत्तरी और खर्चों में कटौती पर सबसे अधिक जोर दें. मतलब बिल्कुल साफ है. रिजर्व बैंक महंगाई से लड़ने के लिए एक सख्त बजट चाहता है.

लेकिन असली सवाल यह है कि एक ऐसे दौर में जब महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है और आम आदमी का जीवन दूभर हुआ जा रहा है, उस समय एक सख्त बजट क्या आम आदमी पर दोहरी मार की तरह नहीं होगी? सवाल यह भी है कि मांग को नियंत्रित करने के जरिये मुद्रास्फीति को काबू में करने की रणनीति की असली कीमत कौन चुका रहा है?

याद रहे, मुद्रास्फीति भी एक तरह से बाजार का अपना तरीका है जिसके जरिये वह मांग को नियंत्रित करता है यानी जब दाल की कीमत बढ़कर १०० रूपये प्रति किलो हो जाती है तो इसके जरिये वह आबादी के एक बड़ा तबके की पहुंच से दूर हो जाती है. ऐसे में, इस सवाल पर जरूर विचार होना चाहिए कि मांग प्रबंधन के नाम पर बाजार से किस तबके को बाहर किया जा रहा है?

(दैनिक राष्ट्रीय सहारा में २७ जनवरी'११ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

भगवा की तिरंगा राजनीति

इतिहास को दोहराने की कोशिश में मजाक बन गई है भाजपा की तिरंगा यात्रा

“ देशभक्ति, दुष्टों-लफंगों की आखिरी शरणस्थली होती है.”
- सैमुएल जॉन्सन

सैमुएल जॉन्सन की यह पंक्ति भारतीय जनता पार्टी और उसके युवा संगठन भारतीय जनता युवा मोर्चा की तिरंगा यात्रा पर बिल्कुल फिट बैठती है. ऐसे राजनीतिक तमाशे करने में भाजपा का कोई जवाब नहीं है. वैसे भी भाजपा के लिए ‘देशभक्ति’ हमेशा से आखिरी शरणस्थली रही है. एक बार फिर वह जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में ऐतिहासिक लाल चौक पर २६ जनवरी को तिरंगा फहराने के अभियान के जरिये खुद को सबसे बड़ा देशभक्त और बाकी सभी को देशद्रोही साबित करने की अपनी जानी-पहचानी राजनीति पर उतर आई है.

असल में, लोगों की भावनाएं भडकाकर राजनीति को सांप्रदायिक आधारों पर ध्रुवीकृत करने का भाजपा और संघ परिवार का यह खेल अब बहुत जाना-पहचाना हो चुका है. यह और बात है कि उसके ऐसे सभी अभियानों से हमेशा सबसे अधिक नुकसान देश को ही हुआ है. श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का इससे भी बड़ा जज्बाती अभियान १९९२ में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी चला चुके हैं. उस समय केन्द्र में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने फौज और अर्ध सैनिक बलों के घेरे में सुनसान लाल चौक पर डा. जोशी से तिरंगा फहरावाकर उनकी मनोकामना पूरी कर दी थी.

लेकिन १९९२ के बाद कश्मीर की स्थिति किसी से छुपी नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि डा. जोशी की तिरंगा यात्रा ने भी कश्मीर में स्थितियों को बिगाड़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई. लेकिन संघ परिवार को इसकी परवाह कहां रही है? उसके लिए तो हमेशा से देशहित से ऊपर संकीर्ण पार्टी हित रहा है. अगर ऐसा नहीं है तो क्या कोई भी संवेदनशील राजनीतिक पार्टी कश्मीर के मौजूदा हालात में ऐसी भडकाऊ यात्रा निकालता जिससे स्थितियों के और बिगड़ने का खतरा हो? लेकिन जो पार्टी तर्क के बजाय भावनाओं की राजनीति करने की चैम्पियन हो उसे तर्कों और यथार्थ की परवाह क्या होगी?

लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती है. भाजपा और संघ परिवार के ऐसे दुस्साहसी राजनीतिक ड्रामों से देश भली-भांति परिचित हो चुका है. भाजपा की देशभक्ति की पोल खुल चुकी है. तहलका रक्षा घोटाले से लेकर कारगिल ताबूत घोटाले के पर्दाफाश और बंगारू लक्ष्मन, दिलीप सिंह जूदेव से लेकर अब येदियुरप्पा तक भाजपा की असलियत लोगों के सामने आ चुकी है. जाहिर है कि भाजपा अपने काले कारनामों को छुपाने के लिए तिरंगे का इस्तेमाल कर रही है.

अन्यथा देश को अच्छी तरह से पता है कि संघ परिवार तिरंगे को कितना प्यार करता है? भाजपा आखिर किसे धोखा दे रही है? सच यह है कि संघ परिवार और भाजपा तिरंगे से ज्यादा भगवे झंडे को प्यार करते हैं. हेडगेवार बहुत पहले तिरंगे को अशुभ बताकर भगवे की वकालत कर चुके हैं.

मार्क्स ने बहुत पहले कहा था कि इतिहास अपने को दोहराता है लेकिन जहां पहली बार वह एक त्रासदी होता है, वहीँ दूसरी बार प्रहसन या मजाक बन जाता है. भाजपा की यह दूसरी तिरंगा यात्रा एक मजाक से अधिक कुछ नहीं है.

गुरुवार, जनवरी 20, 2011

मीडिया के चतुर सुजान – सावधान !

सक्रिय और सतर्क पाठकों और दर्शकों के मीडिया एक्टिविज्म से बदलाव आएगा   

पिछला साल मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया के लिए अच्छा नहीं रहा. खबरों की खरीद-फरोख्त (पेड न्यूज) के गंभीर आरोपों से घिरे कारपोरेट मीडिया की साख को नीरा राडिया प्रकरण से गहरा धक्का लगा. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट मीडिया का संकट गहराता जा रहा है. यह उसकी साख का संकट है. उसकी विश्वसनीयता पर सवाल दर सवाल उठ रहे हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि उन सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं. नतीजा, कारपोरेट मीडिया के कारनामों के कारण लोगों का उसमें भरोसा कम हुआ/हो रहा है.

इसका एक नतीजा यह भी हुआ है कि लोग समाचार मीडिया को लेकर जागरूक हो रहे हैं. पाठक, श्रोता और दर्शक अब आँख मूंदकर उसपर भरोसा नहीं कर रहे हैं. वे खुद भी खबरों की पड़ताल करने लगे हैं. इसमें न्यू मीडिया उनकी मदद कर रहा है. न्यू मीडिया और खासकर सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, ब्लॉग आदि के कारण न सिर्फ उनकी सक्रियता बढ़ी है बल्कि उनका आपस में संवाद भी बढ़ा है. पाठकों-दर्शकों का एक छोटा सा ही सही लेकिन सक्रिय वर्ग कारपोरेट समाचार मीडिया पर कड़ी निगाह रख रहा है और उसकी गलतियों और भटकावों को पकड़ने और हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचाने में देर नहीं कर रहा है.

एक ताजा उदाहरण देखिए. वैसे तो अंग्रेजी समाचार चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन और इसके संपादक राजदीप सरदेसाई की साख और प्रतिष्ठा बहुत अच्छी है लेकिन पिछले दिनों इस चैनल और खुद उनके कार्यक्रम में एक ऐसी घटना घटी जिसे पत्रकारीय नैतिकता की कसौटी पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है. हुआ यह कि इस चैनल पर नीरा राडिया प्रसंग में इस मुद्दे पर बहस का कार्यक्रम प्रसारित किया गया कि ‘क्या लाबीइंग को कानूनी बना देना चाहिए ?’ इस कार्यक्रम के दौरान चैनल पर दर्शकों की राय पेश करने के नाम पर कई ट्विट पेश किए गए जिसमें अधिकांश में लाबीइंग को कानूनी बनाने की वकालत की गई थी.

बाद में एक गुमनाम दर्शक ने खोज निकाला कि इनमें से सभी ट्वीट्स फर्जी थे. उसने अपनी जांच पड़ताल में पाया कि जिन लोगों के नाम से ये ट्वीट्स लिखे और पेश किए गए, उन नामों से ट्विटर पर कोई एकाउंट ही नहीं है. उसने यह जानकारी अपने ब्लॉग (दलाल मीडिया) पर डाल दी जहां से वह दर्शकों और पाठकों के एक बड़े समुदाय तक पहुंच गया.

जाहिर है कि इन ट्वीट्स को न्यूज रूम में ही लिखा गया और वह भी लाबीइंग की वकालत करते हुए. यह एक तरह से अपने दर्शकों के साथ धोखा ही नहीं बल्कि अत्यंत विवादास्पद विषय लाबीइंग के पक्ष में फर्जी तरीके से जनमत बनाने की कोशिश भी थी. इससे सी.एन.एन-आई.बी.एन की इतनी किरकिरी हुई कि उन्हें अपने दर्शकों से माफ़ी तक मांगनी पड़ी.

लेकिन यह घटना कोई अपवाद नहीं थी. इससे पता चलता है कि चैनलों या अख़बारों में दर्शकों-पाठकों की राय के नाम पर जो कुछ पेश किया जाता है, उसमें कितना गढा हुआ (मैन्युफैक्चर्ड) और तोड़-मरोड़ (मैनिपुलेटेड) शामिल है. समाचार मीडिया में ऐसे कार्यक्रमों और सर्वेक्षणों को खासी जगह मिलती है जिसमें कथित तौर पर विभिन्न मुद्दों पर दर्शकों-पाठकों या आम लोगों की राय दिखाई या छापी जाती है. इनसे किसी मुद्दे खासकर विवादास्पद मुद्दों पर जनमत बनता या प्रभावित होता है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि ऐसे अधिकांश कार्यक्रमों और सर्वेक्षणों में लोगों की राय इकठ्ठा करने के तरीके से लेकर उनके विश्लेषण तक में न सिर्फ अपेक्षित पारदर्शिता नहीं होती है बल्कि उनका तरीका अवैज्ञानिक और पूर्वाग्रहों से भरा होता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे मैनिपुलेटेड कार्यक्रम या सर्वेक्षण पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को भ्रष्ट बनाते हैं. कल्पना कीजिये कि चैनल पर लाबीइंग को कानूनी दर्जा देने पर बहस चल रही है और उसमें ट्विट के जरिये आ रही दर्शकों की राय अगर लाबीइंग को कानूनी दर्जा देने के पक्ष में है तो उसका आम दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

असल में, लोकतंत्र जनमत से चलता है और यही कारण है कि विभिन्न प्रकार के निहित स्वार्थ जनमत को प्रभावित करने की कोशिश करते रहते हैं. कारपोरेट मीडिया हमेशा से इस खेल का हिस्सा रहा है लेकिन हाल के वर्षों में दांव जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, जनमत गढ़ने और तोड़ने-मरोड़ने का खेल भी बड़ा और बारीक़ होता जा रहा है. लाबीइंग इसी खेल का एक हथियार है.

याद करिए, कारपोरेट लाबीस्ट नीरा राडिया ने समाचार मीडिया और उनके स्टार संपादकों-पत्रकारों की मदद से कई राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों जैसे प्राकृतिक गैस के स्वामित्व और कीमत पर अपने क्लाइंट रिलायंस के पक्ष में परोक्ष रूप से जनमत बनाने की कोशिश की और बहुत हद तक सफल भी रही. रिलायंस को इसका फायदा भी मिला. आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट समाचार मीडिया की मदद से निहित स्वार्थ छवि निर्माण, छवि प्रबंधन (परसेप्शन मैनेजमेंट) से लेकर मुद्दा प्रबंधन (इशू मैनेजमेंट) तक कर रहे हैं जो और कुछ नहीं जनमत को मैनिपुलेट करना और पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया प्रदूषित करना है.

लेकिन अच्छी खबर यह है कि पाठकों-दर्शकों के एक हिस्से ने कारपोरेट मीडिया की निगरानी और उनकी गलतियों और विचलनों पर खुली चर्चा शुरू कर दी है. यह एक नए तरह का मीडिया एक्टिविज्म है जिसके निशाने पर खुद कारपोरेट मीडिया है. निश्चय ही, इससे कारपोरेट मीडिया की साख पर असर पड़ा है. एक मायने में यह कारपोरेट समाचार मीडिया के लिए खतरे की घंटी है. पहले वह गलतियां करके बच निकलता था. उसके विचलनों पर चर्चा नहीं होती थी. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. कारपोरेट मीडिया के चतुर सुजान- सावधान ! वर्ष २०११ इस मीडिया एक्टिविज्म के नाम रहनेवाला है.

(तहलका के जनवरी'11 अंक में प्रकाशित)

शुक्रवार, जनवरी 14, 2011

मनरेगा की मजदूरी

न्यूनतम मजदूरी कानून लागू करने से पीछे क्यों हट रही है यू.पी.ए सरकार


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अड़े हुए हैं कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी नहीं दी जा सकती है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की चिट्ठी के जवाब में उनका कहना है कि अधिक से अधिक मनरेगा के तहत निश्चित १०० रूपये प्रतिदिन की मजदूरी दर को मुद्रास्फीति के साथ जोड़ा जा सकता है. इस चिट्ठी के बाद केन्द्र सरकार ने मनरेगा के तहत विभिन्न राज्यों में दी जा रही मजदूरी में मुद्रास्फीति के आधार पर १७ से लेकर ३० प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करने का एलान किया है जो कि पिछले दो सालों की भारी महंगाई की तुलना में ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है.

याद रहे कुछ महीने पहले सरकार ने करोड़पति-लखपति सांसदों-मंत्रियों के वेतन में ३०० से ४०० फीसदी की बढ़ोत्तरी की है लेकिन गरीबी रेखा के नीचे के मजदूरों की मजदूरी में सिर्फ १७ से ३० प्रतिशत की वृद्धि- इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है? यही नहीं, इस फैसले से साफ है कि यू.पी.ए सरकार मनरेगा की मजदूरी दर को विभिन्न राज्यों की न्यूनतम मजदूरी के बराबर करने के लिए तैयार नहीं हैं. निश्चय ही, सरकार के इस फैसले से मनरेगा की मजदूरी को राज्यों की न्यूनतम मजदूरी दर के बराबर करने की मांग को लेकर पिछले कई महीनों से लड़ रहे जन संगठनों और करोड़ों मजदूरों को घोर निराशा हुई है.

प्रधानमंत्री के पास अपने फैसले के पक्ष में कोई तर्क नहीं है - न कानूनी, न संवैधानिक, न राजनीतिक और न ही नैतिक. यहां तक कि उनके पास आर्थिक तर्क भी नहीं है. आखिर कोई सरकार संसद द्वारा पारित न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन कैसे कर सकती है? यहां तक कि खुद केंद्र सरकार की एडिशनल सोलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने इस मामले में अपनी कानूनी राय में कहा था कि न्यूनतम मजदूरी कानून से कम मजदूरी देना कानून सम्मत नहीं है और इसे ‘जबरन श्रम’ या बंधुआ मजदूरी माना जायेगा.

इससे पहले, आन्ध्र उच्च न्यायालय ने भी मनरेगा के तहत राज्य सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी देने पर नाराजगी जाहिर करते हुए केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के उस सर्कुलर पर आंध्र में रोक लगा दी थी जिसमें मनरेगा के तहत मजदूरी को सौ रूपये प्रतिदिन पर फिक्स कर दिया गया था. लेकिन इसके बावजूद केन्द्र की यू.पी.ए सरकार मनरेगा की मजदूरी को न्यूनतम मजदूरी के बराबर न करने के फैसले पर अडी हुई है. यह अन्यायपूर्ण है. यह श्रमिकों के संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन है.

सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ वर्षों पहले एक फैसले में कहा था कि सरकार को एक आदर्श नियोक्ता की तरह पेश आना चाहिए. लेकिन अगर केन्द्र सरकार खुद न्यूनतम मजदूरी देने के लिए तैयार नहीं है तो वह निजी नियोक्ताओं को न्यूनतम मजदूरी देने के लिए कैसे बाध्य कर सकती है? कैसा मजाक है कि जिससे आदर्श नियोक्ता बनने की अपेक्षा की जा रही है, वह खुद कानून की धज्जियाँ उड़ा रहा है जो एक तरह से निजी नियोक्ताओं को मनमानी करने का लाइसेंस देने जैसा है. यह किसी से छुपा नहीं है कि निजी क्षेत्र ने न्यूनतम मजदूरी कानून की कभी परवाह नहीं की है. सरकार की मौन और कई बार खुली सहमति से निजी क्षेत्र इस कानून को ठेंगा दिखता रहा है.

याद रहे कि न्यूनतम मजदूरी कानून का पालन कानूनन अनिवार्य है. लेकिन इसका ईमानदारी से कभी पालन नहीं हुआ है और श्रमिकों के साथ हमेशा एक छल चलता रहा है. अब जब खुद ‘आम आदमी’ की सरकार श्रमिकों के साथ यह छल कर रही है तो वे किससे गुहार करें? सच पूछिए तो यह फैसला राजनीतिक और नैतिक रूप से भी अन्यायपूर्ण है. आखिर जो राजनीतिक तंत्र सांसदों, मंत्रियों और अफसरों की तनख्वाहों को अत्यंत उदारता से बढ़ाने में शर्म महसूस नहीं करता, वह करोड़ों मजदूरों को मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी देने से किस मुंह से इंकार कर सकता है?

असल में, यू.पी.ए सरकार ने यह फैसला निजी क्षेत्र के दबाव और वित्तीय कठमुल्लावाद के असर में लिया है. यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि निजी क्षेत्र मनरेगा के कारण मजदूरों की अनुपलब्धता और मजदूरी में बढ़ोत्तरी की शिकायत करता रहा है. निजी क्षेत्र के मुताबिक, मनरेगा के कारण मजदूर गांवों में ही रुक जा रहे हैं जिससे श्रमिकों की आपूर्ति प्रभावित हो रही है और कम आपूर्ति के कारण उनकी मजदूरी में भी इजाफा करना पड़ रहा है. इससे इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं और निर्माण क्षेत्र प्रभावित हो रहा है.

निजी क्षेत्र को यह भी आशंका है कि अगर मनरेगा के तहत मजदूरी न्यूनतम मजदूरी के बराबर कर दी गई तो न सिर्फ मजदूर न मिलने की समस्या और बढ़ जायेगी बल्कि उन्हें मजदूरी दर में और बढ़ोत्तरी करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इस तरह खुलकर न कहते हुए भी निजी क्षेत्र का केन्द्र सरकार पर दबाव है कि वह न सिर्फ मनरेगा के तहत मजदूरी न बढ़ाये बल्कि इस पूरी योजना को इस हद तक अनाकर्षक बना दे कि मजदूर उसकी तरफ देखे भी नहीं ताकि निजी क्षेत्र बिना किसी रोकटोक मजदूरों के श्रम का शोषण करता रह सके.

निश्चय ही, इस फैसले से निजी क्षेत्र की यह इच्छा पूरी हो गई है. लेकिन इससे सरकार में बैठे उन वित्तीय कठमुल्लावादियों की भी इच्छा पूरी हो गई है जो इस योजना को शुरू से ही इस आधार पर विरोध करते रहे हैं कि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जायेगा. वे इस योजना को निरर्थक, सरकारी खजाने में छेद और आर्थिक रूप से अनुपयोगी मानते रहे हैं. उनका वश चलता तो यह योजना कभी अमल में ही नहीं आती लेकिन उनके न चाहने पर भी राजनीतिक कारणों से यह योजना लागू हुई. उसके बाद से ही इस योजना को असफल करने की कोशिशें होती रही हैं. इस योजना के तहत न्यूनतम मजदूरी देने से इंकार करना भी इन्हीं कोशिशों का हिस्सा है.

(दैनिक 'अमर उजाला' में  14 जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख ) 

गुरुवार, जनवरी 13, 2011

तेलंगाना का समय आ गया है

 तेलंगाना से निकलेगी नई राह


जस्टिस श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट के बाद अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर आंध्र प्रदेश के साथ-साथ केन्द्र की राजनीति गर्मा गई है. इस रिपोर्ट ने इस मामले को सुलझाने से अधिक उलझा दिया है. वैसे भी तकनीकी विशेषज्ञों की समिति से एक गंभीर राजनीतिक सवाल के हल की अपेक्षा करना ठीक नहीं था. यह शुरू से साफ था कि केन्द्र की यू.पी.ए सरकार तेलंगाना मुद्दे पर कोई फैसला नहीं लेना चाहती थी और उसने मामले के टालने के लिए जस्टिस श्रीकृष्ण समिति का गठन किया था. अपनी इन सीमाओं के बावजूद जस्टिस श्रीकृष्ण समिति ने तेलंगाना मुद्दे की गेंद को एक बार फिर केन्द्र सरकार के पाले में डाल दिया है.

अब फैसला कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को करना है. लेकिन कांग्रेस इस मुद्दे पर कोई साफ और नीतिगत निर्णय लेने के बजाय अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण मामले को लटकाने और अपने पुराने राजनीतिक दांव-पेंच पर उतर आई है. इससे इस पूरे मामले के शांति, सौहार्द और न्यायोचित तरीके से सुलझने के बजाय बिगड़ने का खतरा बढ़ता जा रहा है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपने पुराने अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. उसके संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की राजनीति के कारण ही ८० के दशक में पंजाब और असम जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो गईं थीं.

कहने की जरूरत नहीं है कि तेलंगाना के मुद्दे पर एक बार फिर ऐसी राजनीतिक गलती देश को बहुत भारी पड़ सकती है. असल में, तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेस अपनी अवसरवादी और संकीर्ण स्वार्थों की राजनीति के कारण फंस गई है. कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश में दांव बहुत उंचे हैं. कांग्रेस के सबसे अधिक करीब ३५ सांसद आंध्र से ही आते हैं. देश के बड़े राज्यों में कांग्रेस की सत्ता केवल आंध्र प्रदेश में ही है क्योंकि महाराष्ट्र में वह एन.सी.पी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है. दक्षिण भारत में आंध्र एकमात्र राज्य है जहां कांग्रेस को भविष्य की राजनीति के लिहाज से सबसे अधिक उम्मीदें हैं.

जाहिर है कि कांग्रेस आंध्र गंवाने का जोखिम नहीं ले सकती है लेकिन आंध्र की सत्ता को बचाने के लिए कांग्रेस जिस तरह का दांव-पेंच कर रही है, उसके कारण वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से आंध्र और तेलंगाना दोनों गंवाने के कगार पर पहुंच गई है बल्कि दोनों खित्तों को आग में भी झोंकती दिखाई पड़ रही है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर एक सैद्धांतिक और नीतिगत रूख अपनाने के बजाय अपने राजनीतिक फायदे-नुकसान की राजनीति के आधार पर मामले को लटकाने और उलझाने की आत्मघाती राजनीति कर रही है.

दरअसल, कांग्रेस दूर तक नहीं देख पा रही है. उसकी राजनीति तात्कालिकता और अवसरवाद से संचालित हो रही है. इसके कारण आंध्र प्रदेश में वह सच और न्याय के पक्ष को अनदेखा करने की कोशिश कर रही है. क्या यह सच नहीं है कि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का मुद्दा आंध्र कांग्रेस के घोषणापत्र और यू.पी.ए – प्रथम के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल था?

क्या यह अवसरवाद नहीं है कि उस समय कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टी.आर.एस) का समर्थन लेने के लिए अलग राज्य का वायदा किया था लेकिन बाद में मुकर गई? कांग्रेस और वामपंथी दलों को इस बात पर जरूर विचार करना चाहिए कि क्या कारण है कि तेलंगाना अलग राज्य बनाए जाने का एक लोकतान्त्रिक आंदोलन भाजपा और टी.आर.एस जैसी सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और अवसरवादी शक्तियों के हाथ में चला गया है.

कांग्रेस ही क्यों, तेलंगाना के मुद्दे पर लगभग हर पार्टी का अवसरवादी और दोमुंहा रवैया उजागर हो चुका है. आज भाजपा तेलंगाना को अलग राज्य बनाए जाने की सबसे बड़ी चैम्पियन बन रही है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अपने चुनाव घोषणापत्र में वायदे के बावजूद उसने वर्ष २००० में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के साथ तेलंगाना को अलग राज्य नहीं बनाया?

तथ्य यह है कि भाजपा उस समय केन्द्र में अपनी सरकार बचाने के लिए पीछे हट गई. वाजपेयी सरकार चन्द्र बाबू नायडू की टी.डी.पी के समर्थन से चल रही थी. इसी तरह, खुद टी.डी.पी का अवसरवाद यह है कि उसने पिछले चुनावों में अपनी डूबती नैय्या को बचाने के लिए टी.आर.एस के साथ समझौता करके चुनाव लड़ा लेकिन अब तेलंगाना के मुद्दे पर दाएं-बाएं कर रहे हैं.

इस मुद्दे पर वामपंथी पार्टियों खासकर माकपा का रूख सैद्धांतिक तौर पर राज्य विभाजन का विरोध करने के बावजूद राजनीतिक रूप से एक अलग तरह के अवसरवाद से प्रेरित है. माकपा पूरे देश में राज्य विभाजन और छोटे राज्यों का सिर्फ इस कारण से विरोध करती रही है कि वह पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड के विरोध में है. हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों को इस अवसरवादी राजनीति का यह खामियाजा भुगतना पड़ रहा है कि आन्ध्र में सभी पार्टियां दो हिस्सों में बंट गई हैं. यही नहीं, उनकी इस अवसरवादी राजनीति के कारण आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और राज्य के अन्य हिस्सों – तटीय आंध्र और रायलसीमा के बीच गृह युद्ध के आसार पैदा हो गए हैं.

सच यह है कि अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन को अब और नहीं टाला जा सकता है. तेलंगाना एक ऐसी ऐतिहासिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सच्चाई और विचार है जिसका समय आ गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि तेलंगाना शुरू से ही यहां तक कि तेलुगु भाषी राज्य के रूप में आंध्र के गठन से पहले से ही यह एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र, सांस्कृतिक रूप से अलग और आर्थिक रूप से सक्षम इकाई रहा है. इस सच्चाई को जितनी जल्दी स्वीकार किया जायेगा, वह आंध्र और पूरे देश के लिए उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इस अपरिहार्य फैसले को टालने या लटकाने के नतीजे किसी के लिए भी अच्छे नहीं होंगे.

असल में, १९५६ में तेलंगाना को उसकी इच्छा के विरुद्ध आंध्र प्रदेश में मिलाया गया था. प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी इस एकीकरण की सिफारिश नहीं की थी. उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि तेलंगाना को अगले पांच सालों यानी १९६१ तक अलग राज्य बनाए रखा जाए. इसके बाद अगर दो तिहाई निर्वाचित प्रतिनिधि एकीकरण के पक्ष में राय व्यक्त करते हैं तो एकीकरण होना चाहिए.

यही नहीं, हैदराबाद राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.आर.के. राव ने इस आधार पर दोनों के एकीकरण का विरोध किया था कि दोनों इलाके सांस्कृतिक रूप से काफी अलग हैं. इन्हीं आशंकाओं के मद्देनजर एकीकरण के वक्त ‘जेंटलमैन एग्रीमेंट’ हुआ जिसमें एकीकृत राज्य में तेलंगाना के हितों को सुरक्षित रखने का वायदा किया गया था.

इस समझौते में ही तेलंगाना के चौतरफा विकास के लिए अलग से एक क्षेत्रीय परिषद के गठन के साथ-साथ यह भी वायदा किया गया था कि दोनों क्षेत्रों के विकास पर आनुपातिक रूप से व्यय करने के बाद बजट में जो रकम बच जायेगी, वह तेलंगाना के विकास पर खर्च की जायेगी. लेकिन तेलंगाना के लोगों का आरोप है कि जेंटलमैन एग्रीमेंट में किए गए वायदे पूरे नहीं किए गए. लेकिन जेंटलमेन एग्रीमेंट को ईमानदारी से लागू करना तो दूर उल्टे १९७३ में तेलंगाना के विकास के लिए गठित क्षेत्रीय परिषद को भंग कर दिया गया. विडम्बना देखिए कि अब एक बार फिर श्रीकृष्ण समिति ने अनेक विकल्पों में एक तेलंगाना के लिए क्षेत्रीय परिषद के गठन का प्रस्ताव किया है.

तथ्य यह है कि तेलंगाना की उपेक्षा के खिलाफ १९६८-६९ में जबरदस्त आंदोलन चला जिसके बाद इस आरोप की जांच के लिए ललित समिति का गठन किया गया कि तेलंगाना के हिस्से के संसाधन अन्य इलाकों में खर्च किए जा रहे हैं. इस समिति ने माना कि १९५६ से १९६८ के बीच तेलंगाना के हिस्से का अधिशेष १०० करोड़ रूपये से अधिक है जिसका वर्तमान मूल्य लगभग २३०० करोड़ रूपये बैठता है.

यही नहीं, हैदराबाद को छोड़ भी दिया जाए तो ताजा अध्ययनों के मुताबिक, २००३-०४ से २००६-०७ के बीच आंध्र प्रदेश के कुल राजस्व का आधे से अधिक तेलंगाना क्षेत्र से आ रहा था. राज्य के कुल सेल्स टैक्स का ७५ प्रतिशत और उत्पाद कर का ६६ फीसदी तेलंगाना क्षेत्र से आता है. लेकिन तेलंगाना के विकास पर उस अनुपात में खर्च नहीं होता है.

इसके बावजूद यह सच है कि तेलंगाना आर्थिक तौर पर उतना पिछड़ा नहीं है जितना अकसर दावा किया जाता है. इस तथ्य की पुष्टि श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट ने भी की है. लेकिन तेलंगाना के लोगों की शिकायत यह है कि तेलंगाना के कई इलाकों के विकास में राज्य की भूमिका बहुत कम है. उन्हें इस विकास की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. उदाहरण के लिए, जहां तटीय आंध्र के कई जिलों में नहर से सिंचाई की सुविधा है, वहीँ तेलंगाना में ७५ फीसदी से अधिक इलाकों में ट्यूब वेल से सिंचाई करनी पड़ती है जिसकी आर्थिक और पर्यावरणीय लागत बहुत ज्यादा है. इसी तरह, उनकी यह भी शिकायत है कि आंध्र की सिंचाई परियोजनाओं में तेलंगाना को उसका जायज हिस्सा नहीं मिलता है.

नतीजा, तेलंगाना इलाके में निरंतर सूखे की समस्या के कारण सबसे ज्यादा आप्रवासन और किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आती हैं. आश्चर्य नहीं कि आंध्र में १९९८ से २००६ के बीच किसानों की कुल आत्महत्याओं में दो तिहाई से ज्यादा आत्महत्याएं तेलंगाना इलाके में ही हुईं. तेलंगाना के आंदोलनकारियों की यह भी शिकायत है कि पिछले तीन-चार दशकों में उनसे किए गए अधिकांश वायदे पूरे नहीं किए गए जिसके कारण इलाके के लोगों में यह भावना मजबूती से बैठ गई है कि अलग राज्य के अलावा अब और कोई रास्ता नहीं है.

यह आकांक्षा पिछले कई चुनावों में लोगों के राजनीतिक जनादेश में भी दिख चुकी है. सच यह है कि अलग राज्य की मांग तेलंगाना की आम जन भावना बन चुकी है. यह किसी एक पार्टी या नेता का आंदोलन नहीं है. अब के. चंद्रशेखर राव और टी.आर.एस चाहें भी तो पीछे नहीं लौट सकते हैं.

दरअसल, ऐतिहासिक कारणों से अलग और अपने राज्य की यह भावना इतनी गहरी हो चुकी है कि तेलंगाना का सवाल अब पिछडेपन बनाम विकास का मुद्दा नहीं रह गया है. यह तेलंगाना के लोगों के लिए आत्म सम्मान का मुद्दा बन गया है. यही कारण है कि इस पूरे सवाल को अब पिछडेपन बनाम विकास की बहस के सन्दर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए जैसाकि श्रीकृष्ण समिति या कुछ और विश्लेषक कर रहे हैं.

ऐसे में, सबसे बेहतर रास्ता यही है कि मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के देखते हुए तेलंगाना को न सिर्फ अलग राज्य बनाया जाए बल्कि ऐतिहासिक रूप से उसका हिस्सा रहे हैदराबाद को भी उसके साथ रखा जाए. इसके बदले में, सीमान्ध्रा को नई राजधानी के निर्माण के लिए एकमुश्त पैकेज दिया जा सकता है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस समाधान के लिए कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों को न सिर्फ जरूरी राजनीतिक साहस दिखाना होगा बल्कि सीमान्ध्रा के लोगों को बातचीत के जरिये सहमत करना होगा. जहां तक तेलंगाना बनने से देश के अन्य हिस्सों में अलग राज्यों के आंदोलन तेज होने का सवाल है, उसके लिए राजनीतिक दलों और देश को भारत विभाजन की उस भयग्रंथि से भी बाहर निकलना होगा जो अलग राज्यों के आन्दोलनों को हमेशा अलगाववादी आंदोलन की तरह देखती है.

अच्छा तो यह होता कि यू.पी.ए सरकार इस पूरे मुद्दे पर तदर्थवादी और अवसरवादी तरीके से फैसला करने के बजाय द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करती और ऐसी सभी मांगों पर खुले और लोकतान्त्रिक तरीके से विचार का माहौल बनाती. तेलंगाना ने यह अवसर दिया है. इससे एक नई राह निकल सकती है. इसे गंवाना नहीं चाहिए.

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर जनवरी'११ को प्रकाशित)

मंगलवार, जनवरी 11, 2011

युवा क्रांति को ट्रिगर का इंतज़ार है

क्या मध्यवर्गीय युवा यथास्थितिवादी होता जा रहा है?


राष्ट्रीय युवा दिवस पर एक बहस  
क्या भारतीय युवा का बदलाव की राजनीति और वैचारिकी में भरोसा कम होता जा रहा है? क्या वह बदलाव के बजाय यथास्थितिवादी होता जा रहा है? क्या वह परंपरा भंजक के बजाय परंपरा पूजक होता जा रहा है? २१ वीं सदी के दूसरे दशक की शुरुआत में युवाओं के देश माने-जानेवाले भारत में ये और ऐसे ही कई सवाल बहुत लोगों को अटपटे लग सकते हैं लेकिन मेरी नजर में बहुत महत्वपूर्ण हैं. आमतौर पर माना जाता है कि युवा का मतलब है परम्पराओं को चुनौती देनेवाला और बदलाव में विश्वास करनेवाला वर्ग. समाज का वह हिस्सा जो हमेशा किसी देश में बदलाव का अगुवा होता है.

सच पूछिए तो युवा वर्ग की पहचान है - उसकी बेचैनी, उसका आक्रोश, उसकी सृजनात्मकता और स्थापित व्यवस्था को चुनौती देनेवाला उसका मिजाज. यही मिजाज उसे बदलाव के लिए व्यवस्था से टकराने का हौसला और हर जोखिम उठाने का साहस देता है.

लेकिन क्या यह तथ्य आपको हैरान नहीं करता है कि जिस देश की ५१ फीसदी आबादी २५ वर्ष से कम उम्र और ६६ प्रतिशत आबादी ३५ साल से कम उम्र की है, उस देश में बदलाव की वैसी कोई हलचल नहीं है जो इतने बड़े पैमाने पर युवा समुदाय की मौजूदगी का अहसास कराती हो? इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो पूरे देश के युवा समुदाय में बदलाव की वह बेचैनी, गुस्सा और आंदोलन दिखाई नहीं दे रहा है जिसके लिए उसे जाना जाता है.

इसके उलट ऐसा लगता है जैसे हाल के वर्षों में युवा खासकर मध्यमवर्गीय युवा धारा के विरुद्ध नहीं, धारा के साथ तैरने लगा है. परंपरा को चुनौती देने के बजाय परंपरा के साथ खड़ा है. बदलाव के बजाय यथास्थिति में भविष्य देख रहा है. कुछ साल पहले मुख्यतः मध्यमवर्गीय युवाओं के रुझान को लेकर हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश के ६० फीसदी युवा मौजूदा हालात में अपनी स्थितियों से खुश हैं. सर्वेक्षण के अनुसार, इस समय भारतीय युवा दुनिया के सबसे खुश और संतुष्ट युवाओं में हैं. यही नहीं, परंपरा और धर्म में उनका गहरा विश्वास है.

इसके संकेत आप अपने आस-पास भी देख सकते हैं. मंदिरों-मस्जिदों और गुरुद्वारों में आप युवाओं की बड़ी तादाद को पूजा-पाठ और धार्मिक रीती-रिवाजों को पूरा करते देख सकते हैं. धार्मिक कर्मकांडों से उसे परहेज नहीं है. युवाओं का एक बड़ा हिस्सा ऊँची पढाई और आधुनिकता में रचे-बसे होने के बावजूद माता-पिता की पसंद से अरेंज्ड शादियाँ कर रहे हैं या उसमें विश्वास करते हैं. अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के प्रति आकर्षण कम दिखाई दे रहा है. वे सामाजिक जकडबंदियों से टकराने के बजाय अकसर उससे समझौता करने के मूड में दिखाई देते हैं.

सबसे बड़ी बात यह है कि आज का युवा खुद में सिमटा हुआ है. उसकी दुनिया खुद तक सीमित है जिसमें उसकी चिंताओं का सरोकार अपने और अपने परिवार से आगे नहीं जाता है. उसे अपने कैरियर से आगे कुछ दिखाई नहीं देता. कैरियर के लिए वह सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहता है. कैरियर और अपने फायदे के लिए उसे किसी के भी कंधे पर पैर रखकर आगे बढ़ने से गुरेज नहीं है. अवसरवाद इस युवा की सबसे बड़ी विचारधारा है. यथास्थितिवाद में उसे सबसे अधिक फायदा दिखाई देता है. संभव है कि यह बात सभी युवाओं के लिए सही नहीं हो लेकिन महानगरीय और मध्यवर्गीय युवाओं के एक बड़े तबके के लिए यह चरित्रीकरण काफी हद तक सही है.

यथास्थितिवाद में उनकी आस्था क्यों नहीं हो जब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अगले दशक में निजी क्षेत्र में पैदा होनेवाले रोजगार के आकर्षक अवसरों का लाभ उसी को मिलेगा जो अंग्रेजी बोलना और लिखना-पढ़ना जानता होगा. यह भी कि पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का सबसे ज्यादा फायदा भी इन्हीं युवाओं को मिला है. स्वाभाविक तौर पर मौजूदा व्यवस्था के ऐसे ही बने रहने और चलने में उसका निहित स्वार्थ है. दूसरी ओर, इस व्यवस्था का स्वार्थ भी इसी युवा के साथ जुड़ा है क्योंकि इस बाज़ार व्यवस्था का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी वही है.

लेकिन इस युवा में इस व्यवस्था के स्थायित्व और उसमें अपनी स्थिति को लेकर गहरी आशंका भी दिखाई देती है. इसके कारण, उसके अंदर गहरा असुरक्षा बोध भी है जिसका प्रतिबिम्ब उसके धार्मिक झुकावों में देखा जा सकता है. यही असुरक्षा उसे मंदिरों से लेकर ज्योतिषियों, वास्तु विशेषज्ञों और अरेंज्ड मैरेज आदि की ओर ले जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह उसकी एक बड़ी ‘स्प्लिट पर्सनालिटी’ उभरती है जिसमें एक ओर वह आधुनिक उपभोक्ता के रूप दिखाई देता है और दूसरी ओर, अपनी असुरक्षाओं का समाधान परम्परा और धर्म में ढूंढता है.

लेकिन इस सबसे अलग देश में ऐसे युवाओं की तादाद कहीं ज्यादा है जो ग्रामीण, गरीब, पिछड़े और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों और आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं. तथ्य यह है कि इस वर्ग के लिए मौजूदा व्यवस्था में बहुत कम जगह है. अधिक से अधिक इन युवाओं का एक हिस्सा इस व्यवस्था में लो पेड और शारीरिक श्रम आधारित रोजगार पा सकता है.

लेकिन उसके लिए खासकर अंग्रेजी न जाननेवालों के लिए इस व्यवस्था में अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं. इन युवाओं में भी बेहतर जीवन का सपना है. उनमें अपनी परिस्थितियों को लेकर बेचैनी और गुस्सा भी बहुत है लेकिन उनके पास बदलाव का विचार और आंदोलन नहीं है. आश्चर्य नहीं कि इन युवाओं का गुस्सा अकसर अराजक शक्ल में सडकों पर उतर आता है.

दरअसल, इस दौर में शासक वर्गों की ओर से युवाओं को बदलाव की चेतना और आन्दोलनों से दूर रखने और इन आन्दोलनों को कमजोर करने की योजनाबद्ध कोशिश हुई है और कहना पड़ेगा कि उन्हें काफी हद तक कामयाबी भी मिली है. भारतीय शासक वर्ग को मालूम है कि दुनिया के जिस देश में भी उसकी ५० फीसदी से अधिक आबादी २५ साल से कम की हुई है, वहां सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और परिवर्तनों की लहर को रोकना असंभव हो गया है.

लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है. आगे भी नहीं होगा, ऐसा निष्कर्ष निकालने से बड़ी बेवकूफी कुछ नहीं हो सकती है. सच यह है कि दो तिहाई से अधिक युवा आबादी के साथ देश में बड़े उथल-पुथल की परिस्थितियाँ तैयार हैं. जरूरत सिर्फ एक ट्रिगर की है.

('राष्ट्रीय सहारा' के परिशिष्ट हस्तक्षेप में ८ जनवरी'११ को प्रकाशित )

सोमवार, जनवरी 10, 2011

कांग्रेस संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा है भ्रष्टाचार

लेकिन आज सभी दल इस कांग्रेस संस्कृति में रम चुके हैं  
 
भ्रष्टाचार के खिलाफ बिल्कुल बर्दाश्त न करने (जीरो टालरेंस) की बातें करना एक बात है और उसपर अमल करना बिल्कुल दूसरी बात है. इस सच को यू.पी.ए सरकार और उसके ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री से ज्यादा बेहतर कौन जानता है. इसलिए यू.पी.ए सरकार पर भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों के बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही खुद को संदेहों से ऊपर रखने के लिए संसद की लोक लेखा समिति (पी.ए.सी) के सामने पेश होने का प्रस्ताव करें लेकिन सच यह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में खुद प्रधानमंत्री की भूमिका पर संदेह बढ़ता जा रहा है. यह किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा है कि जब प्रधानमंत्री पी.ए.सी के सामने पेश होने के लिए तैयार हैं तो संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी) से जांच से उन्हें और कांग्रेस को इतना परहेज क्यों है?

आखिर किस बात की पर्दादारी है कि कांग्रेस जे.पी.सी की गठन की मांग मान नहीं रही है? सवाल यह भी है कि किसे बचाने की जिद में जे.पी.सी से इंकार करके संसद का पूरा शीतकालीन सत्र जाया होने दिया गया? कांग्रेस और यू.पी.ए के कर्ताधर्ता मानें या न मानें लेकिन सच यह है कि यू.पी.ए सरकार जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरती जा रही है और भ्रष्टाचार की कालिख केवल घटक दलों तक सीमित न रहकर खुद कांग्रेसी मंत्रियों को लपेटती जा रही है, उसमें जे.पी.सी जांच से इंकार करने तर्क लगातार घटते जा रहे हैं. कांग्रेस के पास जे.पी.सी से इंकार के लिए राजनीतिक वजहें भले बची हों लेकिन नैतिक वजहें लगातार कम होती जा रही हैं.

हालांकि कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का बहुत दम भरती है और अपने दागी मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से तुरंत इस्तीफा लेने को सबूत के बतौर पेश करती है. गोया इस्तीफा कोई सजा हो. लेकिन तथ्य यह है कि ऐसी सजा से कोई कांग्रेसी नहीं डरता है क्योंकि उसे पता है कि जब घोटाले पर लीपापोती हो जायेगी और थोड़ा समय निकाल जायेगा, उसके बाद उनका राजनीतिक पुनर्वास हो जायेगा.

यही कारण है कि भ्रष्टाचार कांग्रेस संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. कांग्रेस भले स्वीकार न करे लेकिन कम से कम जनता में यही धारणा है कि कांग्रेस और भ्रष्टाचार एक-दूसरे के पर्याय हैं. अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं, सांसदों, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को सजा देना तो दूर, पार्टी से बाहर तक नहीं निकाला जाता है?

असल में, कांग्रेस ने कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई नहीं लड़ी है और न आज भी लड़ना चाहती है. अलबत्ता, लोगों के आँख में धूल झोंकने के लिए वह भ्रष्टाचार से लड़ते हुए जरूर दिखना चाहती है. लेकिन यह खेल इतनी बार दोहराया जा चुका है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस की लड़ाई अब एक सस्ते नाटक से अधिक नहीं लगती है.

सच पूछिए तो कांग्रेस आज भ्रष्टाचार के बिना जिन्दा नहीं रह सकती है. भ्रष्टाचार ही कांग्रेस की प्राण वायु है. गौर से देखिये तो कांग्रेस में पदों और टिकटों के लिए जो लाबीइंग होती है, मारामारी मची रहती है, गुटबाजी होती है, घात-प्रतिघात चलता रहता है, वह जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए होता है.

यहां तक कि इस गुटबाजी और मारामारी पर कुछ अंकुश लगाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को कांग्रेस महाधिवेशन में कहना पड़ा कि कांग्रेस में सब्र रखने से ‘सबका नंबर आता है.’ सवाल है कि किस चीज का नंबर आता है? कोई खुलकर भले न स्वीकार करे लेकिन सब जानते हैं कि इसका मतलब है, सत्ता की मलाई में हिस्सा. आश्चर्य नहीं कि जिसका नंबर आता है, वह बिना किसी अपवाद के मौके का पूरा इस्तेमाल करता है.

कांग्रेस के सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की घोषित-अघोषित संपत्ति इसका सबूत है. पैसा बनाने में उनका कोई सानी नहीं है. सच पूछिए तो भ्रष्टाचार को संस्थाबद्ध करने और पूरी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बनाने का पूरा श्रेय कांग्रेस को जाता है.

यह ठीक है कि अब भ्रष्टाचार में भाजपा और तीसरे मोर्चे की पार्टियां भी पीछे नहीं हैं लेकिन अगर कभी भारत की भ्रष्टाचार गाथा लिखी गई तो उसमें अधिकांश मुख्य पात्र कांग्रेस के होंगे और अन्य पार्टियों के हिस्से चरित्र भूमिकाएं ही आएंगी. प्रधानमंत्री नेहरु के कार्यकाल से लेकर मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक कांग्रेस के भ्रष्ट मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की सूची बहुत लंबी है. यहां तक कि उनके कई प्रधानमंत्रियों का दामन भ्रष्टाचार के आरोपों से सना रहा है. इसके बाद भी कांग्रेस अगर खुद को पाक-साफ और भ्रष्टाचार से लड़नेवाली पार्टी बताती है तो उसके दावे पर हँसने के सिवाय क्या किया जा सकता है.

असल में, कांग्रेस जे.पी.सी जांच से इंकार करके भाजपा और सांप्रदायिक शक्तियों की ही मदद कर रही है. कांग्रेस नेतृत्व ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लीपापोती का और अड़ियल रवैया अपनाकर भाजपा को भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई का चैम्पियन बनने का मौका दे दिया है. एक तरह से कांग्रेस की गलतियों से भाजपा को राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई है.

ऐसे में, कांग्रेस चाहे भगवा सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ चाहे जितना आग उगले लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी अपनी राजनीति के कारण भाजपा को पुनर्जीवन मिल रहा है. यह सही है कि भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा का रिकार्ड कांग्रेस से अच्छा नहीं है और उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का कोई नैतिक हक नहीं है लेकिन विडम्बना देखिये कि यही भाजपा आज कांग्रेस की कृपा से भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई की चैम्पियन बनती दिख रही है.
   
('समकालीन जनमत' के जनवरी'११ अंक में प्रकाशित )

रविवार, जनवरी 09, 2011

राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है नव उदारवादी सुधारों ने

 भ्रष्टाचार और पूंजीवाद के बीच जैविक रिश्ता है

उदारीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म की तीसरी और अंतिम किस्त

उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई है. खासकर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोलतोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई है. यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ानेवाला और उसके निवेश और मुनाफे की राह से रोड़े हटानेवाला बना दिया गया.

नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.

इसके लिए नव उदारवादी सुधारों के तहत ऐसी नीतियां तैयार की गईं हैं जो कीमती और दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को कार्पोरेट्स के हवाले करने का रास्ता साफ करती हैं. कहने का अर्थ यह कि भ्रष्टाचार और घोटालों से इतर कार्पोरेट्स के पक्ष में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे कानूनी अर्थों में भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है क्योंकि वह सब कानून और नियमों के अनुकूल है.

उदाहरण के लिए, भाजपा-एन.डी.ए की पिछली सरकार ने टेलीकाम कंपनियों को फायदा पहुंचने के लिए नीतियों को ही बदल दिया. इससे जो कंपनियां एक कानूनी समझौते के तहत निश्चित लाइसेंस फ़ीस देने के लिए बाध्य थीं, उन्हें राजस्व साझेदारी व्यवस्था में शिफ्ट कर दिया गया जिससे सरकारी खजाने को नुकसान और कंपनियों को भारी फायदा हुआ.

जाहिर है कि यह अकेला उदाहरण नहीं है. सच पूछिए तो पिछले दो दशकों में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक हितों की कीमत पर जिस तरह से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया गया है, उससे बड़ा घोटाला और कोई नहीं है. इस नए निजाम में सबसे ज्यादा जोर कंपनियों के मनमाने मुनाफे को बढ़ाने पर है और इसके लिए उन्हें जो रियायतें और छूट दी जा सकती हैं, बिना किसी शर्म-संकोच के दी जा रही हैं. उदाहरण के लिए, हर साल बजट में कंपनियों और कारोबारियों को विभिन्न तरह के टैक्सों में अरबों रूपये की छूट दी जा रही है जो एक तरह की सब्सिडी ही है.

खुद सरकार के अनुमानों के मुताबिक वर्ष २००९-१० के बजट में विभिन्न टैक्स रियायतों और छूटों के कारण सरकारी खजाने को लगभग ५,४०,२६९ करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है. इसमें अकेले कारपोरेट टैक्स और कारपोरेट आयकर में छूट के जरिये सरकार ने कारपोरेट क्षेत्र को ७९५५४ करोड़ रूपये था.

इसी तरह, पिछले दो दशकों में राज्य सरकारों ने निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर जिस तरह से देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, बिजली, पानी और अन्य सुविधाएँ लगभग मुफ्त बांटी हैं, अगर उसकी जांच हो तो पता चलेगा कि हर रंग की सरकारों ने कंपनियों को लाखों करोड़ के संसाधन और रियायतें बांटे हैं.

असल में, नव उदारवादी सुधारों के तहत नीति निर्णय पूरी तरह से कंपनियों और उनके राजनीतिक नुमाइंदों के हाथ में चला गया है. इस दौर में नीति निर्णयों में कंपनियों की भागीदारी और लाबीइंग को बाकायदा संस्थाबद्ध कर दिया गया है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में देश के सभी बड़े उद्योगपति मौजूद हैं जो आर्थिक नीतियों की दिशा तय करते हैं.

इसी तरह, सी.आई.आई से लेकर फिक्की तक सभी औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों का मुख्य काम नीतियों को कार्पोरेट्स के हितों के अनुकूल बनवाने के लिए लाबीइंग करना है. उनकी लाबीइंग की ही ताकत है कि वे नीतियों से लेकर बजट तक सब कुछ कार्पोरेट्स के हितों के मुताबिक बनवाने में कामयाब हो रहे हैं.

यही उदारीकरण है जिसने बड़ी पूंजी और राजनीति के बीच के गठजोड़ को इस कदर संस्थाबद्ध कर दिया है कि दोनों के बीच का फर्क मिट गया है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री से लेकर बड़े अफसर तक हर बड़े-छोटे मंच पर बड़ी पूंजी के हितों की पैरोकारी करते नजर आते हैं. यह मान लिया गया है कि सरकार का काम बड़ी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाना और सभी जरूरी सुविधाएँ मुहैया कराना या फैसिलिटेट करना है.

नतीजा यह कि बिना किसी के अपवाद के सभी सरकारी संस्थाएं और विभाग कार्पोरेट्स के जायज और ज्यादातर मौकों पर नाजायज हितों को पूरा करने के लिए हाथ बांधकर तैयार मिलते हैं. इसलिए सार्वजनिक बैंकों से लेकर अन्य सरकारी वित्तीय संस्थाएं कंपनियों की उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि पिछले दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने कारपोरेट क्षेत्र के नान परफार्मिंग एसेट्स- एन.पी.ए को माफ़ करने के नाम पर अरबों रूपये का उपहार दिया है. यही नहीं, छोटे-बड़े कार्पोरेट्स ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के संसाधनों को मनमाने तरीके और अक्सर नियमों को तोड़कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है. २ जी घोटाले में भी यह सच्चाई उभरकर सामने आ गई है जिसमें कई सरकारी बैंकों और एल.आई.सी जैसी सरकारी वित्तीय संस्था ने नियमों को तोड़कर नए टेलीकाम लाइसेंस धारकों को हजारों करोड़ का कर्ज मुहैया कराया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि ये घोटाले अपवाद नहीं है. यही अब नियम हैं. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि हाल के महीनों में जो घोटाले सामने आए हैं, वे वास्तव में ‘टिप आफ आइसबर्ग’ हैं. वास्तविक घोटाले तो वे हैं जिन्हें नव उदारवादी सुधारों के तहत बाकायदा नियमों और कानूनों की आड़ में आगे बढ़ाया गया है. इस मायने में, नव उदारवाद खुद में एक बड़ा घोटाला है. क्रोनी कह लीजिए या रोबर कैपिटलिज्म यानी लुटेरा पूंजीवाद इसकी कोख से ही पैदा हुआ है. यह कोई भटकाव नहीं बल्कि पूंजीवाद की असलियत है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि देश में भ्रष्टाचार और घोटालों पर चल रही बहस में इसकी चर्चा सबसे कम हो रही है. कारपोरेट मीडिया तो अब भी यही साबित करने में लगा है कि हालिया घोटाले कुछ भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों तक सीमित हैं और उनके जरिये आया क्रोनी कैपिटलिज्म एक भटकाव भर है जिसे विनियामक संस्थाओं- रेगुलेटर्स को मजबूत बना के और अधिक पारदर्शिता के जरिये ठीक किया जा सकता है. लेकिन पिछले दो दशकों के अनुभवों से साफ है कि सच्चाई इसके ठीक उलट है. अधिकांश मौकों पर रेगुलेटर भी उसी कीचड़ में पाए गए हैं जिसमें नेता, अफसर और कार्पोरेट्स पाए गए हैं.

समाप्त : 'समकालीन जनमत' के जनवरी'११ अंक में प्रकाशित

शनिवार, जनवरी 08, 2011

फ्री मार्केट का मतलब है सार्वजनिक संसाधनों के लूट की खुली छूट

कौन कहता है कि कोटा-परमिट और लाईसेंस राज खत्म हो गया?

उदारीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म की दूसरी किस्त

पी. नोट्स के बारे में रिजर्व बैंक से लेकर सेबी तक सबने अनेकों बार चिंता व्यक्त की है. इनसे बाज़ार की स्थिरता के लिए खतरा तो था ही, उनपर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि पी. नोट्स के जरिये माफिया, अपराधी और यहां तक कि आतंकवादी संगठन भी भारतीय बाज़ारों में निवेश कर रहे हैं. हालत यह हो गई थी कि एक समय कुल विदेशी संस्थागत निवेश का लगभग ५० प्रतिशत पी. नोट्स से आ रहा था, जिसके स्रोत के बारे में एफ.आई.आई के अलावा किसी को पता नहीं था. काफी हंगामा होने और दबाव पड़ने के बाद सेबी ने इस साल अप्रैल में पी. नोट्स पर कुछ शर्तें लगाईं लेकिन आज भी कुल एफ.आई.आई निवेश का १५ प्रतिशत पी. नोट्स से ही आ रहा है.


पी. नोट्स के अलावा विदेशों में गया कालाधन हवाला के जरिये रीयल इस्टेट और निर्माण उद्योग में भी आ रहा है. यहां बिना किसी नुकसान के उसके आसानी से सफ़ेद होने की संभावना है. यह और बात है कि सफ़ेद होकर भी यह और कालाधन पैदा करता है. इसकी इसी क्षमता के कारण इसमें सबसे ज्यादा निवेश हो रहा है. बड़ी-बड़ी कंपनियां लैंड बैंक बनाने में जुटी हैं.

यह अकारण नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में अर्थव्यवस्था के सबसे तेज बढ़नेवाले क्षेत्रों में रीयल इस्टेट और निर्माण उद्योग शामिल हैं. इसके कारण जमीन की कीमत में भारी इजाफा हुआ है. इससे विभिन्न राज्यों में जमीन के आवंटन का विशेषाधिकार रखनेवाले मुख्यमंत्रियों की पौ बारह है. आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार के सबसे अधिक आरोप सार्वजनिक जमीन के कौडियों के भाव आवंटन में लगे हैं.

इसी तरह, माइनिंग लाइसेंसों और पट्टों की भी मारामारी मची हुई है. यह मारामारी इसलिए तेज हुई है क्योंकि उदारीकरण के बाद माइनिंग क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया. इसके खुलते ही लौह अयस्क से लेकर अन्य खनिजों के खनन के लिए अधिक से अधिक माइनिंग पट्टों और लाइसेंसों को कब्जाने की कंपनियों में होड़ सी शुरू हो गई. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की दुर्लभता के कारण उन्हें हासिल करने के लिए दिए जानेवाले सुविधा शुल्क में भी उसी अनुपात में वृद्धि हुई. यही नहीं, अवैध खनन को भी बढ़ावा दिया गया क्योंकि उसमें राज्य के खजाने में बिना कुछ शेयर किए पूरा पैसा खनन कंपनी और मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, अफसरों और अपराधियों की जेब में पहुंच जाता है.

पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में इस वैध और अवैध खनन को मंत्रियों-अफसरों और कंपनियों ने किस तरह से सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी की तरह इस्तेमाल किया है, इस लूट का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि झारखंड में एक निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने सिर्फ दो वर्षों में पांच हजार करोड़ रूपये से अधिक का साम्राज्य खड़ा कर लिया.

यही नहीं, माइनिंग उद्योग की ताकत का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश के कई राज्यों जैसे कर्नाटक, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उडीसा में वास्तव में ये माईनिंग कंपनियां और खनन माफिया ही राज्य सरकारें चला रहे हैं. कर्नाटक में भाजपा की येदियुरप्पा सरकार को बेल्लारी के माइनिंग किंग कहे जानेवाले रेड्डी बंधुओं ने पूरी तरह से हाइजैक कर लिया है जबकि झारखंड में माइनिंग माफिया ने ही जोड़तोड़ करके भाजपा-झामुमो की सरकार बनवाई है.

यही मामला एक और दुर्लभ और कीमती संसाधन स्पेक्ट्रम के बंटवारे में भी दोहराई गई है. चाहे वह कांग्रेस के सुखराम के ज़माने में टेलीकाम लाइसेंसों के आवंटन हुई धांधली हो या भाजपाई प्रमोद महाजन के ज़माने में लाइसेंसों के आवंटन और टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस से राजस्व साझेदारी की व्यवस्था में शिफ्ट करने में बरती गई अनियमितताएं हों या अब यू.पी.ए के ए. राजा के कार्यकाल में २ जी लाइसेंसों के आवंटन में हुई मनमानी हो- सरकार चाहे जिस रंग और पार्टी की रही हो, स्पेक्ट्रम आवंटन में हमेशा सैकड़ों-हजारों करोड़ रूपये के वारे-न्यारे हुए हैं. हालत यह हो गई है कि जैसे-जैसे स्पेक्ट्रम कम होता जा रहा है, उसपर कब्जे के लिए मारामारी बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही स्पेक्ट्रम पर कब्जे के दांव भी उंचे होते जा रहे हैं.

यहां तक कि स्पेक्ट्रम के लिए कंपनियों में कारपोरेट युद्ध तक शुरू हो गया है जिससे पूरी सरकार हिल गई है. असल में हो यह रहा है कि स्पेक्ट्रम की कमी और कंपनियों के बीच उसके लिए मची मारामारी के कारण नेताओं और अफसरों के भाव बहुत ज्यादा बढ़ गए हैं. नतीजा यह कि उन्हें प्रभावित करने के लिए लाबीइंग से लेकर तमाम भ्रष्ट तौर तरीके आजमाए गए और मंत्रियों-अफसरों ने इसका फायदा उठाकर अपने चहेतों को लाइसेंस बांटे.

इसे ही कुछ अर्थशास्त्री और विश्लेषक क्रोनी कैपिटलिज्म यानी रिश्तेदारों, चहेतों और करीबियों के एक छोटे से समूह को वैध-अवैध तरीकों से फायदा पहुंचानेवाला पूंजीवाद कहते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उदारीकरण के बाद यह क्रोनी कैपिटलिज्म सबसे ज्यादा फला-फूला है.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई कारणों से हुई है. पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा. सच यह है कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी. लेकिन नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो गए हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना लाइसेंस-कोटा-परमिट है. अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है.

जारी...कल पढ़िए, नव उदारवादी सुधारों के दौर में कार्पोरेट्स की बढती ताकत का...
('समकालीन जनमत' के जनवरी'११ में प्रकाशित)