कांग्रेस तय नहीं कर पा रही है कि वह कार्पोरेट जगत की सेवा करे या गरीबों का ख्याल रखे?
कांग्रेसी अर्थनीति के अंतर्विरोध खुलकर सामने दिखने लगे हैं. इन अंतर्विरोधों के कारण अर्थव्यवस्था खासकर वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी के बावजूद कांग्रेसी राजनीति एक ऐसे गतिरोध में फंस गई है कि २००९ के चुनावों में जीत की चमक साल भर से भी कम समय में फीकी पड़ने लगी है. लेकिन पार्टी ने अपने १२५वें साल के ऐतिहासिक दिल्ली महाधिवेशन में जो आर्थिक प्रस्ताव पेश किया, उसमें न तो कोई नई दृष्टि और विचार है और न ही आर्थिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों का कोई हल.
उदाहरण के लिए महंगाई को ही लीजिए. यह ठीक है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष २०१०-११ की पहली छमाही में आर्थिक वृद्धि की दर ८.९ प्रतिशत तक पहुंच गई है लेकिन इस वृद्धि दर के साथ जुड़े कई अंतर्विरोधों में सबसे बड़ा अंतर्विरोध यह है कि महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है.
आश्चर्य नहीं कि एक ओर कांग्रेस महाधिवेशन में पार्टी अपने आर्थिक प्रस्ताव में यू.पी.ए सरकार को महंगाई से पूरी ईमानदारी और साहस के साथ निपटने और कीमतों पर लगातार नजर रखने की जरूरत पर जोर दे रही थी और दूसरी ओर, पूरे देश में प्याज की कीमतें चढ़ते-चढ़ते ६० से लेकर ९० रूपये किलो तक पहुंच गईं. कीमतों पर नजर रखना तो दूर, सरकार एक बार फिर सोती हुई पकड़ी गई.
जब प्याज संकट बिल्कुल सिर पर आ गया तो भी लोगों को राहत देने के लिए ठोस कदम उठाने के बजाय कृषि मंत्री का बयान आया कि कीमतों को नीचे आने में तीन सप्ताह का समय लग सकता है. वैसे कृषि मंत्री अपनी ऐसी भविष्यवाणियों के लिए मशहूर हो चुके हैं जिनसे महंगाई की आग कम होने के बजाय और भड़क उठती है.
सवाल है कि यू.पी.ए सरकार को प्याज की संभावित किल्लत का अंदाज़ा पहले क्यों नहीं लगा? कीमतों के आसमान पर पहुंच जाने के बाद उठाये गए कदम पहले नहीं उठाये जा सकते थे? मुद्दा सिर्फ प्याज का ही नहीं है. प्याज के अलावा भी लगभग सभी सब्जियों और अन्य जरूरी खाद्य वस्तुओं की महंगाई लगातार असहनीय स्तर पर बनी हुई है लेकिन सरकार के पास सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं है.
यहां तक कि खुद अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री भी पिछले एक साल से हर तीसरे-चौथे महीने मुद्रास्फीति की दर के नीचे आने की समय सीमा बढ़ाते जाते हैं. अब कांग्रेस महाधिवेशन में उन्होंने मुद्रास्फीति की दर के ५.५ प्रतिशत के आसपास ले आने की समय सीमा मार्च तय की है. इससे पहले उन्होंने दिसंबर तक मुद्रास्फीति के काबू में आने की उम्मीद जताई थी.
लेकिन पिछले डेढ़ से दो साल के अनुभव से साफ है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भले ही कांग्रेस महाधिवेशन ने मनमोहन सिंह सरकार से महंगाई के खिलाफ पूरे साहस और सच्चाई के साथ लड़ने का आह्वान किया हो लेकिन तथ्य यह है कि सरकार ने वास्तव में, महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं.
पिछले दो सालों से एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि सरकार पूरी ईमानदारी और साहस के साथ महंगाई से लड़ रही है. मजे की बात यह है कि पार्टी के आर्थिक प्रस्ताव में भी महंगाई के मुद्दे पर उन्हीं बहानों और तर्कों को दोहराया गया है जिनकी दुहाई खुद सरकार भी देती रहती है.
ऐसे में, जब पार्टी भी महंगाई के मुद्दे पर सरकार की भाषा बोल रही है तो इसकी उम्मीद कम है कि सरकार ईमानदारी और साहस से महंगाई रोकने के लिए कुछ करेगी? प्रस्ताव में राज्य खासकर कांग्रेसी राज्य सरकारों से महंगाई पर रोक के लिए जमाखोरों और मुनाफाखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की अपील की गई है. लेकिन यह अपील इतनी पिटी-पिटाई हो गई है कि शायद ही इसे कोई गंभीरता से ले रहा हो.
साफ है कि सरकार के साथ-साथ पार्टी के पास भी बढ़ती महंगाई के निदान की न कोई रणनीति है और न ही कोई इच्छा है. सच यह है कि यू.पी.ए सरकार महंगाई नहीं बल्कि सांख्यिकीय यानी पिछले साल की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल मार्च तक मुद्रास्फीति दर के कम होने का इंतज़ार कर रही है.
कहने की जरूरत नहीं है कि बढ़ती और बेलगाम महंगाई कांग्रेसी अर्थनीति का ऐसा अंतर्विरोध बन गई है जो पार्टी को आनेवाले चुनावों में राजनीतिक रूप से बहुत भारी पड़ सकती है. ऐसा ही दूसरा बड़ा और ज्यादा गहरा अंतर्विरोध यह है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद रोजगार के अवसर अपेक्षित गति नहीं बढ़ रहे हैं. इससे युवाओं में बेचैनी है और गुस्सा बढ़ रहा है.
आर्थिक प्रस्ताव में खुद पार्टी ने कहा है कि ‘रोजगार-विहीन विकास से हर कीमत पर बचा जाना चाहिए.’ लेकिन सच्चाई यह है कि यू.पी.ए-एक सरकार के कार्यकाल के पहले तीन वर्षों में रोजगार वृद्धि की दर पिछले तीन दशकों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई.
एन.एस.एस के एक ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक २००५ से २००८ के बीच तीन वर्षों में कुल २४ लाख रोजगार के अवसर पैदा हुए यानी प्रति वर्ष आठ लाख की दर से जो रोजगार में औसतन सिर्फ ०.१७ प्रतिशत सालाना की वृद्धि दर दिखाता है. यह पिछले तीन दशकों की सबसे न्यूनतम वृद्धि दर है.उल्लेखनीय है कि १९९९ से २००४ के बीच रोजगार वृद्धि की दर सालाना औसतन २.८५ प्रतिशत थी.
इसी तरह खुद सरकारी श्रम ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००९-१० में बेरोजगारी की दर ९.४ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. ध्यान रहे कि अमेरिका में ९.५ प्रतिशत की बेरोजगारी दर पर ओबामा सरकार हिली हुई है. लेकिन भारत में ९.४ फीसदी की ऊँची बेरोजगारी दर के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी अभी भी तेज विकास दर का राग आलापने में लगे हुए हैं.
यही नहीं, रोजगार पैदा करने के सवाल पर पार्टी के आर्थिक प्रस्ताव में वही सरकारी जुमले और योजनाएं दोहराई गई हैं जिन्हें पिछले छह सालों से यू.पी.ए सरकार रट रही है. लेकिन रोजगार के प्रति सरकार और पार्टी के रवैये का पता इस तथ्य से लगता है कि आर्थिक प्रस्ताव में मनरेगा की ‘सफलता’ का ढोल पीटने के बावजूद सरकार १०० दिन रोजगार देने का वायदा पूरा करने में नाकाम रही है. खुद आर्थिक प्रस्ताव के मुताबिक, मनरेगा के तहत वर्ष २००९-१० में औसतन ५४ दिन का रोजगार ही दिया जा सका. इसी तरह, महंगाई में जबरदस्त बढ़ोत्तरी के बावजूद मनरेगा के तहत मजदूरी बढ़ाने के सवाल पर सरकार और पार्टी चुप्पी साधे हुए हैं.
महंगाई और रोजगार के अलावा कांग्रेसी अर्थनीति का एक और बड़ा अंतर्विरोध यह है कि वह तेज विकास दर के साथ समावेशी विकास की बातें चाहे जितनी करे लेकिन तथ्य यह है कि तेज वृद्धि दर से पैदा हो रही समृद्धि का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच रहा है. यह समृद्धि समाज के एक बहुत छोटे वर्ग तक सीमित है और आम आदमी अभी भी हाशिए पर है. गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है.
नतीजा यह कि जमीन पर बेचैनी बढ़ रही है. किसान, मजदूर, युवा, आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों में बढ़ती इस बेचैनी, असंतोष और गुस्से के कारण यू.पी.ए सरकार के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है. विभिन्न योजनाओं के लिए लोग जमीन देने को तैयार नहीं हैं. विरोध के कारण माइनिंग प्रोजेक्ट्स अधर में लटक गए हैं.
इस गतिरोध से बाहर निकलने का तरीका न तो मनमोहन सिंह सरकार को समझ में आ रहा है और न ही कांग्रेस पार्टी को. आर्थिक प्रस्ताव में पार्टी ने इस समस्या को स्वीकार किया है लेकिन इसका मुकम्मल हल उसके पास भी नहीं है. नतीजा, उसने सरकार से १८९४ के भूमि अधिग्रहण कानून में मुकम्मल संशोधन करने की अपील करते हुए उद्योगों को अपने मुनाफे का एक हिस्सा स्थानीय समुदाय खासकर आदिवासी समुदाय के साथ बांटने की बात कही है.
लेकिन करोड़ों भूमिहीनों का क्या होगा, इसके बारे में आर्थिक प्रस्ताव चुप है. इसी तरह, सरकारी खरीद में अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यक समुदाय के ठेकेदारों और आपूर्तिकर्ताओं को वरीयता देने की भी बात कही गई है. जाहिर है कि यह इन समुदायों के एक छोटे लेकिन प्रभावशाली इलीट हिस्से को खुश करने की कोशिश है जिससे गैर बराबरी घटने के बजाय और बढ़ेगी.
कुलमिलाकर, आर्थिक प्रस्ताव में कांग्रेस पार्टी की ऐसी कई दुविधाएं साफ दिखाई पड़ती हैं. वह तय नहीं कर पा रही है कि बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी को खुश करने के लिए सुधारों की गति को तेज करे या गरीबों के दुख-दर्द का ख्याल करे? वह वृद्धि दर को और तेज करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर, सेज से लेकर माइनिंग प्रोजेक्ट्स को जोरशोर से आगे बढ़ाये या गरीब आदिवासियों और पर्यावरण का ध्यान रखे? आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने पर जोर दे या पहले विकास के फल के न्यायोचित बंटवारे को प्राथमिकता दे? कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस की ये दुविधाएं उसके नौ पृष्ठों के लंबे-चौड़े आर्थिक प्रस्ताव में भी दूर होती नहीं दिखाई देती हैं.
नतीजा, तीखे होते आर्थिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों को साधने में कांग्रेस की मध्यमार्गी अर्थनीति की असफलताएं उभरकर सामने आ गई हैं. आर्थिक प्रस्ताव इस असफलता का एक और दस्तावेज है जिसमें कांग्रेसी अर्थनीति की सीमाओं और संकट को साफ देखा जा सकता है. आश्चर्य नहीं कि पूरा दस्तावेज वित्त मंत्रालय या योजना आयोग के किसी नौकरशाह द्वारा तैयार रिपोर्ट ज्यादा मालूम होती है. इससे बेहतर प्रस्ताव तो सोनिया गांधी के नेतृत्ववाली एन.ए.सी तैयार कर सकती थी.
(दैनिक राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट हस्तक्षेप में २५ दिसंबर'१० को प्रकाशित : http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17 पृष्ठ ३)
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