सोमवार, दिसंबर 06, 2010

क्या देश पी. आर डेमोक्रसी बनने की ओर बढ़ रहा है?

तीसरी और आखिरी किस्त

हाल के वर्षों में खासकर आर्थिक उदारीकरण के बाद जहां एक-एक सौदे और लाइसेंस में एक-दो नहीं बल्कि सैंकडों-हजारों करोड़ दांव पर लगे हुए हैं, वहां सौदे हासिल करने में पी.आर और लाबीइंग की ताकत का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.


लाबीइंग कंपनियां सरकार को अपने कारपोरेट क्लाइंट के पक्ष में रखने के लिए हर तिकडम आजमाती हैं. उनमें से ही एक है- मीडिया और पत्रकारों का इस्तेमाल. कई बार उनका इस्तेमाल मंत्रियों और अधिकारियों तक पहुंचने के लिए किया जाता है और कई बार उनके जरिये अपने अनुकूल राजनीतिक माहौल और जनमत तैयार किया जाता है.

इस कारण पी.आर अब सिर्फ पी.आर नहीं है बल्कि वह लाबीइंग और उससे बढ़कर क्राइसिस मैनेजमेंट, इमेज मैनेजमेंट और इश्यू मैनेजमेंट तक पहुंच चुका है जहां पी.आर कंपनियां अपने क्लाइंट्स के हितों को पूरा करने के लिए अपने प्रतिकूल हर सूचना और जानकारी को न सिर्फ मैनेज कर रही है बल्कि जवाब में झूठी सूचनाएं और जानकारियां प्रचारित कर रही हैं.

जाहिर है कि इसके लिए समाचार मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया जाता है. मीडिया एक तरह से पी.आर और लाबींग कंपनियों का अखाडा है जहां वे जनहित के नाम पर अपने क्लाइंट के हितों को आगे बढाती हैं. खबरों को नया स्पिन देती हैं.

इसलिए अगर आप कभी ध्यान से देखें कि चैनलों पर प्राइम टाइम की स्टूडियो चर्चाओं में चाहे वह राजनीतिक मुद्दा हो या आर्थिक या कोई अन्य मुद्दा- कुछ खास चेहरे ही आपको सभी मुद्दों पर स्वतंत्र एक्सपर्ट या सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ेंगे. इनमें सुहेल सेठ, अलिक पद्मसी, शोभा डे, प्रह्लाद कक्कर आदि अत्यधिक मौजूदगी एक खास पैटर्न की ओर इशारा करती है. इसी तरह, कुछ खास स्वतंत्र पत्रकारों जैसे विनोद शर्मा, स्वपन दासगुप्ता, चन्दन मित्र, विनोद मेहता, शेखर गुप्ता आदि की उपस्थिति भी एक स्पष्ट संकेत है.

ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे देश एक “पी.आर. डेमोक्रेसी” की ओर बढ़ रहा है जहां पी.आर और लाबीइंग की आड़ में मीडिया का अंडरवर्ल्ड बड़ी पूंजी और सत्ता के गठजोड़ के हक में जनमत बनाएगा. वह दिन दूर नहीं जब हालत कुछ कुछ ब्रिटेन की तरह होंगे जहां पत्रकारों की तुलना में पी.आर प्रोफेशनलों की संख्या ज्यादा हो चुकी है. निक डेविस के मुताबिक इस समय ब्रिटेन में 47800 पी.आर प्रोफेशनल्स और 45 हजार के आसपास पत्रकार हैं.

साफ है कि पी.आर और लाबीइंग की ताकत दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. मीडिया में सच की कीमत पर झूठ का सिक्का चल निकला है. दर्शकों-पाठकों को सच के नाम पर मैनेज्ड खबरें और विचार परोसे जा रहे हैं. वह दिन दूर नहीं है जब लाबीइंग को पूरी तरह से एक वैध प्रोफेशन बनाने की मांग उठने लगेगी.

('कथादेश' के दिसंबर'१० में प्रकाशित आलेख की आखिरी किस्त)

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