मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

लाबीइंग के चैनल

चैनलों में पत्रकारीय एथिक्स को ठेंगे पर रखने का नतीजा है यह

प्रिय पाठकों, इस बार चर्चा एक ऐसे तमाशे की जो चैनलों के पर्दे पर नहीं बल्कि पर्दे के पीछे चल रही है. समाचार चैनलों की स्टिंग आपरेशन और टेलीफ़ोन टेपों में अतिरिक्त दिलचस्पी आपसे छुपी नहीं है. हालांकि इधर स्टिंग का क्रेज थोड़ा कम हो गया है, अन्यथा एक समय ऐसा था कि चैनलों में स्टिंग दिखाने की होड़ मची रहती थी. चैनलों में स्टिंग आपरेशन करने के लिए अलग से टीमें बनी हुई थीं. यही नहीं, चैनलों ने कोबरा पोस्ट जैसे कई स्वतंत्र समूहों को स्टिंग आपरेशन आउटसोर्स भी कर रखा था.

इसके बावजूद आज भी राजनेताओं, अफसरों, माफियाओं और हीरो-हिरोइनों आदि के स्टिंग आपरेशन या टेलीफ़ोन टेप्स या प्राइवेट गोपनीय वीडियो दिखाते-सुनाते हुए चैनलों का उत्साह देखते ही बनता है. लेकिन इनदिनों एक टेलीफ़ोन टेप के कारण चैनलों और कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग समूचे मीडिया को सांप सूंघा हुआ है. कोई उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं है. उसे सुनाना और दिखाना तो दूर, अधिकांश चैनलों उसका नोटिस लेने को भी तैयार नहीं हैं जबकि वह टेप न सिर्फ २ जी घोटाले से जुड़ा हुआ है बल्कि उसमें राजनीति, बिजनेस और मीडिया जगत के कई बड़े और जाने-माने नाम शामिल हैं.

इस टेलीफ़ोन टेप में कारपोरेट पी.आर और लाबीइंग की दुनिया की जानी-मानी खिलाड़ी नीरा राडिया की २००९ में पूर्व संचार मंत्री ए. राजा, उद्योगपति रतन टाटा से लेकर वीर संघवी, बरखा दत्त, प्रभु चावला जैसे बड़े पत्रकारों से अंतरंग बातचीत रिकार्डेड है. ये बातचीत आयकर विभाग के निर्देश पर की गई थी और सी.बी.आई ने सुप्रीम कोर्ट में इनकी सत्यता प्रमाणित की है. नीरा राडिया टेप्स के नाम मशहूर इन टेप्स में बहुतेरी बातें ऐसी हैं जो सार्वजनिक महत्व की हैं और जिनका सम्बन्ध जनहित से जुडता है.

कहने का मतलब यह कि चैनलों के लिए उसमें ‘खेलने और तानने’ के लिए बहुत ‘मसाला’ है. यही नहीं, इन टेप्स का सम्बन्ध पत्रकारिता की नैतिकता और आचार संहिता से भी है क्योंकि इसमें कई पत्रकार नीरा राडिया जैसे कारपोरेट लाबीइस्ट के इशारों पर नाचते हुए दिखाई देते हैं. इसलिए चैनलों से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं है कि वे न सिर्फ इन्हें सुनायेंगे बल्कि इनपर अपने ‘विशेषज्ञों’ से चर्चा/बहस भी करेंगे. लेकिन ‘सच दिखाते हैं हम’ से लेकर ‘खबर हर कीमत पर’ तक सभी चैनलों पर एक ‘षड्यंत्र भरी चुप्पी’ छाई हुई है.

सभी से सवाल पूछने और सबको कटघरे में खड़ा करनेवाले चैनल नीरा राडिया टेप्स पर न कोई सवाल पूछ रहे हैं और न किसी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं. आखिर क्यों? चैनलों की यह चुप्पी अब बोल रही है. खासकर जब से अंग्रेजी साप्ताहिक ‘ओपन’, ‘आउटलुक’ और ‘मेल टुडे’ आदि पत्र-पत्रिकाओं ने टेप्स की बातचीत न सिर्फ छाप दी है बल्कि उसे अपने वेबसाइट पर मुहैया करा दिया है. इसके बावजूद चैनलों और उनके संपादकों-पत्रकारों की चुप्पी खलनेवाली है. इससे इन आरोपों की पुष्टि होती है कि चैनल खुद अपने अंदर झांकने और अपने विचलनों पर खुलकर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं.

लेकिन कुछ बड़े और स्टार पत्रकारों को बचाने के लिए इस मुद्दे को ब्लैकआउट करके समाचार मीडिया खासकर चैनल न सिर्फ अपनी साख दांव पर लगा रहे हैं बल्कि दूसरे भ्रष्ट और अवैध-अनुचित काम करनेवालों के खिलाफ बोलने की नैतिक शक्ति भी गंवा रहे हैं. इस मुद्दे पर खुली चर्चा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस प्रकरण ने सत्ता, कारपोरेट लाबीज़ और पावर ब्रोकर्स के निरंतर प्रभावी होते गठबंधन में बड़े पत्रकारों-संपादकों की बढ़ती भागीदारी की अब तक दबी-छुपी सच्चाई को सामने ला दिया है. यह भी कि हम-आप चैनलों पर जो देखते हैं, वह काफी हद तक कारपोरेट पी.आर और लाबीइंग कंपनियों द्वारा निर्मित-निर्देशित होता है.

इसके बहुत गहरे निहितार्थ हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में समाचार मीडिया खासकर चैनलों से हम-आप दर्शकों-पाठकों की तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और प्रासंगिक सूचनाओं की जो अपेक्षा रहती है, उसका अनादर किया जा रहा है. यही नहीं, मीडिया की ताकत और प्रभाव का फायदा उठाकर कुछ पत्रकार और चैनल सार्वजनिक नीतियों, फैसलों और यहां तक कि लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को भी तोड़ने-मरोड़ने के खेल में लग गए हैं. यह दर्शकों के विश्वास के साथ एक तरह का धोखा भी है.

इस पूरे प्रसंग में सबसे अधिक दुखद एन.डी.टी.वी जैसे विश्वसनीय माने-जानेवाले चैनल और उसकी पहचान बन चुकी बरखा दत्त जैसी प्रोफेशनल और मेहनती पत्रकार-संपादक का विचलन है. इस टेप से निश्चय ही बरखा के लाखों प्रशंसकों को धक्का लगा है. यह एक चमकते हुए सितारे के टूटने की तरह है. लेकिन यह एक सबक भी है. सबक यह कि चैनल यह न भूलें कि पत्रकारिता की आत्मा उन एथिक्स में है जो उसे साख और नैतिक प्रभामंडल देते हैं. लेकिन हाल के वर्षों में चैनलों में एथिक्स को ठेंगे पर रखने का रिवाज़ सा चल गया है.

हालत यह हो गई है कि जिस संस्थान में मैं पत्रकारिता खासकर एथिक्स पढाता हूँ, वहां मेरे विद्यार्थी अक्सर यह सवाल उठा देते हैं कि जब इनका कहीं आदर और पालन नहीं होता तो यह पढ़ाया क्यों जाता है? यह सवाल मुझे बहुत परेशान करता है. जाहिर है कि मेरे विद्यार्थियों की तरह बहुतेरे युवा पत्रकारों को यह सवाल और भी परेशान करता होगा. इसलिए समय आ गया है जब चैनल न सिर्फ अपने अंदर झांकें बल्कि ऐसी प्रभावी व्यवस्था विकसित करें कि कोई और नीरा राडिया किसी और बरखा को विचलित न कर सके. इसकी शुरुआत इन टेप्स पर चुप्पी से नहीं बात करके ही हो सकती है.

नोट: यह लेख २७ नवम्बर को लिखा गाया था, जब चैनल इसपर चर्चा से कतरा रहे थे. अंग्रेजी के कुछ चैनलों पर बहुत मैनेज्ड तरीके से चर्चा शुरू हुई है लेकिन हिंदी के चैनलों ने अब भी चुप्पी साध रखी है. 
 
(तहलका के १५ दिसंबर'१० के अंक में प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

Brijesh Upadhyay ने कहा…

शासन , प्रशासन सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं , अब उद्योगपति भी , जज भी पीछे नहीं हैं , रही सही कसर पत्रकारों ने भी पूरी कर दी .....पूरे कुँए में ही भंग पड़ी है