चार सालों में कुछ नहीं बदला है समाचार चैनलों की दुनिया में
“लोग आलोचना बहुत करते हैं कि न्यूज चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं. कुछ तमाशा हो, कुछ ड्रामा हो, वह जितनी बार दिखाया जाए, उतनी बार दर्शकों की भारी तादाद उसे देखने खिंची चली आएगी. चाहे मटुकनाथ-जूली की प्रेमकथा हो या मीका-राखी का ‘किस एपिसोड’, लोगों का जी नहीं भरता देख-देखकर.”
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“न्यूज चैनलों के बदलते मिजाज को लेकर कुछ लोग खासकर बुद्धिजीवी किस्म के लोग और अखबार वाले खामखां चिंता व्यक्त कर रहे हैं.बदलते वक्त के साथ न्यूज चैनलों के मिजाज में बदलाव आ रहा है तो गलत क्या है?....हम बुद्धिविलास करके तो चैनल नहीं चला सकते...क्या आप चाहते हैं कि जब दिन भर जिंदगी की जद्दोजहद से जूझकर आदमी घर लौटे तो हम उसे रोना-धोना दिखाएं? छाती पीटने लगें कि देश का विकास नहीं हो रहा है? अगर उसे एश्वर्या राय या रैंप पर चलती कोई माडल या इंदौर में गीत गाती आकांक्षा की ही कहानी दिखाते हैं तो गलत क्या है?”
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“अरे, आजकल न्यूज चैनलों को ये क्या हो गया है. ‘कैसी-कैसी बकवास स्टोरी चला रहे हैं’- मेरी नजर में ऐसे एलार्म की अभी जरूरत नहीं है. इस तरह से रिएक्ट करना जल्दबाजी है. अभी तो न्यूज चैनल लड़कपन के दौर से निकलकर बड़े और समझदार होने के दौर में पहुंच ही रहे हैं...मुझे लगता है कि ऐसी उटपटांग चीजों का दौर अगले ढाई-तीन सालों तक चलेगा. उसके बाद चैनल भी कम होंगे और उनकी क्वालिटी भी सुधरेगी.”
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“यदि आप लोग समाज सेवा या किसी मिशन के भाव से पत्रकारिता करने के लिए इस पाठ्यक्रम में पढ़ रहे हैं तो आप अपना समय खरन कर रहे हैं. मेरी आपको सलाह है कि आप तुरंत अपने गांव या शहर लौट जाएं और अपने मां-बाप के सपनों को टूटने से बचाएं...हां, हम वही दिखाते हैं जो देश की जनता देखना चाहती है. हमें अपना चैनल चलाना है. करोड़ों रूपया हमने चैनल शुरू करने में लगाया है. लाखों रूपया रोज हम लोगों को सूचनाएं पहुंचने के लिए खर्च करते हैं. यदि हमें पैसा वापस नहीं मिलेगा तो हम क्या अपना चैनल बंद करके घर बैठ जाएंगे?”
क्या आप बता सकते हैं कि ये ‘महान विचार’ किसके हैं? आपका अंदाज़ा बिल्कुल सही है कि ये विचार चैनलों से जुड़े लोगों के ही हो सकते हैं. तथ्य यही है कि ये सभी समाचार चैनलों के मौजूदा और पूर्व संपादक हैं. इनमें से क्रम से सबसे पहले ‘लोकप्रिय और नंबर एक’ चैनल ‘आज तक’ के संपादक कमर वहीद नकवी, फिर ‘आपको आगे रखनेवाले’ स्टार न्यूज के पूर्व संपादक उदय शंकर, उनके बाद ‘हमेशा सच दिखाने’ का दावा करनेवाले एन.डी.टी.वी-इंडिया के संपादक रहे दिबांग और फिर ‘खबर हर कीमत’ पर वाले चैनल आई.बी.एन-७ के संपादक आशुतोष के विचार हैं.
साथ ही यह भी जान लें कि ये ‘महान विचार’ जनवरी’२००७ में साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के मीडिया विशेषांक में छपे थे. यानी आज से कोई चार साल पहले. इन विचारों को एक बार फिर यहां उद्धृत करने के पीछे इरादा यह था कि देखा जाए कि इन चार सालों में चैनलों की दुनिया में कितना बदलाव आया है? कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है.
लेकिन चैनलों की दुनिया लगता है, वहीँ ठहरी हुई है. आज से चार साल पहले चैनल जो कुछ और जैसे दिखा रहे थे, उसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है. आज भी चैनलों खासकर हिंदी समाचार चैनलों पर पांच सी- सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, सेलेब्रिटीज और कामेडी का ही बोलबाला है.
ऐसा लगता है कि इन चार सालों में चैनलों का मानसिक और बौद्धिक विकास रुक सा गया है. चैनलों ने जहां से शुरू किया था, वहां से आगे बढ़ने के बजाय उनमें लगातार नीचे गिरने की ही होड़ चल रही है. असल में, आज से चार-पांच साल पहले टी.वी चैनलों पर दिखाए जानेवाले कंटेंट की क्वालिटी और स्तर को लेकर संपादकों का तर्क हुआ करता था कि चैनलों की उम्र अभी कम है.
चैनलों की लफंगई पर कुछ संपादकों को लगता था कि यह उनके ‘लड़कपन का दौर’ (राजदीप सरदेसाई के मुताबिक पागलपन) है और अगले कुछ वर्षों में उनमें मैच्योरिटी आ जायेगी. लेकिन मैच्योरिटी तो दूर, उम्र बढ़ने के बावजूद ऐसा लगता है कि चैनलों का दिल अभी भी ‘बच्चा’ ही है. लड़कपन ही स्थाई भाव बन गया है.
यह ठीक है कि अख़बारों की उम्र की तुलना में चैनलों के ये चार साल और कुल १० साल की उम्र कुछ भी नहीं हैं. लेकिन कई बार हम दूसरों के अनुभव से भी सीखते हैं. लगता है कि चैनलों ने दूसरों के अनुभवों से तो दूर अपने खुद के अनुभव से भी कुछ न सीखने की कसम सी खा ली है. नतीजा, चैनलों का, बकौल राजदीप सरदेसाई, पागलपन बढ़ता ही जा रहा है. इससे चैनलों के अंदर निराशा, क्षोभ, कुंठा, हताशा, तनाव और पस्तहिम्मती का आलम है.
आश्चर्य नहीं कि कई संपादकों ने जो कल तक बढ़-चढ़कर चैनलों के बचाव में तर्क दिया करते थे, वे अब अपनी नैतिक हार स्वीकार करने लगे हैं. यही नहीं, जिन्होंने चैनलों में एथिक्स को बाहर का दरवाजा दिखा दिया था, राडियागेट के बाद वे ही एथिक्स की दुहाई देने लगे हैं. एथिक्स एक बार फिर फैशन में है. लेकिन क्या इससे चैनलों की दुनिया में कुछ बदलेगा? शायद नहीं. कारण, जब तक चैनलों का टी.आर.पी एजेंडा इंडिया टी.वी तय कर रहा है और सभी उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं, तब तक किसी बदलाव की उम्मीद करना बेकार है.
(समाचार पत्रिका 'तहलका' के ३१ दिसंबर के अंक में प्रकाशित)
4 टिप्पणियां:
... saarthak charchaa !!!
बड़ी ही माकूल टिप्पणी है सर। आशुतोषजी का कहना है कि करोड़ों रूपए लगाकर चैनल खोला है तो महोदय, आपको अगर चांदी कूटनी तो कोई फैक्ट्री खोलिए। पत्रकारिता का लबादा ओढकर क्यों जनता को गुमराह कर रहे हैं। बड़ा ही बेतुका तर्क है कि जनता यह सब देखना चाहती है। इंटरनेट पर 70 फीसदी ट्रैफिक पोर्न साइटों को मिलता है तो क्या आप पोर्न दिखाना शुरू कर देंगे। सवाल यह नहीं है कि जनता क्या देखना चाहती है बल्कि यह कि जनता को क्या देखना चाहिए।
अरविंद
sudharne ki koi junjayish nahi hai sir, upper k logo nai sidhanto sai samjhota kar liya hai aur niche k log adambar sai aage badna sikh rahe hai...aise mai jab aapko nahi pata ki HC aur HC mai sai kaun saa court bada hai tu koi baat nahi...aapko nahi pata ki IAS aur mantri kaa kya matlab hota hai tu bhi koi baat nahi...yaha tak ki aap ye bhi nahi jante ki saina nehwal bhartiya hai ya nahi tu bhi aapko kaam kai sath sath patrakar ka tamka dai diya jata hai...aise mai is mishran sai sudhar ki jagah satyanash ki hi kamna ki jaa sakte hai..(SIR, JO BHI BAATE LIKHI HAI WO SATH MAI KAAM KARNE AAYE EK BADE CHANNEL KI MAHILA MEDIAKARMI HAI NAI PUCHE THE)
हमें वैकल्पिक व्यवस्थाओं के बारे में भी सोचना चाहिए। समाज-व्यवस्था पीछे नहीं जाती। आगे ही जाती है। कारोबार से जुड़े लोगों में जो होड़ है वह फिलहाल सस्ते रास्ते से गुजरती है। उनमें विकल्प देने की काबिलियत नहीं है, साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी और गुणात्मक उत्कृष्टता के लिए कोई पुरस्कार नहीं है। सच है कि आम दर्शक और पाठक सुरुचि सम्पन्न नहीं है। उसके सामने विकल्प भी नहीं है। दिनभर हाड़ तोड़कर और तनाव में जीने वाले व्यक्ति को रैम्प का कैट वाक किस तरह से सुकून पहुँचाता है, मुझे समझ में नहीं आता, पर सुकून पहुँचाता भी है तो यह पलायन है।
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