सरकार का इक़बाल खत्म हो रहा है
पिछले तीन सप्ताहों से संसद ठप्प है. आशंका है कि संसद का शीतकालीन सत्र ऐसे ही निकल जायेगा. कारण? विपक्ष की मांग है कि अब तक के सबसे बड़े २ जी घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय जांच समिति गठित की जाए. लेकिन यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस जे.पी.सी के लिए कतई तैयार नहीं है. दूसरी ओर, विपक्ष भी अपनी मांग पर अड़ा हुआ है. दोनों के टकराव में कोई भी पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं है.
यह टकराव इस हद तक पहुंच चुका है कि न संसद में कोई कामकाज हो रहा है और न ही सरकार कोई काम कर पा रही है. एक साथ कई घोटालों से घिरी और कारपोरेट समूहों के आपसी युद्ध में सरकार एक तरह से पंगु सी हो गई है. खुद प्रधानमंत्री सवालों के घेरे में हैं. वह लाचार से दिख रहे हैं. उनकी लाचारी का ताजा उदाहरण सी.वी.सी पी.जे थामस के मुद्दे पर सरकार की फजीहत के बावजूद कोई स्पष्ट फैसला न कर पाने के रूप में दिख रहा है. मंत्रिमंडल का विस्तार रुका हुआ है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के डेढ़ साल के अंदर ही अपनी नैतिक सत्ता और इक़बाल गंवाती हुई दिख रही है.
लेकिन पिछले तीन सप्ताहों से संसद से लेकर सरकार तक में कामकाज न हो पाने के बावजूद यू.पी.ए सरकार का हठी और बेपरवाह रवैया समझ से बाहर है. 2 जी घोटाले की जे.पी.सी से जांच न कराने को लेकर सरकार खासकर कांग्रेस का तर्क है कि विपक्ष सिर्फ राजनीति कर रहा है. उसकी रणनीति जांच से ज्यादा सरकार खासकर प्रधानमंत्री को परेशान और अपमानित करने की है. सरकार जे.पी.सी के बजाय संसद की लोक लेखा समिति- पी.ए.सी और सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सी.बी.आई से जांच के हक में है.
लेकिन सरकार के तर्क में कोई खास दम नहीं है. अगर विपक्ष राजनीति के कारण जे.पी.सी की मांग कर रहा है तो यह भी तय है कि कांग्रेस उसका राजनीति के कारण ही विरोध कर रही है. आखिर कांग्रेस राजनीति से घबरा क्यों रही है? राजनीति अपने आप में कोई बुराई नहीं है बल्कि अरस्तू की मानें तो राजनीति, मनुष्य की सृजनात्मकता की सबसे उच्चतर अभिव्यक्ति है.
आखिर राजनीति क्या है? राजनीति और कुछ नहीं, लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की सामूहिक अभिव्यक्ति है. राजनीति तब गडबड हो जाती है जब वह व्यापक जनसमुदाय की इच्छाओं और अपेक्षाओं के बजाय मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थों को पूरा करने का माध्यम बन जाती है. सवाल है कि संसद के मौजूदा गतिरोध में किसकी राजनीति व्यापक सार्वजनिक हित में है? सच पूछिए तो लोग सच जानना चाहते हैं. वे चाहते है कि इस घोटाले के दोषियों को सजा मिले और लूटे हुए पैसे सरकारी खजाने में वापस आएं.
लेकिन कांग्रेस को यह डर सता रहा है कि अगर जे.पी.सी बनती है तो उसमें संसद की मौजूदा संख्या के आधार पर सत्ता पक्ष और खासकर कांग्रेस अल्पमत में रहेगी और उसे समर्थन के लिए बी.एस.पी और सपा जैसे दलों की खुशामद करनी पड़ेगी. दूसरे, उसे यह भी डर लग रहा है कि यह समिति प्रधानमंत्री समेत अन्य मंत्रियों को भी पूछताछ के लिए बुला सकती है. तीसरे, उसे आशंका भी घेरे हुए है कि विपक्ष जे.पी.सी की बैठकों और उसकी रिपोर्ट को अगले छह महीनों में होनेवाले विधानसभा चुनावों में एक बड़े मुद्दे की तरह इस्तेमाल कर सकता है. चौथे, उसके डर का एक कारण यह भी है कि इस मामले ने चुनावों के बाद से बिखरे विपक्ष को एकजुट कर दिया है.
इन सभी राजनीतिक कारणों से कांग्रेस जे.पी.सी के लिए तैयार नहीं है. लेकिन उसका यह अड़ियल रूख सरकार की साख को खत्म कर रहा है. उसके इस रूख के कारण लोगों में यह सन्देश जा रहा है कि यू.पी.ए सरकार जरूर कुछ छुपाने की कोशिश कर रही है. इसकी वजह यह है कि २ जी घोटाला कोई मामूली भ्रष्टाचार और घोटाला नहीं है. यह अब तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है जिसमें सरकारी खजाने को कोई १.७६ लाख करोड़ रूपये का चूना लगा है. यह रकम देश के मौजूदा शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, नरेगा आदि के सम्मिलित बजट से भी ज्यादा है. यही नहीं, यह मौजूदा योजना बजट का लगभग ४५ फीसदी है.
साफ है कि यह मामूली रकम नहीं है और न ही कोई ‘काल्पनिक नुकसान’- नोशनल लॉस- भर है जैसाकि कांग्रेस का दावा है. लेकिन मुद्दा सिर्फ आर्थिक नुकसान का ही नहीं है. तथ्य यह है कि यह सीमित राष्ट्रीय संसाधन- स्पेक्ट्रम की निजी और कारपोरेट हितों में लूट का मामला है. इसे किसी भी तरह से हल्के में नहीं लिया जा सकता है. इसे हल्के में लेने का अर्थ यह होगा कि देश निजी देशी-विदेशी निवेशकों और कंपनियों को यह सन्देश दे रहा है कि वह राष्ट्रीय संसाधनों के सार्वजनिक हित में इस्तेमाल को लेकर बेपरवाह है.
इसका नतीजा यह हो सकता है कि देशी-विदेशी कंपनियां स्पेक्ट्रम की तरह अन्य सीमित राष्ट्रीय संसाधनों जैसे तमाम खनिजों आदि के साथ भी यही व्यवहार कर सकती हैं. इस घोटाले की जड़ तक पहुँचना और सभी दोषियों को सजा दिलवाना इसलिए भी जरूरी है कि इसे भविष्य के लिए एक नजीर बनाया जा सकता है. यह नजीर पेश करना इसलिए जरूरी है कि यू.पी.ए सरकार उदारीकरण के तहत अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में निजी देशी-विदेशी कंपनियों को आमंत्रित कर रही है और सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह इन कंपनियों को सार्वजनिक हित में नियंत्रित करे.
लेकिन अगर बाड़ ही खेत खाने लगे तो क्या होगा? निश्चय ही, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सबसे संदेहास्पद भूमिका सरकार खासकर तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा की है. यह भी ठीक है कि इस घोटाले का सबसे अधिक फायदा देशी-विदेशी कंपनियों ने उठाया लेकिन उन्हें इसका मौका संचार मंत्रालय ने दिया. लेकिन इस पूरे मामले में गठबंधन सरकार होने के बावजूद खुद प्रधानमंत्री और पूरा मंत्रिमंडल भी अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकता है.
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2 टिप्पणियां:
ए राजा ने प्रधानमंत्री, मंत्रियों के समूह, कानून मंत्री और अटार्नी जनरल के मना करने के बावजूद अगर स्पेक्ट्रम अपने लाडले कंपनियों को औने-पौने दाम पर दे दिया तो जाहिर सी बात है कि कोई 'ऐसी सर्वोच्च ताकत' उसे शह दे रही थी जो प्रधानमंत्री से भी ऊपर की चीज है। अब मौजूदा यूपीए गठबंधन में ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि वो कौन हो सकता है जिसके इशारे पर ए राजा ने मनमोहन सिंह की ऐसी-तैसी कर दी। और 'उसी ताकत' को बचाने के लिए कांग्रेस का पूरा तंत्र जेपीसी की मांग नहीं होने देना चाहता। ये बात धीरे-2 साफ होती जा रही है कि ए राजा ने सिर्फ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए या डीएमके प्रमुख के इशारे पर इतना बड़ा घोटाला नहीं किया बल्कि इसमें कांग्रेस के 'बड़े' लोग शामिल हैं और वे बड़े निश्चित तौर पर मनमोहन सिंह या प्रणव मुखर्जी नहीं है।
mr. prime minister is a puppet. he is our p.m. but he still possess the virtues of a beaurocrat. so we do not expect any thing from him.
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