रविवार, दिसंबर 26, 2010

सरकार ने महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं

क्यों नहीं रुक रही है महंगाई?



महंगाई की सुरसा का बदन लगातार फैलता ही जा रहा है. नवंबर के तीसरे सप्ताह में जब मुद्रास्फीति के आंकड़े दहाई के बजाय इकाई में आये तो थोड़े समय के लिए ऐसा लगा कि महंगाई अब शायद नीचे की ओर आ रही है. लेकिन प्याज और टमाटर सहित अन्य सब्जियों की कीमतों में भारी उछाल ने एक बार फिर महंगाई की आग में घी डालने का काम किया है.

आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं. ११ दिसम्बर को समाप्त हुए सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति की दर एक बार फिर उछलकर दो अंकों में पहुंच गई है. इसके पहले के सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति की दर ९.५ प्रतिशत थी जो इस सप्ताह बढ़कर १२.१ प्रतिशत हो गई है.

खाद्य मुद्रास्फीति की यह १२.१ प्रतिशत की दर इस मायने में बहुत ज्यादा है कि पिछले साल इसी सप्ताह खाद्य मुद्रास्फीति की दर २० वर्षों के सबसे उंचे स्तर २१.१३ प्रतिशत पर पहुंच गई थी. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले वर्ष के इतने अधिक उंचे आधार या बेस पर इस साल १२.१ प्रतिशत की दर से साफ हो गया है कि महंगाई पर यू.पी.ए सरकार का कोई काबू नहीं रह गया है. असल में, यह महंगाई इसलिए भी अधिक चुभ रही है कि पिछले २३ महीने से ज्यादा समय से मुद्रास्फीति की दर लगातार दहाई में चल रही है.

यह तय है कि अगले सप्ताह भी मुद्रास्फीति के ये आंकड़े नीचे आने के बजाय ऊपर ही जाएंगे क्योंकि अभी पिछले सप्ताह ही पेट्रोल की कीमतों में भी तीन रूपये प्रति लीटर के आसपास वृद्धि की गई है. आसार हैं कि सरकार जल्दी ही डीजल की कीमतों में भी वृद्धि करेगी. इसका क्रमानुपातिक यानी कैसकेडिंग प्रभाव होगा और सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़नी तय हैं क्योंकि परिवहन के साथ वस्तुओं के उत्पादन की लगत बढ़ जायेगी. दूसरी ओर, कृषि मंत्री शरद पवार की मानें तो प्याज और अन्य सब्जियों आदि की कीमतों में अगले तीन-चार सप्ताहों तक कमी आने की कोई उम्मीद नहीं है.

यह और बात है कि उनका बयान लोगों को राहत देनेवाला कम और जले पर नमक छिडकने वाला अधिक था. वैसे उनके बयान से सट्टेबाजों, कालेबाजारियों और मुनाफाखोरों को खुलकर खेलने का मौका जरूर मिल गया. यह सचमुच हैरान करनेवाली बात है कि ऐसे सभी मौकों पर पवार ऐसे बयान किसके फायदे के लिए देते हैं? यू.पी.ए के कृषि मंत्री के बतौर पवार की भूमिका निश्चित ही सवालों के घेरे में है. उल्लेखनीय है कि पवार के पास न सिर्फ कृषि बल्कि खाद्य और उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय भी है लेकिन हर ऐसे सीजनल संकट के समय जब किसी न किसी खाद्य या कृषि उत्पाद की आपूर्ति में कमी के कारण कीमतों पर दबाव बढ़ा, ये दोनों मंत्रालय सोते हुए मिले.

हैरानी की बात यह है कि इस बार भी जब प्याज के दाम तेजी से बढ़े तो सरकार सोती हुई मिली. हालांकि तथ्य यह है कि खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय में १४ जिंसों (प्याज सहित) की देश के ३७ बाजारों में खुदरा और थोक कीमतों की नियमित निगरानी की उच्च स्तरीय व्यवस्था है. यही नहीं, कई प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों की एक समिति भी समय-समय पर आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों, आपूर्ति, उत्पादन और निर्यात-आयत पर निगाह रखती है. कैबिनेट की कीमतों पर एक अलग कमिटी है लेकिन यह जानते हुए भी कि बेमौसमी बारिश से प्याज की फसल खराब हो गई है और इसके कारण कीमतें बढ़ सकती हैं, किसी भी स्तर पर कोई अग्रिम पहल नहीं हुई.

ऐसा लगता है कि सबने महंगाई की सुरसा के आगे हथियार डाल दिए हैं. मनमोहन सिंह सरकार स्वीकार करे या न करे लेकिन यही सच है कि सरकार महंगाई से हार चुकी है. इसका सबूत यह है कि खुद प्रधानमंत्री मुद्रास्फीति की दर में कमी आने की समयसीमा लगातार बढ़ाते जा रहे हैं. पिछले साल कहा गया कि रबी की अच्छी फसल के बाद कीमतें काबू में आ जाएंगी लेकिन मार्च-अप्रैल में भी कीमतें बेरोकटोक बढ़ती रहीं. फिर कहा गया कि अच्छे मानसून और खरीफ की फसल से दिसंबर तक स्थिति सुधरने लगेगी. लेकिन अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि मार्च तक मुद्रास्फीति ५.५ प्रतिशत तक आ जायेगी.

इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि महंगाई से मुकाबले में सरकार कितनी दयनीय स्थिति में है. जाहिर है कि वह अपने बचाव में बहाने ढूंढने में लगी है. वह पिछले दो सालों से लगातार इस तेज महंगाई के लिए तीन कारण बता रही है. पहला, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जिंसों खासकर पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं.

दूसरे, देश में किसानों की स्थिति बेहतर करने के लिए उनकी फसलों की न्यूनतम कीमत में भी काफी बढ़ोत्तरी की गई है. तीसरे, लोगों की आय में इजाफा होने के कारण भी खाद्य वस्तुओं की मांग बढ़ी है. यू.पी.ए सरकार के मुताबिक इन तीनों कारणों से खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ी हैं.

लेकिन यह अर्ध सत्य है. सच यह है कि महंगाई इन तीन कारणों से इतर वजहों से बढ़ रही है. बेलगाम महंगाई के लिए एक साथ कई कारण जिम्मेदार हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण है, खाद्यान्नों की उत्पादन वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है बल्कि कई मामलों में गिरावट आ रही है. यह कृषि क्षेत्र में पिछले कई वर्षों की गतिरुद्धता का नतीजा है. दूसरे, कृषि जिंसों में वायदा कारोबार के कारण सट्टेबाजी काफी ज्यादा बढ़ गई है.

इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष २००९-१० में देश के सभी जिंस बाजारों में कुल ७७,६४,७५४ करोड़ रूपये का वायदा कारोबार हुआ जो वर्ष २००८-०९ की तुलना में ४८ प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि भारत के वर्ष ०९-१० के कुल सालाना बजट से ७.५ गुना ज्यादा है.

इसके साथ ही, कृषि उत्पादों के कारोबार में कई बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के घुसने के कारण जमाखोरी, कालाबाजारी और मुनाफाखोरी बढ़ी है. सरकार उनके आगे लाचार सी दिख रही है. इसके अलावा महंगाई का चौथा सबसे बड़ा कारण सरकार की अक्षमता, लापरवाही, नीतिगत विफलता और महंगाई से लड़ने के मामले में सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति का न होना है. अक्सर यह देखा जा रहा है कि महंगाई के मुद्दे पर न सिर्फ केन्द्र और राज्य सरकारों में कोई तालमेल नहीं है बल्कि केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के बीच भी जमकर खींचातानी होती रहती है.

यही नहीं, सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि केन्द्र सरकार खुद सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है. खाद्य संकट और कीमतों के आसमान छूने के बावजूद सरकार के गोदामों में ३० नवंबर’१० को गेहूं और चावल का रिकार्ड ४.८४ करोड़ टन भंडार था जो बफर के नार्म के तीन गुने से ज्यादा है. ऐसे में, महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा? साफ है कि यू.पी.ए सरकार वास्तव में, महंगाई से ईमानदारी नहीं लड़ रही है और न लड़ना चाहती है. ऐसे में, महंगाई की सुरसा को तांडव करने की खुली छूट मिल गई है.

('दैनिक हरिभूमि' में २६ दिसंबर'१० को प्रकाशित)