शनिवार, दिसंबर 04, 2010

मीडिया के अंडरवर्ल्ड से सबसे अधिक खतरा लोकतंत्र को है

सत्ता, पूंजी और लाबीइंग के खेल में मीडिया

“भारतीय गणतंत्र अब बिकाऊ है. इसके लिए लग रही बोली में ताकतवर लोग, कारपोरेट घराने, दलाल, नौकरशाह और पत्रकार सभी शामिल हैं.”
- साप्ताहिक ‘आउटलुक’ (कवर स्टोरी, 29 नवंबर’10)

समाचार मीडिया का एक अंडरवर्ल्ड है. यह किसी से छुपा नहीं है. हाल के वर्षों में उसका न सिर्फ तेजी से विस्तार हुआ है बल्कि वह बेरोक-टोक फल-फूल रहा है. यह एक ऐसा सच है जिसके बारे में सब जानते हैं, समाचार मीडिया को नजदीक से जाननेवालों और पत्रकारों की निजी बातचीत में उसके बारे में खूब चर्चा भी होती है लेकिन सार्वजनिक चर्चाओं में शायद ही उसका कभी जिक्र होता हो. हालांकि यह अनेक कारणों से लोक महत्व का बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है लेकिन उसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाने को लेकर एक खास तरह की ‘षड्यंत्र भरी चुप्पी’ (कांस्पिरेसी आफ साइलेंस) मीडिया और अन्य मंचों पर दिखाई पड़ती है.

मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड के बारे में चर्चा से परहेज की कई वजहें हो सकती हैं. इसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि संख्या में कम होते हुए भी यह अंडरवर्ल्ड बहुत संगठित, ताकतवर, प्रभावशाली और इसका नेटवर्क बहुत व्यापक है. इसमें मीडिया समूहों के मालिक, टाप मैनेजर, वरिष्ठ संपादक और टाप रिपोर्टर शामिल हैं. इस अंडरवर्ल्ड का सीधा सम्बन्ध पावर लाबीज़ और पावर ब्रोकर - सत्ता के दलालों- से है या कहिये कि मीडिया का अंडरवर्ल्ड पावर लाबीज़ का अनिवार्य हिस्सा है. इस पावर लाबी में टाप उद्योगपतियों, नौकरशाहों, राजनेताओं और उनके दलालों के साथ-साथ मीडिया समूहों के मालिक, संपादक और वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं.

आज बिना किसी जोखिम के कहा जा सकता है कि यही पावर लाबीज़ और सत्ता के दलाल केन्द्र और राज्यों की सरकारें चला रहे हैं. सरकारें चाहें जिस पार्टी या गठबंधन की हों लेकिन उनकी नीतियों और फैसलों पर इन पावर लाबीज़ और पावर ब्रोकर्स की छाप साफ देखी जा सकती है. इस पावर लाबी की ताकत और प्रभाव का अंदाज़ा 2 जी घोटाले में आ रहे नामों से लगाया जा सकता है जिसमें टेलीकाम मंत्री ए. राजा के अलावा उद्योगपतियों, कारपोरेट समूहों, अफसरों, राजनेताओं के साथ-साथ नीरा राडिया जैसे पी.आर और लाबीइंग मैनेजरों और एन.डी.टी.वी की ग्रुप एडिटर बरखा दत्त और हिंदुस्तान टाईम्स के संपादकीय निदेशक वीर संघवी भी शामिल हैं.

यहां यह उल्लेख करते चलना जरूरी है कि टाटा समूह और मुकेश अम्बानी के रिलायंस समूह जैसे बड़े कारपोरेट समूहों के लिए सत्ता के गलियारों में लाबीइंग करनेवाली नीरा राडिया (वैष्णवी कम्युनिकेशन और नोएशिस स्ट्रेटेजिक कम्युनिकेशन आदि पी.आर और लाबीइंग कंपनियों की मालिक) और बरखा दत्त, वीर संघवी, प्रभु चावला और एम.के वेणु जैसे वरिष्ठ पत्रकारों की प्राइवेट फोन बातचीत के टेप हाल ही में जारी हुए हैं.

हालांकि इन सभी पत्रकारों का अपनी सफाई में यह कहना है कि ये बातचीत एक पत्रकार और उसके सूत्र (सोर्स) के बीच की बातचीत है जिसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन इन टेपों में बातचीत के ऐसे कई प्रसंग हैं जो एक पत्रकार और उसके सूत्र के बीच वैध बातचीत की सीमाओं का उल्लंघन लगती हैं. उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि ये वरिष्ठ पत्रकार भी सत्ता की दलाली और लाबीइंग के खेल में कहीं न कहीं से शामिल हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि 2 जी घोटाले और उससे जुड़े इस टेप प्रसंग की चर्चाएं पिछले कई महीनों से हवाओं में थीं. यहां तक कि नीरा राडिया के टेप्स का उल्लेख संसद से लेकर बाहर तक भी हुआ लेकिन मीडिया के स्टार पत्रकारों की भूमिका पर फिर भी किसी ने बात करने की हिम्मत नहीं की. लेकिन अब उनके छपने और कई वेबसाइट्स पर आ जाने के बाद यह सवाल उठाने लगा है कि मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड पर खुद मीडिया में और उससे बाहर बात क्यों नहीं होती है?

असल में, आपसी गलाकाट प्रतियोगिता के बावजूद इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर सभी मीडिया समूहों और संपादकों में एक तरह की अलिखित सहमति है कि एक-दूसरे के बारे में खासकर एक-दूसरे के अवैध और अनुचित कामों के बारे में तब तक न कुछ छापेंगे और न दिखाएंगे जब तक कि वह बिल्कुल सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं बन जाए और जिसे छुपाना असंभव हो.

क्या इसकी वजह यह है कि इस खेल में अलग-अलग स्तरों पर सभी कहीं न कहीं से शामिल हैं? अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. दूसरे, जो इक्का-दुक्का मीडिया समूह और पत्रकारों का बड़ा हिस्सा इस खेल में शामिल नहीं है, वह भी उनके ताकत और प्रभाव के कारण कुछ बोलने-कहने में हिचकिचाता है. आखिर इन मीडिया समूहों को भी कारपोरेट समूहों से विज्ञापन और सरकार से सहूलियतें चाहिए और दूसरी ओर, अधिकांश पत्रकारों के सामने नौकरी और कैरियर की चिंता होती है. माना जाता है कि अगर आपने मीडिया के अंडरवर्ल्ड की कारगुजारियों पर सार्वजनिक चर्चा की तो एक प्रोफेशनल पत्रकार के रूप में मीडिया में आपका टिके रहना मुश्किल हो जायेगा.

कुछ ऐसे संजीदा और समझदार लोग भी हैं जो एक खास समझदारी के तहत मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड के बारे में चर्चा नहीं करना चाहते हैं. उनका मानना है कि देश में अब कुछ ही संस्थाएं ऐसी बची हैं जिनसे अभी भी लोगों को उम्मीद है और जो कुछ भटकावों के बावजूद अपनी भूमिकाएं और जिम्मेदारियां निभा रही हैं. न्यायपालिका, चुनाव आयोग और सी.ए.जी के साथ-साथ समाचार मीडिया भी इनमें से एक है. उनका मानना है कि अगर इनकी भी साख पर प्रश्नचिन्ह लग गया तो देश में लोकतंत्र का चलना और उसका जीवित रहना मुश्किल हो जायेगा.

खुद चुनाव आयोग के मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई.कुरैशी ने कुछ समय पहले एक गोष्ठी में यह चिंता जाहिर की थी. इसी तरह, नीरा राडिया टेप्स के सामने आने के बाद सुचेता दलाल जैसी पत्रकार भी इस तरह की आशंका जाहिर कर रही हैं.

इस चिंता की मूल भावना से सहमत होते हुए सवाल यह है कि जो समाचार मीडिया सबकी जिम्मेदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करता है, उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही कौन तय करेगा? क्या उसकी कोई जवाबदेही नहीं है? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मीडिया की साख बचाने के नाम पर उसके अंडरवर्ल्ड और उसकी कारगुजारियों पर चुप रहने से लोकतंत्र बच जायेगा?

असल में, मीडिया के अंडरवर्ल्ड से सबसे अधिक खतरा लोकतंत्र को ही है क्योंकि वह धीरे-धीरे पूरे समाचार मीडिया को हाइजैक करता जा रहा है. चिंता की बात यह है कि पावर लाबीज़ और ब्रोकर्स के साथ मिलकर मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड ने समाचार मीडिया को उसकी लोकतान्त्रिक भूमिका और जिम्मेदारियों से दूर करना और सत्ता, बड़ी पूंजी और ताकतवर लोगों की सेवा में लगाना शुरू कर दिया है.

यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि आज मीडिया का यह अंडरवर्ल्ड खुद लोकतंत्र के साथ क्या खिलवाड़ कर रहा है? पेड न्यूज का विवाद सबके सामने है. खबरों की खरीद-फरोख्त के इस संगठित खेल ने सबसे अधिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को ही नुकसान पहुँचाया है. इसने न सिर्फ पाठकों-दर्शकों के जानने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन किया है बल्कि उनके साथ दिखा भी किया है. इस प्रसंग को यहीं छोड़ते हैं क्योंकि इस बारे में पिछले कई महीनों से काफी चर्चा हो रही है. लेकिन पेड न्यूज का यह खेल सिर्फ चुनावों के समय खबरों की खरीद-फरोख्त तक सीमित नहीं रहा है. इसका दायरा बहुत बड़ा है और यह धीरे-धीरे सभी तरह की खबरों, फीचर और संपादकीय विचारों तक फ़ैल चुका है.
(बाकी कल...)
(मासिक 'कथादेश' के दिसंबर'१० में प्रकाशित लेख की प्रथम किस्त)

कोई टिप्पणी नहीं: