मंगलवार, अक्टूबर 12, 2010

भोजन के अधिकार के नाम पर आम आदमी को ठेंगा

माफ़ कीजिये, दिल्ली में कामनवेल्थ के नाम पर जो लूट मची हुई है और गरीबों को उजाडने का अभियान चल रहा है, वह केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है. सच पूछिए तो यह यूपीए-दो के नेतृत्व में गरीबों को ठेंगा दिखाने के राष्ट्रीय खेल का ही हिस्सा है.

सूचनाओं के मुताबिक सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) की ताजा बैठक में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने साफ-साफ कह दिया है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करनेवालों को हर महीने तीन रूपये किलो की दर से ३५ किलो चावल या गेहूं देने का कानूनी अधिकार अगली पंचवर्षीय योजना यानी २०१२ से पहले लागू करना संभव नहीं होगा.

यही नहीं, रिपोर्टों के मुताबिक प्रधानमंत्री से लेकर यू.पी.ए सरकार के अधिकांश मंत्री और अफसर खाद्य सुरक्षा के किसी व्यापक कानूनी अधिकार को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. एन.ए.सी की बैठक में अहलुवालिया ने कहा कि परिषद के सदस्यों के सुझाये मुताबिक अगर कानून बना तो खाद्य सब्सिडी का खर्च एक लाख दस हजार करोड़ रूपये तक पहुंच जायेगा जिसके लिए मौजूदा योजना में प्रावधान नहीं है. उनका यह भी कहना था कि ऐसी स्थिति में इसे लागू करने के लिए मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं के मद में से ही कटौती करनी पड़ेगी.

बैठक में मौजूद केन्द्र सरकार के अन्य आला अफसरों ने भी इशारों ही इशारों में कह दिया कि खाद्य सुरक्षा का व्यापक प्रावधान मौजूदा संसाधनों के बीच संभव नहीं है. ऐसे संकेत हैं कि खुद सोनिया गांधी भी एन.ए.सी के कई उत्साही सदस्यों से सहमत नहीं हैं और किसी बीच के रास्ते के पक्ष में हैं.

उधर, प्रधानमंत्री ने सड़ाने के बजाय गरीबों में मुफ्त अनाज बांटने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जवाब में जिस तरह से साफ-साफ कह दिया है कि मुफ्त अनाज बांटना संभव नहीं है, उससे स्पष्ट है कि उनकी सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं?

ऐसे में, एक खाद्य सुरक्षा के एक व्यापक कानूनी अधिकार की उम्मीदें दिन पर दिन कमजोर पड़ती जा रही हैं. खबरों के मुताबिक यू.पी.ए सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर एक आधे-अधूरे, सीमित और मौजूदा प्रावधानों में ही जोड़-घटाव करके एक ऐसा कानून बनाने की तैयारी कर रही है जिसमें अधिक से अधिक बी.पी.एल परिवारों को प्रति माह तीन रूपये किलो की दर से ३५ किलो गेहूं या चावल देने का प्रावधान हो सकता है.

सरकार इसमें दालें और खाद्य तेल भी शामिल करने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि यह संभावना है कि समझौते के बतौर बी.पी.एल परिवारों की संख्या योजना आयोग के मौजूदा अनुमानों के बजाय तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर ३७ प्रतिशत स्वीकार कर ली जाए.

यह भी चर्चा है कि भोजन के सार्वभौम अधिकार के बजाय इस सीमित खाद्य सुरक्षा कानून को स्वीकार करने के बारगेन में योजना आयोग बी.पी.एल परिवारों की संख्या को बढ़ाने के लिए भी तैयार है. लेकिन वह यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि बी.पी.एल और ए.पी.एल के कृत्रिम और बेमानी विभाजन को खतम करके सभी को एक व्यापक और पोषणयुक्त भोजन का कानूनी अधिकार दिया जाए. इसके बजाय वह ए.पी.एल परिवारों को अनाजों के आर्थिक मूल्य यानी खरीद और रख-रखाव मूल्य पर २५ किलो तक अनाज देने का प्रस्ताव कर रहा है.

मजे की बात यह है कि इस मामले में सोनिया गांधी भी योजना आयोग के तर्कों से सहमत हैं. बताया जाता है कि उन्होंने बैठक में सवाल उठाया कि क्या गरीबों को बुरा नहीं लगेगा कि गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को भी उनकी तरह ही अनाज मिल रहा है? क्या मासूम सवाल है?

‘कौन न मर जाए ए खुदा इस सादगी पर, लड़ते तो हैं पर हाथ में तलवार नहीं!’ लेकिन वास्तव में, यह तर्कों और तथ्यों को सिर के बल खड़ा करने का एक और उदाहरण है. जिस देश में खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोई ७८ फीसदी आबादी प्रतिदिन २० रूपये से भी कम पर गुजर करने के लिए मजबूर है, वहां बी.पी.एल और ए.पी.एल जैसे विभाजन का से बेमानी बात और क्या हो सकती है?

लेकिन जो सरकार गरीबों को उजाडने और बर्बाद करने पर तुली है, वह उनके खाद्य सुरक्षा के लिए भला क्यों चिंतित होने लगी. आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए सरकार इन सीमित प्रस्तावों को भी एक साथ पूरे देश में लागू करने के तैयार नहीं है. इसके बजाय वह इन्हें शुरू में देश के सबसे पिछड़े १५० जिलों में लागू करने के पक्ष में है. हैरानी और अफसोस की बात यह है कि एन.ए.सी को भी इससे कोई खास ऐतराज नहीं है.

साफ है कि कई जन पक्षधर सामाजिक कार्यकर्ताओं और अर्थशास्त्रियों की मौजूदगी और सुपर कैबिनेट के दर्जे के बावजूद एन.ए.सी भी थोड़े फेरबदल के साथ यू.पी.ए के नव उदारवादी गरीब विरोधी आर्थिक-सामाजिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में हिस्सेदार बनती जा रही है. खाद्य सुरक्षा के नाम पर होने जा रहे इस मजाक पर मुहर लगाने का आखिर और क्या मतलब निकला जा सकता है?

("समकालीन जनमत", अक्तूबर में प्रकाशित) 

1 टिप्पणी:

केशव कुमार ने कहा…

sir har sarkari yojnao ka sach yahi . harishankar parsai to aishi har yojna ki ghoshna se dar jate the. unse kafi pahle mahapran nirala ne likha tha 'raje ne apni rakhwali ki' yah kavita hamesha rajniti ke charitra ko paribhashit karta rahega.