गुरुवार, दिसंबर 31, 2009
आप सभी को नए साल की बधाइयाँ और शुभकामनाएं देते हुए एक छोटी सी सूचना भी देनी थी..नए साल की कई योजनाओं में एक योजना यह भी है कि अब नियमित रूप से ब्लॉग पर भी लिखना है...हालाँकि साल की शुरुआत की प्रतिज्ञाओं का क्या होता है, वह मुझे अच्छी तरह से पता है। देखें इस बार क्या होता है? वैसे इरादा पक्का है।
जैसाकिआप जानते हैं अभी तक मेरे दो विद्यार्थी - रितेश और उनके बाद हिमांशु इस ब्लॉग को चला रहे थे..वे मेरे अख़बारों में छपे लेखों को ब्लॉग पर भी डाल दिया करते थे। मैं खासकर रितेश का बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने काफी दिलचस्पी लेकर यह ब्लॉग शुरू करवाया और नियमित रूप से मेरे लेखों को इस पर डालते रहे..उनके व्यस्त होने के बाद यह जिम्मेदारी हिमांशु उठा रहे थे।
लेकिन मैं खुद बहुत दिनों से सोच रहा था कि मुझे ब्लॉग पर कुछ नियमित और स्वतंत्र रूप से भी लिखना चाहिए..लेकिन कुछ आलस्य, कुछ झिझक, कुछ टाइपिंग न जानने और कुछ व्यस्तताएं- ब्लॉग पर अपना लिखना नहीं हो पाया..लेकिन अब कोशिश रहेगी कि ब्लॉग पर नियमित रूप से कुछ लिखा करूँ।
आप सभी की राय की प्रतीक्षा रहेगी और हाँ, शुभकामनाओं की भी...आखिर हम भी तो देखें कि ब्लॉगिंग का आनंद क्या है? और यह भी कि क्या यह कुछ गंभीर बहसों और चर्चाओं का मंच बन सकता है?
शनिवार, दिसंबर 26, 2009
- आनंद प्रधान
असल में, झारखंड के मतदाताओं के पास इसके अलावा कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. उनके पास जो विकल्प उपलब्ध थे, उनमें से सभी को वे आजमा चुके हैं और उनकी असलियत से परिचित हैं. यह तो नतीजों से साफ है कि वे इनमें से किसी को झारखंड की सत्ता सौंपने के लिए तैयार नहीं थे. इसमें जनता का कोई दोष नहीं है. आखिर वह और क्या कर सकती थी? वह मौजूदा दलों और गठबन्धनों में किसे और किस आधार पर बहुमत देती? झारखंड में सार्वजनिक सम्पदा और धन की लूट की राजनीति में मुख्यधारा के किस दल और गठबंधन का दामन साफ है? सच तो यह है कि झारखंड के इस हम्माम में सभी नंगे हैं. इसलिए जब नंगों के बीच ही चुनाव का विकल्प हो तो आम मतदाताओं की कठिनाई को आसानी से समझा जा सकता है.
सच यह है कि मुख्यधारा की बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने झारखंड के मतदाताओं को नए नारों और वायदों से छलने की कोशिश की जिसे लोगों ने नकार दिया. आज जो त्रिशंकु विधानसभा बनी है, उसके लिए मतदाता नहीं बल्कि झारखंड के नेता और पार्टियां जिम्मेदार हैं. क्या यह सोचने की बात नहीं है कि झारखंड में सत्ता की दावेदारी कर रही दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस और बी.जे.पी को लोगों ने राज्य की आधी सीटों के लायक भी नहीं समझा है? दोनों ही पार्टियों को राज्य की कुल विधानसभा सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें ही मिल पाई हैं. साफ है कि झारखंड के मतदाताओं ने इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नकार दिया है. उन्हें शासन का जनादेश तो कतई नहीं मिला है. यह उनके लिए सबक है.
ऐसे ही क्षेत्रीय दलों जैसे शिबू सोरेन के नेतृत्ववाली झामुमो, बाबूलाल मरांडी की झाविमो, लालू प्रसाद की आर.जे.डी को भी मतदाताओं ने अपने विश्वास के लायक नहीं पाया. यही कारण है कि ये तीनो भी मिलकर एक तिहाई के आसपास ही सीटें जीत पाए हैं. यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी सबक है. यही नहीं, जहां तक संभव हो सका मतदाताओं ने अपने मौजूदा विधायकों को भी सबक सिखाने कि कोशिश की है. पिछली विधानसभा के 81 में से सिर्फ 20 "माननीय" विधायक ही दोबारा चुनाव जीत कर वापस लौट पाए हैं. साफ है कि मौजूदा स्थितियों में झारखंड के मतदाता जो कर सकते थे, उन्होंने वह किया है. उन्होंने सबको सबक सिखाने की कोशिश की है.
असल में, यह सबक से ज्यादा पूरे राजनीतिक वर्ग को एक गंभीर चेतावनी है. उन्हें इस जनादेश में छिपे उस अविश्वास को जरूर पढ़ना चाहिए जो झारखंड की जनता ने उनके प्रति व्यक्त किया है. यह जनादेश बताता है कि झारखंड में मुख्यधारा के राजनीतिक दल और नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर विफल हो गए हैं. उनके कारण ही वह राज्य जो जनता के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों के बाद बना, अब एक "विफल राज्य" बनता जा रहा है. विकास और गवर्नेंस के किसी भी सूचकांक पर देख लीजिये, अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आगे बढ़ना तो दूर पीछे ही गया है. आज झारखंड को छोटे राज्यों के खिलाफ एक तर्क और उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है. अब तो लोगों की उम्मीदें भी टूटने लगी हैं. वे निराश हो रहे हैं. इन्हीं टूटती हुई उम्मीदों की किरचें आप इस जनादेश में देख सकते हैं.
लेकिन लगता नहीं है कि झारखंड के इस सबक और चेतावनी को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने गंभीरता से लिया है. वे अपने अन्दर झांकने और गंभीर आत्मालोचना के बजाय झारखंड की जनता को ही दोषी ठहराने पर तुल गई हैं. कहा जा रहा है कि झारखंड की जनता ने खुद त्रिशंकु विधानसभा बनाकर राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त की राजनीति को प्रोत्साहित किया है. यह कहने के पीछे एक छिपी हुई धमकी भी है कि अब जनता को ही इस त्रिशंकु विधानसभा के कारण पैदा होनेवाली राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ - खरीदफरोख्त की राजनीति की कीमत चुकानी पड़ेगी. भाजपा के चतुर-सुजान और महापंडित तो अंगूर खट्टे होने के अंदाज़ में यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी ने बहुत कोशिश की लेकिन झारखंड की जनता ने भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई को मुद्दा नहीं माना, इसीलिए पार्टी को बहुमत नहीं दिया. गोया भाजपा ईमानदारी और सुशासन की प्रतीक हो और उसे सत्ता मिल जाने पर महंगाई तुरंत छू-मंतर हो जाती.
साफ है कि झारखंड के नतीजों से इन पार्टियों ने कोई सबक नहीं सीखा है. यही कारण है कि एक बार फिर से राज्य में सत्ता की बंदरबांट शुरू हो गई है. सत्ता की मलाई के लिए नीलामी लगनी शुरू हो गई है. मोलतोल हो रहा है. लेनदेन के आधार पर सौदे पटाए जा रहे हैं. इसमें कोई पीछे नहीं है. सब कह रहे हैं कि उनके सभी "विकल्प" खुले हैं. किसी में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह कहे कि उसे जनादेश नहीं है और वह विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है. साफ है कि झारखंड में सत्ता पर दांव बहुत ऊंचे हैं. कोई भी सत्ता की उस मलाई को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है जिसकी "संभावनाएं" पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और उनके साथियों के कार्यकाल में जगजाहिर हो चुकी हैं. सभी इन "संभावनाओं" का दोहन करने के लिए बेकरार हैं.
इसलिए आश्चर्य नहीं होगा, अगर झारखंड में " साफ सुथरी, ईमानदार और आम आदमी के हित में काम करनेवाली सरकार" के नारे के साथ एक निहायत ही अवसरवादी गठबंधन सरकार बना ले जिसमें एक बार फिर से वही पार्टियां और चेहरे हों जिनपर झारखण्ड की जनता के साथ दगा करने के आरोप हैं. एक बार फिर बाई डिफाल्ट वे सरकार में होंगें, जिन्हें झारखण्ड की जनता ने शासन चलाने लायक नहीं समझा. कहने की जरूरत नहीं है कि केवल सत्ता की गोंद से चिपका ऐसा कोई भी अवसरवादी गठबंधन और उसकी सरकार उन पिछली सरकारों से किसी भी तरह से अलग नहीं होगी जिनपर झारखंड को लूटने और कुशासन के गंभीर आरोप रहे हैं. वास्तव में, जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त के आधार पर बननेवाली कोई भी सरकार जनता की नहीं बल्कि झारखण्ड की कीमती खनिज संसाधनों के दोहन में लगी देशी-विदेशी कंपनियों, पट्टेदारों, ठेकेदारों, माफियाओं और नेताओं-नौकरशाहों की सेवा ही करेगी.
यही सच है और यही झारखण्ड जैसे खनिज संसाधन संपन्न राज्यों की त्रासदी की सबसे बड़ी वजह भी है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता की जड़ें वास्तव में राज्य में सार्वजनिक धन और खनिज और प्राकृतिक सम्पदा की खुली लूट में धंसी हुई हैं और उसे वहीँ से खाद-पानी मिल रहा है. राजनीतिक प्रक्रिया को भ्रष्ट देशी-विदेशी कंपनियों, खदान मालिकों, ठेकेदारों, राजनेताओं, माफियाओं और नौकरशाहों के मजबूत गठजोड़ ने बंधक बना लिया है. इस हद तक कि सरकार चाहे जिस रंग और झंडे की हो, राज इसी गठजोड़ का चलता है. सच यह है कि राज्य की सभी पार्टियां, उनके नेता और तथाकथित निर्दलीय इस गठजोड़ के मोहरे भर हैं. मोहरे और चेहरे बदलने से राज नहीं बदलता. यही कारण है कि झारखंड में राजनीतिक प्रक्रिया बेमानी होकर रह गई है. इस बेमानी प्रक्रिया से किसी मानी जनादेश की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस गठजोड़ की ताकत राज्य के कीमती खनिज और प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक धन के लूट पर टिकी हुई है. इस लूट का कुछ अनुमान मधु कोड़ा और उनके साथियों के खिलाफ लगे आरोपों से लगाया जा सकता है. हालांकि झारखंड बनाने की लड़ाई के केंद्र में सबसे बड़ा मुद्दा इसी लूट को रोकना था लेकिन अफसोस की बात यह है कि राज्य बनने के बाद से यह लूट और तेज हुई है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2000 - 01 में राज्य से दोहन किये गए खनिजों का कुल मूल्य 459 करोड़ रूपये था जो सिर्फ छह वर्षों में 22 गुना उछलकर 10201 करोड़ हो गया. यह कानूनी खनन के आंकड़े हैं जबकि नेताओं-नौकरशाहों की शह पर फलफूल रहे गैरकानूनी खनन के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना थोडा मुश्किल है लेकिन मोटे अनुमानों के अनुसार राज्य में कुल कानूनी खनन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत गैरकानूनी खनन हो रहा है. कुछ लोगों का तो मानना है कि गैरकानूनी खनन, कानूनी खनन के बराबर पहुंच चुका है.
आश्चर्य नहीं कि इस बीच राज्य के माननीय विधायकों की संपत्ति में भी इसी अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है. इलेक्शन वाच के मुताबिक झारखंड में दोबारा चुनाव लड़ रहे 37 विधायकों की संपत्ति में पिछले 5 साल में 3454 प्रतिशत की रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है. पांच साल में कानूनी संपत्ति में साढ़े चौंतीस गुना की बढ़ोत्तरी कोई मामूली "उपलब्धि" नहीं है. इसने खनिज संसाधनों के दोहन में 22 गुना वृद्धि के रिकार्ड को भी पीछे छोड़ दिया है. लेकिन इसी बीच झारखंड के गांवों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद बढ़कर लगभग 52 तक पहुंच गई है. यही नहीं, मानवीय, सामाजिक और आर्थिक विकास के हर सूचकांक पर झारखंड के गरीब आदिवासी सबसे निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि खनिज संसाधनों के दोहन और माननीय विधायकों की संपत्ति में रिकार्डतोड़ वृद्धि और राज्य में 50 फीसदी से अधिक गरीबों की तादाद के बीच सीधा सम्बन्ध है.
शायद यही कारण है कि झारखंड "धनी राज्य के गरीब निवासी" का एक त्रासद और दुखद उदाहरण बन गया है. जाहिर है कि राज्य को इस दुष्चक्र से निकालने की उम्मीद उस राजनीतिक वर्ग से नहीं की जा सकती है जिसके निहित स्वार्थ इस दुष्चक्र के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि झारखंड में इस दुष्चक्र से बाहर निकालने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं? ऐसा बिलकुल नहीं है लेकिन मुख्यधारा के मौजूदा राजनीतिक दलों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है. झारखंड की मुक्ति राज्य के प्राकृतिक और खनिज संसाधनों और सार्वजनिक धन की लूट के खिलाफ और गरीबों और आदिवासियों को रोजगार, सम्मान और "जल, जंगल और जमीन" पर अधिकार देने के अजेंडे के साथ शुरू होनेवाले एक बड़े जनांदोलन के गर्भ से ही हो सकती है. पिछले दो चुनावों के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि मौजूदा बाँझ चुनावी राजनीति से कुछ नहीं निकलनेवाला है. जनांदोलन की आग ही झारखंड की राजनीति के कूड़े-करकट को खत्म कर सकती है. सवाल है कि इस चुनौती को कौन स्वीकार करेगा?
(जनसत्ता, २६ दिसम्बर'०९ )
शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009
- आनंद प्रधान
इन दिनों मुंबई शेयर बाज़ार में जो बूम सा दिख रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ।एफ.आई) की है. एफ.एफ.आई वे विदेशी निवेशक हैं, जो दुनिया भर के बाज़ारों में अधिक से अधिक मुनाफे की तलाश में चक्कर लगाते रहते हैं और जिन्हें उनके इसी चंचल स्वभाव के कारण आवारा पूंजी भी कहा जाता है. तात्पर्य यह कि इस वित्तीय पूंजी का कोई घर नहीं है और अपने निवेशकों को अधिक से अधिक मुनाफा दिलाने के लिए वह हमेशा आकर्षक ठिकानो की तलाश में रहती है. कहने कि जरूरत नहीं है कि अपने मकसद को हासिल करने के लिए उसे सट्टेबाजी और 'बाज़ारों में जोड़तोड़' (मैनिपुलेशन) से कोई परहेज नहीं है बल्कि यह उसकी चारित्रिक विशेषता है.
जाहिर है कि वफ़ादारी एफ.एफ.आई का स्वभाव नहीं है और न ही उन्हें किसी खास देश से कोई प्यार है. आज वे टूट कर भारत की ओर दौड़े चले आ रहे हैं लेकिन अगर कल उन्हें भारत की तुलना में रूस या ब्राज़ील या मलेशिया का बाज़ार ज्यादा मुनाफा देता हुआ दिखाई देने लगे तो उन्हें भारतीय बाज़ारों से अपना पैसा निकालकर निकलने में जरा भी देर नहीं लगेगी. वे जितनी तेजी से आते हैं, उससे भी अधिक तेजी से निकल जाते हैं. लेकिन अपने पीछे "कारवां गुजर गया,गुबार देखते रहे" के अंदाज में ध्वस्त शेयर बाज़ार और अर्थव्यवस्था छोड़ जाते हैं. उदाहरण के लिए, भारत में 2005 में 10.71 अरब डालर का एफ.एफ.आई निवेश आया लेकिन 2006 में यह गिरकर 8.10 अरब डालर रह गया. पर फिर 2007 में 17.65 अरब डालर पहुंच गया लेकिन अगले साल 11.97 अरब डालर की पूंजी निकाल गई. ऐसे एक नहीं बल्कि दर्जनों देशों खासकर विकासशील देशों के उदाहरण हैं जहां पिछले दो दशकों में एफ.एफ.आई के निकलते ही न सिर्फ उस देश का शेयर बाज़ार औंधे मुंह गिरा बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था ही संकट में फंस गई.
यही कारण है कि दुनिया भर में एफ.एफ.आई के जरिये आनेवाली पूंजी को लेकर संबंधित देशों में एक आशंका और चिंता की भावना बनी रहती है. यही नहीं, मेक्सिको-चिली से लेकर दक्षिण एशियाई देशों के वित्तीय संकट में एफ.एफ.आई की सीधी भूमिका के बाद से इस विदेशी निवेश को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है. इसीलिए उसे नियंत्रित करने की मांग अलग-अलग तबकों से आती रही है. अब पिछले साल के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से तो एफ.एफ.आई निवेश को नियंत्रित करने को लेकर बहस और तेज हो गई है. इस बीच कई मंचों पर एफ.एफ.आई को नियंत्रित करने को लेकर मांगें भी उठी हैं और प्रस्ताव भी आये हैं. यहां तक कि आमतौर पर एफ.एफ.आई के निर्बाध प्रवाह की मांग करनेवाले विकसित देशों और उनके मंचों जी-7 और जी-20 में भी छिटपुट ही सही यह मांग उठने लगी है. इस बहस के बीच ब्राज़ील ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए इस साल अगस्त में विदेशी पूंजी के प्रवाह यानि देश में आने-जाने पर दो प्रतिशत की दर से एक टैक्स लगा दिया है. इस फैसले के बाद दुनिया के कई और देशों में एफ.एफ.आई निवेश पर नियंत्रण और उसके बेहतर प्रबंधन के लिए ऐसे ही कड़े और साहसिक फैसले करने की मांग उठने लगी है.
जाहिर है कि भारत के लिए भी ये एक महत्वपूर्ण सवाल है. इसके कई कारण हैं. पहली बात यह है कि भारत भी पिछले कुछ वर्षों से एफ.एफ.आई निवेशकों के बड़े आकर्षण के केंद्र के रूप में उभरा है. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अकेले इस साल जनवरी से मध्य नवम्बर तक 15 अरब डालर (71900 करोड़ रूपये) से अधिक का एफ.एफ.आई निवेश देश में आ चुका है. माना जा रहा है कि अगले डेढ़ महीनो में यह बढ़कर 18 अरब डालर से अधिक पहुंच सकता है. यह एक नया रिकार्ड होगा. इससे पहले, 2007 में 17.65 अरब डालर का रिकार्ड एफ.एफ.आई निवेश आया था. कहने की जरूरत नहीं है कि एफ.एफ.आई निवेश की इस बाढ़ के कारण ही मुंबई शेयर बाज़ार रोज नई उड़ान भर रहा है.
लेकिन यह निवेश अपने साथ कई समस्याएं भी लेकर आ रहा है. रिजर्व बैंक के लिए चुनौती यह है कि वह इसका प्रबंधन कैसे करे? दरअसल, इस निवेश के साथ आनेवाला डालर रूपये को लगातार मजबूत कर रहा है यानि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत बढ़ रही है. पिछले छह महीनो में रूपये की कीमत 5 प्रतिशत से अधिक बढ़ चुकी है जिसके कारण आयात सस्ता और निर्यात महंगा हो रहा है. यह उन निर्यातकों के लिए एक बुरी खबर है जो पहले ही पिछले तेरह महीनो से लगातार गिरते निर्यात के कारण परेशान हैं. लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती यह है कि डालर के अत्यधिक प्रवाह से बाज़ार में अधिक मुद्रा की आपूर्ति के कारण तरलता बहुत बढ़ गई है जिससे मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ रही है. इसके कारण रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में वृद्धि का भारी दबाव है.
असल में, भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने अधिक डालर को समाहित करने की क्षमता नहीं है. पर इस सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस अत्यधिक डालर प्रवाह के कारण शेयर बाज़ार से लेकर अन्य सभी परिसंपत्तियों की कीमतें असामान्य रूप से बहुत तेजी से और उनकी वास्तविक कीमत से काफी ज्यादा बढ़ रही हैं. इससे बाज़ार में एक बुलबुला बन रहा है जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है. तथ्य यह है कि कुछ सट्टेबाजों और मौजूदा स्थिति से खुश लोगों के अलावा बाज़ार से जुड़े अधिकांश लोगों का भी यह मानना है कि एक बुलबुला बन रह है. दोहराने कि जरूरत नहीं है कि यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी के कारण हो रहा है जो एफ.एफ.आई यानि आवारा पूंजी की सबसे बड़ी चारित्रिक विशेषता है. लेकिन चिंता की बात यह है कि हर बुलबुले की तरह यह बुलबुला आज नहीं तो कल जरूर फूटेगा. बुलबुले के फूटने की कीमत पूरी अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है.
यह इसलिए और भी चिंता की बात है कि वैश्विक मंदी की मार से उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्था एक और झटके को शायद ही बर्दाश्त कर पाए. लेकिन वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी को इसमें चिंता की कोई बात नहीं दिखाई नहीं देती है. उनका दावा है कि सरकार के पास इस पर निगरानी की व्यवस्था मौजूद है और जब भी कोई गड़बड़ी दिखाई देगी, सरकार उससे निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है. सवाल है कि जब एफ.एफ.आई के जरिये इतनी अधिक और इतनी तेजी से आ रहे डालर को लेकर रिजर्व बैंक समेत अधिकांश विश्लेषक और एसोचैम जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठन चिंतित हैं और उसे नियंत्रित करने का आग्रह कर रहे हैं तो वित्त मंत्री इतने निश्चिंत क्यों हैं? ब्राज़ील की तरह इस तरह के वित्तीय पूंजी के प्रवाह पर 2 फीसदी टैक्स लगाने को लेकर प्रणव मुखर्जी उत्साहित क्यों नहीं हैं?
असल में, वित्त मंत्री की निश्चिंतता उनकी लाचारी और मज़बूरी का नतीजा है. यह भारतीय अर्थव्यवस्था में आवारा वित्तीय पूंजी की असीमित ताकत और लगातार बढ़ते प्रभाव का भी सबूत है. हालत यह हो गई है कि कोई भी सरकार और वित्त मंत्री इसे नाराज करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है. एक तरह से अर्थनीति उनकी बंधक बन चुकी है. सरकारों और उनके वित्त मंत्रियों को ऐसा लगता है कि अगर एफ.एफ.आई नाराज हुए तो अपनी पूंजी लेकर वापस चले जायेंगे जिसके कारण शेयर बाज़ार ध्वस्त हो जायेगा. अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी. दूसरी ओर, यह लोभ भी रहा है कि अगर एफ.एफ.आई खुश रहे तो ज्यादा से ज्यादा डालर लेकर आयेंगे जिससे बाज़ार समेत पूरी अर्थव्यवस्था में फील गुड का माहौल बना रहेगा. इसी भय और लोभ के कारण पिछले 16 वर्षों में हर वित्त मंत्री ने आवारा पूंजी को और अधिक खुश करने के लिए लगातार रियायतें दी हैं.
इसके कारण शेयर बाज़ार तो पूरी तरह से एफ.एफ.आई के कब्जे में चला गया है. वहां अब पत्ता भी उनकी मर्जी से ही हिलता है. स्थिति यह हो गई है कि पिछले साल वैश्विक वित्तीय संकट के बाद जब एफ.एफ.आई भारत से कोई 12 अरब डालर की पूंजी निकालकर ले गए तो शेयर बाज़ार धडाम से गिर गया था. अब फिर इसलिए चढ़ रहा है क्योंकि 15 डालर से ज्यादा की पूंजी आ चुकी है. ऐसे में, प्रणव मुखर्जी अर्थव्यवस्था को जोखिम में डालकर भी एफ.एफ.आई को नाराज करने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे लगता है कि सरकार के स्तर पर सोच यह है कि अभी कोई कदम उठाकर शेयर बाज़ार में जारी पार्टी को क्यों बिगाड़ा जाए? अभी तो चढ़ते शेयर बाज़ार के लिए वाहवाही लूटने का वक्त है, जब कोई संकट आएगा तो देख लिया जायेगा.
लेकिन बाज़ार जितना ही चढ़ता जायेगा, सरकार के लिए कोई कड़ा फैसला करना उतना ही मुश्किल होता जायेगा. उलटे सरकार एफ.एफ.आई के हाथों में बंधक बनती जाएगी और वे नियंत्रण के बजाय ज्यादा रियायतों की मांग करेंगे तो सरकार के सामने उसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा. अब तक यही होता रहा है. लेकिन यह बहुत उपयुक्त समय था जब सरकार एफ.एफ.आई को काबू में करने की गंभीर कोशिश करती. इस समय एफ.एफ.आई के पास भी बहुत विकल्प नहीं है और वैश्विक तौर पर भी उन्हें नियंत्रित करने के पक्ष में माहौल है. ब्राज़ील ने शुरुआत करके दिखा भी दिया है कि एफ.एफ.आई अजेय और काबू से बाहर नहीं हैं. लेकिन न जाने यू.पी.ए सरकार इससे क्यों हिचक रही है?
जाहिर है कि एफ.एफ.आई के सामने इस घुटनाटेकू नीति के कारण ही अर्थनीति पर विदेशी वित्तीय पूंजी का दबाव बढ़ता ही जा रहा है और सरकार जाने-अनजाने एक बड़े संकट को आमंत्रित करती दिख रही है जिसकी कीमत अंततः देश के करोड़ों आम लोगों को चुकानी पड़ेगी.
(समकालीन जनमत, दिसंबर 2009 से साभार)
मंगलवार, दिसंबर 22, 2009
खबर क्यों नहीं है पत्रकारों की छंटनी ?
जानी-मानी टी.वी कम्पनी टी.वी- 18 ने अभी हाल में अपने बिजनेस समाचार चैनलों से एक झटके में 200 से ज्यादा मीडियाकर्मियों को निकाल दिया. इनमें काफी संख्या में पत्रकार भी हैं. लेकिन इस खबर को अधिकांश अखबारों और चैनलों ने खबर नहीं माना. इसलिए ये खबर कहीं नहीं छपी या चली, सिवाय कुछ ब्लॉगों के. इससे पहले भी पिछले एक साल में कई अखबारों और टी.वी समाचार चैनलों में मंदी के नाम पर या उसके बहाने सैकड़ों पत्रकारों की छंटनी हुई, बाकी के वेतन में कटौती हुई और नई भर्तियों पर रोक लगा दी गई लेकिन उसकी भी कोई खबर कहीं नहीं दिखाई दी. टिप्पणी या चर्चा तो दूर की बात है.
सवाल यह है कि पत्रकारों की छंटनी खबर क्यों नहीं बनती है? क्या यह खबर नहीं है? शायद आपको याद हो, पिछले साल जब जेट एयरवेज ने इसी तरह अपने कुछ सौ कर्मचारियों को निकला था, तब चैनलों ने उस खबर को खूब उछाला था. उस व्यापक कवरेज के कारण जो जनदबाव बना, उसकी वजह से जेट को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था. फिर पत्रकारों और चैनलकर्मियों को निकले जाने की खबर को इस तरह ब्लैकआउट करने की वजह क्या है? यही नहीं, निकाले गए चैनलकर्मियों के हक़ में किसी पत्रकार संगठन या यूनियन या चैनलों के संपादकों की संस्था- ब्राडकास्ट एडिटर्स संगठन ने भी कुछ नहीं कहा. गोया कुछ हुआ ही नहीं हो. अलबत्ता उसी के आसपास चैनलों के संपादक और खुद सभी चैनल आई.बी.एन लोकमत पर शिव सैनिकों के हमले को लोकतंत्र पर हमला बताते हुए सर आसमान पर उठाये हुए थे.
इरादा इन दोनों घटनाओं की तुलना करने का नहीं है और न ही आई.बी.एन लोकमत पर हुए हमले को काम करके आंकने का है. लेकिन चैनलों के संपादकों से यह अपेक्षा तो थी कि वे एक झटके में दो सौ से ज्यादा चैनलकर्मियों को निकाले जाने का खुला विरोध नहीं तो कम से कम चैनलों के प्रबंधन से अपनी शिकायत जरुर दर्ज कराएंगे. अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ. आखिर यह चुप्पी क्यों ? क्या कारण है कि चैनलों और मीडिया के अन्दर चल रही हलचलों या पत्रकारों की समस्याओं को खबर या चर्चा के लायक नहीं माना जाता ? असल में, आपस में गलाकाट होड़ के बावजूद इस मामले में चैनलों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे ऐसे मामलों में एक दूसरे के खिलाफ नहीं बोलेंगे, भले ही वह कितनी बड़ी खबर क्यों न हो.
चैनल चलानेवाली कम्पनियां कह सकती हैं कि इसमे नया क्या है? खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में कर्मचारियों को 'हायर और फायर' किया जाता रहता है. पिछले एक साल में आर्थिक मंदी के कारण लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है. ऐसे में, मीडियाकर्मी अपवाद कैसे हो सकते हैं? सच यह है कि चैनलों समेत पूरे कार्पोरेट मीडिया ने जेट जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में मंदी के नाम पर लाखों कर्मचारियों की छंटनी की खबरों को कोई खास महत्व नहीं दिया. यही नहीं, उसने इन खबरों को अंडरप्ले किया और अब तो वह अर्थव्यवस्था के पुराने दिन लौटने के गीत गाने में जुटा है.
कहा जा सकता है कि ऐसे में पत्रकारों की छंटनी को इतना तूल देने का क्या मतलब है? निश्चय ही, पत्रकार कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं हैं. लेकिन चैनलों और मीडिया में चल रही इस छंटनी का सम्बन्ध केवल मीडिया कंपनियों और उनके कर्मचारियों यानि पत्रकारों तक सीमित नहीं है. यह इसलिए चिंता की बात है कि इसका सीधा सम्बन्ध चैनलों के कंटेंट से है. जिन भी चैनलों से पत्रकारों की छंटनी हुई है, वहां उनके न्यूज आपरेशन पर इसका असर पड़ना तय है. खबरों का दायरा कम होगा और इसके कारण खबरों के संग्रह से लेकर विभिन्न बीट्स की कवरेज पर नकारात्मक असर पड़ेगा. इसका मतलब यह होगा कि आनेवाले दिनों में चैनलों पर बेसिर-पैर का इंडिया टी.वी मार्का सस्ता कंटेंट और बढेगा. आखिर जब पत्रकार और खबरें नहीं होगीं तो चैनल क्या दिखायेंगे?
लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि चैनलों से जिस तरह से पत्रकारों को निकला गया है, उसका सम्पादकीय स्वतंत्रता पर भी असर पड़े बिना नहीं रहेगा. आखिर यह छंटनी देखने के बाद कौन पत्रकार 'पेड कंटेंट' या खबरों में मिलावट या मीडिया कंपनी के ऐसे ही उलटे-सीधे निर्देशों को मानने से इनकार कर पाएगा. इससे चैनलों में काम कर रहे पत्रकारों और अन्य मीडिया कर्मियों पर काम का दबाव और तनाव और बढ़ जायेगा. चैनलों में पहले ही पत्रकारों को दस से बारह घंटे काम करना पड़ रहा है जिसके कारण अधिकांश टी.वी पत्रकार डायबिटीज से लेकर ब्लड प्रेशर और अन्य तरह की बिमारियों से ग्रस्त हैं. नए हालातों में उनकी स्थिति और बिगड़ेगी. इसका असर भी कंटेंट पर पड़ेगा. क्या अब भी बताने की जरूरत है कि एक दर्शक के रूप में इसकी कीमत आप-हम सभी को और अंततः पूरे लोकतंत्र को चुकानी पड़ेगी? आखिर हमारा जानने का अधिकार और एक पूरी तरह से सूचित दर्शक वर्ग- दोनों कहीं न कहीं सवाल इससे जुड़े हुए हैं.
'बीमार' अखबारों के लिए गांधीगिरी
कुछ अखबारों और टी वी समाचार चैनलों द्वारा पैसा लेकर खबरें छापने या दिखाने का मुद्दा गर्माता जा रहा है। पाठकों को ध्यान होगा कि बीते आम चुनावों और हालिया विधानसभा चुनावों के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ बड़े और जानेमाने अखबार समूहों ने राजनीतिक पार्टियों और उनके प्रत्याशियों से पैसा लेकर उनके पक्ष में खबरें छापी थीं। यह साफ तौर पर पत्रकारिता की नैतिकता,मूल्यों और आचार संहिता का उल्लंघन और पाठकों के साथ धोखा था। इसलिए कि अखबार या चैनलों में विज्ञापनों और समाचार के बीच एक स्पष्ट और पवित्र विभाजन रेखा है और दोनों की अपनी जगह तय है। पाठक या दर्शक अखबार-चैनल इस भरोसे के साथ पढ़ते-देखते हैं कि समाचार सम सामयिक घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों की तथ्यपरक, वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और संतुलित रिपोर्ट है। लेकिन जब अखबार या चैनल संबंधित पक्षों से पैसा लेकर उनके पक्ष में छापते- दिखाते हैं तो वह ’खबर’ नहीं वास्तव में खबर के चोले में विज्ञापन होता है पर पाठक या दर्शक को यह पता नहीं होता है और वह उस ’खबर’ को तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ मानकर उसपर भरोसा करता है।
अखबारों-चैनलों और उनके पाठकों-दर्शकों के बीच का रिश्ता इसी भरोसे पर टिका होता है। लेकिन मुनाफे की बढ़ती हवस के कारण अखबार-चैनल इस भरोसे की हत्या करने पर तुले हुए हैं। इससे न सिर्फ इन समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता तार-तार हो रही है बल्कि भ्रष्ट राजनेताओं - अफसरों-माफियाओं- कारपोरेट्स के निरंतर मजबूत होते कालेधन के गठजोड़ में समाचार माध्यमों के भी शामिल हो जाने के कारण लोकतंत्र खोखला और संकट में घिरता दिख रहा है। जाहिर है कि यह एक गंभीर मुद्दा है और इसे किसी भी तरह से और अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। असल में, समाचार मीडिया में इस कैंसर के रोगाणु आज से नहीं बल्कि 90 के दशक में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के दौरान से ही पनपने शुरू हो गए थे। लेकिन पहले यह एकाध समाचार संस्थानों तक सीमित भटकाव मानकर अनदेखा किया गया। लेकिन आज यह कैंसर इस हद तक फैल चुका है कि कुछ गिने-चुने अपवाद ही इस बीमारी से बचे रह गए हैं।
जाहिर है कि पानी सिर के उपर से बहने लगा है। अच्छी बात यह है कि देर से ही प्रेस कांउसिल ने इसकी जांच के लिए एक दो सदस्यी समिति का गठन किया है और चुनाव आयोग ने भी इसका नोटिस लिया है। उससे भी अच्छी बात यह है कि खुद समाचार मीडिया के अंदर से ही कुछ अखबारों (जैसे ’द हिंदू’,’जनसत्ता’, ’इंडियन एक्सप्रेस’, ’प्रभात खबर’और ’आउटलुक’ आदि) और वरिष्ठ पत्रकारों ने ’पैसा लेकर खबर छापने-दिखाने’ की आत्मघाती प्रवृत्ति का विरोध शुरू कर दिया है। अब जरूरत इस विरोध को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाने की है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कोई पांच-छह वर्ष पहले भी जब अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार ने ’पैसा लेकर खबर छापने’ की मीडियानेट और प्राइवेट इक्विटी जैसी स्कीमें शुरू की थीं तो कई अखबारों ने उसका विरोध किया था लेकिन बाद में वे खुद भी वैसी ही स्कीमें चलाने लगे। ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए जरूरी है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए न सिर्फ स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार किए जाएं बल्कि समाचार माध्यमों की निगरानी के लिए प्रेस कांउसिल को और ताकवर और सक्रिय बनाया जाए। प्रेस कांउसिल को प्रभावी बनाने के लिए उसे दंडित करने का अधिकार देने का भी समय आ गया है। इसके साथ ही, व्यापक नागरिक समाज और जनसंगठनों को पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाने और ’बीमार’ अखबारों-चैनलों के जल्दी स्वस्थ होने की कामना के साथ गांधीगिरी के बतौर फूल देने का समय आ गया है।
सोमवार, दिसंबर 21, 2009
महा महंगाई और जमाखोर सरकार
महंगाई की सुरसा का बेकाबू बदन और मुंह फैलता ही जा रहा है. अब यह सिर्फ महंगाई नहीं रह गई है. इसे महा महंगाई कहना पड़ेगा. खुद सरकार आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं. नवम्बर के आखिरी सप्ताह में खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति यानि महंगाई दर उछलते हुए 19 प्रतिशत का नया रिकार्ड बना गई. इसके ठीक पहले सप्ताह में यह दर 17 प्रतिशत थी. यही नहीं, अब तक डेढ़-दो प्रतिशत के आसपास चल रही थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ने भी अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं. नवम्बर महीने में उसमे तीन गुने से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है और वह 4.78 प्रतिशत पहुंच गई है. दालों के मामले में महंगाई की दर में 42 फीसदी, सब्जियों के मामले में 31 फीसदी और खाद्यान्नों में 13 फीसदी से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है.
जाहिर है कि महा महंगाई की मार से आम आदमी बिलबिला रहा है. उसकी दाल-रोटी संकट में है. लेकिन यू.पी.ए सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. पर अब लगता है कि विपक्ष की नींद खुल गई है. उसने महा महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की है. हालांकि उसने काफी देर कर दी है क्योंकि संसद का सत्र अब ख़त्म होनेवाला है. लगता है कि जैसे कोरम पूरा किया जा रहा है. हैरानी की बात यह है कि इस सबके बावजूद वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने या हंगामा करने से महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सकता है. लेकिन वह खुद और उनकी सरकार के अन्य मंत्री महा महंगाई पर काबू पाने के लिए लच्छेदार बातों और बहानों के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं.
हर बार की तरह इस बार भी संसद में बहस के दौरान वित्त मंत्री महा महंगाई का ठीकरा सूखे और बाढ़ के अलावा किसानो को बढा हुआ लाभकारी मूल्य देने पर फोड़ दिया. यह कोई नई बात नहीं है. यू.पी.ए सरकार पिछले छह महीने से यही राग आलाप रही है. अपने बचाव में वह कभी सूखे और बाढ़ को, कभी किसानो को उनकी फसलों की ऊँची कीमतें देने को, कभी जमाखोरी-मुनाफाखोरी रोकने में राज्य सरकारों की विफलता को और कभी वैश्विक बाज़ारों में अनाजों की कीमतों में बढ़ोत्तरी को जिम्मेदार ठहराती रही है. गोया इस महा महंगाई के लिए न तो वह जिम्मेदार है और न ही वह कुछ कर सकती है. आश्चर्य नहीं कि कृषि मंत्री शरद पवार ने साफ कह दिया कि रबी की अगली फसल से पहले महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार आधा सच बोल रही है. मौजूदा महा महंगाई के लिए केवल वही कारण जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्हें सरकार नान स्टाप दोहरा रही है. तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं. जैसे यह महंगाई सूखे या बाढ़ से बहुत पहले से ही आम आदमी का जीना मुहाल किये हुए है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पिछले साल मार्च से लगातार 10 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है. इस सूचकांक के आधार पर महंगाई की यह ऊँची दर पिछले 20 महीनों से लगातार 10 प्रतिशत से ऊपर और अक्तूबर के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक 13.7 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. इसलिए साफ है कि केवल सूखे या बाढ़ के कारण महा महंगाई नहीं आई है.
इसी तरह, महंगाई का ठीकरा किसानो को लाभकारी मूल्य देने पर फोड़ना भी बेचारे किसानो के साथ ज्यादती है. अगर किसानो को लाभकारी मूल्य ही मिल रहा होता तो गन्ना किसान दिल्ली में धरना देने नहीं आ जाते. सच यह है कि महा महंगाई के कारण अधिकांश खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों और किसानो को मिलनेवाले कथित लाभकारी मूल्य के बीच जमीन-आसमान का अंतर है. यही कारण है कि किसान बेचैन हैं. अलबत्ता बड़े बिचौलियों और व्यापारियों के साथ-साथ अनाजों के कारोबार में लगी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की तो जैसे चांदी हो गई है. लेकिन उन्हें यह मौका केंद्र और राज्य सरकारों ने दिया है.
सच यह है कि महा महंगाई की सुरसा को खुलकर खेलने का मौका केंद्र सरकार ने दिया है. असल में, सरकार ने लोगों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया है. लेकिन खाद्य बाज़ार पूरी तरह से जमाखोरों, मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों के कब्जे में है. केंद्र सरकार चाहती तो बाज़ार को नियंत्रित कर सकती थी. उसके पास इस खाद्य बाज़ार को काबू में करने हथियार भी है. वह हथियार है- उसके गोदामों में भरा लाखों टन अनाज जिसका इस्तेमाल करके वह कीमतों को काबू में कर सकती है. लेकिन इस हथियार का इस्तेमाल न करने के कारण सरकार खुद सबसे बड़ा जमाखोर बन गई है.
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक एक अक्तूबर को सरकार के गोदामों में 4.38 करोड़ मीट्रिक टन अनाज भरा हुआ था जिसमें 2.84 करोड़ मीट्रिक टन गेहूं और 1.53 करोड़ मीट्रिक टन चावल था. जबकि खुद सरकार के बफर स्टाक के नियमों के अनुसार सरकार के भंडार में 1.62 करोड़ मीट्रिक टन अनाज (52 लाख मीट्रिक टन चावल और 1.10 करोड़ मीट्रिक टन गेहूं) होना चाहिए था. साफ है कि सरकार के गोदामों में नियमों से करीब 2.7 गुना ज्यादा अनाज है लेकिन उसने इसका इस्तेमाल कीमतों पर काबू पाने के लिए नहीं किया. अगर सरकार चाहती तो इस गेंहूँ और चावल का एक तिहाई भी पी.डी.एस के जरिये और खुले बाज़ार में उतार कर कीमतों को बांध सकती थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और करोड़ों टन अनाज दबाकर बैठी हुई है. इससे बड़ी जमाखोरी और क्या होगी? इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा?
असल में, सरकार इस अनाज को बाज़ार में इसलिए नहीं ला रही है कि उसे लगता है कि इससे खाद्य सब्सिडी बढ़ जाएगी जिससे वित्तीय घाटा और बढ़ जायेगा. सरकार को आम आदमी से ज्यादा वित्तीय घाटे की चिंता इसलिए है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करना चाहती है. इस पूंजी की हमेशा से यह मांग रही है कि सरकार वित्तीय घाटे पर अंकुश लगाने को प्राथमिकता में रखे. लेकिन आम आदमी की सरकार के इस अर्थशास्त्र और राजनीति की कीमत आम आदमी को महा महंगाई में पिस कर चुकानी पड़ रही है.
शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009
आतंकवाद का ऑक्सीजन बनता मीडिया
जानेमाने पत्रकार वीर संघवी ने 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमलों के दौरान समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका की आलोचना करते हुए "हिंदुस्तान टाइम्स" में लिखा है कि मीडिया ने अपनी गलतियों से सबक लिया है. उनका दावा है कि अगर भविष्य में ऐसा कोई आतंकवादी हमला फिर हुआ तो मीडिया इस बार वो गलतियां नहीं दोहराएगा. लेकिन क्या सचमुच टी.वी चैनलों ने 26/11 के कवरेज से कोई सबक लिया है और भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे?
२६/11 के बाद पिछले एक साल में और खासकर इस साल उसकी बरसी पर मीडिया और उसमें भी टी,वी चैनलों के कवरेज को देखकर ऐसी कोई उम्मीद नहीं बंधती है. इस कवरेज को देखकर नहीं लगता कि टी.वी चैनलों ने कोई सबक सीखा है. वीर संघवी से शर्त लगाने की इच्छा हो रही है कि अगर दुर्भाग्य से फिर कोई आतंकवादी हमला हुआ तो टी.वी चैनल वही गलतियां दोहराएंगे.
असल में, चैनलों ने 26/11 से सिर्फ एक सबक सीखा है. वह यह कि "अगर खून बहा है तो यही सुर्खी है" (इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स). यानि आतंक बिकता है. आतंक टी.आर.पी की गारंटी बन गया है. सच पूछिए तो चैनलों को खून का स्वाद लग गया है. आतंक उनके लिए यह एक लुभावना फार्मूला बन गया है. खासकर हिंदी समाचार चैनलों को लगता है कि दर्शकों को डराकर चैनल के साथ बांधे रखा जा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि 26/11 की तकलीफदेह और सुन्न कर देनेवाली स्मृतियां लोगों को डराती,चौंकाती और परेशान करती हैं.
यही कारण है कि चैनल इस या उस बहाने 26/11 के जख्म को हमेशा हरा रखने की कोशिश करते हैं. पिछले एक साल में कभी 26/11 के आतंकवादियों और उनके पाकिस्तानी आकाओं के "एक्सक्लुसिव" टेप सुनाने, गिरफ्तार कसाब की कहानी बताने और लगभग दैनिक तौर पर कभी लश्कर और कभी अन्य आतंकवादी जमातों की अगले हमलों की तैय्यारियों की आधी सच्ची-आधी झूठी रिपोर्टों के बहाने आतंकवाद हिंदी चैनलों के प्राइम टाइम का एक स्थाई विषय बन चुका है. रही-सही कसर चैनलों में तथ्य को "गल्प" और गल्प को तथ्य की तरह पेश करनेवाले भाषा के जादूगर और फेफड़े के जोर से चिल्लाते एंकर पूरा कर देते हैं. चैनलों पर लगभग रोज उबकाई की हद तक पाकिस्तान की पिटाई-धुलाई के साथ अल कायदा, ओसामा और तालिबान का हौव्वा खड़ा किया जाता है.
ऐसे में, चैनल २६/11 की बरसी को भुनाने में कैसे पीछे रह सकते थे? हालांकि इस बरसी से पहले केंद्र सरकार ने सभी समाचार चैनलों को एक निर्देशनुमा सलाह भेजकर अपील की कि वे २६/11 की बरसी पर अपने कार्यक्रमों और रिपोर्टों में "संतुलन" और "जिम्मेदारी" का ध्यान रखें. सरकार ने साफ-साफ कहा कि "२६/11 के आतंकवादी हमले में मारे गए लोगों के शवों,घायलों के खून और चीत्कार, रिश्तेदारों के दर्द आदि के विजुअल्स को बार-बार दिखने से न सिर्फ उस त्रासद और दुखद घटना की यादें ताजा होंगी बल्कि इससे लोगों में डर और असुरक्षा का भाव पैदा करने का आतंकवादियों का बुनियादी मकसद भी पूरा होगा."
लेकिन किसी भी चैनल ने इस सलाह का ध्यान नहीं रखा और उन 60 घंटों को याद करने के बहाने वह सब फिर-फिर दिखाया जो नहीं दिखाने के लिए कहा गया था. इन कार्यक्रमों में तथ्य और तर्क कम और भावनाएं और अतिरेक ज्यादा था. संतुलन के बजाय "हाइपर टोन" हावी था. हमेशा की तरह इंडिया टी.वी सबसे आगे रहा जिसने उस आतंकवादी हमले को एक बार फिर फ़िल्मी अंदाज़ में "रीक्रियेट" किया. इस फिल्म में कुछ तथ्य-कुछ गल्प का ऐसा घालमेल था कि वह सी ग्रेड की मुम्बईया एक्शन फिल्म से ऊपर नहीं उठ पाया. लेकिन इंडिया टी.वी ही क्यों, बाकी हिंदी चैनल भी पीछे नहीं थे.
सबने यहां तक कि सोबर और संतुलित माने जानेवाले अंग्रेजी चैनलों ने भी पूरी नाटकीयता से उन 60 घंटों को पेश किया. शहीदों की याद में एक बार फिर पिछली बार की तरह मास हिस्टीरिया जैसा माहौल बनाने की कोशिश की गई. "टाइम्स नाउ" के अर्नब गोस्वामी तो ऐसा लगता है कि 26/11 से आगे बढे ही नहीं हैं. उनका वश चलता तो 26/11 के बाद भारत ने पाकिस्तान पर हमला बोल दिया होता. हालांकि ऐसा हुआ नहीं लेकिन अर्नब पर इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ा है और पाकिस्तान के खिलाफ अभियान जारी है.
लेकिन जाने-अनजाने ऐसा करके चैनल आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं. याद रखिये आतंकवादियों का सबसे बड़ा उद्देश्य प्रचार पाना होता है. पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के शब्दों में कहें तो "आतंकवाद के लिए प्रचार ऑक्सीजन" की तरह है. इसीलिए आतंकवाद को "प्रोपेगंडा बाई डीड" माना जाता रहा है. मुंबई पर हमला करनेवाले आतंकवादियों का मकसद भी दो समुदायों और देशों के बीच नफ़रत पैदा करने से लेकर युद्ध भड़काने के अलावा प्रचार पाना भी था. मीडिया 26/11 को इस तरह और इस हद तक याद कर उन आतंकवादियों की ही तो मदद नहीं कर रहा है?
मंगलवार, दिसंबर 15, 2009
समाचारपत्र और विश्वसनीयता का संकट
‘समाचारपत्र के अंत’ की भविष्यवाणियों के बीच एक अच्छी खबर यह है कि दुनियाभर में पिछले साल मंदी के बावजूद समाचारपत्रों के प्रसार में लगभग 1.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। हालांकि ऊपरी तौर पर यह बढ़ोत्तरी बहुत मामूली दिखाई पड़ती है लेकिन अगर पिछले पांच वर्षों की बढ़ोत्तरी पर निगाह डालें तो समाचारपत्रों के सर्कुलेशन में 9 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। आज समाचारपत्र पूरी दुनिया की 34 फीसदी आबादी तक पहुंच रहे हैं। प्रतिदिन लगभग 1.9 अरब लोग अखबार पड़ रहे हैं। इससे भी अच्छी खबर यह है कि जहां अमेरिका और यूरोप में समाचारपत्रों के सर्कुलेशन में लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है वहीं आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा समाचारपत्र बाज़ार बन गया है। भारत में अखबारों की प्रतिदिन लगभग 10.7 करोड़ प्रतियां बिक रही हैं और उसके कई गुना लोग अखबार पढ़ रहे हैं। शायद यही कारण है कि दिसंबर के पहले सप्ताह में वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज़पेपर्स ने अपनी सालाना कॉन्फ्रेंस हैदराबाद में आयोजित की। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि चीन, दक्षिण अफ्रीका और लातिन अमेरिका में समाचारपत्रों का सर्कुलेशन लगातार बढ़ रहा है।
ज़ाहिर है कि भारत जैसे देशों में समाचारपत्रों को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। आनेवाले दशकों में बढ़ती साक्षरता, क्रयशक्ति, जागरूकता और तकनीक के प्रसार के साथ समाचारपत्रों का सर्कुलेशन बढ़ता रहेगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय समाचारपत्रों के सामने कोई खतरा या चुनौती नहीं है। सच यह है कि समाचारपत्रों की आर्थिक सेहत को भले ही कोई खतरा नहीं हो, लेकिन हाल के वर्षों में ‘पैकेज पत्रकारिता’ के उद्भव के साथ उनकी विश्वसनीयता और साख ज़रूर सवालों के घेरे में आ गई है। समाचारपत्र उद्योग के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि मुनाफे की बढ़ती भूख के कारण विज्ञापन और समाचार के बीच की पवित्र दीवार जिस तरह से ढह रही है, उसके कारण समाचारपत्र अपना मूल चरित्र गंवाते जा रहे हैं।
असल में, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में समाचारपत्रों की भूमिका अपने पाठकों को देश- दुनिया, समाज और आसपास हो रहे बदलावों से वाकिफ़ कराने के अलावा लोगों के चौकीदार के रूप में सत्ता पर नज़र रखने की भी है। लेकिन पैकेज पत्रकारिता के उदय के साथ समाचारपत्रों ने न सिर्फ चौकीदार की भूमिका छोड़ दी है बल्कि वे चोर के साथ खड़े हो गए हैं। वे अपने उन पाठकों को धोखा दे रहे हैं, जो उनपर विश्वास करते हैं। पाठकों का विश्वास खोकर समाचारपत्र उद्योग बहुत दिनों तक ज़िंदा नहीं रह सकता है।
भारतीय समाचारपत्र उद्योग के उन सदस्यों को यह बात याद रखना चाहिए जो पैकेज पत्रकारिता को अपने व्यवसाय का आधार बना रहे हैं कि अमेरिका में समाचारपत्र उद्योग सिर्फ इंटरनेट के कारण ही नहीं बल्कि अपनी विश्वसनीयता खोने के कारण भी संकट में फंसा दिखाई पड़ रहा है। 80 के दशक तक हर दस अमेरिकी में 7 अपने समाचारपत्रों पर भरोसा करते थे लेकिन अब यह संख्या घटकर सिर्फ 3 रह गई है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि पाठकों का विश्वास खोकर समाचारपत्र उद्योग तरक्की नहीं कर सकता है। इस सच्चाई को भारतीय समाचारपत्र उद्योग के चमकते सितारे जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही उनके भविष्य के लिए अच्छा होगा।
बुधवार, दिसंबर 02, 2009
इस महंगाई के मायने
महंगाई बेकाबू होती जा रही है. खासकर आवश्यक खाद्य वस्तुओं की रिकार्डतोड़ महंगाई बिलकुल असहनीय हो गई है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 15.58 प्रतिशत तक पहुंच गई है. यह पिछले 11 वर्षों का रिकार्ड है. हालांकि भारत जैसे विकासशील देशों के लिए महंगाई कोई नई परिघटना नहीं है लेकिन ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि उसपर काबू पाने के मामले में केंद्र सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं. अभी तक भले ही सरकारें महंगाई पर पूरी तरह से काबू करने में नाकाम रहती रही हों लेकिन वो दावा जरुर करती थीं कि महंगाई पर नियंत्रण करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इस बार न सिर्फ केंद्र सरकार ने महंगाई पर रोक लगाने के लिए कुछ खास नहीं किया है बल्कि कृषि और उपभोक्ता मामलों के मंत्री शरद पवार ने साफ शब्दों में कह दिया है कि अगले तीन-चार महीनों यानि रबी की फसल आने तक वे कुछ नहीं कर सकेंगे और लोगों को इस महंगाई के साथ ही जीना पड़ेगा.
कृषि मंत्री का यह भी कहना है कि इस मामले में अगर कोई राहत देने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है. यही नहीं, वित्त मंत्री ने भी महंगाई को रोकने के मामले में अपनी मजबूरी जाहिर कहते हुए कह दिया कि अभी उनकी चिंता के केंद्र में वृद्धि दर को तेज करना है. ऐसे में, लोगों को महंगाई के साथ सामंजस्य बैठाकर चलाना पड़ेगा. उनके बयान से साफ है कि महंगाई के आगे यू.पी.ए सरकार ने पूरी तरह से घुटने टेक दिए हैं. इससे यह भी पता चलता है कि इस महंगाई के सामने सरकार कितनी लाचार हो गई है. सरकार की लाचारी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रणव मुखर्जी ने अभी पिछले सप्ताह यह बयान दिया कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई के लिए बिचौलिए जिम्मेदार हैं. लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि सरकार को बिचौलियों के खिलाफ कार्रवाई करने में क्या दिक्कत हो रही है? यू.पी.ए सरकार उनके आगे इतनी लाचार क्यों दिख रही है?
असल में, इन बयानों से न सिर्फ केंद्र सरकार की लाचारी झलकती है बल्कि उसकी बहानेबाजी और चालाकी का भी पता चलता है. कभी वह सूखे को कभी वैश्विक वित्तीय और आर्थिक संकट को और कभी बिचौलियों और राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाडना चाहती है. अपनी सुविधा के अनुसार हर मंत्री और अफसर कारण खोज रहा है. यही नहीं, केंद्र इस महंगाई से निपटने का जिम्मा भी राज्य सरकारों के मत्थे मढ़ने पर तुला हुआ है. गोया इस महंगाई के लिए केवल राज्य सरकारें जिम्मेदार हो और उसका इससे कोई लेना-देना नहीं हो. यह ठीक है कि महंगाई से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की भी है. वे सारी जवाबदेही केंद्र सरकार पर डालकर नहीं बच सकती हैं. लेकिन इस मामले में केंद्र सरकार का रवैया इसलिए ज्यादा खलनेवाला है क्योंकि महंगाई केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है और न ही उसकी कोई स्थानीय और तात्कालिक वजह है. जाहिर है कि इस कारण महंगाई से निपटने और आम आदमी को राहत पहुंचाने में राज्य सरकारों की भूमिका होते हुए भी उसकी सीमाएं हैं.
सच यह है कि यह महंगाई केंद्र सरकार की नीतियों का नतीजा है. इस महंगाई में साफ तौर पर कृषि की उपेक्षा, खाद्य प्रबंधन में ढिलाई, लापरवाही और भ्रष्टाचार, बिचौलियों-मुनाफाखोरों-जमाखोरों को बेलगाम छोड़ देने और कृषि वस्तुओं-खाद्यान्नों के वायदा कारोबार में सट्टेबाजों को खुली छूट देने जैसे नीतिगत कारणों से लेकर प्रशासनिक विफलताओं और मिलीभगत को साफ देखा जा सकता है. यही वजह है कि यह महंगाई केवल सूखे या खाद्य वस्तुओं और फल-सब्जियों की तात्कालिक आपूर्ति में कमी के कारण नहीं आई है बल्कि इसके कहीं गहरे नीतिगत और ढांचागत कारण हैं लेकिन यू.पी.ए सरकार उनपर पर्दा डालने के लिए कुछ तात्कालिक कारणों पर ही ज्यादा जोर दे रही है. यही नहीं, केंद्र सरकार के आर्थिक मैनेजर इस महंगाई को यह कहते हुए अपनी नीतियों की सफलता भी बता रहे हैं कि नरेगा और दूसरी योजनाओं के कारण गरीबों की आय बढ़ी है और वे अब खाद्यान्नों आदि का पूरा उपभोग कर रहे हैं जिससे इनकी मांग में बढ़ोत्तरी और कीमतों में इजाफा हो रहा है.
यह तर्क नया नहीं है. जरा अपनी स्मृति पर जोर डालिए तो याद आ जायेगा कि पिछले साल जब खाद्यान्नों की कीमतें तेजी से बढ़ रही थीं तो अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में गरीबों की आय बढाने से खाद्यान्नों की मांग बढ़ी है जिसके कारण महंगाई बढ़ रही है. तब जार्ज बुश की बहुत आलोचना हुई थी लेकिन अब यही तर्क देश में अर्थव्यवस्था के नियंता दे रहे हैं. यह सचमुच कितना अमानवीय और बेहूदा तर्क है कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गरीब भरपेट भोजन करने लगे हैं. सबसे पहली बात तो यह है कि यह सच नहीं है. विश्व खाद्य संगठन के मुताबिक देश में अब भी 22 करोड़ से ज्यादा लोग हैं जिन्हें दोनों जून रोटी नसीब नहीं है. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 119 देशों में 94 वें स्थान पर है और कुल भूखे लोगों की तादाद के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. इसके अलावा जिन लोगों को भोजन मिल भी रहा है उसमें बहुसंख्यक भारतीयों को जरूरी पौष्टिक भोजन नहीं मिल रहा है जिसके कारण देश में 50 फीसदी से अधिक बच्चे और माताएं कुपोषण के शिकार हैं.
दूसरी बात यह है कि जिन गरीबों की आय बढ़ी भी थी, खाद्य वस्तुओं की इस तीव्र महंगाई के कारण वे एक बार फिर पुरानी स्थिति में पहुंच गए हैं. यही कारण है कि महंगाई को गरीबों के लिए टैक्स माना जाता है. लेकिन खाद्यान्नों की ऐसी महंगाई तो दोहरा टैक्स है. सरकार स्वीकार करे या नहीं लेकिन तथ्य यह है कि इस महंगाई के कारण करोड़ों लोग फिर से गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं. जमीनी रिपोर्टें भी इसकी पुष्टि कर रही हैं. इसलिए यह महंगाई आम महंगाई से इस मायने में अलग है कि इसकी वास्तविक कीमत गरीब और असली आम आदमी चुका रहा है. तीसरी बात यह है कि यह अपने आप में कितनी शर्मनाक और अमानवीय शर्त है कि महंगाई पर काबू पाने के लिए गरीबों की रोटी और उनके भरपेट भोजन के बुनियादी अधिकार को छीन लिया जाए. चौंकिए मत, बाज़ार यही तो कर रहा है, बढ़ती कीमतों के जरिये लाखों गरीब परिवार अपने आप भोजन के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं.
लेकिन यहां एक आम आदमी की सरकार है जो कह रही है कि वह महंगाई से निजात दिलाने के लिए कुछ नहीं कर सकती है. हालांकि यह सरकार इस वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि वह गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को प्रति माह तीन रूपये किलो की दर से 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी देगी. लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार वह आधा-अधूरा वायदा भी भूल गई है. वैसे इस महंगाई ने इस वायदे की सीमाएं भी स्पष्ट कर दी हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि असल मुद्दा व्यापक भोजन का अधिकार है. यह तभी सुनिश्चित किया जा सकता है अगर सरकार बाजार के बजाय खुद यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो. इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानि पी.डी.एस को न सिर्फ मजबूत, पारदर्शी और सक्षम बनाया जाए बल्कि उसे सार्वभौम किया जाए. हालांकि पी.डी.एस को ध्वस्त करने के लिए जिम्मेदार नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे लेकिन पिछले कुछ वर्षों के अनुभव से साफ है कि महंगाई से निपटने का सवाल असल में खाद्य सुरक्षा का सवाल है.
इस महंगाई ने देश में खाद्य सुरक्षा की पोल खोल दी है. दरअसल, खाद्य सुरक्षा का एक सिरा अगर गरीबों की रोटी से जुड़ता है तो दूसरा सिरा कृषि और किसानो से जुड़ा है. खाद्य सुरक्षा खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भरता के बगैर संभव नहीं है. लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक से यह लगातार साफ होता जा रहा है कि खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि दर से कम हो गई है. यही नहीं, यह तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि लगातार सरकारी उपेक्षा और डब्लू. टी.ओ के अस्तित्व में आने के बाद से कृषि क्षेत्र गंभीर संकट का सामना कर रहा है. किसानो की आत्महत्याओं के जरिये यह संकट लगातार देश के सामने था लेकिन उसे जानबूझकर अनदेखा किया गया. यह मान लिया गया कि कृषि की धीमी विकास दर के बावजूद चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि सेवा और औद्योगिक क्षेत्र के बदौलत देश 8-9 प्रतिशत की जी.डी.पी वृद्धि दर आसानी से हासिल कर लेगा. यही नहीं, कुछ नव उदारवादी विश्लेषकों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया कि कृषि की परवाह किये बगैर तीव्र जी.डी.पी वृद्धि दर हासिल करने पर जोर दिया जाना चाहिए क्योंकि उससे जो समृद्धि आएगी, उससे जरूरत के खाद्यान्न आयातित कर लिए जायेंगे.
इस सोच का नतीजा अब सबके सामने है. न माया मिली न राम. यहां तक कि अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि कृषि की उपेक्षा करके एक सीमा के बाद जी.डी.पी की वृद्धि दर को भी बढ़ाना भी मुश्किल है. यही नहीं, भारत जैसे देश के लिए खाद्यान्नों का आयात कोई विकल्प नहीं है. ताजा उदाहरण से यह बात एक बार फिर साबित हो गई है. खाद्यान्नों खासकर दालों, चीनी, चावल, खाद्य तेलों आदि की किल्लत से निपटने के लिए जब सरकार ने आयात करने की कोशिश की तो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इन जिंसों की कीमतों में और उछाल आ गया. लेकिन अफसोस की बात यह है कि सरकार की असली चिंता खाद्य सुरक्षा नहीं बल्कि खाद्य सब्सिडी को कम करना है. हालांकि खाद्य सब्सिडी को कम करने की जितनी ही कोशिश हुई है, वह उतनी ही तेजी से बढ़ती गई है. इसकी वजह यह है कि इसी सरकार ने नहीं बल्कि पिछली सभी सरकारों ने खाद्य सब्सिडी को कम करने के नाम पर जिस तरह से आगा-पीछा सोचे हुए तात्कालिक और तदर्थ फैसले किये हैं, उससे सब्सिडी तो कम नहीं ही हुई उलटे खाद्य सुरक्षा अलग खतरे में पड़ गई है.
इस लिहाज से इस महंगाई को एक बड़े खतरे की पूर्वसूचना की तरह देखा जाना चाहिए. इससे निपटने के लिए तात्कालिक के साथ-साथ कुछ बुनियादी और दूरगामी फैसले करने पड़ेंगे. इसकी शुरुआत भोजन के मौलिक अधिकार के कानून से हो सकती है. यू.पी.ए सरकार ने एक कानून बनाया भी है लेकिन वह इतना सीमित और आधा-अधूरा है कि अभी गरीबों को जो राशन मिल भी रहा है, वह भी छीन जायेगा. सरकार चुनावी वायदे के मुताबिक गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों को तीन रूपये किलो की दर से हर महीने 25 किलो अनाज देने का प्रस्ताव कर रही है जबकि उन्हें अभी दो रूपये किलो के भाव 35 किलो अनाज मिल रहा है. जाहिर है कि ईद आधे-अधूरे कानून से कुछ नहीं होगा, इसके बदले सरकार को पूर्ण खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाना चाहिए. साथ ही, पी.डी.एस को सार्वभौम और मजबूत करना बहुत जरूरी है. दूसरे, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा त्यागकर किसानो को वास्तविक लाभकारी मूल्य देने की गारंटी करनी होगी. कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाना होगा. तीसरे, अनाजों के व्यापार में बड़ी कंपनियों को घुसने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. साथ ही, खाद्यान्नों में वायदा कारोबार पर रोक लगाना ही होगा. चौथे, जब तक देश खाद्यान्नों के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर लेता और हर गरीब के लिए दोनों जून रोटी सुनिश्चित नहीं हो जाती, अनाजों का निर्यात नहीं होना चाहिए.
सोमवार, नवंबर 30, 2009
लिब्राहन आयोग और मीडिया
ऐसा लगता है कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर जारी चर्चा में एक जरूरी प्रसंग को जानबूझकर अनदेखा किया जा रहा है। आयोग ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद और 6 दिसंबर को मस्जिद ध्वंस के दौरान मीडिया की भूमिका के बारे में भी कुछ ऐसी टिप्पणियां की हैं जिनपर बात जरूरी है. आयोग की रिपोर्ट में पृष्ठ ८९० से ९१४ तक यानि कुल २४ पृष्ठों में मीडिया की भूमिका और मीडिया के प्रति संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी नेताओं के आक्रामक रवैये की पड़ताल करते कुछ दिलचस्प और व्यापक नतीजों वाली सिफारिशें भी की गई हैं. आयोग का निष्कर्ष है कि ६ दिसंबर को मस्जिद ध्वंस के दौरान देशी-विदेशी मीडियाकर्मियों पर हुआ जानलेवा हमला न सिर्फ पूर्वनियोजित था बल्कि इसे संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी के आला नेताओं के अलावा तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और स्थानीय प्रशासन की शह हासिल थी. आयोग के मुताबिक यह हमला इसलिए किया गया था क्योंकि मस्जिद ध्वंस के जिम्मेदार उसके स्वतंत्र सबूत नष्ट करना चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि मीडिया इसका प्रत्यक्षदर्शी रहे. यही नहीं, यह हमला उन पत्रकारों को सबक सिखाने के लिए भी किया गया था जो संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी के विचारों में विश्वास नहीं करते थे और सेकुलर माने जाते थे. सबसे अधिक अफ़सोस की बात यह है कि बाद में आयोग के सामने गवाहियों के दौरान संघ और बी.जे.पी के कई नेताओं ने मीडिया पर कारसेवकों के जानलेवा हमलों को इस या उस बहाने उचित ठहराने की कोशिश की है.
यह है संघ-बी.जे.पी का असली चरित्र और चेहरा जो बातें तो स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की आज़ादी की करता है लेकिन व्यवहार में अपने विचारों से सहमति न रखनेवालों को सबक सिखाने में किसी भी तानाशाह से कम नहीं है. यहां तक कि आडवानी जैसे नेता ने आयोग के सामने अपनी गवाही में मीडिया की शिकायत करते हुए कहा कि वह रामजन्मभूमि आन्दोलन को राष्ट्रीय शर्म, पागलपन और बर्बर बता रहा था और उनकी रामरथ यात्रा के प्रति अनर्गल आरोप लगा रहा था. हालांकि उन्होंने खुलकर पत्रकारों पर कारसेवकों के हमले को सही नहीं ठहराया लेकिन उनकी मंशा साफ जाहिर है. कहने कि जरूरत नहीं है कि सांप्रदायिक फासीवाद का यह चरित्र नया नहीं है और 6 दिसम्बर को अयोध्या और फैजाबाद में पत्रकारों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी हुआ. जाहिर है कि वह कोई अपवाद नहीं था और न ही भावनाओं का विस्फोट था. वह सिलसिला आज भी जारी है. सबसे ताजा मिसाल है महाराष्ट्र जहां शिव सेना के भगवाधारी गुंडे अखबारों-चैनलों और उनके संपादकों-पत्रकारों को सबक सिखाने में जुटे हुए हैं.
लेकिन लिब्राहन आयोग ने मीडिया के एक हिस्से खासकर भाषाई और स्थानीय प्रेस की भूमिका की भी इस बात के लिए कड़ी आलोचना की है कि उसने एकपक्षीय, सच्ची-झूठी रिपोर्टों और यहां तक कि अफवाहों को खबर की तरह छापकर लोगों की भावनाओं को भड़काने और दो समुदायों में नफ़रत फ़ैलाने का काम किया। हालांकि यह कोई नया तथ्य नहीं है और उस समय एन.आर चंद्रन,रघुवीर सहाय और के विक्रम राव आदि के नेतृत्व वाली प्रेस काउन्सिल की जांच समिति ने भी हिंदी के अधिकांश अखबारों को रामजन्मभूमि आन्दोलन के पक्ष में एकतरफा, आधारहीन और भावनाएं भड़कानेवाली रिपोर्टिंग के लिए दोषी ठहराया था. इसके अलावा भी कई अन्य स्वतंत्र नागरिक संगठनो की जांच रिपोर्टों में भी रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर हिंदी अख़बारों की कवरेज को पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे वस्तुनिष्ठता, तथ्यपरकता, निष्पक्षता, संतुलन आदि के खिलाफ बताया गया था. उस कवरेज में तर्क, तथ्य और विवेक की जगह कुतर्क, भावनाओं और अफवाहों ने ले ली थी. इसमें कोई दोराय नहीं है कि उस दौर में भाषाई खासकर कई बड़े हिंदी अख़बारों की भूमिका शर्मनाक थी और वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का एक काला अध्याय है.
ऐसे में, यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि वह सब कुछ फिर न दोहराया जाए, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए? इस बारे में लिब्राहन आयोग ने कुछ बहुत दूरगामी सिफारिशें की हैं। उसका कहना है कि प्रेस काउन्सिल को दण्डित करने का कोई अधिकार न होने के कारण पीत पत्रकारिता के लिए दोषी पत्रकारों या अखबारों पर कोई लगाम नहीं रह गया है. इसलिए जरूरी है कि मेडिकल काउन्सिल आफ इंडिया या बार काउन्सिल आफ इंडिया की तरह एक संस्था का गठन किया जाए जिसमें एक स्थाई न्यायाधिकरण हो जो पत्रकारों या मीडिया संस्थानों के खिलाफ शिकायतों की सुनवाई कर सके. यही नहीं, आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि अन्य कई पेशों की तरह पत्रकारों को भी काम शुरू करने से पहले लाइसेंस लेना अनिवर्य कर दिया जाए जिसे गलती करने पर निलंबित या निरस्त भी किया जा सकता है. मजे की बात यह है कि सरकार ने भी ए.टी.आर में न सिर्फ आयोग की टिप्पणियों से सहमति जाहिर की है बल्कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और कानून मंत्रालय को ऐसी समिति की जरूरत और संभावना का पाता लगाने के लिए कहा है.
कहने कि जरूरत नहीं है कि आयोग की ये सिफारिशें मीडिया संगठनो की सांस्थानिक-चारित्रिक समस्याओं की तकनीकी, कानूनी और नौकरशाहाना समाधान तलाशने की कोशिश हैं. इनकी न सिर्फ सीमाएं स्पष्ट हैं बल्कि भविष्य में इनके दुरुपयोग की आशंकाओं को नाकारा नहीं जा सकता है. हालांकि कई देशों में पत्रकारों के लिए लाइसेंस या पत्रकारिता की डिग्री जैसी व्यवस्थाएं मौजूद हैं लेकिन इससे उनकी पत्रकारिता की गुणवत्ता में कोई खास सुधार आया हो, ऐसे प्रमाण नहीं दिखते हैं. यही नहीं, अभी पिछले दिनों ब्राज़ील के सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार बनने के लिए डिग्री की अनिवार्यता को रद्द कर दिया है. ऐसे में, बेहतर यही होगा कि पत्रकार समुदाय और समाचार संगठन बेबाकी और निर्ममता से आत्मविश्लेषण और आलोचना करें और ईमानदारी से अपनी गलतियों को पहचाने. सुधार और परिष्कार का यही रास्ता भविष्य में ऐसी गलतियों को रोक सकता है, कोई डिग्री या लाइसेंस या न्यायाधिकरण इसकी गारंटी नहीं कर सकता है.
बुधवार, नवंबर 25, 2009
मंदी जा रही है लेकिन रोजगार कहाँ है?
वैश्विक मंदी के प्रभाव में सुस्त हो गई भारतीय अर्थव्यवस्था के एक बार फिर पटरी पर लौटने की चर्चाएं तेज हो गई हैं. यू.पी.ए सरकार के अफसर और मंत्री और दूसरी ओर, बाज़ार के जानकार जोरशोर से दावे कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हो रहा है. बतौर सबूत शेयर बाज़ार से लेकर औद्योगिक विकास के आंकड़े पेश किये जा रहे हैं. गुलाबी अखबारों में कंपनियों के मुनाफे के आंकड़े भी बहुत आकर्षक हैं. यही नहीं, दुनिया के अरबपतियों की सूची में भी भारतीयों की उपस्थिति लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई है.
लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में जारी इस सुधार का कोई फायदा आम आदमी तक भी पहुंच रहा है? यह सवाल इस लिए भी जरूरी है कि मंदी से निपटने के लिए कार्पोरेट जगत और कंपनियों को सरकार ने कई प्रोत्साहन पैकेज (स्टीमुलस पैकेज) भी दिए थे. इन पैकेजों में टैक्सों में छूट से लेकर अन्य कई प्रोत्साहन भी शामिल थे. सरकारी खजाने से दिए गए इन हजारों करोड़ों रूपये के पैकेजों का मुख्य उद्देश्य और तर्क यह था कि कम्पनियां लोगों को इसका फायदा देंगीं. इससे उत्पादों और सेवाओं की कीमतें कम होंगी. उम्मीद थी कि कम्पनियां खासकर संगठित क्षेत्र में अपने कार्मिकों/वर्करों के रोजगार की सुरक्षा करेंगी और छंटनी-ले आफ-नई भर्तियों पर रोक आदि से बचेंगी.
लेकिन व्यवहार में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. पिछले एक साल में जब से वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की शुरुआत हुई है, यह कंपनियों के लिए छंटनी और ले आफ आदि का एक बहाना बन गया है. आश्चर्य की बात यह है कि पिछले एक साल में अकेले संगठित क्षेत्र से लाखों कार्मिकों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. खुद सरकार आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल सितम्बर से इस साल मार्च के बीच संगठित क्षेत्र में करीब 15-20 लाख कार्मिकों को मंदी के नाम पर अपनी रोजी-रोटी गंवानी पड़ी. उस समय कहा गया कि कंपनियों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है. हालांकि मंदी के बावजूद उन कंपनियों के मुनाफे पर कोई खास असर नहीं पड़ा. सबसे अफ़सोस की बात यह है कि खुद वित्त मंत्री ने छंटनी को लेकर कोई कड़ा रूख दिखने के बजाय कार्पोरेट क्षेत्र को इस मामले में सहानुभूति से विचार करने को कहा था.
लेकिन अब जब फिर से अर्थव्यवस्था में बूम के दावे किये जा रहे हैं, रोजगार के मामले में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. कुछ क्षेत्रों को छोड़कर जहां मामूली भर्तियाँ होनी शुरू हुई हैं, अधिकांश क्षेत्रों में अभी भी स्थिति ज्यों कि त्यों बनी हुई है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के बावजूद यह एक "रोजगारविहीन विकास" (जाबलेस ग्रोथ) है जिसमे कंपनियों का मुनाफा तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन रोजगार में कोई खास वृद्धि नहीं हो रही है. खुद केंद्र सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही(अप्रैल से जून'09) में संगठित क्षेत्र में 1 .71 लाख कार्मिकों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. इसमे सबसे ज्यादा नौकरियां कपड़ा क्षेत्र में गई हैं जहां 1.54 लाख कार्मिकों की नौकरी गई है. इसी तरह, आई.टी क्षेत्र में भी करीब 34000 लोगों की नौकरी चली गई है.
अभी दूसरी तिमाही के आंकड़े नहीं आये हैं लेकिन संकेत अच्छे नहीं हैं. कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन(ई.पी.एफ.ओ) के मुताबिक इस साल अप्रैल से जून के बीच सिर्फ तीन महीने में भविष्यनिधि से पैसा निकालनेवाले कार्मिकों की संख्या 35.51 लाख तक पहुंच गई है जो इस बात का संकेत है कि छंटनी और ले आफ अभी न सिर्फ जारी है बल्कि बड़े पैमाने पर नौकरियां जा रही हैं. यह आंकड़े इसलिए भी हैरान करनेवाले हैं क्योंकि 2006-07 में पूरे साल में इतने लोगों ने ई.पी.ऍफ़. से पैसा निकला था जबकि इस साल की पहली तिमाही में ही 35 लाख से अधिक कार्मिकों का पैसा निकालना यह बताता है कि रोजगार के मामले में स्थिति कितनी नाजुक है. याद रहे कि पिछले साल 2008 -09 में कुल 98 लाख से अधिक कार्मिकों ने भविष्यनिधि से पैसा इकला था जो कि एक रिकार्ड है.
साफ है कि अर्थव्यवस्था में सुधार आदि की बातें उन कार्मिकों के लिए बेकार और दिल को बहलानेवाली हैं जो अभी भी छंटनी- ले आफ का सामना कर रहे हैं. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है. अर्थव्यवस्था में सुधार का मतलब सिर्फ कंपनियों को अधिक से अधिक मुनाफा हो गया है और इसका कोई फायदा कार्मिकों को नहीं मिल रहा है. ये कम्पनियां सरकार पर लगातार दबाव बनाये हुए हैं कि प्रोत्साहन पैकेज अभी जारी रखे जाएँ लेकिन वे कार्मिकों के रोजगार की गारंटी करने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि यू.पी.ए सरकार इस मामले में सभी कंपनियों को यह साफ निर्देश दे कि अगर उन्होंने अपने यहां छंटनी-ले आफ किया तो उन्हें प्रोत्साहन पैकेज का लाभ नहीं मिलेगा.
यह सख्ती इसलिए भी जरूरी है कि बहुत सी कंपनियों ने मंदी को एक बहाने की तरह इस्तेमाल करना और उसे मनमाने तरीके से छंटनी और ले ऑफ़ का लाईसेंस बना दिया है. ऐसा मानने की वजह यह है कि कई क्षेत्रों में स्थाई कार्मिकों को निकलकर अस्थाई अनुबंध पर कर्मचारियों की भर्ती भी की जा रही है. उदाहरण के लिए, इस साल की पहली तिमाही में अनुबंध पर करीब 40 हज़ार कार्मिकों की भर्ती हुई है जबकि उसी अवधि में 1.71 लाख स्थाई नौकरियां चली गई हैं. साफ है कि कार्पोरेट क्षेत्र मंदी को बहाना बनाकर अपने स्थाई कार्मिकों से पीछा छुड़ा रहा है. असल में, कार्पोरेट क्षेत्र लम्बे समय से श्रम कानूनों में बदलाव की मांग करता रहा है जो कि राजनीतिक कारणों से संभव नहीं हो पाया लेकिन अब मंदी के बहाने कम्पनियां वही कर रही हैं जो वे श्रम कानूनों में सुधार के जरिये करना चाहती थीं.
मंगलवार, नवंबर 24, 2009
मीडिया के एजेंडे से बाहर खेती किसानी
ऐसा बहुत वर्षों बाद हुआ कि गन्ने की कीमतों में वृद्धि और इस बाबत केंद्र सरकार के एक विवादास्पद अध्यादेश को वापस लेने की मांग को लेकर हजारों की संख्या में गन्ना किसान दिल्ली पहुंचे. जंतर-मंतर पर धरना और रैली हुई, जिसमें किसान नेताओं के साथ लगभग पूरा विपक्ष मौजूद था. लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया खासकर दो सबसे बड़े अंग्रेजी अखबारों के लिए खबर यह नहीं थी बल्कि अगले दिन के अखबार में पहले पेज पर खबर यह छपी कि कैसे किसानो ने पूरी दिल्ली को बंधक बना लिया. यह भी कि कैसे किसानो ने दिल्ली में उत्पात, लूटपाट,तोड़फोड़ और लोगों के साथ बदसलूकी की. दिल्ली को जाम कर दिया जिससे दिल्लीवालों को बहुत तकलीफ हुई. यही नहीं, किसानो की शराब पीते, तोड़फोड़ करते और जंतर-मंतर जैसे ऐतिहासिक स्थल को गन्दा करते तस्वीरें भी छपीं.
लेकिन ये किसान दिल्ली क्यों आये थे और उनकी मांगे क्या थी और स्थिति यहां तक क्यों पहुंची - यानि असली खबर को कोई खास तव्वजो नहीं दी गई. किसानो के साथ सहानुभूति की तो बात ही दूर है, दिल्ली के अंग्रेजी मीडिया ने उन्हें अराजक और खलनायक की तरह पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहने की जरूरत नहीं है कि किसानो की इस रैली को कवर करते हुए दिल्ली के मीडिया ने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों- वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपरकता को ताक पर रख दिया. इस कवरेज पर बारीकी से ध्यान दीजिये तो साफ हो जायेगा कि दिल्ली के तथाकथित "राष्ट्रीय मीडिया" को असल में, गन्ना किसानो ही नहीं, बल्कि खेती-किसानी में कोई दिलचस्पी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि गन्ने को लेकर यह विवाद पिछले 25 दिनों से जारी था और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान सडकों पर थे लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया को कोई खास खबर नहीं थी. खबर हो भी तो कम-से-कम उन्होंने अपने पाठकों और दर्शकों को इस बाबत बताना जरूरी नहीं समझा. हिंदी के कुछ अखबारों को छोड़कर अधिकांश अंगरेजी अखबारों और चैनलों में इसे नोटिस करने लायक भी नहीं समझा गया.
हालांकि यह मुद्दा और गन्ना किसानो का आन्दोलन हर लिहाज से एक बड़ी खबर थी. दिल्ली के मध्यमवर्गीय पाठकों और दर्शको के साथ भी इस खबर का सीधा रिश्ता जुड़ता है. चीनी की लगातार बढ़ती कीमतों के बीच गन्ना किसानो के आन्दोलन का सीधा असर आम पाठकों-दर्शकों पर पड़ रहा है. ऐसे में, मीडिया से यह स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वह इस मुद्दे पर अपने पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाये लेकिन इसके बजाय मीडिया ने इस आन्दोलन के खिलाफ एक मुहिम सी छेड़ दी है. जाहिर है कि यह पहला मामला नहीं है. इसके पहले भी दिल्ली में देश के अलग-अलग इलाकों से आनेवाले गरीबों, किसानो, मजदूरों, आदिवासियों और विस्थापितों की रैली/प्रदर्शनों को लेकर भी राष्ट्रीय मीडिया का यही रूख रहा है. इस मीडिया के लिए देश की सीमाएं दिल्ली तक सीमित हैं. उसकी चिंताओं की सूची में कृषि और किसानो की हालत सबसे निचले पायदान पर है. हैरत की बात नहीं है कि दिल्ली के अधिकांश राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों में कृषि और खेती-किसानी कवर करने के लिए अलग से कोई संवाददाता नहीं है.क्या यह दिल्ली के अभिजात्य शहरी कार्पोरेट मीडिया का स्वाभाविक वर्गीय पूर्वाग्रह नहीं है जो गन्ना किसानो के कवरेज में खुलकर दिख रहा है?
शुक्रवार, नवंबर 20, 2009
किसे डर लग रहा है सूचना के अधिकार कानून से?
ऐसा लगता है कि जाने-माने बुद्धिजीवियों और सूचना के अधिकार के आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं की अपील को नज़रंदाज़ करते हुए यू पी ए सरकार ने सूचना के अधिकार कानून'2005 में संशोधन का मन बना लिया है. सरकार इस संशोधन के जरिये सूचना के अधिकार कानून से "फाइल नोटिंग" दिखाने का हक वापस लेने के अलावा जन सूचना अधिकारियों को "फालतू और तंग करनेवाले" सवालों को खारिज करने का अधिकार देना चाहती है. हालांकि इस फैसले का विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों और नागरिक संगठनो के एक प्रतिनिधिमंडल से केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव ने वायदा किया है कि इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करने से पहले सरकार सबसे बात करेगी और सबकी आपत्तियों को सुनेगी लेकिन सरकार के रवैये से नहीं लगता है कि वह वास्तव में किसी को खासकर विरोधी स्वरों को सुनने के मूड में है. उसने मन बना लिया है और अब केवल दिखावे की मजबूरी में संशोधन की प्रक्रिया को पारदर्शी दिखाने का कोरम पूरा करना चाहती है.
ऐसा मानने के पीछे ठोस वजहें हैं. असल में, जब से सूचना के अधिकार का कानून बना है, सत्तानशीं नेता और नौकरशाही उसके साथ सहज नहीं रहे हैं. इस कानून के बनने से पहले तक गोपनीयता के माहौल में काम करने के आदी अफसरों और नेताओं को शुरू से यह बहुत "परेशान और तंग" करनेवाला कानून लगता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके पीछे वही औपनिवेशिक गोपनीयता की संस्कृति और मानसिकता जिम्मेदार रही है जो आज़ादी के 62 सालों बाद भी तनिक भी नहीं बदली है. यह मानसिकता सूचना का अधिकार कानून बनने के बावजूद यह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि अब एक आम आदमी भी उनसे न सिर्फ उनके कामकाज का ब्यौरा और हिसाब मांग सकता है बल्कि परदे के पीछे और चुपचाप फैसला करने का जमाना गया. उनसे उस फैसले तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया यानि फाइल नोटिंग दिखाने के लिए कहा जा सकता है जिसके जरिये एक-एक अधिकारी की जिम्मेदारी तय की जा सकती है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि नेता-नौकरशाही सूचना के अधिकार कानून और खासकर इस प्रावधान को अपने विशेषाधिकारों और अभी तक हासिल असीमित शक्तियों में कटौती के रूप में देखते रहे हैं. यही कारण है कि जन दबावों के बाद और खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए यू पी ए सरकार ने यह कानून तो बना दिया लेकिन कानून को ईमानदारी और उसकी सच्ची भावना के साथ लागू करने के बजाय उसकी राह में रोड़े अटकाने में लगी रही है. यहां तक कि कानून के लागू होने के दो सालों के अन्दर ही सरकार ने उसके दायरे से फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार को वापस लेने के लिए कानून में संशोधन करने की कोशिश की थी लेकिन जन संगठनो और बुद्धिजीवियों के भारी विरोध के बाद उसे अपने कदम वापस खीचने पड़े थे. इस मायने में, इस कानून में संशोधन के नए प्रयास को पिछले प्रयासों की निरंतरता में ही देखना चाहिए.
सवाल यह है कि केंद्र सरकार को सूचना के अधिकार कानून से क्या शिकायतें हैं? जिस कानून को लागू हुए अभी सिर्फ चार साल हुए हैं, उससे सरकार को ऐसी क्या दिक्कत हो रही है कि वह इस कानून के रचनाकारों और समर्थकों के विरोधों को अनदेखा करते हुए उसमे संशोधन के लिए उतारू है? दरअसल, नौकरशाही को घोषित तौर पर इस कानून से दो शिकायतें हैं. पहला, इस कानून का "दुरुपयोग" किया जा रहा है. कुछ निहित स्वार्थी तत्त्व इस कानून का सहारा लेकर फालतू, परेशान और तंग करनेवाले सवाल पूछ रहे हैं जिससे अधिकारियों को काम करने में बहुत दिक्कत हो रही है, उनका काफी समय ऐसे फालतू और बेकार सवालों का जवाब बनने में चला जा रहा है. यही नहीं, इसे विभागीय राजनीति में किसी अधिकारी के साथ हिसाब-किताब चुकता करने या बदला लेने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है.
दूसरी शिकायत यह है कि फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार देने से अधिकारियों को ईमानदारी से और बिना किसी भय के निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके द्वारा फाइल पर की गई नोटिंग सार्वजनिक होने पर उन्हें निहित स्वार्थी तत्वों और बेईमानों का कोपभाजन बनना पड़ सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों शिकायतें बहुत कमजोर, तथ्यहीन, एक तरह की बहानेबाजी और गोपनीयता की संस्कृति को बनाये रखने की मांग हैं. जैसेकि खुद सूचना के अधिकार के लिए लड़नेवाली अरुणा रॉय और दूसरे बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भी स्पष्ट किया है कि इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि इस कानून का इस्तेमाल जानबूझकर "फालतू और तंग" करनेवाले सवाल पूछने के लिए किया जा रहा है और न ही इस बात के कोई प्रमाण हैं कि फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को काम करने में दिक्कत हो रही है.
उल्टे सच्चाई यह है कि इस अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को बिना किसी अवांछित दबाव और भय के फैसला करने में सहूलियत हो रही है. वे उन नेताओं-मंत्रियों-अफसरों को इस कानून और खासकर इस प्रावधान का हवाला देकर उनकी इच्छा के अनुसार नोटिंग करने के दबाव से इंकार कर पा रहे हैं. यह प्रावधान ईमानदार और निर्भीक अफसरों के लिए बडी सुरक्षा साबित हो रहा है जबकि इसके कारण बेईमान और मनमानी करनेवाले अफसरों-नेताओं को मनमाने फैसले करने में जरूर परेशानी हो रही है क्योंकि अब कोई भी फाइल नोटिंग सार्वजनिक करके मनमाने-अवैधानिक-अनुचित फैसलों की जवाबदेही तय करवा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान से नौकरशाही को जिम्मेदार और जवाबदेह बनने के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सकता है.
रही बात "फालतू और तंग" करनेवाले सवालों को खारिज का अधिकार देने की तो इतना कहना ही काफी है कि अगर इस संशोधन को स्वीकार कर लिया गया तो इस कानून की मूल आत्मा की हत्या हो जायेगी क्योंकि इस प्रावधान का सहारा लेकर कोई भी जन सूचना अधिकारी किसी भी सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाले बताकर खारिज कर सकता है. आखिर यह कौन, कैसे और किस आधार पर तय करेगा कि कौन सा सवाल "फालतू और तंग" करनेवाला है? जाहिर है कि इस कानून के तहत पूछे जानेवाले सवालों से अपने भ्रष्टाचार, मनमानेपन, निक्कमेपन और गडबडियों की पोल खुलने के डर से घबराई नौकरशाही ऐसे हर सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाला बताकर खारिज करने से नहीं चूकेगी, जिससे उसकी पोल खुलती हो. इसके बाद सूचना के अधिकार कानून में क्या बचेगा? क्या यू पी ए सरकार प्रस्तावित संशोधनों के जरिये इस कानून को ख़त्म करना और एक शोपीस भर बनाना चाहती है?
गुरुवार, नवंबर 19, 2009
वाम मोर्चा की राह कठिन
हाल में संपन्न हुए उपचुनावों के नतीजों से एक बार फिर यह साफ हो गया है कि माकपा के नेतृत्व वाले सरकारी वामपंथ की राजनीतिक ढलान न सिर्फ जारी है बल्कि उसकी रफ्तार और तेज होती जा रही है। इस कारण अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने यह भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है कि जिस तरह से केरल और खासकर पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों विशेषकर माकपा के जनाधार में छीजन और बिखराव की प्रक्रिया तेज होती जा रही है, उसे देखते हुए माकपा के लिए अपने इन राजनीतिक किलों को बचा पाना मुश्किल होगा. हालांकि केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव 2011 में होने हैं और राजनीति में डेढ़ साल का वक्त काफी लम्बा होता है लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल में एक के बाद दूसरी चुनावी हारों और गंभीर राजनीतिक, सांगठनिक और वैचारिक समस्याओं और विचलनों के कारण वाम मोर्चा और खासकर उसकी नेता माकपा एक ऐसी वैचारिक और राजनीतिक लकवे की स्थिति में पहुँच गई है कि वह मुकाबले से बाहर होती दिख रही है.
माकपा की मौजूदा लकवाग्रस्त स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह जो कुछ भी कर रही है, उसका दांव उल्टा पड़ रहा है. उदाहरण के लिए माकपा ने इन उपचुनावों के दौरान बाजी हाथ से निकलते देख अपने रिटायर और वयोवृद्ध नेता ज्योति बसु को को आगे करके कांग्रेसी वोटरों के नाम एक अपील जारी करवाई कि राज्य में शांति, विकास और सुरक्षा के लिए वे वाम मोर्चे को वोट करें. लेकिन माकपा का यह 'ट्रंप कार्ड' भी नहीं चला, ज्योति बसु की फजीहत हुई सो अलग. कहने की जरुरत नहीं है कि यह अपील माकपा के बढ़ते राजनीतिक दिवालियेपन का ही एक और नमूना थी. साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि राज्य में वाम मोर्चा खासकर माकपा सत्ता हाथ से निकालता देख किस हद तक बदहवास हो गई है कि ज्योति बसु को भी कांग्रेसी वोटरों से वोट की भीख मांगने के लिए मैदान में उतार दिया।
दरअसल, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या भी यही है। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की सत्ता ही उसके गले का फांस बन गई है. ऐसा लगता है कि वह इन तीनो राज्यों की सत्ता खासकर पश्चिम बंगाल की सरकार के बिना नहीं रह सकती है. इसकी वजह यह है कि केरल में हर पांच साल में सरकार बदलती रहती है और त्रिपुरा राजनीतिक रूप से महत्वहीन है लेकिन पश्चिम बंगाल की बात ही अलग है जहाँ पिछले 32 वर्षों से वाम मोर्चा सत्ता में बना हुआ है. माकपा में पश्चिम बंगाल की सत्ता को लेकर इस कदर मोह है कि उसकी पूरी राजनीति इस बात से तय होती रही है कि राज्य में इस सत्ता को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए. इसके लिए वह हर तरह के समझौते के लिए यहां तक कि अपने राजनीतिक-वैचारिक मुद्दों को भी कुर्बान करती रही है.
सत्ता के प्रति इस व्यामोह और समझौते की राजनीति का ही नतीजा है कि माकपा जिन आर्थिक नीतियों खासकर उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध करती रही है, उन्हीं नीतियों को पश्चिम बंगाल समेत अन्य वाम मोर्चा शासित राज्यों में जोरशोर से लागू करने में उसे कोई शर्म नहीं महसूस होती है। इसका परिणाम सबके सामने है. सिंगुर से लेकर नंदीग्राम तक और अब लालगढ़ में माकपा की राजनीति का यही दोहरापन खुलकर सामने आया है. माकपा का यह वैचारिक-राजनीतिक स्खलन बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुँच गया कि पार्टी कांग्रेस को बुर्जुआ-सामंती पार्टी मानते हुए भी केंद्र में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर कांग्रेस को यू पी ए गठबंधन की सरकार साढ़े चार साल तक चलाने में न सिर्फ मदद करती रही बल्कि गठबंधन सरकार की संकटमोचक की भूमिका निभाती रही.
असल में, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी सीमा यही सत्ता की राजनीति बन गई है। सत्ता के साथ अनिवार्य रूप से जो बुराइयां आती हैं, वह माकपा में भी सहज ही देखी जा सकती हैं. यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में 32 सालों तक सत्ता में रहने के बाद माकपा का जो राजनीतिक-वैचारिक रूपांतरण हुआ है, उसमे वह वास्तव में एक कम्युनिस्ट पार्टी तो दूर, एक सच्ची वामपंथी पार्टी भी नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि माकपा चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल- हर जगह किसी भी बुर्जुआ पार्टी की तरह ही तमाम राजनीतिक स्खलनों जैसे भ्रष्टाचार, सार्वजनिक धन की लूट, भाई-भतीजावाद, गुंडागर्दी, ठेकेदारी आदि में आकंठ डूबी हुई दिखाई पड़ती है. इससे बचने का एक ही तरीका हो सकता था और वह यह कि पार्टी अपनी राज्य सरकारों की परवाह किये बगैर जनता खासकर हाशिये पर पड़े गरीबों-मजदूरों-दलितों-आदिवासियों के हक-हुकूक की लडाई को आगे बढाती.
इससे माकपा और वाम मोर्चा खुद को संसदीय राजनीति की सीमाओं में बांधने और उसके स्खलनों में फिसलने से बचा सकते थे। जनांदोलनों से न सिर्फ राज्य सरकारों को पूरी तरह से नौकरशाही के हाथ में जाने से रोका जा सकता था बल्कि उसे वास्तव में जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता था. यही नहीं, जनान्दोलनों के जरिये उन अवसरवादी-भ्रष्ट और ठेकेदार-गुंडा तत्वों को भी पार्टी से दूर रखा जा सकता था, जो आज पार्टी की पहचान बन गए हैं. माकपा इस सच्चाई से मुंह कैसे चुरा सकती है कि पार्टी आज पश्चिम बंगाल में सत्ता इसलिए गंवाने जा रही है कि क्योंकि उसका अपने मूल जनाधार ग्रामीण गरीबों-खेतिहर मजदूरों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों से सम्बन्ध टूट चुका है. क्योंकि राज्य में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है, यहां तक कि नरेगा जैसी योजनाओं को लागू करने के मामले में लापरवाही और सुस्ती दिखाई गई. पी डी एस राशन भी के लिए भी राज्य में दंगे हुए.
लेकिन माकपा पर सत्ता का मोह और उसका नशा इस कदर चढ़ा हुआ है कि वह लोकसभा चुनावों और उसके बाद अब नगरपालिकाओं और विधानसभा उपचुनावों की हार से कोई सबक सिखाने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि वह पार्टी में "शुद्धिकरण अभियान" चलाने की बात कर रही है लेकिन मुश्किल यह है कि सत्ता से चिपके रहने की ऐसी लत लग गई है कि न सिर्फ इस अभियान की सफलता पर संदेह है बल्कि पार्टी जल्दबाजी में एक बार फिर उन्हीं बुर्जुआ पार्टियों के साथ जोड़तोड़ करके राजनीति में खड़े होने का ख्वाब देख रही है. यहां तक कि वह पश्चिम बंगाल में तृणमूल-कांग्रेस के गठबंधन में दरार डालने और कांग्रेस से गलबहियां करने की हास्यास्पद कोशिश कर रही है. दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नाम पर एक बार फिर वह सपा,बसपा,टीडीपी और अन्ना द्रमुक के पीछे लटकने की तैयारी कर रही है. जाहिर है कि इन आजमाए हुए फ्लॉप टोटकों से माकपा की मुश्किलें खत्म होनेवाली नहीं हैं.
मंगलवार, नवंबर 17, 2009
क्यों टूट रहा है मुलायम सिंह का जादू ?
कहते हैं कि किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती है. संस्कृत की भी एक कहावत है- अति सर्वत्र वर्जयेत. लेकिन लगता है कि समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव को यह पता नहीं है, अन्यथा वह फिरोजाबाद में अपनी बहु और पार्टी सांसद अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल को उपचुनाव में उम्मीदवार बनाने से पहले दस बार जरुर सोचते. माना कि परिवारवाद आज की भारतीय राजनीति की एक सर्वव्यापी सच्चाई बन चुका है और कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं बची है लेकिन परिवारवाद की भी एक हद है, यह मुलायम सिंह भूल गए. ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश खासकर फिरोजाबाद के मतदाताओं ने इस बार तय कर लिया था कि मुलायम सिंह यादव को यह हद बता दिया जाना चाहिए.
नतीजा सबके सामने है. समाजवादी पार्टी और उससे अधिक उसके नेता मुलायम सिंह अपने ही गढ़ में मत खा गए. फिरोजाबाद के मतदाताओं ने राजनीतिक रूप से लगभग असंभव को संभव कर दिखाते हुए मुलायम सिंह की बहु को नकार कर कांग्रेस के राज बब्बर को 85 हजार से अधिक वोटों से जीता दिया. यह कांग्रेस और राज बब्बर की जीत से अधिक मुलायम सिंह की हार है. यह मुलायम सिंह से ज्यादा मुलायम सिंह की परिवारवादी राजनीति की हार है. उन्होंने जिस तरह से समाजवाद के नाम पर पूरी बेशर्मी से पार्टी को अपने परिवार की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दिया है, उसे फिरोजाबाद के मतदाताओं ने अब और बर्दाश्त करने से इंकार कर दिया. सचमुच, यह कितना सुंदर और जनतान्त्रिक न्याय है कि परिवारवाद की इस बेशर्म राजनीति को और किसी ने नहीं बल्कि मुलायम सिंह की राजनीति के गढ़ या कहिये घर के मतदाताओं ने ही नकार दिया.
यह ठीक है कि इस हार को पूरे उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों के नतीजों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है जहां समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन बहुत ख़राब और निराशाजनक रहा है. इस मायने में, फिरोजाबाद की हार पूरे उत्तर प्रदेश के राजनीतिक ट्रेंड के अनुरूप ही है. यह भी ठीक है कि फिरोजाबाद में डिम्पल यादव की हार के और भी कई कारण हैं. लेकिन कम से कम डिम्पल की हार का कारण वह नहीं है जो कांग्रेस पार्टी और यहां तक कि समाजवादी पार्टी भी बताने की कोशिश कर रही है. निश्चय ही, डिम्पल केवल इस लिए नहीं हारीं कि राज बब्बर के पक्ष में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी ने प्रचार किया. कांग्रेस अगर यह दावा कर रही है तो यह बहुत स्वाभाविक है. कांग्रेस में चापलूसी की 'उच्च परंपरा' के अनुसार पार्टी की जीत का सेहरा हमेशा से नेता के सिर बंधता रहा है और नेता अगर नेहरू-गाँधी परिवार का और भविष्य का प्रधानमंत्री हो तो भला कांग्रेस में उसके अलावा किसी और को श्रेय देने का कुफ्र कौन कर सकता है?
लेकिन हैरानी की बात यह है कि समाजवादी पार्टी भी अपनी हार का श्रेय राहुल गाँधी को दे रही है. पार्टी महासचिव अमर सिंह और खुद अखिलेश यादव फिरोजाबाद में राहुल गाँधी के प्रचार करने पर नाराजगी जता चुके हैं. अखिलेश ने तो इसे बिलकुल व्यक्तिगत लडाई की तरह लेते हुए ऐलान किया है कि अब उत्तर प्रदेश में वह खुद युवराज का मुकाबला करेंगे. उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि फिरोजाबाद में राहुल गाँधी यह जानते हुए भी कि यहां से मुलायम सिंह की बहु उम्मीदवार है, चुनाव प्रचार के लिए क्यों आये? जबकि समाजवादी पार्टी ने नेहरु-गाँधी परिवार के प्रति अपना सम्मान जताते हुए सोनिया और राहुल गाँधी के खिलाफ रायबरेली और अमेठी में कोई उम्मीदवार खडा नहीं किया था. साफ है कि समाजवादी पार्टी इस शिकायत के जरिये यह कहने की कोशिश कर रही है कि एक-दूसरे के पारिवारिक मामलों में दखल नहीं देना चाहिए यानि जहां एक के परिवार के लोग चुनाव मैदान में हों, वहां दूसरे के परिवार को दूर रहना चाहिए.
जाहिर है कि ऐसा कहकर सपा अपने हार के वास्तविक कारण- नग्न परिवारवाद पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है. कहने की जरुरत नहीं है कि यह एक ऐसा तर्क है जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. यही नहीं, यह तर्क देकर समाजवादी पार्टी परिवारवाद की राजनीति का भी बचाव करने की कोशिश कर रही है. यही कारण है कि वह उस कड़वी सच्चाई से आंख चुराने की कोशिश कर रही है जो सीधे उनके घर फिरोजाबाद से आई है. फिरोजाबाद का सन्देश साफ है कि समाजवाद के नाम पर परिवारवाद की अति की राजनीति अब और नहीं चलेगी. मुलायम सिंह के लिए यह सोचने का समय आ गया है कि आखिर वह परिवारवाद को कहाँ तक ले जाना चाहते हैं? जिस तरह से पूरी पार्टी खुद उनके परिवार तक सिमटती जा रही है और बाकी जो बचा-खुचा है, वहां अमर सिंह का फ़िल्मी परिवार काबिज है, उसके बाद वहां बाकी नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए और क्या बचता है?
दरअसल, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के टूटते राजनीतिक जादू की सबसे बड़ी वजह भी यही है. उन्होंने न सिर्फ पार्टी को पूरी तरह से अपने परिवार की संपत्ति बना दिया है बल्कि उसे जिस तरह से एक पारिवारिक निजी मालिकानेवाली पार्टी की तरह से चला रहे हैं, उसमें आज नहीं तो कल समाजवादी पार्टी का यही हश्र होना है. एक पार्टी जिसके अन्दर कोई लोकतंत्र नहीं है और प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह चलाई जा रही है, उसमे अमर सिंह जैसे मैनेजर और उनका राजनीतिक-आर्थिक कारोबार तो फलफूल सकता है लेकिन वह उत्तर प्रदेश जैसे जटिलता और विविधतापूर्ण राज्य की राजनीति और समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है. इस कारण सपा में साफ तौर पर एक "लोकतान्त्रिक घाटा" दिखाई पड़ रहा है.
इस "लोकतान्त्रिक घाटे" का ही नतीजा है कि पार्टी राज्य में न सिर्फ अपना सामाजिक जनाधार खोती जा रही है बल्कि उसे जमीनी सच्चाइयों का भी अंदाजा नहीं रह गया है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कारण है कि लोगों की नब्ज पर हाथ रखने का दावा करनेवाले मुलायम सिंह को भाजपा के पूर्व नेता और बाबरी मस्जिद गिराने के प्रमुख दोषी माने जानेवाले कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के नतीजों का अंदाजा नहीं हो पाया? आखिर यह मुलायम की कैसी समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा है कि उसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस के दोषी कल्याण के लिए भी जगह बन गई? दोहराने की जरुरत नहीं है कि पिछले लोकसभा चुनावों और अब उपचुनावों में सपा की अपमानजनक हार के पीछे एक बड़ी वजह अल्पसंख्यक मतदाताओं का सपा को छोड़ जाना है. इसके बाद अब यह राजनीतिक अवसरवाद की इन्तहा है कि बिना अपने किये की माफ़ी मांगे कल्याण सिंह से किनारा भी कर लिया.
यह सब निजी रिश्तों के नाम पर जायज ठहराया गया. लेकिन सवाल मुलायम सिंह और कल्याण सिंह के निजी रिश्तों का नहीं है. मुद्दा है एक ऐसे नेता और उसके राजनीतिक-वैचारिक अतीत के साथ राजनीतिक दोस्ती का जो सपा की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के साथ पूरी तरह से असंगत है. ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह को यह पता नहीं है लेकिन कल्याण सिंह या फिर अमर सिंह या अनिल अम्बानी और अमिताभ बच्चन के साथ निजी और राजनीतिक दोस्ती के फर्क को वही नेता भूल सकता है जिसके लिए अपनी राजनीति और वैचारिकी से पहले और ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्तिगत रिश्ते हों. इन व्यक्तिगत रिश्तों को निभाने की ऐसी जिद वही राजनेता कर सकता है जो अपनी राजनीति को परिवार के दायरे से बाहर नहीं देख पाता हो.
जाहिर है कि परिवार तक सिमटी हुई राजनीति कभी भी समावेशी नहीं हो सकती है और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अब बिना समावेशी राजनीति के खड़े रह पाना मुश्किल है. 2007 के विधानसभा चुनावों के पहले से ही यह स्पष्ट होने लगा था और चुनावों के बाद उसकी पुष्टि भी हो गई कि उत्तर प्रदेश में संकीर्ण जातीय और धार्मिक गोलबंदी की राजनीति का तेल खत्म होने लगा है और जो भी पार्टी सामाजिक जनाधार को फैलाने और विस्तृत करने की ईमानदार कोशिश नहीं करेगी, वह बहुत दूर तक नहीं चल पायेगी. बसपा ने कई सीमाओं के साथ 2007 में अपनी "सामाजिक इंजीनियरिंग" से कुछ हद तक यह करिश्मा कर दिखाया लेकिन मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को साथ लेकर जिस व्यापक पिछड़ा गोलबंदी की कोशिश की, उसने अल्पसंख्यक मतदाताओं को नाराज और पार्टी से दूर कर दिया.
कहने की जरुरत नहीं है कि सपा और मुलायम को पहले लोकसभा और अब उपचुनावों के दौरान सबसे ज्यादा नुकसान मुस्लिम वोटरों के पार्टी से छिटकने के कारण हुआ है. सभी जानते हैं कि मुस्लिम और पिछडी जातियों में मुख्य रूप से यादव सपा के मूल आधार रहे हैं. लेकिन मुस्लिम वोटरों के खिसकने के साथ पार्टी के जनाधार में बिखराव और छीजन की एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गई है कि उसके मूल आधार पिछडी किसान जातियों खासकर यादवों के एक हिस्से ने भी किनारा करना शुरू कर दिया है. इसका संकेत उपचुनावों के नतीजों में साफ देखा जा सकता है. सपा न सिर्फ फिरोजाबाद की "घरेलू" मानी जानेवाली लोकसभा सीट हार गई बल्कि मुलायम के गढ़ में पड़नेवाली भरथना और इटावा की विधानसभा सीटें भी हार गईं. यही नहीं, पार्टी 2007 के विधानसभा चुनावों में जीती अपनी पांचों सीटें- इसौली,हैंसर बाज़ार,पुवायां, भरथना और इटावा हार गईं.
सबसे शर्मनाक बात तो यह हुई कि पार्टी 11 विधानसभा सीटों में से एक भी नहीं जीत पाई और कई सीटों पर तीसरे-चौथे स्थान पर पहुंच गई. मुलायम सिंह के लिए यह खतरे की घंटी है. इसकी वजह यह है कि अगर सपा उत्तर प्रदेश में बसपा से सीधे मुकाबले से बाहर हुई तो उसके लिए अपने खिसकते जनाधार को संभाल पाना और मुश्किल हो जायेगा. कांग्रेस इसी मौके का इंतजार कर रही है. उसकी पूरी कोशिश यह है कि वह 2012 के विधानसभा चुनावों से पहले बसपा से सीधे मुकाबले में आ जाए. कहने की जरुरत नहीं है कि जो पार्टी बसपा से सीधे मुकाबले में होगी, उसे बसपा सरकार के खिलाफ बने विक्षोभ और नाराजगी का सीधा फायदा मिलेगा. हालांकि अभी कोई भी निष्कर्ष निकालना थोडी जल्दबाजी होगी लेकिन उपचुनावों के नतीजों से यह साफ है कि सपा की राजनीतिक जमीन खिसक रही है और वह बसपा से सीधे मुकाबले में बाहर हो रही है.
लेकिन इसके लिए और कोई नहीं बल्कि खुद मुलायम सिंह जिम्मेदार हैं जिन्होंने समाजवाद के नाम पर पिछले एक-डेढ़ दशक में जिस तरह की राजनीति को आगे बढाया है, वह अब बंद गली के आखिरी मुहाने पर पहुंच गई है. यहां से आगे का रास्ता बंद है और नए रास्ते खोलने के लिए उन्हें न सिर्फ परिवारवाद (और अमरवाद मार्का समाजवाद) से पीछा छुडाना पड़ेगा बल्कि समाजवादी राजनीति की जड़ों की ओर लौटना होगा. उन्हें उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार को और समावेशी बनाने के लिए आम आदमी के मुद्दों पर जनसंघर्षों और ग्रामीण गरीबों, किसानो,बुनकरों,दलितों और अल्पसंख्यकों के हक़-हुकूक की लडाई में उतरना होगा.
जाहिर है कि विपक्ष की राजनीति पांच सितारा होटलों और सैरगाहों से नहीं चल सकती है. लेकिन जिस पार्टी के नेता अपने भाई-भतीजे-बेटे-बहू और अमर सिंह, संजय दत्त, जया बच्चन जैसे हों, उससे इसकी उम्मीद करना भी बेकार है. कहने की जरुरत नहीं है कि सपा की मौजूदा पारिवारिक-कारपोरेट राजनीति में अवसरवादी-दलाल-भ्रष्ट-ठेकेदार-गुंडा-माफिया तत्व ही फलफूल सकते हैं. लेकिन इस राजनीति की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं. अब यह मुलायम को तय करना है कि वह किस रास्ते जायेंगे.
शुक्रवार, नवंबर 13, 2009
माओवाद को कितना जानता है समाचार मीडिया?
जब से यू पी ए सरकार ने माओवाद/नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई का ऐलान किया है, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर रोज़ शाम को होनेवाली चर्चाओं में भी नक्सलवाद/माओवाद एक प्रिय विषय बन गया है। इसमे कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार की घोषणा के बाद चैनलों की इस अतिसक्रियता से यह तो पता चलता ही है कि उनका अजेंडा कौन तय कर रहा है. यही नहीं, लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन होनेवाली इन चर्चाओं में कुछ खास बातें गौर करनेवाली हैं. पहली बात तो ये कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर एंकर सहित उन पत्रकारों/नेताओं/पुलिस अफसरों की भरमार होती है जो नक्सलवाद/माओवाद को न सिर्फ देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि उससे निपटने के लिए सैन्य कार्रवाई को ही एकमात्र विकल्प मानते और उसका समर्थन करते हैं.
हालांकि ऐसी सभी चर्चाएं आमतौर पर एकतरफा होती हैं लेकिन उनपर यह आरोप न लग जाए, इसलिए एकाध मानवाधिकारवादी या बुद्धिजीवी को भी कोरम पूरा करने के वास्ते बुला लिया जाता है। फिर उसपर सवालों की बौछार शुरू कर दी जाती है लेकिन उसे जवाब देने का मौका नहीं दिया जाता है. चूंकि सवाल पूछने का हक एंकर के पास होता है, इसलिए चर्चा का एजेंडा भी वही तय करता है. वह कुछ सवालों को ही घुमा-फिराकर बार-बार पूछता है जैसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते या क्या पुलिस का मानवाधिकार नहीं है या माओवादी न संविधान मानते हैं न सरकार और न ही हथियार डालने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत कैसे हो सकती है या क्या माओवादियों के लिए बातचीत अपनी ताक़त बढाने का सिर्फ एक बहाना नहीं है?
यही नहीं, उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के "खलनायकीकरण" की हरसंभव कोशिश होती है जो माओवादियों के खिलाफ सैन्य अभियान का न सिर्फ विरोध करते हैं बल्कि सरकार के इरादों पर सवाल भी उठाने की कोशिश करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि खुद को स्वतंत्र बतानेवाले मीडिया ने एक बार भी प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के इन बयानों पर सवाल नहीं उठाया कि कैसे माओवाद "आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है?" क्या यह सच नहीं है कि टी वी चैनलों की न तो यह जानने में कोई दिलचस्पी है कि देश के इतने बड़े हिस्से में गरीब-आदिवासी और दलितों ने हथियार क्यों उठा लिया है और न ही दर्शकों को ये बताने की मंशा है कि सरकार झारखण्ड और छत्तीसगढ़ को माओवादियों से मुक्त कराने के लिए इतनी बेचैन क्यों है?
समाचार मीडिया की अगर इन सवालों और मुद्दों में इतनी ही दिलचस्पी होती तो क्या वे झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में अपने पूर्णकालिक संवाददाता नहीं नियुक्त करते? विडम्बना यह है कि अगर कीमती खनिज न होते तो देश के इन सुदूर वन-प्रांतरों में सरकारों की कोई दिलचस्पी नहीं होती. इसी तरह कारपोरेट मीडिया की रांची या रायपुर में कोई रूचि नहीं है और न ही इन इलाकों की खबरें मीडिया में जगह बना पाती हैं. सच पूछिये तो पूरे पूर्वी भारत को मीडिया में कितनी जगह मिलती है? क्या ये सच नहीं है कि मुंह नोचने को तैयार एंकरों में से अधिकांश ने कभी भी इन इलाकों में घूमने की जहमत नहीं उठाई है? उनके "वी द पीपुल" या (फेस द) "नेशन" की सीमाएं दिल्ली और मुंबई जैसे टी आर पी महानगरों तक सीमित हैं और उनके "फ्रैंकली स्पीकिंग" की हद "बुश-चिदंबरम स्पीक" से तय होती है.
मंगलवार, नवंबर 10, 2009
सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में पिछड़ने के मायने
आनंद प्रधान
पिछले सप्ताह जब से ’द टाइम्स-क्यूएस’ की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है। यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी,मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी, दिल्ली को जगह मिल सकी है जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नही माना जाता है।
यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नही हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नही है। ऐसा नही है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षों से जारी हो रही इस वैश्विक रैकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।
सवाल है कि इस वैश्विक रैकिंग को कितना महत्त्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि ’द टाइम्स-क्यूएस’ की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टों की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्यांकन की छाप को साफ देखा जा सकता है। लेकिन इस सबके बावजूद दुनिया भर के ‘शैक्षणिक समुदाय में ’ द टाइम्स-क्यूएस ’ की वैश्विक विश्वविद्यालय रैकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गयी है।
दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का एक जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैकिंग एक अनिवार्य ‘शर्त है। यह रैकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैकिंग को ध्यान में रखते हैं। निश्चय ही, इस तरह की रैकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आक्रर्षित करने में कामयाब होते हैं।
इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है। आश्चर्य नही कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों का रूख कर रहे हैं। यही नहीं, ’ब्रेन ड्रेन’ रोकने और ’ब्रेन गेन’ के दावों के बीच अभी भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और ‘शोधकर्ता विदेशों का रूख कर रहे हैं।
इस मायने में, वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है बल्कि एक तरह से चेतावनी की घंटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है। इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।
लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है? क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में ढकेलना नही होगा? क्या इससे देशी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?
निश्चय ही, इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। हालांकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए जिनके कारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है। आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतांत्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है। इसके बिना विश्वविद्यालयों का कायाकल्प मुश्किल है।
असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतियां हैं-उच्च शिक्षा के विस्तार की , उसमें देश के सभी वर्गों के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गये।
एक अंतर्राष्ट्रीय ‘शोध रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक (ब्राजील,रूस,भारत और चीन) देशों में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नही कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नही बना पाए। उपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जु गाड़ने के लिए कह रही है।
यही नही, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11 वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्त्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 0।39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।
असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं जबकि विकसित पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नही कि मानव विकास सूचकांक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है। आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में जगह कैसे बना सकता है?
सोमवार, नवंबर 09, 2009
सिर्फ छवि नहीं, विश्वविद्यालयों को चमकाने का उपाय कीजिये
क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि एक ओर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार और बेहतरी की घोषणाएं और दावे कर रहे हैं, उसी समय देश के दो सबसे प्रतिष्ठित और पुराने केंद्रीय विश्वविद्यालयों- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए एम यू ) और शान्तिनिकेतन में छात्र-कर्मचारी असंतोष और आन्दोलन के कारण पढाई ठप्प है। ए एम यू को तो अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया है और छात्रों से हास्टल खाली करा लिए गए हैं. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ इन दो विश्वविद्यालयों तक सीमित कहानी है बल्कि अधिकांश विश्वविद्यालयों की यही स्थिति है. वहां पढाई के अलावा और सभी कुछ हो रहा है. यहां तक कि कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और कई के खिलाफ जांच जारी है.
दूसरी ओर, कुछ चुनिन्दा विश्वविद्यालयों को छोड़कर अधिकांश विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षा के नाम पर छात्रों के साथ मजाक हो रहा है। इन विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक हालत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू जी सी-नैक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 140 विश्वविद्यालयों और साढ़े तीन हजार कालेजों में से सिर्फ 31 फीसदी विश्वविद्यालय और 9 प्रतिशत कालेज ही ए ग्रेड के हैं जबकि बाकी का भगवान मालिक है. यही नहीं, योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के आधे से अधिक विश्वविद्यालयों और 90 फीसदी से अधिक कालेजों से डिग्री लेकर निकालनेवाले छात्र किसी "नौकरी के लायक नहीं' हैं क्योंकि उन्हें उनके विश्वविद्यालयों और कालेजों में जो कथित "शिक्षा" मिली है, उसमे ज्ञान और कौशल नहीं सिर्फ डिग्री मिली है. आप माने या न माने लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि अधिकांश विश्वविद्यालय और कालेज सिर्फ डिग्री बांटने की दुकानें बन गए हैं.
यह सही है कि इसके लिए कपिल सिब्बल सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं। उन्हें अभी मानव संसाधन मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाले कुछ ही महीने गुजरे हैं और ऐसा भी नहीं है कि उनसे पहले के शिक्षामंत्रियों के कार्यकाल में विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक स्थिति इससे कोई बेहतर थी. निश्चय ही, उन्हें उच्च शिक्षा की लगातार बिगड़ती स्थिति में सुधार के लिए पर्याप्त समय और मौका मिलना चाहिए लेकिन यह स्वीकार करते हुए भी इसपर गौर करना जरुरी है कि उन्हें स्थिति की गंभीरता और अपने सामने खड़ी चुनौती का अंदाजा है या नहीं? यही नहीं, यह देखना भी जरुरी है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं से किस हद तक वाकिफ हैं और उनके सुधारों की दिशा क्या है?
असल में, जब से कपिल सिब्बल मानव संसाधन विकास मंत्री बने हैं, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए अपने बयानों और फैसलों के कारण आये दिन सुर्खियों में बने रहते हैं. अपनी इस सक्रियता के कारण उन्हें प्रधानमंत्री से भी शाबासी मिल चुकी है और मीडिया तो उन्हें यू पी ए सरकार के सबसे तेजतर्रार और कामकाजी मंत्रियों में शुमार करता ही है. कहने की जरुरत नहीं है कि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता के बतौर काम कर चुके श्री सिब्बल को मीडिया में बने रहने की कला अच्छी तरह से आती है. अलबत्ता ये बात और है कि इस बीच कई बार वे अपने बयानों के कारण मुश्किलों में पड़ चुके हैं और उन्हें अपनी कही हुई बातें वापस लेनी पड़ी हैं. इसके बावजूद उनपर कोई खास असर नहीं पड़ा है क्योंकि वे जानते हैं कि काम करने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम करनेवाले मंत्री की छवि बनाना है।
दरअसल, उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है। सच यह है कि उनके बयानों और फैसलों में शोर-शराबा ज्यादा है और वास्तविक अंतर्वस्तु कम. उनका सुर्खियों से जितना प्यार दिखता है, वास्तविक चुनौतियों से निपटने की उनकी तैयारी उतनी ही कमजोर दिखती है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कारण है कि यू पी ए सरकार ने धूमधाम से जिन 16 केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना का ऐलान किया, महीनो गुजर जाने के बावजूद उनमें से 11 विश्वविद्यालयों की जमीन तक का पता नहीं है और कई के बारे में तो यह भी पता नहीं है कि वे किस शहर में खुलेंगे. इसी तरह यशपाल समिति की सिफारिशों को आये हुए भी दो महीनो से अधिक गुजर गए लेकिन उनका मंत्रालय चुप्पी मारकर बैठा है.
यहां तक कि उसकी एक सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश पर अमल करने में मंत्रालय की घिग्गी बंधी हुई है कि पिछले कुछ वर्षों में "उदारता"के साथ बांटी गई "सब-स्टैण्डर्ड डीम्ड यूनिवर्सिटी" को तत्काल रद्द किया जाए। हालांकि मंत्रालय द्वारा गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने इन शिक्षा की इन निजी दुकानों की जांच-पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट सिब्बल को सौंप दी है. लेकिन उसपर कारवाई करने और शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगाने के बजाय शिक्षा मंत्री इसे और जोरशोर से आगे बढाने में जुटे हुए हैं. असल में, कपिल सिब्बल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे उच्च शिक्षा की सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान निजीकरण और बाजारीकरण को मानते हैं.
यही कारण है कि वे मौजूदा विश्वविद्यालयों को और बेहतर बनाने और उनमे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के बजाय बड़े कारपोरेट समूहों के लिए उच्च शिक्षा का क्षेत्र खोलने और विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में आमंत्रित करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। कहने कि जरुरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी लगातार तेजी से फ़ैल रहे भारतीय उच्च शिक्षा बाज़ार में घुसाने के लिए बेचैन हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक बारात में शिक्षा का बाज़ार लगभग 20 अरब डालर यानि करीब 10 खरब रुपये से अधिक का है.
लेकिन शिक्षा क्षेत्र को देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए खोलने से पहले शिक्षा मंत्री को उन करीब पौने चार सौ सरकारी विश्वविद्यालयों और दस हजार कालेजों की खस्ताहाल शैक्षणिक स्थिति को सुधारने के लिए गंभीर पहल करनी पड़ेगी जो पिछले दो दशकों की सरकारी उपेक्षा के कारण इस स्थिति में पहुँच गए हैं। आलम यह है कि इन विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों-कर्मचारियों के सैकडों पद खाली पड़े हैं, जरुरी शैक्षणिक सुविधाओं जैसे प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों आदि का हाल बदहाल है, क्लास रूम्स और हास्टलों आदि की स्थिति जर्जर हो चुकी है लेकिन उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं है. ऊपर से भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के कारण स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इन सभी वजहों से परिसरों में निराशा और हताशा का ऐसा माहौल बन गया है कि उसमे पढाई-लिखाई और वह भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जैसीकि प्रधानमंत्री चाहते हैं, संभव नहीं है.
ऐसे में जरुरत यह है कि कपिल सिब्बल अपनी छवि चमकाने के बजाय मौजूदा विश्वविद्यालयों और कालेजों की स्थिति सुधारने के लिए परिसरों को न सिर्फ पर्याप्त धन और संसाधन मुहैया कराएं बल्कि उनके संचालन को बेहतर बनाने के लिए कुलपतियों को जवाबदेह, प्रशासन को पारदर्शी और निर्णय लेने की प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक बनाएं. क्या यह दोहराने की जरुरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ वर्षों या दशकों पहले तक अपने विशेष शैक्षणिक योगदान के लिए जाने-जानेवाले ए एम यू, बी एच यू, शान्तिनिकेतन, कलकत्ता,लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, राजस्थान, सागर और कुमाऊँ जैसे विश्वविद्यालयों की मौजूदा बदहाल स्थिति के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की आपराधिक उपेक्षा और लापरवाही जिम्मेदार रही है. जाहिर है कि इसे ठीक करने के लिए कोई बाहर से नहीं आएगा और न ही इसका इलाज उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र या विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंप देना है. कपिल सिब्बल को सबसे पहले इसपर ही ध्यान देना होगा.
बुधवार, नवंबर 04, 2009
अपने दामन में झांकें कोड़ा पर कोड़ा चलाने वाले
आनंद प्रधान
झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को देश का पहला ऐसा पूर्व मुख्यमंत्री होने का 'गौरव' हासिल हो गया है जिसके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय और सी बी आइ ने न सिर्फ आय से अधिक संपत्ति जुटाने बल्कि हवाला के जरिये उसे देश से बाहर भेजने के आरोप में मामला दर्ज किया है। पिछले दो दिनों में देशभर के आठ शहरों में कोड़ा और उनके करीबी सहयोगियों के 70 से अधिक ठिकानो पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों में कोई 2000 करोड़ रुपये से अधिक की नामी-बेनामी संपत्ति का पता चला है. इसमे लाइबेरिया से लेकर दुबई, मलेशिया, लाओस, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देशों में संपत्ति खरीदने से लेकर कोयला और स्टील कंपनियों में निवेश तक की सूचना है. हालांकि अभी पूरे तथ्यों और जानकारियों का सामने आना बाकी है लेकिन इतना साफ हो चुका है कि यह अभी भ्रष्टाचार के हिमशैल(आइसबर्ग) का उपरी सिरा भर है और सतह के नीचे न जाने कितना कुछ छुपा हुआ है.
कहने की जरुरत नहीं है कि देश के सबसे गरीब और पिछड़े राज्य में कोड़ा और उनके राजनीतिक साथियों और करीबी सहयोगियों ने सिर्फ कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान बना दिए हैं। यह सचमुच कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस राज्य का गठन देश के इस सबसे पिछड़े इलाके को विकास की मुख्यधारा में लाने और उसका हक दिलाने के लिए किया गया था, वह राज्य भ्रष्टाचार के मामले में कीर्तिमान बना रहा है. उससे कम बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि जिस राज्य के गठन की लडाई का सबसे अहम मुद्दा यह था कि इस आदिवासी बहुल राज्य का शासन यहीं के लोगों के हाथ में होना चाहिए क्योंकि इस जमीन से पैदा लोग बाहरी लोगों की तरह लूटने-खसोटने के बजाय यहां का दर्द समझेंगे और राज्य के विकास के लिए काम करेंगे, वो लूटने-खसोटने में बाहरी लोगों से भी आगे निकलते हुए दिखाई दे रहे हैं. इस मायने में, कोड़ा और उनके मंत्रिमंडल के कई आदिवासी साथियों ने सबसे अधिक धोखा अपने राज्य और उसके गठन के लिए कुर्बानी देनेवाले लाखों नागरिकों के साथ किया है.
निश्चय ही, कोड़ा और उनके साथियों को इसके लिए माफ़ नहीं किया जा सकता है। वे माफ़ी के काबिल इसलिए भी नहीं हैं कि उन्होंने एक अत्यंत निर्धन राज्य के संसाधनों की न सिर्फ बेशर्मी खुली लूट की है बल्कि उस राज्य के गरीबों के साथ छल किया है जो इस तरह की लूट को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन कोड़ा कोई अपवाद नहीं हैं. यहाँ तो पूरे कुएं में ही भंग पड़ी है. क्या कोड़ा के भ्रष्टाचार में खुले-छिपे शामिल उन महान 'राजनीतिक दलों' और उनके 'पवित्र नेताओं' की कोई भूमिका नहीं है जो कल तक साथ-साथ सत्ता की मलाई चाट रहे थे लेकिन अब पाकसाफ होने का दावा कर रहे हैं ? क्या यह सच नहीं है कि कोड़ा और उनके निर्दलीय साथियों को सत्ता और सम्मान देने के मामले में कांग्रेस या भाजपा में कोई पीछे नहीं था? याद रहे कि कोड़ा संघ परिवार की ट्रेनिंग और भाजपा की छत्रछाया में राजनीति में आये. तथ्य यह भी है कि कोड़ा का खनन मंत्रालय से रिश्ता भाजपा की मरांडी और मुंडा सरकारों के दौरान बना और कांग्रेस और राजद के सहयोग से वे निर्दलीय होते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गए. आखिर इससे बड़ा राजनीतिक मजाक और क्या हो सकता है कि यू पी ए खासकर कांग्रेस ने झारखण्ड जैसे राज्य का मुख्यमंत्री एक निर्दलीय को बनवा दिया.
असल में, जब से झारखण्ड बना है, कांग्रेस और भाजपा जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने न सिर्फ उसके साथ राजनीतिक खिलवाड़ किया है बल्कि वहां के स्थानीय आदिवासी नेतृत्व और राजनीतिक दलों को भ्रष्ट बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि कोड़ा या सोरेन जैसे आदिवासी नेताओं की कोई गलती नहीं है और उन्हें कांग्रेस या भाजपा के नेताओं ने बहला-फुसलाकर भ्रष्ट बना दिया लेकिन इस सच्चाई को अनदेखा कैसे किया जा सकता है कि झारखंड की पिछले तीन दशकों की राजनीति में सोरेन जैसे लड़ाकू नेताओं और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे दलों को कांग्रेस ने कैसे भ्रष्ट बनाया? क्या नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने में झामुमो के सांसदों को दी गई रिश्वत के लिए केवल रिश्वत लेनेवाले ही जिम्मेदार हैं या देनेवालों की भी कोई जिम्मेदारी बनती है? यहीं नहीं, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बहुत योजनाबद्ध तरीके से यहां के स्थानीय आदिवासी नेतृत्व को भ्रष्ट बनाया गया है ताकि झारखंड जैसे संसाधन संपन्न राज्य के साधनों की लूट में कोई अड़चन नहीं आये.
इसका नतीजा कोड़ा और सोरेन जैसे नेताओं के रूप में हमारे सामने है। लेकिन आश्चर्य नहीं कि झारखण्ड जैसे निर्धन राज्य में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं नहीं बन पा रहा है. वजह साफ है. असल में, लोगों को पता है कि कोड़ा किसकी शह और आर्शीवाद से लूट का साम्राज्य खडा करने में जुटे हुए थे. यही नहीं, लोगों को यह भी पता है कि कोड़ा अब एक सिर्फ नाम भर नहीं हैं बल्कि एक प्रवृत्ति के उदाहरण बन चुके हैं. न जाने कितने कोड़ा इस या उस पार्टी में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं या बिना किसी रोक-टोक या भय के लूट-खसोट का कारोबार जारी रखे हुए हैं. आप माने या न मानें, लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि स्थानीय आदिवासी नेतृत्व के भ्रष्ट होने के कारण ही माओवाद को वह राजनीतिक जमीन मिली है जिसपर कल तक सोरेन और कोड़ा जैसे नेता खड़े थे.
साफ है कि झारखण्ड में कितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है. यह सिर्फ एक और भ्रष्टाचार का मामला भर नहीं है बल्कि इसमें पूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया दांव पर लगी हुई है. यहां यह भी कहना जरुरी है कि एक कोड़ा या सुखराम को पकड़ने से कुछ नहीं बदलनेवाला क्योंकि वह भ्रष्ट व्यवस्था ज्यों-की-त्यों बनी हुई है. आश्चर्य नहीं कि इस देश में भ्रष्टाचार खासकर उच्च पदों का भ्रष्टाचार अब कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं रह गया है, कम से कम राजनीतिक दलों के लिए तो यह कोई मुद्दा नहीं रह गया है. जब भ्रष्टाचार शासन व्यवस्था का इस तरह से हिस्सा बन जाए कि प्रशासन का कोई पुर्जा और पूरी मशीन बिना रिश्वत के 'ग्रीज' के चलने में अक्षम हो गई हो तो वह कोड़ा जैसों को ही पैदा कर सकती है. आखिर इसकी जिम्मेदारी किसकी है? क्या किसी के पास कोई जवाब है कि पिछले तीन दशकों से अधिक समय से वायदे के बावजूद आजतक लोकपाल कानून क्यों नहीं बना? क्या कारण है कि अभी चार साल भी नहीं हुए और नौकरशाही-नेताशाही आर टी आइ कानून को बदलने पर तुल गई है? कोड़ा पर कोड़ा चलानेवाले क्या अपने दामन में झांकेंगे?