- आनंद प्रधान
इन दिनों मुंबई शेयर बाज़ार में जो बूम सा दिख रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ।एफ.आई) की है. एफ.एफ.आई वे विदेशी निवेशक हैं, जो दुनिया भर के बाज़ारों में अधिक से अधिक मुनाफे की तलाश में चक्कर लगाते रहते हैं और जिन्हें उनके इसी चंचल स्वभाव के कारण आवारा पूंजी भी कहा जाता है. तात्पर्य यह कि इस वित्तीय पूंजी का कोई घर नहीं है और अपने निवेशकों को अधिक से अधिक मुनाफा दिलाने के लिए वह हमेशा आकर्षक ठिकानो की तलाश में रहती है. कहने कि जरूरत नहीं है कि अपने मकसद को हासिल करने के लिए उसे सट्टेबाजी और 'बाज़ारों में जोड़तोड़' (मैनिपुलेशन) से कोई परहेज नहीं है बल्कि यह उसकी चारित्रिक विशेषता है.
जाहिर है कि वफ़ादारी एफ.एफ.आई का स्वभाव नहीं है और न ही उन्हें किसी खास देश से कोई प्यार है. आज वे टूट कर भारत की ओर दौड़े चले आ रहे हैं लेकिन अगर कल उन्हें भारत की तुलना में रूस या ब्राज़ील या मलेशिया का बाज़ार ज्यादा मुनाफा देता हुआ दिखाई देने लगे तो उन्हें भारतीय बाज़ारों से अपना पैसा निकालकर निकलने में जरा भी देर नहीं लगेगी. वे जितनी तेजी से आते हैं, उससे भी अधिक तेजी से निकल जाते हैं. लेकिन अपने पीछे "कारवां गुजर गया,गुबार देखते रहे" के अंदाज में ध्वस्त शेयर बाज़ार और अर्थव्यवस्था छोड़ जाते हैं. उदाहरण के लिए, भारत में 2005 में 10.71 अरब डालर का एफ.एफ.आई निवेश आया लेकिन 2006 में यह गिरकर 8.10 अरब डालर रह गया. पर फिर 2007 में 17.65 अरब डालर पहुंच गया लेकिन अगले साल 11.97 अरब डालर की पूंजी निकाल गई. ऐसे एक नहीं बल्कि दर्जनों देशों खासकर विकासशील देशों के उदाहरण हैं जहां पिछले दो दशकों में एफ.एफ.आई के निकलते ही न सिर्फ उस देश का शेयर बाज़ार औंधे मुंह गिरा बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था ही संकट में फंस गई.
यही कारण है कि दुनिया भर में एफ.एफ.आई के जरिये आनेवाली पूंजी को लेकर संबंधित देशों में एक आशंका और चिंता की भावना बनी रहती है. यही नहीं, मेक्सिको-चिली से लेकर दक्षिण एशियाई देशों के वित्तीय संकट में एफ.एफ.आई की सीधी भूमिका के बाद से इस विदेशी निवेश को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है. इसीलिए उसे नियंत्रित करने की मांग अलग-अलग तबकों से आती रही है. अब पिछले साल के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से तो एफ.एफ.आई निवेश को नियंत्रित करने को लेकर बहस और तेज हो गई है. इस बीच कई मंचों पर एफ.एफ.आई को नियंत्रित करने को लेकर मांगें भी उठी हैं और प्रस्ताव भी आये हैं. यहां तक कि आमतौर पर एफ.एफ.आई के निर्बाध प्रवाह की मांग करनेवाले विकसित देशों और उनके मंचों जी-7 और जी-20 में भी छिटपुट ही सही यह मांग उठने लगी है. इस बहस के बीच ब्राज़ील ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए इस साल अगस्त में विदेशी पूंजी के प्रवाह यानि देश में आने-जाने पर दो प्रतिशत की दर से एक टैक्स लगा दिया है. इस फैसले के बाद दुनिया के कई और देशों में एफ.एफ.आई निवेश पर नियंत्रण और उसके बेहतर प्रबंधन के लिए ऐसे ही कड़े और साहसिक फैसले करने की मांग उठने लगी है.
जाहिर है कि भारत के लिए भी ये एक महत्वपूर्ण सवाल है. इसके कई कारण हैं. पहली बात यह है कि भारत भी पिछले कुछ वर्षों से एफ.एफ.आई निवेशकों के बड़े आकर्षण के केंद्र के रूप में उभरा है. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अकेले इस साल जनवरी से मध्य नवम्बर तक 15 अरब डालर (71900 करोड़ रूपये) से अधिक का एफ.एफ.आई निवेश देश में आ चुका है. माना जा रहा है कि अगले डेढ़ महीनो में यह बढ़कर 18 अरब डालर से अधिक पहुंच सकता है. यह एक नया रिकार्ड होगा. इससे पहले, 2007 में 17.65 अरब डालर का रिकार्ड एफ.एफ.आई निवेश आया था. कहने की जरूरत नहीं है कि एफ.एफ.आई निवेश की इस बाढ़ के कारण ही मुंबई शेयर बाज़ार रोज नई उड़ान भर रहा है.
लेकिन यह निवेश अपने साथ कई समस्याएं भी लेकर आ रहा है. रिजर्व बैंक के लिए चुनौती यह है कि वह इसका प्रबंधन कैसे करे? दरअसल, इस निवेश के साथ आनेवाला डालर रूपये को लगातार मजबूत कर रहा है यानि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत बढ़ रही है. पिछले छह महीनो में रूपये की कीमत 5 प्रतिशत से अधिक बढ़ चुकी है जिसके कारण आयात सस्ता और निर्यात महंगा हो रहा है. यह उन निर्यातकों के लिए एक बुरी खबर है जो पहले ही पिछले तेरह महीनो से लगातार गिरते निर्यात के कारण परेशान हैं. लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती यह है कि डालर के अत्यधिक प्रवाह से बाज़ार में अधिक मुद्रा की आपूर्ति के कारण तरलता बहुत बढ़ गई है जिससे मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ रही है. इसके कारण रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में वृद्धि का भारी दबाव है.
असल में, भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने अधिक डालर को समाहित करने की क्षमता नहीं है. पर इस सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस अत्यधिक डालर प्रवाह के कारण शेयर बाज़ार से लेकर अन्य सभी परिसंपत्तियों की कीमतें असामान्य रूप से बहुत तेजी से और उनकी वास्तविक कीमत से काफी ज्यादा बढ़ रही हैं. इससे बाज़ार में एक बुलबुला बन रहा है जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है. तथ्य यह है कि कुछ सट्टेबाजों और मौजूदा स्थिति से खुश लोगों के अलावा बाज़ार से जुड़े अधिकांश लोगों का भी यह मानना है कि एक बुलबुला बन रह है. दोहराने कि जरूरत नहीं है कि यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी के कारण हो रहा है जो एफ.एफ.आई यानि आवारा पूंजी की सबसे बड़ी चारित्रिक विशेषता है. लेकिन चिंता की बात यह है कि हर बुलबुले की तरह यह बुलबुला आज नहीं तो कल जरूर फूटेगा. बुलबुले के फूटने की कीमत पूरी अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है.
यह इसलिए और भी चिंता की बात है कि वैश्विक मंदी की मार से उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्था एक और झटके को शायद ही बर्दाश्त कर पाए. लेकिन वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी को इसमें चिंता की कोई बात नहीं दिखाई नहीं देती है. उनका दावा है कि सरकार के पास इस पर निगरानी की व्यवस्था मौजूद है और जब भी कोई गड़बड़ी दिखाई देगी, सरकार उससे निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है. सवाल है कि जब एफ.एफ.आई के जरिये इतनी अधिक और इतनी तेजी से आ रहे डालर को लेकर रिजर्व बैंक समेत अधिकांश विश्लेषक और एसोचैम जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठन चिंतित हैं और उसे नियंत्रित करने का आग्रह कर रहे हैं तो वित्त मंत्री इतने निश्चिंत क्यों हैं? ब्राज़ील की तरह इस तरह के वित्तीय पूंजी के प्रवाह पर 2 फीसदी टैक्स लगाने को लेकर प्रणव मुखर्जी उत्साहित क्यों नहीं हैं?
असल में, वित्त मंत्री की निश्चिंतता उनकी लाचारी और मज़बूरी का नतीजा है. यह भारतीय अर्थव्यवस्था में आवारा वित्तीय पूंजी की असीमित ताकत और लगातार बढ़ते प्रभाव का भी सबूत है. हालत यह हो गई है कि कोई भी सरकार और वित्त मंत्री इसे नाराज करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है. एक तरह से अर्थनीति उनकी बंधक बन चुकी है. सरकारों और उनके वित्त मंत्रियों को ऐसा लगता है कि अगर एफ.एफ.आई नाराज हुए तो अपनी पूंजी लेकर वापस चले जायेंगे जिसके कारण शेयर बाज़ार ध्वस्त हो जायेगा. अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी. दूसरी ओर, यह लोभ भी रहा है कि अगर एफ.एफ.आई खुश रहे तो ज्यादा से ज्यादा डालर लेकर आयेंगे जिससे बाज़ार समेत पूरी अर्थव्यवस्था में फील गुड का माहौल बना रहेगा. इसी भय और लोभ के कारण पिछले 16 वर्षों में हर वित्त मंत्री ने आवारा पूंजी को और अधिक खुश करने के लिए लगातार रियायतें दी हैं.
इसके कारण शेयर बाज़ार तो पूरी तरह से एफ.एफ.आई के कब्जे में चला गया है. वहां अब पत्ता भी उनकी मर्जी से ही हिलता है. स्थिति यह हो गई है कि पिछले साल वैश्विक वित्तीय संकट के बाद जब एफ.एफ.आई भारत से कोई 12 अरब डालर की पूंजी निकालकर ले गए तो शेयर बाज़ार धडाम से गिर गया था. अब फिर इसलिए चढ़ रहा है क्योंकि 15 डालर से ज्यादा की पूंजी आ चुकी है. ऐसे में, प्रणव मुखर्जी अर्थव्यवस्था को जोखिम में डालकर भी एफ.एफ.आई को नाराज करने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे लगता है कि सरकार के स्तर पर सोच यह है कि अभी कोई कदम उठाकर शेयर बाज़ार में जारी पार्टी को क्यों बिगाड़ा जाए? अभी तो चढ़ते शेयर बाज़ार के लिए वाहवाही लूटने का वक्त है, जब कोई संकट आएगा तो देख लिया जायेगा.
लेकिन बाज़ार जितना ही चढ़ता जायेगा, सरकार के लिए कोई कड़ा फैसला करना उतना ही मुश्किल होता जायेगा. उलटे सरकार एफ.एफ.आई के हाथों में बंधक बनती जाएगी और वे नियंत्रण के बजाय ज्यादा रियायतों की मांग करेंगे तो सरकार के सामने उसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा. अब तक यही होता रहा है. लेकिन यह बहुत उपयुक्त समय था जब सरकार एफ.एफ.आई को काबू में करने की गंभीर कोशिश करती. इस समय एफ.एफ.आई के पास भी बहुत विकल्प नहीं है और वैश्विक तौर पर भी उन्हें नियंत्रित करने के पक्ष में माहौल है. ब्राज़ील ने शुरुआत करके दिखा भी दिया है कि एफ.एफ.आई अजेय और काबू से बाहर नहीं हैं. लेकिन न जाने यू.पी.ए सरकार इससे क्यों हिचक रही है?
जाहिर है कि एफ.एफ.आई के सामने इस घुटनाटेकू नीति के कारण ही अर्थनीति पर विदेशी वित्तीय पूंजी का दबाव बढ़ता ही जा रहा है और सरकार जाने-अनजाने एक बड़े संकट को आमंत्रित करती दिख रही है जिसकी कीमत अंततः देश के करोड़ों आम लोगों को चुकानी पड़ेगी.
(समकालीन जनमत, दिसंबर 2009 से साभार)
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