आनंद प्रधान
कुछ अखबारों और टी वी समाचार चैनलों द्वारा पैसा लेकर खबरें छापने या दिखाने का मुद्दा गर्माता जा रहा है। पाठकों को ध्यान होगा कि बीते आम चुनावों और हालिया विधानसभा चुनावों के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ बड़े और जानेमाने अखबार समूहों ने राजनीतिक पार्टियों और उनके प्रत्याशियों से पैसा लेकर उनके पक्ष में खबरें छापी थीं। यह साफ तौर पर पत्रकारिता की नैतिकता,मूल्यों और आचार संहिता का उल्लंघन और पाठकों के साथ धोखा था। इसलिए कि अखबार या चैनलों में विज्ञापनों और समाचार के बीच एक स्पष्ट और पवित्र विभाजन रेखा है और दोनों की अपनी जगह तय है। पाठक या दर्शक अखबार-चैनल इस भरोसे के साथ पढ़ते-देखते हैं कि समाचार सम सामयिक घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों की तथ्यपरक, वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और संतुलित रिपोर्ट है। लेकिन जब अखबार या चैनल संबंधित पक्षों से पैसा लेकर उनके पक्ष में छापते- दिखाते हैं तो वह ’खबर’ नहीं वास्तव में खबर के चोले में विज्ञापन होता है पर पाठक या दर्शक को यह पता नहीं होता है और वह उस ’खबर’ को तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ मानकर उसपर भरोसा करता है।
अखबारों-चैनलों और उनके पाठकों-दर्शकों के बीच का रिश्ता इसी भरोसे पर टिका होता है। लेकिन मुनाफे की बढ़ती हवस के कारण अखबार-चैनल इस भरोसे की हत्या करने पर तुले हुए हैं। इससे न सिर्फ इन समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता तार-तार हो रही है बल्कि भ्रष्ट राजनेताओं - अफसरों-माफियाओं- कारपोरेट्स के निरंतर मजबूत होते कालेधन के गठजोड़ में समाचार माध्यमों के भी शामिल हो जाने के कारण लोकतंत्र खोखला और संकट में घिरता दिख रहा है। जाहिर है कि यह एक गंभीर मुद्दा है और इसे किसी भी तरह से और अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। असल में, समाचार मीडिया में इस कैंसर के रोगाणु आज से नहीं बल्कि 90 के दशक में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के दौरान से ही पनपने शुरू हो गए थे। लेकिन पहले यह एकाध समाचार संस्थानों तक सीमित भटकाव मानकर अनदेखा किया गया। लेकिन आज यह कैंसर इस हद तक फैल चुका है कि कुछ गिने-चुने अपवाद ही इस बीमारी से बचे रह गए हैं।
जाहिर है कि पानी सिर के उपर से बहने लगा है। अच्छी बात यह है कि देर से ही प्रेस कांउसिल ने इसकी जांच के लिए एक दो सदस्यी समिति का गठन किया है और चुनाव आयोग ने भी इसका नोटिस लिया है। उससे भी अच्छी बात यह है कि खुद समाचार मीडिया के अंदर से ही कुछ अखबारों (जैसे ’द हिंदू’,’जनसत्ता’, ’इंडियन एक्सप्रेस’, ’प्रभात खबर’और ’आउटलुक’ आदि) और वरिष्ठ पत्रकारों ने ’पैसा लेकर खबर छापने-दिखाने’ की आत्मघाती प्रवृत्ति का विरोध शुरू कर दिया है। अब जरूरत इस विरोध को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाने की है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कोई पांच-छह वर्ष पहले भी जब अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार ने ’पैसा लेकर खबर छापने’ की मीडियानेट और प्राइवेट इक्विटी जैसी स्कीमें शुरू की थीं तो कई अखबारों ने उसका विरोध किया था लेकिन बाद में वे खुद भी वैसी ही स्कीमें चलाने लगे। ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए जरूरी है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए न सिर्फ स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार किए जाएं बल्कि समाचार माध्यमों की निगरानी के लिए प्रेस कांउसिल को और ताकवर और सक्रिय बनाया जाए। प्रेस कांउसिल को प्रभावी बनाने के लिए उसे दंडित करने का अधिकार देने का भी समय आ गया है। इसके साथ ही, व्यापक नागरिक समाज और जनसंगठनों को पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाने और ’बीमार’ अखबारों-चैनलों के जल्दी स्वस्थ होने की कामना के साथ गांधीगिरी के बतौर फूल देने का समय आ गया है।
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nice
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