आनंद प्रधान
महंगाई की सुरसा का बेकाबू बदन और मुंह फैलता ही जा रहा है. अब यह सिर्फ महंगाई नहीं रह गई है. इसे महा महंगाई कहना पड़ेगा. खुद सरकार आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं. नवम्बर के आखिरी सप्ताह में खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति यानि महंगाई दर उछलते हुए 19 प्रतिशत का नया रिकार्ड बना गई. इसके ठीक पहले सप्ताह में यह दर 17 प्रतिशत थी. यही नहीं, अब तक डेढ़-दो प्रतिशत के आसपास चल रही थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ने भी अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं. नवम्बर महीने में उसमे तीन गुने से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है और वह 4.78 प्रतिशत पहुंच गई है. दालों के मामले में महंगाई की दर में 42 फीसदी, सब्जियों के मामले में 31 फीसदी और खाद्यान्नों में 13 फीसदी से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है.
जाहिर है कि महा महंगाई की मार से आम आदमी बिलबिला रहा है. उसकी दाल-रोटी संकट में है. लेकिन यू.पी.ए सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. पर अब लगता है कि विपक्ष की नींद खुल गई है. उसने महा महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की है. हालांकि उसने काफी देर कर दी है क्योंकि संसद का सत्र अब ख़त्म होनेवाला है. लगता है कि जैसे कोरम पूरा किया जा रहा है. हैरानी की बात यह है कि इस सबके बावजूद वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने या हंगामा करने से महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सकता है. लेकिन वह खुद और उनकी सरकार के अन्य मंत्री महा महंगाई पर काबू पाने के लिए लच्छेदार बातों और बहानों के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं.
हर बार की तरह इस बार भी संसद में बहस के दौरान वित्त मंत्री महा महंगाई का ठीकरा सूखे और बाढ़ के अलावा किसानो को बढा हुआ लाभकारी मूल्य देने पर फोड़ दिया. यह कोई नई बात नहीं है. यू.पी.ए सरकार पिछले छह महीने से यही राग आलाप रही है. अपने बचाव में वह कभी सूखे और बाढ़ को, कभी किसानो को उनकी फसलों की ऊँची कीमतें देने को, कभी जमाखोरी-मुनाफाखोरी रोकने में राज्य सरकारों की विफलता को और कभी वैश्विक बाज़ारों में अनाजों की कीमतों में बढ़ोत्तरी को जिम्मेदार ठहराती रही है. गोया इस महा महंगाई के लिए न तो वह जिम्मेदार है और न ही वह कुछ कर सकती है. आश्चर्य नहीं कि कृषि मंत्री शरद पवार ने साफ कह दिया कि रबी की अगली फसल से पहले महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार आधा सच बोल रही है. मौजूदा महा महंगाई के लिए केवल वही कारण जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्हें सरकार नान स्टाप दोहरा रही है. तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं. जैसे यह महंगाई सूखे या बाढ़ से बहुत पहले से ही आम आदमी का जीना मुहाल किये हुए है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पिछले साल मार्च से लगातार 10 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है. इस सूचकांक के आधार पर महंगाई की यह ऊँची दर पिछले 20 महीनों से लगातार 10 प्रतिशत से ऊपर और अक्तूबर के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक 13.7 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. इसलिए साफ है कि केवल सूखे या बाढ़ के कारण महा महंगाई नहीं आई है.
इसी तरह, महंगाई का ठीकरा किसानो को लाभकारी मूल्य देने पर फोड़ना भी बेचारे किसानो के साथ ज्यादती है. अगर किसानो को लाभकारी मूल्य ही मिल रहा होता तो गन्ना किसान दिल्ली में धरना देने नहीं आ जाते. सच यह है कि महा महंगाई के कारण अधिकांश खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों और किसानो को मिलनेवाले कथित लाभकारी मूल्य के बीच जमीन-आसमान का अंतर है. यही कारण है कि किसान बेचैन हैं. अलबत्ता बड़े बिचौलियों और व्यापारियों के साथ-साथ अनाजों के कारोबार में लगी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की तो जैसे चांदी हो गई है. लेकिन उन्हें यह मौका केंद्र और राज्य सरकारों ने दिया है.
सच यह है कि महा महंगाई की सुरसा को खुलकर खेलने का मौका केंद्र सरकार ने दिया है. असल में, सरकार ने लोगों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया है. लेकिन खाद्य बाज़ार पूरी तरह से जमाखोरों, मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों के कब्जे में है. केंद्र सरकार चाहती तो बाज़ार को नियंत्रित कर सकती थी. उसके पास इस खाद्य बाज़ार को काबू में करने हथियार भी है. वह हथियार है- उसके गोदामों में भरा लाखों टन अनाज जिसका इस्तेमाल करके वह कीमतों को काबू में कर सकती है. लेकिन इस हथियार का इस्तेमाल न करने के कारण सरकार खुद सबसे बड़ा जमाखोर बन गई है.
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक एक अक्तूबर को सरकार के गोदामों में 4.38 करोड़ मीट्रिक टन अनाज भरा हुआ था जिसमें 2.84 करोड़ मीट्रिक टन गेहूं और 1.53 करोड़ मीट्रिक टन चावल था. जबकि खुद सरकार के बफर स्टाक के नियमों के अनुसार सरकार के भंडार में 1.62 करोड़ मीट्रिक टन अनाज (52 लाख मीट्रिक टन चावल और 1.10 करोड़ मीट्रिक टन गेहूं) होना चाहिए था. साफ है कि सरकार के गोदामों में नियमों से करीब 2.7 गुना ज्यादा अनाज है लेकिन उसने इसका इस्तेमाल कीमतों पर काबू पाने के लिए नहीं किया. अगर सरकार चाहती तो इस गेंहूँ और चावल का एक तिहाई भी पी.डी.एस के जरिये और खुले बाज़ार में उतार कर कीमतों को बांध सकती थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और करोड़ों टन अनाज दबाकर बैठी हुई है. इससे बड़ी जमाखोरी और क्या होगी? इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा?
असल में, सरकार इस अनाज को बाज़ार में इसलिए नहीं ला रही है कि उसे लगता है कि इससे खाद्य सब्सिडी बढ़ जाएगी जिससे वित्तीय घाटा और बढ़ जायेगा. सरकार को आम आदमी से ज्यादा वित्तीय घाटे की चिंता इसलिए है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करना चाहती है. इस पूंजी की हमेशा से यह मांग रही है कि सरकार वित्तीय घाटे पर अंकुश लगाने को प्राथमिकता में रखे. लेकिन आम आदमी की सरकार के इस अर्थशास्त्र और राजनीति की कीमत आम आदमी को महा महंगाई में पिस कर चुकानी पड़ रही है.
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