- आनंद प्रधान
असल में, झारखंड के मतदाताओं के पास इसके अलावा कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. उनके पास जो विकल्प उपलब्ध थे, उनमें से सभी को वे आजमा चुके हैं और उनकी असलियत से परिचित हैं. यह तो नतीजों से साफ है कि वे इनमें से किसी को झारखंड की सत्ता सौंपने के लिए तैयार नहीं थे. इसमें जनता का कोई दोष नहीं है. आखिर वह और क्या कर सकती थी? वह मौजूदा दलों और गठबन्धनों में किसे और किस आधार पर बहुमत देती? झारखंड में सार्वजनिक सम्पदा और धन की लूट की राजनीति में मुख्यधारा के किस दल और गठबंधन का दामन साफ है? सच तो यह है कि झारखंड के इस हम्माम में सभी नंगे हैं. इसलिए जब नंगों के बीच ही चुनाव का विकल्प हो तो आम मतदाताओं की कठिनाई को आसानी से समझा जा सकता है.
सच यह है कि मुख्यधारा की बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने झारखंड के मतदाताओं को नए नारों और वायदों से छलने की कोशिश की जिसे लोगों ने नकार दिया. आज जो त्रिशंकु विधानसभा बनी है, उसके लिए मतदाता नहीं बल्कि झारखंड के नेता और पार्टियां जिम्मेदार हैं. क्या यह सोचने की बात नहीं है कि झारखंड में सत्ता की दावेदारी कर रही दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस और बी.जे.पी को लोगों ने राज्य की आधी सीटों के लायक भी नहीं समझा है? दोनों ही पार्टियों को राज्य की कुल विधानसभा सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें ही मिल पाई हैं. साफ है कि झारखंड के मतदाताओं ने इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नकार दिया है. उन्हें शासन का जनादेश तो कतई नहीं मिला है. यह उनके लिए सबक है.
ऐसे ही क्षेत्रीय दलों जैसे शिबू सोरेन के नेतृत्ववाली झामुमो, बाबूलाल मरांडी की झाविमो, लालू प्रसाद की आर.जे.डी को भी मतदाताओं ने अपने विश्वास के लायक नहीं पाया. यही कारण है कि ये तीनो भी मिलकर एक तिहाई के आसपास ही सीटें जीत पाए हैं. यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी सबक है. यही नहीं, जहां तक संभव हो सका मतदाताओं ने अपने मौजूदा विधायकों को भी सबक सिखाने कि कोशिश की है. पिछली विधानसभा के 81 में से सिर्फ 20 "माननीय" विधायक ही दोबारा चुनाव जीत कर वापस लौट पाए हैं. साफ है कि मौजूदा स्थितियों में झारखंड के मतदाता जो कर सकते थे, उन्होंने वह किया है. उन्होंने सबको सबक सिखाने की कोशिश की है.
असल में, यह सबक से ज्यादा पूरे राजनीतिक वर्ग को एक गंभीर चेतावनी है. उन्हें इस जनादेश में छिपे उस अविश्वास को जरूर पढ़ना चाहिए जो झारखंड की जनता ने उनके प्रति व्यक्त किया है. यह जनादेश बताता है कि झारखंड में मुख्यधारा के राजनीतिक दल और नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर विफल हो गए हैं. उनके कारण ही वह राज्य जो जनता के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों के बाद बना, अब एक "विफल राज्य" बनता जा रहा है. विकास और गवर्नेंस के किसी भी सूचकांक पर देख लीजिये, अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आगे बढ़ना तो दूर पीछे ही गया है. आज झारखंड को छोटे राज्यों के खिलाफ एक तर्क और उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है. अब तो लोगों की उम्मीदें भी टूटने लगी हैं. वे निराश हो रहे हैं. इन्हीं टूटती हुई उम्मीदों की किरचें आप इस जनादेश में देख सकते हैं.
लेकिन लगता नहीं है कि झारखंड के इस सबक और चेतावनी को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने गंभीरता से लिया है. वे अपने अन्दर झांकने और गंभीर आत्मालोचना के बजाय झारखंड की जनता को ही दोषी ठहराने पर तुल गई हैं. कहा जा रहा है कि झारखंड की जनता ने खुद त्रिशंकु विधानसभा बनाकर राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त की राजनीति को प्रोत्साहित किया है. यह कहने के पीछे एक छिपी हुई धमकी भी है कि अब जनता को ही इस त्रिशंकु विधानसभा के कारण पैदा होनेवाली राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ - खरीदफरोख्त की राजनीति की कीमत चुकानी पड़ेगी. भाजपा के चतुर-सुजान और महापंडित तो अंगूर खट्टे होने के अंदाज़ में यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी ने बहुत कोशिश की लेकिन झारखंड की जनता ने भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई को मुद्दा नहीं माना, इसीलिए पार्टी को बहुमत नहीं दिया. गोया भाजपा ईमानदारी और सुशासन की प्रतीक हो और उसे सत्ता मिल जाने पर महंगाई तुरंत छू-मंतर हो जाती.
साफ है कि झारखंड के नतीजों से इन पार्टियों ने कोई सबक नहीं सीखा है. यही कारण है कि एक बार फिर से राज्य में सत्ता की बंदरबांट शुरू हो गई है. सत्ता की मलाई के लिए नीलामी लगनी शुरू हो गई है. मोलतोल हो रहा है. लेनदेन के आधार पर सौदे पटाए जा रहे हैं. इसमें कोई पीछे नहीं है. सब कह रहे हैं कि उनके सभी "विकल्प" खुले हैं. किसी में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह कहे कि उसे जनादेश नहीं है और वह विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है. साफ है कि झारखंड में सत्ता पर दांव बहुत ऊंचे हैं. कोई भी सत्ता की उस मलाई को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है जिसकी "संभावनाएं" पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और उनके साथियों के कार्यकाल में जगजाहिर हो चुकी हैं. सभी इन "संभावनाओं" का दोहन करने के लिए बेकरार हैं.
इसलिए आश्चर्य नहीं होगा, अगर झारखंड में " साफ सुथरी, ईमानदार और आम आदमी के हित में काम करनेवाली सरकार" के नारे के साथ एक निहायत ही अवसरवादी गठबंधन सरकार बना ले जिसमें एक बार फिर से वही पार्टियां और चेहरे हों जिनपर झारखण्ड की जनता के साथ दगा करने के आरोप हैं. एक बार फिर बाई डिफाल्ट वे सरकार में होंगें, जिन्हें झारखण्ड की जनता ने शासन चलाने लायक नहीं समझा. कहने की जरूरत नहीं है कि केवल सत्ता की गोंद से चिपका ऐसा कोई भी अवसरवादी गठबंधन और उसकी सरकार उन पिछली सरकारों से किसी भी तरह से अलग नहीं होगी जिनपर झारखंड को लूटने और कुशासन के गंभीर आरोप रहे हैं. वास्तव में, जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त के आधार पर बननेवाली कोई भी सरकार जनता की नहीं बल्कि झारखण्ड की कीमती खनिज संसाधनों के दोहन में लगी देशी-विदेशी कंपनियों, पट्टेदारों, ठेकेदारों, माफियाओं और नेताओं-नौकरशाहों की सेवा ही करेगी.
यही सच है और यही झारखण्ड जैसे खनिज संसाधन संपन्न राज्यों की त्रासदी की सबसे बड़ी वजह भी है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता की जड़ें वास्तव में राज्य में सार्वजनिक धन और खनिज और प्राकृतिक सम्पदा की खुली लूट में धंसी हुई हैं और उसे वहीँ से खाद-पानी मिल रहा है. राजनीतिक प्रक्रिया को भ्रष्ट देशी-विदेशी कंपनियों, खदान मालिकों, ठेकेदारों, राजनेताओं, माफियाओं और नौकरशाहों के मजबूत गठजोड़ ने बंधक बना लिया है. इस हद तक कि सरकार चाहे जिस रंग और झंडे की हो, राज इसी गठजोड़ का चलता है. सच यह है कि राज्य की सभी पार्टियां, उनके नेता और तथाकथित निर्दलीय इस गठजोड़ के मोहरे भर हैं. मोहरे और चेहरे बदलने से राज नहीं बदलता. यही कारण है कि झारखंड में राजनीतिक प्रक्रिया बेमानी होकर रह गई है. इस बेमानी प्रक्रिया से किसी मानी जनादेश की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस गठजोड़ की ताकत राज्य के कीमती खनिज और प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक धन के लूट पर टिकी हुई है. इस लूट का कुछ अनुमान मधु कोड़ा और उनके साथियों के खिलाफ लगे आरोपों से लगाया जा सकता है. हालांकि झारखंड बनाने की लड़ाई के केंद्र में सबसे बड़ा मुद्दा इसी लूट को रोकना था लेकिन अफसोस की बात यह है कि राज्य बनने के बाद से यह लूट और तेज हुई है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2000 - 01 में राज्य से दोहन किये गए खनिजों का कुल मूल्य 459 करोड़ रूपये था जो सिर्फ छह वर्षों में 22 गुना उछलकर 10201 करोड़ हो गया. यह कानूनी खनन के आंकड़े हैं जबकि नेताओं-नौकरशाहों की शह पर फलफूल रहे गैरकानूनी खनन के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना थोडा मुश्किल है लेकिन मोटे अनुमानों के अनुसार राज्य में कुल कानूनी खनन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत गैरकानूनी खनन हो रहा है. कुछ लोगों का तो मानना है कि गैरकानूनी खनन, कानूनी खनन के बराबर पहुंच चुका है.
आश्चर्य नहीं कि इस बीच राज्य के माननीय विधायकों की संपत्ति में भी इसी अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है. इलेक्शन वाच के मुताबिक झारखंड में दोबारा चुनाव लड़ रहे 37 विधायकों की संपत्ति में पिछले 5 साल में 3454 प्रतिशत की रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है. पांच साल में कानूनी संपत्ति में साढ़े चौंतीस गुना की बढ़ोत्तरी कोई मामूली "उपलब्धि" नहीं है. इसने खनिज संसाधनों के दोहन में 22 गुना वृद्धि के रिकार्ड को भी पीछे छोड़ दिया है. लेकिन इसी बीच झारखंड के गांवों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद बढ़कर लगभग 52 तक पहुंच गई है. यही नहीं, मानवीय, सामाजिक और आर्थिक विकास के हर सूचकांक पर झारखंड के गरीब आदिवासी सबसे निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि खनिज संसाधनों के दोहन और माननीय विधायकों की संपत्ति में रिकार्डतोड़ वृद्धि और राज्य में 50 फीसदी से अधिक गरीबों की तादाद के बीच सीधा सम्बन्ध है.
शायद यही कारण है कि झारखंड "धनी राज्य के गरीब निवासी" का एक त्रासद और दुखद उदाहरण बन गया है. जाहिर है कि राज्य को इस दुष्चक्र से निकालने की उम्मीद उस राजनीतिक वर्ग से नहीं की जा सकती है जिसके निहित स्वार्थ इस दुष्चक्र के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि झारखंड में इस दुष्चक्र से बाहर निकालने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं? ऐसा बिलकुल नहीं है लेकिन मुख्यधारा के मौजूदा राजनीतिक दलों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है. झारखंड की मुक्ति राज्य के प्राकृतिक और खनिज संसाधनों और सार्वजनिक धन की लूट के खिलाफ और गरीबों और आदिवासियों को रोजगार, सम्मान और "जल, जंगल और जमीन" पर अधिकार देने के अजेंडे के साथ शुरू होनेवाले एक बड़े जनांदोलन के गर्भ से ही हो सकती है. पिछले दो चुनावों के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि मौजूदा बाँझ चुनावी राजनीति से कुछ नहीं निकलनेवाला है. जनांदोलन की आग ही झारखंड की राजनीति के कूड़े-करकट को खत्म कर सकती है. सवाल है कि इस चुनौती को कौन स्वीकार करेगा?
(जनसत्ता, २६ दिसम्बर'०९ )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें