बैठे-ठाले : रविवारी गपशप
आज रविवार है. हप्ते भर इसका इंतज़ार रहता है. लगता है कोई दिन ऐसा हो जब बिना किसी काम के अपने मन का काम हो. चाय हो, कुछ अच्छी धुनें हों, कुछ पढ़ने को हो और जो मन में आए, वह लिखने की आज़ादी हो. ब्लाग ने यह मौका भी दे दिया है.
इस तरह आज से शुरू होता है, “बैठे-ठाले : रविवारी गपशप”. कोशिश रहेगी कि अब आगे से हर रविवार कुछ अपने मन की बातें करें. हालांकि मन का ठिकाना नहीं. लेकिन अभी तो मन कह रहा है. आइये, शुरू करते हैं..
प्रेमचंद
क्या संयोग है? आज प्रेमचंद का जन्मदिन है. हिंदी कथा साहित्य के शिखर पुरुष हैं प्रेमचंद. किशोरावस्था से लेकर कालेज के दिनों में उनकी न जाने कितनी कहानियां पढ़ी हैं. हालांकि प्रेमचंद की किसी कहानी से पहला परिचय तो आठ-नौ साल की उम्र में ही हो गया था जब सबसे पहले ‘ईदगाह’ पढ़ी थी. शायद पांचवीं कक्षा में हिंदी की किताब में यह कहानी थी. उस कहानी ने रुला दिया था मुझे. वैसे कई कहानियों ने रुलाया है. उनमें एक और कहानी की याद आ रही है. फणीश्वर नाथ रेणु की ‘ठेस’ भी एक ऐसी ही कहानी थी.
लेकिन प्रेमचंद से विस्तृत परिचय कराया बड़े भैया अवधेश प्रधान (प्रोफ़ेसर, हिंदी, बी.एच.यू) ने. उनके पास प्रेमचंद की कहानियों के अलावा उनके सभी उपन्यास भी थे. हालांकि मैं सब नहीं पढ़ पाया और कुछ जो पढ़ा, उसकी भी अब बहुत क्षीण सी यादें हैं. लेकिन यह अफसोस आज तक है कि उनकी सबसे मशहूर कृति ‘गोदान’ नहीं पढ़ पाया. क्यों? नहीं जानता. ऐसा नहीं कि उपन्यास पढ़ने का धैर्य नहीं था.
यूनिवर्सिटी के दिनों में कई बार कोई उपन्यास लगातार एक या दो दिन में पढ़ जाता था. होस्टल के कमरे में बिना खाए-पिए सिर्फ चाय पर उपन्यास खत्म किये हैं. उन्हीं दिनों में सबसे ज्यादा पढ़ा. खूब मजा आता था. कई बार उन्हीं दिनों को फिर से जीने की इच्छा जोर मारने लगती है. क्या दिन थे वे भी!
आज जिस चीज को सबसे अधिक मिस करता हूँ, वह एक साथ आठ-दस घंटे का पढ़ना है. सोचता हूँ कि क्या हो गया है मुझे? ऐसा नहीं कि अब पढता नहीं हूँ. अब भी पढता हूँ लेकिन साहित्य से इतर ज्यादा पढ़ना होता है. उसमें भी खूब मजा आता है. अच्छा लगता है. लेकिन फुर्सत के साथ कोई कहानी या उपन्यास पढ़े अरसा हो गया. उसकी बात ही अलग है. उसका सुख वही जानता है जिसने उसे जिया है.
आज प्रेमचंद को याद करते हुए सोच रहा हूँ कि अब ‘गोदान’ पढ़ लिया जाए. देखें, यह मौका कब बनता है. आप भी मेरे लिए दुआ कीजिये.
‘हंस’
कभी प्रेमचंद के संपादन में निकली पत्रिका ‘हंस’ दोबारा १९८६ में हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार-बुद्धिजीवी राजेंद्र यादव के संपादन में निकलनी शुरू हुई. आज उसके पच्चीस साल पूरे हो गए. निश्चय ही, यह एक बड़ी उपलब्धि है. राजेंद्र जी को बधाई और ‘हंस’ की उनकी टीम को शुभकामनाएं.
आज के समय में समाज और साहित्य को लेकर चलनेवाली कई महत्वपूर्ण और जरूरी बहसों के लिए ‘हंस’ को पढ़ना अनिवार्य है. मौजूदा दौर में ‘हंस’ की विचारोत्तेजक उपस्थिति हम सभी लोगों के लिए एक बड़ा संबल है. कहने की जरूरत नहीं कि ‘हंस’ का नियमित पाठक हूँ और बेहिचक सबसे पहले राजेंद्र जी का लिखा संपादकीय पढता हूँ. राजेंद्र जी की सबसे बड़ी खूबी उनका खुलापन, जनतांत्रिक व्यवहार और नए लेखकों को प्रोत्साहन देना है.
मुझपर भी गाहे-बगाहे उनकी कृपा-दृष्टि पड़ती रही है. कोई आठ-नौ साल पहले पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने ३१ जुलाई की गोष्ठी में मुझे भी ‘वैश्वीकरण और संस्कृति’ विषय पर बोलने के लिए बुला लिया था. मैंने भी बिना आगा-पीछा सोचे कि वहां साहित्य, समाज विज्ञान और संस्कृति के जाने-माने विद्वान होंगे, वह न्यौता स्वीकार कर लिया. कृष्ण कुमार, सुधीश पचौरी, योगेन्द्र यादव और रमाकांत अग्निहोत्री जैसे दिग्गजों के बीच मैंने क्या बोला, यह मत पूछिए लेकिन आज भी राजेंद्र जी के साहस की दाद देता हूँ.
ऐसे ही, राजेंद्र जी ने पिछले साल हंस की गोष्ठी में संचालन के लिए बुला लिया. विषय काफी विचारोत्तेजक था और पता था कि आज पुर्जे उड़ने वाले हैं. वही हुआ. ऐसा हंगामा हुआ कि बस पूछिए मत. मैं बड़े अपराधबोध के साथ घर लौटा कि संचालक की जिम्मेदारी नहीं निभा पाया. उस अफरा-तफरी में राजेंद्र जी से माफ़ी भी नहीं मांग पाया.
लेकिन इससे पहले कि मैं फोन कर पाटा, अगले दिन उनका फोन आ गया और वे कहने लगे कि आपने बहुत अच्छा संचालन किया. मैं हैरान. अब क्या कहूँ? कहने लगे कि आप परेशान मत होइएगा. ऐसा होता रहता है. क्या कहता? मैंने माफ़ी भी मांगने की कोशिश की तो कहने लगे कि इसमें माफ़ी मांगने की कोई बात नहीं है. गोष्ठी बहुत अच्छी रही.
ऐसे हैं राजेंद्र जी. ऐसे ही स्वस्थ-सक्रिय रहें, यही कामना है.
चलते-चलते
आज प्रेमचंद का जन्मदिन के साथ हिंदी फिल्मों के एक बेहतरीन गायक मोहम्मद रफ़ी की पुण्यतिथि है. उन्हें याद करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर इसी नाम से बनी फिल्म का एक गीत पेश करूँ जिसे रफ़ी साहब ने गाया है. यह गीत फिल्म में महमूद पर फिल्माया गया है. सबसे खास बात यह है कि इसका संगीत पंडित रविशंकर ने दिया है. गीत अनजान ने लिखे हैं जो बनारस के रहनेवाले थे. गीत के बोल बनारसी भोजपुरी में हैं.
उसी फिल्म का एक और गीत मुकेश की आवाज़ में...इसकी बात ही कुछ अलग है:
अरे हाँ, आपकी राय और टिप्पणियों का इंतजार रहेगा. फिर मिलते हैं अगले रविवार.