शुक्रवार, मार्च 22, 2013

आवारा विदेशी पूंजी के साथ प्रेम के खतरे

विदेशी पूंजी के आगे बेबस सरकार 'नीतिगत लकवे' का सबसे बड़ा उदाहरण है  

भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति निर्माताओं का विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी से प्रेम किसी से छुपा नहीं है. लेकिन नई बात यह है कि वे इस एकतरफा प्रेम में अंधे से होते जा रहे हैं. विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को लुभाने और खुश करने के लिए वे नई-नई रियायतें और छूट दे रहे हैं.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि विदेशी पूंजी खासकर पोर्टफोलियो निवेशकों को भारत से कोई विशेष प्यार नहीं है और वे सिर्फ अपना फायदा देखकर भारतीय बाजार में आते हैं. उनके लिए यह प्यार तब तक है, जब तक फायदे का सौदा है. लेकिन क्या यही बात भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी कही जा सकती है?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए सबसे ताजे उदाहरण पर गौर कीजिए. वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अगले वित्तीय वर्ष का बजट पेश करते हुए वित्त विधेयक में एक मामूली सा संशोधन का प्रस्ताव किया कि मारीशस जैसे देशों के जरिये भारतीय बाजारों में निवेश करनेवाले विदेशी निवेशकों और विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.एफ.आई) के लिए दोहरे कराधान से बचने के वास्ते टैक्स निवास सर्टिफिकेट देना ‘अनिवार्य होगा लेकिन यह टैक्स लाभ लेने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.’

हालाँकि इस संशोधन में कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन इसका ऐसा असर हुआ कि बजट पेश होने से पहले और भाषण के दौरान चढ़ रहा शेयर बाजार शाम होते-होते ३५० अंक गिर गया.

ऐसी चर्चाएं चल पड़ी कि विदेशी संस्थागत निवेशकों में घबराहट है कि इस नए संशोधन का फायदा उठाकर टैक्स अधिकारी उन्हें परेशान कर सकते हैं. आशंकाएं जाहिर की जाने लगीं कि अगर जल्दी स्थिति स्पष्ट नहीं की गई तो शेयर बाजार में कत्लेआम मच सकता है और विदेशी पूंजी शेयर बाजार और देश छोड़कर निकलने लगेगी. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस सकती है.
इन चर्चाओं का ऐसा दबाव बना कि देर रात वित्त मंत्रालय की ओर से एक स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि ये आशंकाएं निराधार हैं और टैक्स निवास सर्टिफिकेट देनेवाले निवेशकों और एफ.आई.आई को पहले की तरह टैक्स छूट मिलती रहेगी.
यही नहीं, अगले दिन खुद वित्त मंत्री विदेशी निवेशकों की मिजाजपुर्सी में उतर आए. उन्होंने न सिर्फ यथा-स्थिति बहाल रखने का भरोसा दिया बल्कि वित्त विधेयक से इस संशोधन को हटाने का भी संकेत दिया.

इसका असर भी हुआ. अगले दिन शेयर बाजार फिर चढ़ गया. लेकिन यह कोई पहला मामला नहीं है जब विदेशी निवेशकों खासकर आवारा पूंजी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नीति नियंताओं और मैनेजरों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया हो. बहुत ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है.

आवारा पूंजी और बड़े कार्पोरेट्स ने पिछले साल के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की ओर से लाये गए जनरल एंटी अवायडेंस नियमों (गार) का भी इसी तरह विरोध किया था.

उल्लेखनीय है कि गार का उद्देश्य टैक्स बचाने के मकसद से टैक्स व्यवस्था के छिद्रों का लाभ लेने पर रोक लगाना था. गार जैसे नियमों/कानूनों की घोषणा हाल के वर्षों में कई देशों खासकर विकसित पश्चिमी देशों ने की है लेकिन भारत में उसका ऐसे विरोध किया गया, जैसे सरकार ने विदेशी निवेशकों, बड़े कार्पोरेट्स और विदेशी कंपनियों के खिलाफ कोई युद्ध छेड़ने का एलान कर दिया हो.
गार के एलान के बाद सिर्फ कुछ ही महीनों के अंदर एफ.आई.आई यानी आवारा पूंजी ने अरबों डालर भारत से निकल लिए. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने गार के विरोध को देखते हुए उसे एक साल के लिए टालने की घोषणा तुरंत कर दी लेकिन अकेले पार्टिसिपेटरी नोट (पी-नोट) के जरिये शेयर बाजार में लगा कोई २० अरब डालर भारत से बाहर निकल गया.
नतीजा यह हुआ कि जब पिछले साल पी. चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय का कार्यकाल संभाला तो उन्होंने गार से पीछा छुड़ाने के लिए अर्थशास्त्री पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में गार की समीक्षा के लिए समिति गठित कर दी.

यही नहीं, वित्त मंत्रालय शोम समिति की सिफारिश पर इस साल बजट से ठीक महीने भर पहले आनन-फानन में गार पर अमल को अप्रैल’२०१६ तक के लिए टालने की घोषणा कर दी. इस तरह विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने के लिए गार को दफ़न कर दिया गया. यही हाल वोडाफोन मामले में पिछली तारीख से टैक्स लगाने के फैसले का भी हुआ.

असल में, बड़ी विदेशी पूंजी खासकर पोर्टफोलियो निवेश अपनी शर्तों पर भारतीय बाजारों में निवेश करना चाहते हैं. जाहिर है कि वे न सिर्फ निवेश के लिए अनुकूल रियायतें/छूट मांगते हैं बल्कि वे अपने मुनाफे पर कोई टैक्स भी नहीं देना चाहते हैं. इसके लिए वे भारत और मारीशस, यू.ए.ई और सिंगापुर जैसे देशों के बीच हुए दोहरे कराधान से बचने के समझौते का इस्तेमाल करते हैं.
इस प्रावधान के तहत इन देशों में रजिस्टर्ड किसी कंपनी को भारत में निवेश से होनेवाली आय पर टैक्स नहीं देना पड़ता है क्योंकि वे उन देशों में टैक्स चुकाती हैं. लेकिन यह तथ्य है कि तमाम विदेशी कम्पनियाँ और एफ.आई.आई इन देशों को सिर्फ पोस्ट-आफिस की तरह इस्तेमाल करते हैं जहाँ उन्हें बहुत मामूली टैक्स देना पड़ता है.
एक मोटे अनुमान के मुताबिक, भारत में आनेवाले कुल विदेशी निवेश का लगभग ४० फीसदी अकेले मारीशस के रास्ते आता है. यही नहीं, एफ.आई.आई को शेयर बाजार में पार्टिसिपेटरी नोट्स के जरिये भी निवेश की इजाजत मिली रही है जिसके वास्तविक निवेशक की पहचान नहीं की जा सकती.

माना जाता है कि पी-नोट्स का इस्तेमाल कालेधन से लेकर आपराधिक पैसे को वापस लाने और बाजार में लगाकर मुनाफा कमाने के लिए किया जाता है. इसपर कई बार रिजर्व बैंक और सेबी तक आपत्ति जताई है. इसके बावजूद हालत यह थी कि पिछले साल जून तक शेयर बाजार में लगी कुल विदेशी पूंजी का लगभग ५० फीसदी धन पी-नोट्स के जरिये ही आया था.

जाहिर है कि यह भारत के लिए टैक्स राजस्व का नुकसान है. यही नहीं, इससे शेयर बाजार की विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी पर निर्भरता बहुत ज्यादा बढ़ गई है. आज हालत यह हो गई है कि शेयर बाजार पर मुट्ठी भर एफ.आई.आई का कब्ज़ा हो गया है और वे अपनी मनमर्जी से बाजार को उठाते-गिराते रहते हैं.
इसके कारण किसी वित्त मंत्री में उनकी मर्जी के खिलाफ कोई फैसला करने की हिम्मत नहीं रह गई है क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है. मारीशस की टैक्स निवास सर्टिफिकेट का मामला और उसपर चिदंबरम की घबराहट और बेचैनी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आवारा विदेशी पूंजी के साथ प्यार कितनी खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है.                         
(साप्ताहिक पत्रिका 'शुक्रवार' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

1 टिप्पणी:

Indra ने कहा…

सरsir behtareen lekh..ab avara prem majboori.na nigalte ban raha na ugalte.