मौत को रीयलिटी शो बनाते चैनल लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं
असल में, चैनलों की ऐसे मामलों को ‘तानने और उससे खेलने’ में अत्यधिक दिलचस्पी रहती है जिसमें भावनाएं हों, सस्पेंस और उसका तनाव हो, खासकर जिसमें किसी की जान अटकी हो. चैनलों को उसे ‘रीयलिटी शो’ में बदलने में देर नहीं लगती है.
दिल्ली में सिर्फ जून महीने में चार से ज्यादा सफाईकर्मी मारे गए हैं. यही नहीं, अकेले दिल्ली में हर साल ५० से ज्यादा सीवर सफाईकर्मी ऐसी ही दुखद और अनजान मौत मरते हैं. अफसोस उनकी मौत किसी चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती, कोई लाइव रिपोर्ट नहीं होती और कोई स्टूडियो चर्चा नहीं होती.
प्रशासन और गांववालों तमाम कोशिशों और न्यूज चैनलों की दुआओं के
बावजूद ७० फुट गहरे बोरवेल में गिरकर फंसी चार साल की बच्ची माही को नहीं बचाया जा
सका. गुडगाँव (हरियाणा) के पास कासना गांव की माही को बोरवेल से सुरक्षित निकालने
के लिए ८६ घंटे से भी ज्यादा लंबा अभियान चला और उसे २४ घंटे के न्यूज चैनलों के
जरिये पूरे देश ने देखा.
हालाँकि माही की किस्मत कुरुक्षेत्र के प्रिंस की तरह
नहीं निकली और उसे बचाया नहीं जा सका लेकिन चैनल माही को बचाने के अभियान में पीछे
नहीं रहे. उनके एंकरों और रिपोर्टरों ने माही के लिए दुआएं मांगीं और बचाव आपरेशन
के बारे में ब्रेकिंग न्यूज देते रहे.
लेकिन शायद पिछली आलोचनाओं और खिल्लियों का असर था कि इस बार चैनलों
में वह उत्साह नहीं दिखा जो उन्होंने २००६ में कुरुक्षेत्र में बोरवेल में गिरे
पांच साल के प्रिंस के बचाव अभियान के दौरान दिखाया था. तब चैनलों ने लगातार ५०
घंटे से अधिक की लाइव कवरेज की थी. लेकिन कुछ शर्माते- कुछ हिचकते हुए भी चैनलों
ने माही बचाओ आपरेशन की अच्छी-खासी कवरेज की. असल में, चैनलों की ऐसे मामलों को ‘तानने और उससे खेलने’ में अत्यधिक दिलचस्पी रहती है जिसमें भावनाएं हों, सस्पेंस और उसका तनाव हो, खासकर जिसमें किसी की जान अटकी हो. चैनलों को उसे ‘रीयलिटी शो’ में बदलने में देर नहीं लगती है.
लेकिन न्यूज चैनलों की इस ‘जन्मजात विकृति’ को एक पल के लिए नजरंदाज
कर दिया जाए तो इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि आपरेशन स्थल पर दर्जनों चैनलों के ओ.बी
वैन और कैमरों और उनके उत्साही रिपोर्टरों की मौजूदगी ने जिला प्रशासन और राज्य
सरकार पर माही बचाओ आपरेशन को तेज करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा.
याद रहे, ऐसे
मामलों में चैनलों की अति सक्रियता के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साल पहले
बोरवेल की खुदाई और रखरखाव को लेकर राज्य सरकारों को कड़े निर्देश दिए ताकि माही
जैसे मासूमों को बचाया जा सके. यह और बात है कि प्रशासन और बोरवेल खुला छोड़ने वाले
लोगों की आपराधिक लापरवाही जारी है और अफ़सोस, किसी माही के उसमें गिरने से पहले
न्यूज चैनलों की नजर भी उधर नहीं जाती.
लेकिन न्यूज चैनलों की नजर १९ साल के मनोज और ४० साल के शंकर की मौत
की ओर भी नहीं गई जो उसी दौरान किसी दूरदराज के गांव में नहीं बल्कि दिल्ली के रोहिणी
इलाके में डी.डी.ए के सीवर की सफाई करने के दौरान मेनहोल की जहरीली गैस के शिकार
हो गए. मनोज और शंकर मेनहोल में उतरकर सीवर की सफाई करते हुए मारे जानेवाले अकेले
सफाईकर्मी नहीं हैं. दिल्ली में सिर्फ जून महीने में चार से ज्यादा सफाईकर्मी मारे गए हैं. यही नहीं, अकेले दिल्ली में हर साल ५० से ज्यादा सीवर सफाईकर्मी ऐसी ही दुखद और अनजान मौत मरते हैं. अफसोस उनकी मौत किसी चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती, कोई लाइव रिपोर्ट नहीं होती और कोई स्टूडियो चर्चा नहीं होती.
यहाँ तक कि उनकी मौत चैनलों के टिकर में भी जगह नहीं पाती. नतीजा यह
कि सीवर सफाईकर्मियों की मेनहोल में सेफ्टी गियर के साथ उतरने जैसे हाई कोर्ट के
कड़े निर्देशों के बावजूद उन्हें निहायत ही अमानवीय और असुरक्षित स्थितियों में काम
करना पड़ रहा है. उनमें से कई को जान से हाथ धोना पड़ रहा है और बाकी जानलेवा
बीमारियों के शिकार हो रहे हैं.
क्या ‘सबसे तेज’ और ‘आपको आगे रखनेवाले’ चैनलों के
कैमरे और रिपोर्टर कभी उनका भी दुःख-दर्द पूछेंगे? या उनकी दिलचस्पी सिर्फ मौत के
रीयलिटी शो में है? जरा सोचिये.
('तहलका' के 15 जुलाई के अंक में तमाशा मेरे आगे स्तम्भ में छपी टिप्पणी. इसे आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1275.html और हाँ, इस बीच लोकसभा टी.वी पर युवा पत्रकार संजय झा ने सीवरकर्मियों के दर्द और तकलीफों पर अच्छी रिपोर्ट दिखाई.. पत्रकारिता को उन जैसे नए पत्रकारों से ही उम्मीद है.)
2 टिप्पणियां:
एक अत्यन्त ज्वलन्त और सामयिक समस्या को उठाया गया है इस लेख में। हमारा प्रशासन तो आज पंगु हो ही चुका है क्या सारे चैनल सिर्फ़ उस समय जागते हैं जब कोई मासूम बोरवेल या फ़िर किसी सीवर/बारिश के दौरान झोपड़पट्टियों के निचले इलाकों में भरे पानी के कारण मौत का शिकार हो जाता है-----और वो भी सिर्फ़ अपनी रेटिंग और टी आर पी बढ़ाने के लिये?वो क्यों नहिं घूम कर ऐसे खुले मेन्होल्स या बोरवेल को चिह्नित करके सरकार/प्रशासन पर उसे बन्द करने का दबाव बनाते?बहुत ही सामयिक और ज्वलन्त मुद्दे पर प्रभावशाली लेख।
wakai sir aise mamlon par aam logon ki nazar nhi padh pati... aam janta wahi dekhti hai jo ye channel dikhate hai.... bhut shrmnak hai ye media ke liye...
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