बिहारी अस्मिता के नाम पर अपने सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन के फाल्टलाइंस को ढंकना चाहते हैं नीतीश
बिहार के मतदाताओं ने अपना बिल्कुल साफ फैसला सुना दिया है. उन्होंने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के नेतृत्ववाले जे.डी(यू)-भाजपा गठबंधन को तीन-चौथाई से अधिक बहुमत के साथ दोबारा सत्ता सौंप दी है. बिहार में चार दशकों बाद किसी गठबंधन को इतना जबरदस्त जनादेश मिला है. इसमें कोई शक नहीं है कि यह एक सकारात्मक जनादेश है जो नीतिश कुमार के नेतृत्व को मिला है. निश्चय ही, इस निर्णायक जीत का पूरा श्रेय नीतिश कुमार के नेतृत्व को मिलना चाहिए जिन्होंने अपने राजनीतिक एजेंडे के हक में बिहार के मतदाताओं का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल की है.
लेकिन इससे कम महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि यह लालू प्रसाद यादव-राम विलास पासवान के नेतृत्ववाले आर.जे.डी-लोजपा की करारी हार भी है. यह कहने का उद्देश्य नीतिश कुमार से उनकी जीत का श्रेय लेना नहीं है लेकिन सच यह है कि यह नीतिश की जीत से ज्यादा लालू प्रसाद मार्का राजनीति की हार है. अगर सभी पार्टियों और गठबंधनों को मिले वोट प्रतिशत पर गौर करें तो उससे साफ है कि जहां सत्तारूढ़ गठबंधन को लगभग ३९ प्रतिशत के आसपास वोट मिले हैं जो पिछले लोकसभा चुनावों से भी एक प्रतिशत अधिक हैं.
जबकि लालू प्रसाद के नेतृत्ववाले गठबंधन को मात्र २५ प्रतिशत के करीब वोट मिले हैं जो लोकसभा चुनावों की तुलना में लगभग दो प्रतिशत कम हैं. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि वोट प्रतिशत के मामले में सत्तारूढ़ गठबंधन के बाद दूसरे स्थान पर आर.जे.डी-लोजपा गठबंधन नहीं बल्कि अन्य छोटी पार्टियां और निर्दलीय हैं जिन्हें लगभग २७ प्रतिशत वोट मिले हैं.
इसका अर्थ यह हुआ कि बिहार के जिन मतदाताओं में नीतिश से कोई नाराजगी थी, उन्होंने भी लालू प्रसाद और राम विलास पासवान को वोट देना पसंद नहीं किया. इस मायने में यह जनादेश इस बात का सबूत है कि बिहार के मतदाता अभी भी लालू को उनके पन्द्रह साल के कुशासन के लिए माफ़ करने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने स्पष्ट तौर पर सिर्फ जातिगत समीकरणों के संकीर्ण दायरे और सीमित एजेंडे की लालू प्रसाद की राजनीति को निर्णायक रूप से ख़ारिज कर दिया है.
यही नहीं, मतदाताओं ने कांग्रेस को भी अपनी पसंद के लायक नहीं समझा. वामपंथी दलों को भी मतदाताओं की नाराजगी का खामियाजा उठाना पड़ा है. इससे ऐसा लगता है कि मतदाताओं ने यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश की कि किसी तरह से फिर से लालू वापस न आ जाएं.
तात्पर्य यह कि जहां नीतिश विरोधी वोट बंट गए, वहीँ लालू प्रसाद विरोधी वोट पूरी तरह से नीतिश के पक्ष में एकजुट हो गए. इससे पता चलता है कि पिछले एक दशक खासकर पांच वर्षों में बिहार की राजनीति का एजेंडा, मुहावरा और मिजाज काफी बदल गया है. इस बीच, गंगा-गंडक-कोशी में बहुत पानी बह चुका है और बिहार की राजनीति ९० के दशक की राजनीति से बहुत आगे निकाल चुकी है. नीतिश कुमार को मिले भारी जनादेश में बिहार के लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं, उम्मीदों और अपेक्षाओं की धमक को साफ सुना जा सकता है.
ऐसा लगता है कि नीतिश कुमार ने न सिर्फ बिहार के लोगों में आ रहे इस बदलाव को सबसे बेहतर तरीके से पकड़ा है बल्कि इस बदलाव की प्रक्रिया को त्वरित भी किया है जिसका उन्हें भरपूर चुनावी फायदा भी मिला है. वे अपनी राजनीति को बिहार की महिला और युवा मतदाताओं के साथ कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से जोड़ने में भी कामयाब हुए हैं.
लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलना कि बिहार की राजनीति में जाति की प्रासंगिकता पूरी तरह से खत्म हो गई है, थोड़ी जल्दबाजी होगी. इसी तरह से यह एक अतिरेकपूर्ण विश्लेषण है कि लोगों ने केवल विकास के नाम पर वोट दिया है. ऐसे किसी नतीजे तक पहुँचने के लिए चुनाव परिणामों का थोड़ा ठहरकर और बारीकी से विश्लेषण करना होगा.
लेकिन यह एक मोटा निष्कर्ष जरूर निकला जा सकता है कि नीतिश कुमार ने एक बहुत सुविचारित राजनीतिक रणनीति के तहत मध्यवर्ग, उच्च जातियों, मध्यवर्ती किसान जातियों के एक हिस्से, अति पिछडों, दलितों के एक छोटे से हिस्से और यहां तक कि अल्पसंख्यकों के भी एक हिस्से को जोड़कर जिस तरह का सामाजिक गठबंधन तैयार किया और विकास और सुशासन के एजेंडे के साथ उसकी उम्मीदों और अपेक्षाओं को जगाने में कामयाबी हासिल की है, चुनाव परिणाम उसी का नतीजा हैं.
इसी तरह कुछ लोग इसे विकास की जीत बता रहे हैं. पर वे भूल रहे हैं कि नीतिश ने पिछले पांच सालों में विकास की बातें जरूर कीं लेकिन उनका विकास सड़क और कुछ हद तक स्वास्थ्य से आगे नहीं बढ़ा है. उन्होंने बालिकाओं को स्कूल जाने के लिए साइकिल जैसी कुछ लोकलुभावन योजनाओं के जरिये भी मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है. लेकिन यह पूरी तरह से नव उदारवादी विकास का माडल नहीं है.
उनके अब तक के विकास के माडल और चंद्र बाबू नायडू जैसों के विकास माडल में बड़ा फर्क यह है कि उनकी विकास योजनाओं का अभी तक जमीन अधिग्रहण आदि के सवाल पर किसानों और गरीबों से उस तरह से टकराव नहीं हुआ है जिस तरह से औद्योगिक परियोजनाओं या खनन प्रोजेक्ट्स आदि के कारण अन्य राज्यों में हुआ या हो रहा है. नीतिश अभी तक इससे बचते रहे हैं या कहें कि राज्य में ऐसी किसी बड़ी योजना के लिए निजी या सार्वजनिक निवेश आया ही नहीं. नीतिश ने सेज जैसी योजनाओं के लिए स्पष्ट तौर पर ना कर दिया था.
लेकिन जो लोग इसे ‘विकास’ की जीत बता रहे हैं, वे और मतदाताओं में से एक हिस्सा खासकर बिहारी मध्यवर्ग और उच्च और कुलक जातियां नव उदारवादी विकास की मांग तेज करेंगी जिसका अर्थ होता है कि राज्य में निजी बड़ी पूंजी को निवेश के लिए उदार शर्तों पर आमंत्रित किया जाए. जाहिर है कि आनेवाले दिनों में नीतिश सरकार पर यह दबाव बढ़ेगा कि वह विकास के लिए बड़ी पूंजी को राज्य में लाए, बड़ी बिजली परियोजनाएं आएं और इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा दिया जाए. लेकिन दूसरी ओर, उनके गरीब, मध्यवर्ती जातियों, अति पिछड़े, महादलित सामाजिक आधार की ओर से सामाजिक क्षेत्र में ज्यादा निवेश के साथ कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की मांग होगी.
यह देखना दिलचस्प होगा कि नीतिश ‘विकास’ के इस अंतर्विरोध को कैसे हल करते हैं? वे बिहार में बड़ी परियोजनाओं और निवेश के लिए जमीन कैसे अधिग्रहित करते हैं और उसके साथ होनेवाले निश्चित टकराव को कैसे सुलझाते हैं? यही नहीं, ‘विकास’ के लिए निजी बड़ी पूंजी को आकर्षित करने के नाम पर वह किस तरह की रियायतें देते हैं? असल में, नीतिश ने अब तक विकास का कोई स्पष्ट वैकल्पिक माडल पेश नहीं किया है. उनके प्रमुख आर्थिक सलाहकार और पूर्व नौकरशाह एन.के सिंह जिन आर्थिक नीतियों के लिए जाने जाते हैं, वह वही नव उदारवादी आर्थिक नीतियां है जिसमें आम किसानों और गरीबों की कीमत पर बड़ी पूंजी के हितों को प्राथमिकता दी जाती है.
दूसरे, नीतिश के सामने अपने व्यापक लेकिन अंतर्विरोधों और तनावों से भरे सामाजिक गठबंधन के अंतर्विरोधों को साधने की बड़ी चुनौती भी होगी. उच्च जातियों से लेकर महादलितों तक का गठबंधन बनाना जितना मुश्किल नहीं था, उससे ज्यादा मुश्किल होगा इन दोनों सामाजिक समूहों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के बीच तालमेल बैठना. इसी तरह, उन्होंने जिस चतुराई से अपनी एक धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने की कोशिश की है, उसे आनेवाले दिनों में अपनी बढ़ी हुई सीटों के साथ महत्वाकांक्षी होती भाजपा से सुरक्षित रखने की चुनौती भी होगी.
नीतिश के प्रशंसकों को यह बात याद रखनी होगी कि कथित विकास की तुलना में राजनीति कम महत्वपूर्ण नहीं है. वाजपयी सरकार की २००४ में हर में राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका थी. अगर आपकी राजनीति समावेशी नहीं है, धार्मिक भेदभाव और टकराव को बढाती है और विकास का माडल सिर्फ सडकों और एयरपोर्ट तक सीमित है तो ज्यादा दूर नहीं जाती है.
लेकिन इस सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि नीतिश कुमार की सरकार पर सभी बिहारी मतदाताओं की उम्मीदों और अपेक्षाओं का भरी बोझ होगा जिसे पूरा करना इतना आसान भी नहीं है. असल में, इन चुनावों में विधानसभा से जिस तरह से विपक्ष का लगभग सफाया हो गया है, उससे एक मायने में इस बात के आसार बढ़ गए हैं कि नीतिश का विपक्ष खुद नीतिश ही होंगे.
तात्पर्य यह कि नीतिश जिन आकांक्षाओं और उम्मीदों को जगा कर दोबारा सत्ता में आ रहे हैं, आनेवाले दिनों में अगर वे उन्हें ईमानदारी से पूरा करते हुए नहीं दिखे तो उनका सबसे बड़ा विपक्ष वहीँ उम्मीदें और अपेक्षाएं होंगी. इस अर्थ में यह जनादेश नीतिश की सबसे बड़ी परीक्षा साबित होने जा रहे हैं क्योंकि उम्मीदें जगाना आसान है लेकिन उन्हें पूरा करना उतना ही कठिन है.
यही नहीं, नीतिश को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह जिस बिहारी अस्मिता को जगाने और एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं और जिसकी आड़ में बिहारी समाज में मौजूद गहरे अंतर्विरोधों और फाल्टलाइन्स को ढंकने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें बहुत दिनों तक ढंककर नहीं रखा जा सकता है. बिहार में बड़े सामाजिक बदलाव के लिए इन अंतर्विरोधों को दबाने-छुपाने या सिर्फ मैनेज करने के बजाय उनका हल खोजना जरूरी है और इसके लिए बड़े राजनीतिक साहस की जरूरत है. यहां यह दर्ज करना जरूरी है कि नीतिश में अब तक वह राजनीतिक साहस नहीं दिखाई पड़ा है और अधिकांश मौकों पर वे बड़े फैसलों से बचते रहे हैं.
उदाहरण के लिए उन्होंने बड़े जोश-खरोश के साथ अपने पिछले कार्यकाल में भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय समिति और शिक्षा में सुधार के लिए मुचकुंद दुबे समिति का गठन किया लेकिन जब दोनों समितियों की सिफारिशों को लागू करने के लिए राजनीतिक साहस दिखाने का समय आया, नीतिश कुमार न सिर्फ पीछे हट गए बल्कि दोनों समितियों को निहित स्वार्थों के दबाव में अंगूठा दिखा दिया. इसी तरह, राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ बातें करने के बावजूद चुनावो में अपराधियों को टिकट देने के मामले में वे भी पीछे नहीं रहे हैं. यही नहीं, राजनीतिक रूप से उनमें वह साहस भी नहीं है जो नवीन पटनायक में है जिन्होंने भाजपा को अपने कन्धों से उतार फेंकने में देर नहीं लगाई.
कहने की जरूरत नहीं है कि नीतिश जिन उम्मीदों को जगाकर आ रहे हैं, उन्हें जमीन पर उतारने के लिए बड़े राजनीतिक साहस और वैकल्पिक सोच की जरूरत है. सवाल है कि क्या उनमें यह राजनीतिक साहस और वैकल्पिक सोच है? उनके घोषणापत्र या अब तक के कार्यक्रमों या फैसलों में तो यह नहीं दिखाई पड़ता है. ऐसे में, उन्हें अपने पूर्ववर्ती के राजनीतिक हश्र को जरूर याद रखना चाहिए.
(जनसत्ता में २५ नवम्बर'१० को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
3 टिप्पणियां:
कुछ जलने की बदबू आ रही है प्रधान साहब… :) :)
इस विश्लेषण के लिए धन्यवाद आनंद जी. बिहार की राजनीति के मुद्दे इस चुनाव में भले ही बदल गए हों, पर बिहार की सामंती राजनीति के साथ यह विकास क्या गुल खिलायेगा, वक्त की ही बात है. विकास का एक माडल भाजपा के गुजरात का है, राज्य हिंसा से लथपथ. दूसरा माडल है नायडू वाला आन्ध्र, किसान आत्महत्याओं से बौखलाया हुआ. अब तीसरा माडल नितीश के राज में बिहार का होने जा रहा है, क्या नए सिरे से यहाँ भी हत्याओं और आत्महत्याओं का सिलसिला जरी होने वाला है! डर लग रहा है.
नीतीश की जीत विकास का ट्रेलर दिखाकर, उसके ज़बरदस्त एंडोर्समेंट की जीत है। और यह सही है कि उनकी चुनौतियां अब शुरू हुई हैं। आने वाले समय से इंफ्रास्ट्रक्चर की बेहतरी और पूंजी निवेश का दबाव निश्चित रूप से उन पर पड़ने वाला है। बिहार में बदलाव आया है, इसको स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह क़तई नहीं है कि बिहार में सबकुछ ठीक हो गया है। नीतिश कुमार की असली परीक्षा अब है। और यही कार्यकाल नीतिश के लिए अपना राजनीतिक साहस और वैकल्पिक माडल(अगर उनके पास है तो) दोनों को सामने लाने का वक़्त है।
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