भारतीय हितों की कीमत पर अमरीकी अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने की जुगत में हैं ओबामा
वैसे तो अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के एजेंडे पर राजनीतिक, कूटनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक सभी मुद्दे शामिल हैं लेकिन माना जा रहा है कि इस यात्रा के केंद्र में आर्थिक और कारोबारी मुद्दे ही छाए रहेंगे. इसकी वजह स्पष्ट है.
असल में, किसी भी देश और उसकी सरकार की विदेश नीति उसकी घरेलू नीतियों का ही विस्तार होती हैं. राष्ट्रपति ओबामा की विदेश नीति भी इस नियम की अपवाद नहीं है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि जब से ओबामा राष्ट्रपति बने हैं, उनके लिए वित्तीय संकट और मंदी की चपेट में फंसी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है.
उल्लेखनीय है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था २००७-०८ में शुरू हुए सब-प्राइम संकट के बाद से इस तरह से लड़खडायी कि अब तक संभल नहीं पाई है. ओबामा प्रशासन द्वारा अरबों डालर के उत्प्रेरक पैकेजों (स्टिमुलस) और अति उदार मौद्रिक नीति के बावजूद अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति नाजुक बनी हुई है. बेरोजगारी दर १० प्रतिशत के आसपास बनी हुई है. आशंका जताई जा रही है कि अर्थव्यवस्था फिर से मंदी की चपेट में आ सकती है.
जाहिर है कि ओबामा के लिए यह सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती बन गई है क्योंकि इस आर्थिक संकट के साथ उनका राजनीतिक कैरियर भी दांव पर लग गया है. उनकी लोकप्रियता लगातार ढलान पर है और हालिया संसद, सीनेट और राज्यों के गवर्नरों के चुनावों में डेमोक्रटिक पार्टी की हार ने उनके अगले कार्यकाल की उम्मीदों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है. अगले कुछ महीनों में अमेरिका में २०१२ के राष्ट्रपति चुनावों के लिए प्रक्रिया शुरू हो जायेगी और उसका सबसे बड़ा मुद्दा अर्थव्यवस्था ही होगी.
ऐसे में, ओबामा का पूरा ध्यान अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर है. वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी की चपेट से बाहर निकालने, घरेलू निवेश और अमेरिकियों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करने के वास्ते बाजार खोज रहे हैं जहां अमेरिकी उत्पादों और सेवाओं को खपाया जा सके. कहने की जरूरत नहीं है कि भारत उन्हें एक बड़े बाजार के रूप में नजर आ रहा है जिसकी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में अमेरिकी कंपनियों को काफी संभावनाएं दिख रही हैं.
आश्चर्य नहीं कि ओबामा के साथ आ रहे अब तक के सबसे बड़े कारोबारी प्रतिनिधिमंडल में २०० से ज्यादा बड़ी और मंझोली अमेरिकी कंपनियों के सी.ई.ओ और चेयरमैन होंगे. यही नहीं, ओबामा का दौरे की शुरुआत में देश की वित्तीय और कारोबारी राजधानी मुंबई पहुंच रहे हैं और वहां उनका दो दिन गुजारना सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं है. इसके गहरे निहितार्थ हैं. वैसे भी अमेरिकी प्रतीकात्मकता में बहुत विश्वास नहीं करते हैं. उन्हें साफ और सीधी बात करने के लिए जाना जाता है.
यही कारण है कि इस यात्रा से पहले अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ब्रीफिंग के दौरान ‘टाइम्स आफ इंडिया’ के वाशिंगटन संवाददाता चिदानंद राजघट्टा ने गिना कि अमेरिकी अधिकारियों ने आर्थिक एजेंडे के बारे में २६ बार, अमेरिकी निर्यात और अमेरिकियों के लिए रोजगार बढ़ाने का १७ बार और भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी का सिर्फ तीन बार उल्लेख किया. अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि राष्ट्रपति ओबामा भारत क्यों और किस मकसद से आ रहे हैं?
असल में, ओबामा प्रशासन ने पांच वर्षों में यानी २०१४ तक अमेरिकी निर्यात को दोगुना करने का लक्ष्य निर्धारित किया हुआ है. २००९ में अमरीका का कुल निर्यात लगभग १.०५ खरब डालर का था. ओबामा इसे दो खरब डालर तक पहुँचाना चाहते हैं ताकि लाखों नए रोजगार पैदा किए जा सकें.
दूसरी ओर, वे अमेरिकी बाजार को विदेशी प्रतियोगिता से संरक्षण देने की कोशिश भी कर रहे हैं. इसके लिए पिछले दो साल में ओबामा प्रशासन ने कई संरक्षणवादी कदम भी उठाये हैं जिनमें आउटसोर्सिंग को हतोत्साहित करने के लिए कंपनियों से टैक्स छूट वापस लेने से लेकर विदेशी उत्पादों के आयात को रोकने के लिए उनपर एंटी डम्पिंग ड्यूटी आदि लगाने का फैसला शामिल है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि ओबामा अपने इन्हीं कारोबारी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भारत आ रहे हैं. उन्हें और अमेरिकी कंपनियों को भारत एक ऐसे बाजार के रूप में दिखाई पड़ रहा है जो उनके इस अति महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने में मददगार बन सकता है.
असल में, अमेरिकी कंपनियों की नजरें भारत में उच्च तकनीकी उत्पादों, परमाणु तकनीक और उपकरणों, रक्षा उपकरणों और हथियारों, बीमा और बैंकिंग उत्पादों, कृषि और डेयरी उत्पादों, शिक्षा और खुदरा बाजार पर हैं. भारत में अकेले परमाणु, रक्षा और उच्च तकनीकी उपकरणों का बाजार लगभग १०-२० अरब डालर (लगभग एक लाख करोड़ रूपये) का है.
ओबामा इस भारतीय बाजार को अमेरिकी कंपनियों के लिए खुलवाना चाहते हैं. इसलिए जब अमेरिका, भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी की बात करता है या परमाणु समझौते को लेकर इतनी उत्सुकता दिखाता है तो उसके पीछे रणनीतिक कारणों से अधिक अरबों डालर के कारोबार को कब्जाने की चिंता काम कर रही होती है. यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि खुद अमेरिका द्वारा परमाणु बिजली के नए उपक्रम न शुरू करने के फैसले के कारण आर्थिक रूप से खस्ताहाल घरेलू परमाणु रिएक्टर और उपकरण उद्योग के लिए भारतीय बाजार किसी संजीवनी से कम नहीं साबित होगा.
इसी तरह, भारत ने हाल के वर्षों में जिस तरह से रक्षा उपकरणों और हथियारों की खरीद का बजट बढ़ाया है, उसपर भी अमेरिकी रक्षा उद्योग की नजर ललचाई हुई है. एक अनुमान के मुताबिक भारत हर साल लगभग ४५-५० हजार करोड़ के हथियार और रक्षा उपकरण खरीद रहा है. ध्यान रहे कि राष्ट्रपति चाहे किसी भी पार्टी का हो, अमेरिकी प्रशासन की नीतियों को सबसे अधिक सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ (मिलिटरी-इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स) ही प्रभावित करता रहा है. इस गठजोड़ के दबाव में ही इस बात की पूरी संभावना है कि ओबामा इस दौरे में अमेरिका की ओर से भारत को उच्च तकनीक के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को हटाने की घोषणा कर सकते हैं.
लेकिन सबसे खास बात यह है कि इस दौरे में ओबामा भारत पर अपने बाजारों को अमेरिकी उत्पादों और सेवाओं के लिए पूरी तरह से खोलने के लिए दबाव डाल सकते हैं. खासकर अमेरिकी कारपोरेट लाबी चाहती है कि भारत अपना खुदरा बाजार विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोले. इसके अलावा वह भारत के कृषि-डेयरी और मीट उत्पादों के बड़े बाजार में भी घुसपैठ के लिए भी दबाव बनाये हुए है. यह लाबी इन्फ्रास्ट्रक्चर में अमेरिकी कंपनियों के निवेश का अवसर भी खोलना चाहती है लेकिन इसके लिए वह चाहती है कि भारत बीमा और बैंकिंग कारोबार में विदेशी निवेश की मौजूदा सीमाओं को बढ़ाये.
लेकिन इस सबके बदले में अमेरिका, भारत को कुछ खास देने की स्थिति में नहीं है. ओबामा आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर भारतीय कंपनियों को कोई राहत नहीं देनेवाले हैं और न ही वे उन कदमों को वापस लेनेवाले हैं जिसके तहत कई भारतीय उत्पादों जैसे स्टील और टेक्सटाइल का निर्यात प्रभावित हुआ है. ध्यान रहे कि अमेरिका ने पिछले साल फ़रवरी में पास रिकवरी एंड रीन्वेस्टमेंट कानून के तहत यह अनिवार्य कर दिया है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में अमेरिका में ही उत्पादित स्टील इस्तेमाल किया जायेगा.
इसी तरह, हवाई अड्डों पर सुरक्षा में लगे कर्मचारियों की वर्दी का कपड़ा देश में ही उत्पादित होना चाहिए. इससे भारतीय स्टील और टेक्सटाइल निर्यात पर बुरा असर पड़ा है. इसी तरह, अमेरिका ने पिछले कुछ सालों में चीनी कंपनियों के बाद सबसे अधिक एंटी डम्पिंग ड्यूटी भारतीय कंपनियों पर ही ठोंकी है.
दूसरी ओर, ओबामा के नेतृत्व में अमेरिका अपने सभी कारोबारी उद्देश्यों को हासिल करने के लिए भारत पर द्विपक्षीय व्यापार और निवेश संधि करने के लिए भी जोर डाल रहा है. इस संधि के जरिये वह एक झटके में अमेरिकी कंपनियों के भारत में निवेश और अमेरिकी उत्पादों/सेवाओं के भारत में आयात पर लगी रुकावटों को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहता है. इस संधि के बाद अमेरिकी निवेश को घरेलू निवेश की ही तरह ट्रीट करना होगा. उसे वही सुविधाएँ और लाभ देने होंगे जो भारतीय निवेशकों को हासिल हैं. इस संधि के बाद यही बात द्विपक्षीय व्यापार पर भी लागू होगी.
ऊपर से देखने पर यह प्रस्ताव बहुत आकर्षक लगता है लेकिन वास्तव में, यह एक ट्रैप है. यह एक बहुत असमान और भारतीय हितों के विरुद्ध संधि का प्रस्ताव है. असल में, अमेरिका और भारत के बीच व्यापार और निवेश के मुद्दे पर कई गहरे मतभेद रहे हैं. अमेरिका पहले इस तरह की बहुपक्षीय संधि के लिए डब्ल्यू.टी.ओ में कोशिश कर चुका है लेकिन वहां भारत समेत तमाम विकासशील देशों के विरोध के कारण उसे पीछे हटना पड़ा. कृषि-डेयरी उत्पादों के मुद्दे पर भारत और अमेरिका के मतभेद किसी से छुपे नहीं हैं. अमेरिका अपने किसानों और पशुपालकों को जितनी सब्सिडी देता है, उसके कारण उसके उत्पादों से भारतीय किसान मुकाबला नहीं कर सकते. ऐसी स्थिति में, भारतीय किसानों के लिए आत्महत्या के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा.
यही कारण है कि डब्ल्यू.टी.ओ में कामयाब न हो पाने के बाद से अमेरिका अपने करीबी देशों पर दबाव डाल कर उनके साथ द्विपक्षीय व्यापार और निवेश संधि कर रहा है. इसके बावजूद इन संधियों के खिलाफ कई देशों में व्यापक विरोध के बाद उन देशों की सरकारों को न चाहते भी पीछे हटना पड़ा है. भारत में भी जनमत को इस मामले में सतर्क रहना होगा और अपने आर्थिक हितों की पहरेदारी करनी होगी. यह इसलिए भी जरूरी है कि यू.पी.ए सरकार और देशी कारपोरेट लाबी का गठजोड़ इस समय अमेरिका से दोस्ती के ऐसे नशे में है कि अपने संकीर्ण हितों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय हितों को भी दांव पर लगाने पर तुला हुआ है.
('राष्ट्रीय सहारा' के 5नवम्बर'10 अंक में 'हस्तक्षेप' परिशिष्ट में प्रकाशित)
2 टिप्पणियां:
ज्योति पर्व के अवसर पर आप सभी को लोकसंघर्ष परिवार की तरफ हार्दिक शुभकामनाएं।
चाहे ओबामा हों या उनकी जगह कोई और अमेरिकी राष्ट्रपति, उसकी नजर भारत के विशाल बाजार पर ही रहेगी। हमारे अर्थविज्ञानी प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को शायद दुनिया के सबसे बड़े कारोबारी के मंसूबे समझ में नहीं आ रहे हैं। हमारी विदेश नीति तो इतनी लचर है कि अंकल सैम जो भी कहते हैं हम उसकी हां में हां मिलाते हैं। आखिर कब तक ऐसे चलेगा ...
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