घोटाले की तह तक पहुँचने के लिए अवैध तरीके से आवंटित टेलीकाम लाइसेंसों को रद्द करके फिर से बोली लगनी चाहिए
टेलीकाम मंत्री अन्दिमुथू राजा ने आखिकार इस्तीफा दे दिया. हालांकि उनका कहना है कि उनका ‘अंतर्मन साफ है’ और उन्होंने केवल ‘सरकार को परेशानी से बचाने और संसद चलाने में आ रही दिक्कत को दूर’ करने के लिए इस्तीफा दिया है. लेकिन सच यह है कि वे खुद और यू.पी.ए सरकार २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में इस कदर घिर चुकी थी कि उसके पास चेहरा बचाने के लिए कोई और विकल्प नहीं रह गया था. राजा अब भी नहीं जाते तो प्रधानमंत्री के लिए खुद का बचाव कर पाना मुश्किल हो जाता और शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यू.पी.ए खासकर कांग्रेस की ‘मोरल हाई ग्राउंड’ लेने की राजनीति की धार कमजोर पड़ जाती.
असल में, राजा की विदाई महाराष्ट्र में अशोक चहवाण और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे के साथ तय हो गई थी. यू.पी.ए, कांग्रेस, डी.एम.के और खुद राजा के पास विकल्प नहीं रह गए थे. उन्हें आज या कल जाना ही था. पिछले कुछ दिनों से यू.पी.ए के अंदर कांग्रेस और डी.एम.के राजा की विदाई का सम्मानजनक रास्ता तलाशने की कोशिश की जा रही थी. लेकिन २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में एक के बाद एक जिस तरह से हर दिन नए खुलासे हो रहे थे और उसके छींटें पूरी सरकार पर पड़ रहे थे, उसमें यू.पी.ए सरकार के पास वह विकल्प भी नहीं रह गया था.
लेकिन राजा के इस्तीफे भर से कहानी खत्म नहीं हो जाती है. सच पूछिए तो कहानी अब शुरू हो रही है. इस्तीफा घोटाले की सजा नहीं है. इसलिए सिर्फ इस्तीफे से बात नहीं बनेगी. बहुत देर और बहुत नुकसान पहुंचाने के बाद हुए ए. राजा के इस्तीफे के आधार पर यू.पी.ए सरकार को ‘मोरल हाई ग्राउंड’ लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और न ही, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की नई थ्यूरी को स्वीकार किया जाना चाहिए कि ‘जनभावना- पब्लिक परसेप्शन- का आदर’ करते हुए इस्तीफा लिया गया है. अगर नैतिकता और जनभावना का इतना ही सम्मान था तो राजा का इस्तीफा २००८ में ही हो जाना चाहिए था और उन्हें २००९ में वापस मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए था.
इसलिए अब राजा से अधिक प्रधानमंत्री और पूरी यू.पी.ए सरकार के लिए नैतिकता का तकाजा यह है कि इस इस्तीफे को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जाए. इसके बिना इस इस्तीफे का मतलब यह होगा कि राजा १.७० लाख करोड़ रूपये के इस घोटाले की बहुत मामूली कीमत देकर बच निकले. ऐसा नहीं होना चाहिए. इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि २००७-०८ में संचार मंत्रालय ने जिन भी कंपनियों को २ जी स्पेक्ट्रम का आवंटन किया, उसे तत्काल रद्द किया जाए और २ जी स्पेक्ट्रम की फिर से पारदर्शी तरीके से नीलामी की जाए. आखिर इस घोटाले की लाभार्थी ये कंपनियां भी हैं. उन्हें भी इसकी कीमत चुकानी ही चाहिए. उन्हें यह स्पष्ट सन्देश जाना चाहिए कि किसी मंत्री या अफसर को खरीदकर हासिल किए गया अवैध और अनुचित लाभ स्थाई नहीं है.
यह इसलिए भी जरूरी है कि घोटालों से असली फायदा उठानेवाली कंपनियां हमेशा बच निकलती है जबकि नियमों को तोड़ने-मरोड़ने में उनकी भूमिका मंत्रियों और अधिकारियों से कम नहीं होती है. सच यह है कि लाइसेंस-परमिट राज खत्म करने के नाम पर देश में कंपनी राज चल रहा है. उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत बढ़ गई है. सबसे बड़ा घोटाला तो यह है कि ये कंपनियां ही अपने मुताबिक नीतियां तय करवा रही हैं और जरूरत पड़ने पर नीतियों में अपने हितों के मुताबिक तोड़-मरोड़ करती-करवाती हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि अधिकांश आर्थिक मामलों के मंत्रालय और विभाग ये कंपनियां ही अपने प्राक्सी मंत्रियों और अफसरों के जरिये चला रही हैं.
टेलीकाम मंत्रालय इसका सबसे बदतरीन उदाहरण है. चूँकि इस मंत्रालय में अरबों-खरबों रूपये दांव पर लगे हुए हैं, इसलिए स्टेक भी बहुत ऊँचा है. ऐसे में, बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता और घात-प्रतिघात का खेल भी चलता रहता है. यह भी एक कडवी सच्चाई है कि इस खेल के कारण ही अधिकांश घोटाले सामने आ पाते हैं, अन्यथा हकीकत यह है कि जब कंपनियों का सामूहिक हित एक हो तो सभी मिलकर सरकार से मन-मुताबिक फैसला करा लेती हैं. फिर वही नियम बन जाता है और मजे की बात यह है कि उसे घोटाला नहीं माना जाता है.
इस प्रवृत्ति के कई उदाहरण टेलीकाम मंत्रालय में ही मौजूद है लेकिन कारपोरेट मीडिया उसपर चर्चा नहीं कर रहा है. इस मायने में, २ जी घोटाले की जड़ें बहुत गहरी हैं और एन.डी.ए के कार्यकाल तक फैली हुई हैं. ध्यान रहे कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में प्राइवेट टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस व्यवस्था से राजस्व साझेदारी की व्यवस्था में शिफ्ट करने की अनुमति दी गई थी. इसमें सभी कंपनियां एकजुट थीं. उन्होंने मिलकर लाबीइंग की ताकत से नीति बदलवा दी. निश्चय ही, बीच में ही नीति में बदलाव से सरकारी खजाने को नुकसान हुआ. यह सबको पता है कि इस नुकसान से फायदा किसे हुआ?
इसी तरह, सी.डी.एम.ए लाइसेंसधारी टेलीकाम कंपनियों ने भी पहले नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हुए जी.एस.एम की तरह सेवाएं प्रदान कीं और फिर दबाव बनाकर जी.एस.एम में शिफ्ट करने की अनुमति ले ली. टेलीकाम कंपनियों की ताकत का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि पिछले दो साल से फैसले के बावजूद मोबाइल नंबर पोर्टबिलिटी लागू नहीं हो पा रहा है. ऐसे एक नहीं, दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि टेलीकाम हो या अन्य मंत्रालय- कंपनियों के ताकतवर कार्टेल को तोड़ने के लिए न सिर्फ २ जी स्पेक्ट्रम की फिर से नीलामी की जाए बल्कि अन्य कंपनियों को मिले अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के लिए नई दरों पर कीमत वसूल की जाए.
दूसरे, 2 जी घोटाले में सभी दोषियों के खिलाफ अनिवार्य रूप से आपराधिक षड्यंत्र का मुक़दमा दर्ज किया जाना चाहिए. साथ ही, इसकी समयबद्ध जांच पूरी करके पूरे मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट को सौंपा जाना चाहिए ताकि कानून को अपना काम करने देने के नाम पर न्याय का मजाक न बनाया जा सके. यही नहीं, जांच का दायरा भी २ जी लाइसेंस के आवंटन तक सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि पूरे टेलीकाम मंत्रालय की साख बहाल करने के लिए जांच के दायरे में लाइसेंस से राजस्व साझेदारी व्यवस्था और सी.डी.एम.ए से जी.एस.एम में शिफ्ट को भी लाया जाना चाहिए.
इसके बिना राजा के इस्तीफे भर से कुछ नहीं बदलने वाला है. एक राजा जाएंगे, दूसरे राजा आ जाएंगे और भ्रष्टाचार का राज चलता रहेगा.
('राष्ट्रीय सहारा' के १६ नवम्बर'१० के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
1 टिप्पणी:
... bahut sundar ... behatreen abhivyakti !
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