“लेन-देन का सिद्धांत ही कूटनीति का सिद्धांत है: मतलब देना एक और लेना दस”
- मार्क ट्वेन, अमेरिकी लेखक
इसे कहते हैं कि मजमा लूट लेना. ओबामा आये, उन्होंने हमारे अमीर और मध्यवर्ग के मनोनुकूल बातें कहीं और मंच और देश लूट ले गए. समूचा कारपोरेट मीडिया ओबामा और अमेरिका के गुणगान में जुटा है. देश के कर्ता-धर्ता अपनी पीठ ठोंकने में लगे हैं. सब ऐसी खुशी में नाच रहे हैं, जैसे पता नहीं क्या मिल गया है? गोया अमेरिका से ओबामा नहीं, सांताक्लाज आये हों.
ऐसे में, आप चाहें तो अपने माननीय संसद सदस्यों, कारपोरेट जगत, सुरक्षा-विदेश नीति विशेषज्ञों और कारपोरेट मीडिया की तर्ज पर राष्ट्रपति बराक ओबामा की इस घोषणा पर अपना सीना फुला, तालियाँ और गाल बजा सकते हैं कि अमेरिका आनेवाले वर्षों में संयुक्त राष्ट्र में प्रतीक्षित सुधारों के तहत सुरक्षा परिषद के संशोधित विस्तार में भारत को भी स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहता है.
ओबामा के इस बयान को कूटनीतिक हलकों में भारतीय कूटनीति की बहुत बड़ी कामयाबी के रूप में पेश किया जा रहा है. यह किसी से छुपा नहीं है कि भारत की बड़ी पूंजी और उसके अभिजात्य और अमीर प्रतिनिधियों के साथ-साथ मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा देश को एक वैश्विक ताकत- ग्लोबल पावर- के रूप में देखना चाहता है. इस समय उसकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा दुनिया के ताकतवर देशों के क्लब- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई रूप से बैठने का इंतजाम करने की है.
असल में, जब बड़ी भारतीय पूंजी देश से बाहर निवेश और व्यापार के नए अवसर खोज और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों और देशों में निवेश कर रही है तो उसके हितों को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने और उसकी सुरक्षा के लिए सैन्य और कूटनीतिक प्रभाव का विस्तार भी अनिवार्य शर्त है. यही कारण है कि दुनिया भर में पैर फैला रही भारतीय पूंजी अपने हितों की सुरक्षा के लिए खुद को और देश को न सिर्फ दुनिया के ताकतवर देशों खासकर अमेरिका के साथ नत्थी करने के अभियान में जुटी है बल्कि अपने लिए वैश्विक ताकत के मंचों पर जगह बनाने की मुहिम में भी लगी है.
आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का अभियान भारतीय कूटनीति का यह सबसे बड़ा मिशन या कहें तो ऑब्सेशन सा बन गया है. यह ऑब्सेशन इस हद तक पहुंच गया है कि इसके लिए भारतीय प्रभु वर्ग कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है. यहां तक कि इसके लिए वह स्वतंत्र और व्यापक राष्ट्रीय हितों को प्रतिबिंबित करनेवाली विदेश नीति को छोड़ने से लेकर भारतीय बाज़ार को बड़ी विदेशी पूंजी खासकर अमेरिकी बड़ी पूंजी के हवाले करने को भी तैयार है.
असल में, किसी भी देश की विदेश नीति उसकी घरेलू नीतियों का ही विस्तार होती है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि घरेलू नीतियों खासकर अर्थनीति पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पूरी तरह से हावी हो जाने की प्रक्रिया में बड़ी भारतीय पूंजी ने खुद को बड़ी विदेशी पूंजी खासकर अमेरिकी पूंजी के साथ अभिन्न रूप से जोड़ लिया है. दोनों के हितों में काफी हद तक समानता है. इस मायने में बड़ी भारतीय पूंजी और अमेरिकी पूंजी की ‘स्वाभाविक सहयोगी’ बन चुकी है. दोनों के बीच गठजोड़ कितना गहरा हो चुका है कि इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि संसद द्वारा पारित परमाणु उत्तरदायित्व कानून के प्रावधानों के खिलाफ अमेरिकी कंपनियों के साथ बड़ी भारतीय कंपनियां भी अभियान चलाने में जुटी हैं.
यही नहीं, अर्थव्यवस्था के कई अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार, वित्तीय क्षेत्र- बीमा और बैंकिंग, रक्षा आदि क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने की मुहिम की अगुवाई बड़ी भारतीय कंपनियां कर रही हैं. इस कारण जैसाकि मार्क्स का कहना था कि राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित रूप है, भारतीय अर्थव्यवस्था में आ रहे बदलावों की छाप भारतीय राजनीति पर भी बढ़ते अमेरिकी प्रभाव के रूप में साफ देखी जा सकती है. इसी घरेलू राजनीति और अर्थनीति ने भारतीय विदेश नीति को पूरी तरह से अमेरिका के साथ बांध दिया है. इस मामले में भारतीय शासक वर्गों की दोनों प्रमुख पार्टियों और गठबंधनों- कांग्रेस और भाजपा में आम सहमति है.
इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि एन.डी.ए के कार्यकाल में स्वतंत्र विदेश नीति की कीमत पर अमेरिका के साथ जो अतिरिक्त नजदीकी बढ़नी शुरू हुई, वह यू.पी.ए के कार्यकाल में पूरी तरह से परवान चढ रही है. यू.पी.ए ने एक तरह से अर्थनीति के साथ-साथ भारतीय विदेश नीति को पूरी तरह से अमेरिका के साथ जोड़ दिया है. ओबामा के दौरे और इस दौरान दोनों पक्षों की ओर से व्यक्त विचारों, घोषणाओं और साझा बयान के बाद इस बारे में अब कोई शको-शुबहा नहीं रह जाना चाहिए. सच पूछिए तो लगभग सभी व्यावहारिक अर्थों में भारत अमेरिकी खेमे में शामिल हो चुका है.
दरअसल, ओबामा की ओर से भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का वायदा इसी का ईनाम है. इसके बावजूद अगर किसी को लगता है कि ओबामा ने किसी उदारतावश या भारत की महान सभ्यता या उसके लोकतंत्र से प्रभावित होकर या भारत की बढ़ती ताकत को स्वीकार करते हुए या उसके फैलते बाज़ार के लालच में सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारतीय दावेदारी का समर्थन किया है तो वह या तो बहुत भोला है या फिर बहुत धूर्त. सच यह है कि कूटनीति में बिना लेनदेन के कुछ नहीं होता है. सवाल है कि भारत ने इसकी क्या कीमत चुकाई है?
क्या ओबामा ने सिर्फ ५० हजार नौकरियों (या अरबों डालर के सौदों) के बदले में सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का वायदा कर दिया? बात कुछ जमती नहीं है. यह एक कीमत तो है लेकिन छोटी कीमत है. इसके बदले में सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का अमेरिकी वायदा नहीं मिल सकता है. यहां तक कि भारतीय बाज़ारों में अमेरिकी कंपनियों को निवेश और व्यापार की उदार छूट भी वह कीमत नहीं है क्योंकि वह तो अमेरिकी कंपनियों को पहले से ही मिली हुई है और जो बची-खुची बाधाएं हैं, वह भी उदारीकरण की जारी प्रक्रिया के तहत खुद-ब-खुद हट जाएंगी. असल में, जब बड़ी भारतीय पूंजी खुद बड़ी विदेशी खासकर अमेरिकी पूंजी के लिए बेक़रार है तो ओबामा को इसके लिए बहुत धक्का लगाने या सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का वायदा करने की जरूरत नहीं थी.
जैसाकि मार्क ट्वेन ने कहा था कि कूटनीति ‘एक देकर, दस लेने की कला’ है. फिर अमेरिका को क्या दिया या देने का वायदा किया गया है? इस सवाल का जवाब खोजना बहुत जरूरी है. इसका कुछ संकेत खुद ओबामा के संसद में दिए गए भाषण में भी मिलता है. ओबामा ने कहा कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के साथ भारत को बड़ी जिम्मेदारियों को भी उठाने के लिए तैयार होना होगा. उन्होंने सभी जिम्मेदारियों का उल्लेख नहीं किया लेकिन ईरान और बर्मा के बारे में जरूर इशारा किया कि भारत को अपनी विदेश नीति को अमेरिकी लाइन के और करीब लाने की जरूरत है.
हालांकि ईरान के परमाणु कार्यक्रम के सवाल पर भारत अंतरर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी (आई.ए.ई.ए) में अमेरिका के साथ और उसके कहे मुताबिक दो बार ईरान के खिलाफ मतदान कर चुका है. यही नहीं, अमेरिका के दबाव में यू.पी.ए सरकार ने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन के प्रस्ताव को ठन्डे बस्ते में डाल दिया है. अब उसकी भूले से भी चर्चा नहीं होती है. लेकिन जाहिर है कि अमेरिका को सिर्फ इतने से संतोष नहीं है. वह ईरान को घेरने के मामले में भारत की और सक्रिय भूमिका चाहता है.
इसी तरह, वह एशिया खासकर पूर्वी एशिया में भारत को चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहता है. अमेरिकी रणनीति यह है कि पूरी दुनिया में अपना प्रभाव बढ़ा रहे चीन को एशिया तक सीमित रखने के लिए यहां भारत को एक प्रति संतुलन की ताकत के रूप में चीन के मुकाबले खड़ा करना जरूरी है. एक तरह से वह भारत को एशिया में अपने हितों के चौकीदार और क्षेत्रीय सूबेदार की भूमिका में देखना चाहता है. इस रणनीति की सफलता के लिए जरूरी है कि भारत को न सिर्फ परमाणु और आधुनिक हथियारों से लैस सैन्य शक्ति के रूप में खड़ा होने में मदद की जाए बल्कि उसकी रणनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिए सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता दिलाने में मदद की जाए.
इसके अलावा अमेरिका चाहता है कि अंतरर्राष्ट्रीय मंचों और बहुपक्षीय संगठनों, चाहे वह संयुक्त राष्ट्र हो या जी-२० या डब्ल्यू.टी.ओ या विश्व बैंक-मुद्रा कोष में भारत की राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक लाइन अमेरिकी लाइन के अधिकतम संभव करीब रहनी चाहिए. साफ है कि ओबामा अमेरिकी दोस्ती और सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के बदले में भारत की स्वतंत्र, राष्ट्रीय मूल्यों और हितों से जुड़ी विदेश नीति की कीमत मांग रहे हैं. अफसोस की बात यह है कि भारतीय प्रभु वर्ग यह कीमत देने के लिए सहर्ष तैयार भी है क्योंकि उसकी समझ यह बन चुकी है कि भारतीय बड़ी पूंजी के हित अमेरिकी बड़ी पूंजी के संरक्षण में चलने में ही है.
ऐसे में, वह दिन दूर नहीं है जब वैश्विक ताकत के रूप में बड़ी जिम्मेदारियों को निभाने के नाम पर भारतीय सेना अमेरिकी फौजों के साथ किसी तीसरे देश में ‘आतंकवाद के खिलाफ’ या ‘लोकतंत्र और मानवाधिकारों की बहाली’ के लिए खून बहाती नजर आये. यह किसी से छुपा नहीं है कि ऐसी हर लड़ाई के पीछे बड़ी पूंजी के हित छिपे होते हैं. संभव है कि भारतीय बड़ी पूंजी को ऐसी लड़ाइयों में फायदा दिख रहा हो.
लेकिन सवाल यह है कि अमेरिकी दोस्ती और सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की यह कीमत देश के करोड़ों गरीबों, बीमारों, बेरोजगारों और दबे-कुचले लोगों को भी मंजूर है? सुरक्षा परिषद की सदस्यता से उन्हें क्या मिलने जा रहा है? क्या इससे उनकी गरीबी दूर हो जायेगी या रोजगार के नए और अधिक अवसर पैदा होंगे?
ये सवाल इसलिए जरूरी हैं क्योंकि स्थाई सदस्यता की कीमत के तौर पर अमेरिका से बड़े पैमाने पर हथियारों की खरीद की वास्तविक कीमत इस देश के गरीबों को चुकानी पड़ रही है. कारण, हर साल लगभग ४५ हजार करोड रूपये सिर्फ हथियारों की खरीद पर खर्च कर रही यू.पी.ए सरकार गरीबों की रोटी या स्वास्थ्य या शिक्षा या रोजगार के लिए धन देने के नाम पर हाथ खड़ी कर देती है. इसी तरह, जब देश अमेरिका से हथियार खरीदता है तो वहां के सैन्य-औद्योगिक काम्प्लेक्स का मुनाफा बढाता है और अपने बेरोजगारों की कीमत पर वहां रोजगार के नए अवसर पैदा करता है.
सवाल यह भी है कि क्या स्थाई सदस्यता से यह कडवा यथार्थ छुप जायेगा कि देश की ७८ प्रतिशत आबादी २० रूपये प्रतिदिन से भी कम की आमदनी में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर है? क्या अमेरिकी दोस्ती इस असलियत को बदल देगी कि वैश्विक मानव विकास की रैंकिंग में भारत अभी भी ११९ वें स्थान पर है? फिर मध्यवर्ग स्थाई सदस्यता के लिए इतना बावला क्यों हुआ जा रहा है? साफ है कि प्रभु वर्ग के साथ मध्यवर्ग भी इस देश के गरीबों को छोड़ चुका है. यह ‘सफल लोगों का अलगाववाद’ है. यही अलगाववाद उन्हें अमेरिका के करीब ले जा रहा है.
(जनसत्ता के १२ नवम्बर'१० के अंक में प्रकाशित)
1 टिप्पणी:
shandar article hai.
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