कश्मीर में यू.पी.ए का राजनीतिक एजेंडा भाजपा तय कर रही है
कश्मीर के सन्दर्भ में मार्क्स का यह कथन बहुत मौजूं हो उठा है: ‘यहां चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले की तरह रहती हैं.’ सितम्बर के आखिरी सप्ताह में सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल के श्रीनगर दौरे के बाद बदलाव की जो उम्मीदें जगी थीं, वे धीरे-धीरे मुरझाने लगी हैं. आश्चर्य नहीं कि बदलाव के वायदों के बावजूद घाटी में स्थितियां ज्यों की त्यों बनी हुई हैं. पिछले पांच महीनों से जारी विरोध प्रदर्शनों में पुलिसिया फायरिंग और हिंसा में अब तक १११ से अधिक कश्मीरी नौजवान मारे जा चुके हैं. लोगों में गुस्सा और बेचैनी बढ़ती जा रही है.
इसकी वजह साफ है. सरकारी जुल्म और दमन के खिलाफ कश्मीर कई महीनों तक जलता रहा लेकिन यू.पी.ए सरकार ने पहले तो उसे और अधिक सैन्य ताकत के बल पर दबाने की कोशिश की, नाकाम होने पर बातचीत का राग अलापना शुरू किया और बातचीत के नाम पर वार्ताकारों- वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, अकादमिक राधा कुमार और नौकरशाह एम.एम अंसारी की एक समिति बना दी.
वार्ताकारों की यह टीम अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में घाटी और जम्मू का दौरा करके लौट भी आई लेकिन लगता नहीं कि दिल्ली और श्रीनगर के बीच जमी अविश्वास की बर्फ पिघल पाई और घाटी के माहौल में कोई खास बदलाव आया है.
सच यह है कि कश्मीर में केन्द्र और राज्य सरकार से लोगों का भरोसा इस कदर उठ चुका है कि इस वार्ता को लेकर मुख्यधारा से बाहर की राजनीतिक शक्तियों जैसे हुर्रियत के दोनों धडों या अन्य हथियारबंद समूहों और आम लोगों खासकर नौजवानों का रूख बहुत ठंडा है. उन्हें इस कवायद से कोई खास उम्मीद नहीं दिख रही है. हुर्रियत के एक धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने तो वार्ताकारों के बहिष्कार का भी ऐलान कर दिया है. यही कारण है कि वार्ताकारों की पहली कश्मीर यात्रा से सिवाय कुछ बयानबाजियों के अलावा कुछ खास नहीं निकला.
असल में, इस वार्ता को लेकर केंद्र सरकार खुद बहुत ईमानदार और प्रतिबद्ध नहीं दिख रही है. सरकार के रवैये से ऐसा लगता है कि वह सिर्फ समय गुजारना चाहती है. उसकी ‘गंभीरता’ का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आधिकारिक तौर पर वार्ताकारों के टर्म्स आफ रेफेरेंस के बारे में कोई घोषणा नहीं की गई है. लेकिन चर्चाओं के मुताबिक उन्हें जम्मू-कश्मीर में सभी वर्गों से बातचीत की शुरुआत और उसे लगातार आगे बढ़ाने, जनभावनाओं से सरकार को अवगत कराने और सुधारात्मक कदम उठाने की सिफारिश करने की जिम्मेदारी दी गई है.
हालांकि खुद गृह मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि वार्ताकारों के लिए कोई लक्ष्मण रेखा (रेड लाइन) नहीं है. लेकिन जैसे ही भाजपा ने वार्ताकारों की टीम के मुखिया पडगांवकर इस बयान पर शोर मचाना शुरू किया कि कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए पाकिस्तान से बातचीत जरूरी है, केंद्र सरकार और कांग्रेस की जुबान लड़खड़ाने लगी.
इसके बाद भी, जब वार्ताकारों के कुछ अन्य बयानों को भाजपा ने मुद्दा बनाना शुरू किया, कांग्रेस और यू.पी.ए सरकार के पैर थरथराने लगे. इन बयानों में वार्ताकारों ने कथित तौर पर आज़ादी समर्थकों से विस्तृत रोडमैप बताने या भारतीय संविधान में संशोधन करके कश्मीर की आज़ादी के विकल्प को चर्चा के लिए शामिल करने की बात की थी.
हालांकि दिल्ली के दबाव में वार्ताकारों ने खुद भी इन बयानों का खंडन कर दिया लेकिन जिस तरह से कांग्रेस और केंद्र सरकार ने खुद को इन बयानों से अलग कर लिया और ऐसी किसी भी संभावना को सिरे से ख़ारिज कर दिया, उसके बाद वार्ता से कुछ खास निकलने की उम्मीद करना बेकार है. आखिर कश्मीर की मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे वार्ताकारों से कौन बातचीत करना चाहेगा जो एक निश्चित और संकीर्ण रेडलाइन और अपनी शर्तों से बाहर कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं?
असल में, वार्ताकारों को यह अच्छी तरह से पता था कि वे किस अविश्वास, गुस्से और निराशा के माहौल में वार्ता शुरू करने के लिए श्रीनगर पहुंचे हैं. उन्होंने कुछ सार्वजनिक बयान देकर अपनी साख बनाने की कोशिश की लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार ने उनपर तुरंत लाल झंडी दिखा दी, उसके बाद उनकी आगे की राह और मुश्किल हो गई है.
दरअसल, कश्मीर में किसी भी राजनीतिक बातचीत के एक कदम भी आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि वार्ता को अधिकतम संभव खुला यहां तक कि संविधान के बंधे-बंधाए खांचे से बाहर जाने के लिए भी तैयार रखा जाए और उस वार्ता के प्रति केंद्र सरकार की असंदिग्ध राजनीतिक ईमानदारी, साहस और प्रतिबद्धता होनी चाहिए. लेकिन एक बार फिर साबित हो गया कि कांग्रेस नेतृत्व और यू.पी.ए सरकार में वह राजनीतिक साहस नहीं है और न ही वह किसी तरह का राजनीतिक जोखिम लेने के लिए तैयार है.
असल में, कांग्रेस को हमेशा भाजपा का डर सताता रहता है. उसे लगता है कि कश्मीर के मुद्दे पर जरा भी नरम पड़ने पर भाजपा इसे मुद्दा बना सकती है और उसके खिलाफ ‘देशहित से समझौता’ करने का आरोप लगाते हुए हिंदू भावनाओं को भडका सकती है. उसके इस डर का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दिल्ली में कश्मीर मुद्दे पर हुए सेमिनार में कश्मीर के आज़ादी समर्थक नेता सैय्यद अली शाह गिलानी और अरुंधती राय के भाषणों को जब भाजपा नेता अरुण जेतली ने जोर-शोर से उछाला तो पूरी सरकार हिल गई.
खुद गृह मंत्रालय ने इस मामले में कार्रवाई की बातें करनी शुरू कर दी. इस मुद्दे पर जिस तरह से केंद्र सरकार ने कभी गरम, कभी नरम रूख अपनाया, उससे अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि कश्मीर के मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार किसके एजेंडे पर चल रही है.
कांग्रेस के इसी डर ने उसे कश्मीर के मामले में राजनीतिक रूप से पंगु बना दिया है. सच यह है कि कश्मीर के मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार का राजनीतिक एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस तय कर रहे हैं. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में कश्मीर में यू.पी.ए सरकार कोई बड़ी पहलकदमी लेने की स्थिति में नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि तमाम बातचीत और चर्चाओं के बावजूद सरकार कश्मीर घाटी में सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून(अफ्सा) को हटाने को लेकर कोई फैसला नहीं कर पाई है जबकि यह कोई संविधान से बाहर का फैसला नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक फैसला कश्मीर में एक नई पहल की जमीन तैयार कर सकता था. इस जमीन पर वार्ताकारों का काम थोड़ा आसान हो जाता.
लेकिन यू.पी.ए ने यह मौका गवां दिया है. कश्मीर नीति को आर.एस.एस-भाजपा के हाथों में बंधक रख चुकी कांग्रेस से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
('समकालीन जनमत' के नवम्बर'१० अंक में दिल्ली डायरी स्तम्भ में प्रकाशित)
2 टिप्पणियां:
bilkul sahi kaha aap ne par ek mudaa yah bhi hai ki aam janta jo kashmir se dur sirf media ke barose waha ke halath jaan rahi hai,wah na to madad kar pa rahi hai na hi swachhand trarah se koi raye bana paa rahi hai |kashmir ager bharat ka hissa hai to pure bharat ko uske liye ladna chahiye par na to yah isthiti paida ho rahi hai na hi esse koi paida kar raha hai ????
डॉ. आनंद सर, कश्मीर में गुस्सा, आक्रोश? किस बात पर आक्रोश? और किस पर गुस्सा? भारत की सरकार पर? लेकिन भारत सरकार (यानी प्रकारान्तर से करोड़ों टैक्स भरने वाले) तो इन कश्मीरियों को 60 साल से पाल-पोस रहे हैं, फ़िर किस बात का आक्रोश? भारत की सरकार के कई कानून वहाँ चलते नहीं, कुछ को वे मानते नहीं, उनका झण्डा अलग है, उनका संविधान अलग है, भारत का नागरिक वहाँ ज़मीन खरीद नहीं सकता, धारा 370 के तहत विशेषाधिकार मिला हुआ है, हिन्दुओं (कश्मीरी पण्डितों) को बाकायदा "धार्मिक सफ़ाये" के तहत कश्मीर से बाहर किया जा चुका है… फ़िर किस बात का गुस्सा है सर? कहीं यह हरामखोरी की चर्बी तो नहीं? लगता तो यही है। वरना क्या कारण है कि 14-15 साल के लड़के से लेकर यासीन मलिक, गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे बुज़ुर्ग भी भारत सरकार से, जब देखो तब खफ़ा रहते हैं।
लाखों हिन्दू लूटे गये, बलात्कार किये गये, उनके मन्दिर तोड़े गये, क्योंकि गिलानी के पाकिस्तानी आका ऐसा चाहते थे, तो जिन्हें गुस्सा आया होगा कभी उन्हें किसी चैनल पर दिखाया? नहीं दिखाया, क्यों? क्या आक्रोशित होने और गुस्सा होने का हक सिर्फ़ कश्मीर के हुल्लड़बाजों को ही है, राष्ट्रवादियों को नहीं
आपका प्रिय -रवि hj
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