शनिवार, सितंबर 29, 2007

हिंदी पत्रकारिता का 'रविवार` काल

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में आपातकाल एक स्पष्ट विभाजक रेखा है। आपातकाल ने जैसे हिंदी पत्रकारिता का चेहरा ही बदल दिया। आपातकाल के दौरान हिंदी प्रदेश जिस तरह के राजनीतिक उथल-पुथल से गुजरे, उससे पैदा हुई राजनीतिक जागरूकता और सक्रियता एक अलग तरह की पत्रकारिता की मांग कर रहे थे। 1977 में जब आपातकाल हटा और आम चुनावों में श्रीमती इंदिरा गांधी की हार हुई, उसके बाद लोगों में उस 19 महीने के दौरान हुई घटनाओं और उससे जुड़ी खबरों को जानने की जबरदस्त भूख दिखाई पड़ी। दरअसल, आपातकाल के दौरान सेंसरशिप की गाज अखबारों पर गिरी और आलोचनात्मक खबरें अखबारों से गायब सी हो गई। उस दौरान अखबार और पत्रिकाएं पूरी तरह से नीरस और वास्तविकता से कटे हुए दिखाई पड़ते थे।

आपातकाल के पहले हिंदी क्षेत्र के पाठकों की बौद्धिक आवाज और गंभीर पत्रकारिता की प्रतिनिधि 'दिनमान` की आपातकाल के दौरान चुप्पी ने उसकी साख को काफी कमजोर कर दिया और उसके साथ ही 'दिनमान` अस्त हो गया। बदले हुए समय और माहौल में पाठकों को एक नए अखबार या पत्रिका की तलाश थी जो आपातकाल की सच्चाइयों को सामने ले आ सकता और सत्ता में आई जनता पार्टी के दिग्गजों की तू-तू-मैं-मैं की अंदरूनी कहानियां बता सकता। यह जरूरत पूरी की 'रविवार` ने। यह संयोग ही था कि एक जमाने में जिस कलकत्ता में हिंदी पत्रकारिता का जन्म हुआ था, वहीं से आनंद बाजार समूह ने 1977 में साप्ताहिक पत्रिका 'रविवार` की शुरूआत की।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने युवा संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में 'रविवार` ने जल्दी ही 'दिनमान` के पराभव से पैदा हुए शून्य को भर दिया। 'रविवार` कई मामलों में बुनियादी तौर पर 'दिनमान` से भिन्न था। उसने एक नए किस्म की पत्रकारिता शुरू की। उसकी सबसे बड़ी पहचान यह थी कि उसने 'दिनमान` से उलट फील्ड रिपोर्टिंग पर जोर दिया। वह विचार और टिप्पणियों से अधिक घटनास्थल से की गई रिपोर्टिंग की पत्रिका थी। उसमें घटनाओं के विश्लेषण के बजाय घटनाओं के पीछे की अंतर्कथा ज्यादा होती थी। हिंदी पत्रकारिता में पहली बार 'रविवार` ने राजनीतिक जोड़-तोड़, उठा-पटक और राजनेताओं के अंत:पुर की कहानियों से लेकर देश के दूर-दराज के इलाकों में सामंती और पुलिसिया जुल्म, मुठभेड हत्याओं, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की बेखौफ रिर्पोटें छापीं।
पाठकों ने 'रविवार` को हाथों-हाथ लिया। हालांकि यह केवल 'रविवार` तक सीमित परिघटना नहीं थी और इस नई पत्रकारिता की छाप धीरे-धीरे हिंदी के अधिकांश अखबारों और पत्रिकाओं पर दिखने लगी। लेकिन निश्चय ही इसकी शुरूआत 'रविवार` और अंग्रेजी में 'संडे` ने की थी। संयोग से यह दौर राजनीतिक रूप से भी बहुत उथल-पुथल का था। अखबारों और पत्रिकाओं के पास छापने के लिए बहुत कुछ था और राजनीतिक रूप से जागरूक पाठकों में पढ़ने की गजब की भूख थी। आश्चर्य नहीं कि 1976 के मध्य से लेकर 1979 के बीच सिर्फ तीन वर्षों में समाचारपत्रों की खपत में 40 फीसदी और पत्रिकाओं की बिक्री में 34 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई।

पत्रिकाओं में 'रविवार` ने सबको पीछे छोड़ दिया। इसके बाद अगले एक दशक तक 'रविवार` जनमानस पर छाया रहा। यह हिंदी पत्रकारिता का 'रविवार` काल था। लेकिन यह अफसोस की बात है कि उस दौर की हिंदी पत्रकारिता और खासकर 'रविवार` के योगदान के बारे में न तो कोई गंभीर और आलोचनात्मक शोध अध्ययन सामने आया है और न ही उस दौर की पत्रकारिता से जुड़े संपादको और पत्रकारों के संस्मरण और लेखों के पर्याप्त संग्रह आए हैं जिसके आधार पर उसे समझने में आसानी हो। संतोष भारतीय की पुस्तक 'पत्रकारिता : नया दौर, नए प्रतिमान` इस कमी को एक हद तक पूरा करने की कोशिश करती है। संतोष भारतीय 'रविवार` की युवा टीम के एक सक्रिय रिपोर्टर थे, जो बजरिए जयप्रकाश आंदोलन पत्रकारिता में आए थे।

इस पुस्तक में उन्होंने 'रविवार` के लिए रिपोर्टिंग करने के दौरान हुए अनुभवों को समेटने की कोशिश की है। यह पुस्तक में 1979 से 1985 के बीच संतोष भारतीय द्वारा 'रविवार` के लिए लिखी गई कोई 30 रिपोर्टों को भी शामिल किया गया है। उनमें संतोष भारतीय की फील्ड रिपोर्टिंग की मेहनत और घटनाओं को उनकी समग्रता में देखने की दृष्टि साफ दिखाई पड़ती है। इन रिपोर्टों में आपको उस दौर की राजनीति और समाज की गहरी पड़ताल दिखेगी। चाहे वह उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र की कारगुजारियां हों या फिर चंबल इलाके में डकैतों की समस्या। उनकी रिपोर्टिंग की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह न सिर्फ घटनास्थल पर जाते हैं बल्कि हर मामले में स्पष्ट तौर पर सही और गलत, न्याय और अन्याय के बीच फर्क करते हुए सही और न्याय के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल, पत्रकारों को निष्पक्षता और संतुलन की आड में जिस तरह से 'तुम भी सही, तुम भी सही` की नपुंसक और त्रिशंकु पत्रकारिता के लिए बाध्य किया जाता है, 'रविवार` की पत्रकारिता उससे अलग थी।

संतोष भारतीय लिखते हैं, 'रविवार का मानना था कि सच्चाई कभी दो पक्षों के साथ खड़ी नहीं हो सकती, इसलिए सच्चाई जिस पक्ष के साथ हो, रिपोर्टर को उसका साथ देना चाहिए और रिपोर्ट के पक्ष में उसे खड़ा होना चाहिए।` संतोष भारतीय की रिपोर्टिंग की एक और खास पहचान उसकी कथात्मकता है। वे बहुत सरल और आम बोलचाल की भाषा में और सीधे-सीधे घटनाक्रम को कहानी की तरह बताते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि उस दौर में ये रिपोर्टें खूब पढ़ी गईं। खासकर डाकू फूलनदेवी, विक्रम मल्लाह, मुस्तकीम, छविराम आदि की कहानियों में अपराध कथाओं की लोकप्रिय शैली से अलग आपको उस समय की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भी पता चलता है।

लेकिन संतोष भारतीय की खुद की रिपोर्टों के अलावा इस पुस्तक की खास बात यह है कि उन्होंने 'रविवार` कैसे 'रविवार` बना और उसकी ताकत क्या थी, इसकी भी विस्तार से चर्चा की है। यह पुस्तक उस दौर की पत्रकारिता में आए बदलाव और नए प्रयोगों में 'रविवार` के संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह और 'संडे` के संपादक एमजे अकबर के योगदान को भी सामने ले आती है। इसके साथ ही संतोष भारतीय ने अपने लंबे पत्रकारीय अनुभव के आधार पर पुस्तक में संपादक, कार्यकारी संपादक, डेस्क पर काम करने वाले उप संपादकों और संवाददाताओं के लिए जरूरी गुणों और उनके दायित्व की भी चर्चा की है जो पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए भी काफी उपयोगी है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि 'रविवार` हिंदी पत्रकारिता में एक मील का पत्थर है। 'रविवार` में बहुतेरी खूबियां थीं लेकिन संतोष भारतीय से यह भी अपेक्षा थी कि वे हिंदी पत्रकारिता के 'रविवार` काल की उन कमजोरियों को भी बेबाकी से सामने रखेंगे, जिनमें से कुछ आज हिंदी पत्रकारिता में खूब फल-फूल रही हैं। रिपोर्टों को सनसनीखेज बनाने या सतही लेकिन बिकाऊ विषयों को प्रमुखता देने में 'रविवार` की भूमिका की पडताल होना अभी बाकी है। यही नहीं, राजनीतिक रिपोर्टिंग को राजनेताओं की जोड़-तोड़, पर्दे के पीछे के षडयंत्र और अन्त:पुर की कहानियों में सीमित करने का 'श्रेय` भी 'रविवार` को जाता है। पाठकों के 'लोएस्ट कॉमन डिनोमिनेटर` को सहलाने और उनकी राजनीतिक जागरूकता को बाधित करने की कुछ जिम्मेदारी 'रविवार` को लेनी पड़ेगी। उम्मीद करना चाहिए कि इस पुस्तक के बाद हिंदी पत्रकारिता के 'रविवार` काल में अध्येताओं और पत्रकारों की आलोचनात्मक रूचि और बढ़ेगी।

'पत्रकारिता : नया दौर, नए प्रतिमान'
संतोष भारतीय
राधा कृष्ण प्रकाशन

1 टिप्पणी:

kamlesh madaan ने कहा…

ऐसी पत्रकारित को हमारा सलाम! क्योंकि ये स्तम्भ है पत्र्कारिता के और आपने ये जानकारी देकर हमारा मन गर्व से भर दिया है