शनिवार, सितंबर 29, 2007

छात्र राजनीतिः संघर्ष का अधिकार बचाने की लड़ाई

खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करने वाले देश में इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि लोकतंत्र का मंत्रजाप करते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं और मंचों को निशाना बनाया जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों अंग- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका न सिर्फ इस मुहिम में शामिल हों बल्कि उसकी अगुवाई कर रहे हों। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस तरह से छात्रसंघों और छात्र राजनीति को खत्म करने और उन्हें अवांछनीय घोषित करने की संगठित मुहिम चलायी जा रही है, वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मूल्यों के बिल्कुल विपरीत है। आखिर छात्रसंघों और छात्र राजनीति का कुसूर क्या है? क्या छात्रसंघों और छात्र राजनीति में अपराधियों, लफंगों, जातिवादी, सांप्रदायिक, क्षेत्रवादी और ठेकेदारों का बढ़ता दबदबा किसी मायावती सरकार या सर्वोच्च न्यायालय को उन्हें खत्म करने देने का र्प्याप्त कारण माने जा सकते हैं?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अगर छात्रसंघों और छात्र राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार को उन्हें खत्म करने का र्प्याप्त तर्क मान लिया गया तो हमें विधायिका-संसद और विधानसभाओं के साथ-साथ लोकतांत्रिक राजनीति को भी भंग और प्रतिबंधित करना पड़ेगा। दरअसल, उत्तरप्रदेश में छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगाने का मायावती सरकार का फैसला न सिर्फ किसी भी लोकतांत्रिक तर्क से परे है बल्कि काफी हद तक मरीज को लाइलाज घोषित करके उसे मारने की तरह है। मायावती और उनके जैसे अन्य लोगों का छात्रसंघों के खिलाफ सबसे बड़ा और शायद एकमात्र तर्क यह है कि वे अपराधियों और लंपट तत्वों के मंच बन गए हैं और परिसर के शैक्षणिक माहौल को बिगाड़ने के साथ-साथ कानून-व्यवस्था के लिए भी गंभीर समस्या बन गए है।

इस आरोप में काफी हद तक सच्चाई है। छात्र राजनीति में गिरावट और दिशाहीनता के कारण अपराधी, लंपट, ठेकेदार, जातिवादी, अवसरवादी और माफिया तत्वों की न सिर्फ घुसपैठ बढ़ी है बल्कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों-कांग्रेस, भाजपा, सपा आदि के जेबी छात्रसंगठनों के जरिए परिसरों के अंदर और छात्रसंघों में उनका दबदबा काफी बढ़ गया है। परिसरों की छात्र राजनीति में बाहुबलियों और धनकुबेरों के इस बढ़ते दबदबे के कारण आम छात्र न सिर्फ राजनीति और छात्रसंघों से दूर हो गए हैं बल्कि वे छात्र राजनीति और छात्रसंघों के मौजूदा स्वरूप से घृणा भी करने लगे हैं। यही नहीं, छात्र राजनीति और छात्रसंघोंं के अपराधीकरण के खिलाफ आम शहरियों में भी एक तरह गुस्सा और विरोध मौजूद है।

जाहिर है कि मायावती छात्र समुदाय और आम शहरियों की इसी छात्रसंघ विरोधी भावना को भुनाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इस आधार पर यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी कि उनका मकसद परिसरों की सफाई और उनमें शैक्षणिक माहौल बहाल करना है। दरअसल, उत्तरप्रदेश या देश के अन्य राज्यों में जहां विश्वविद्यालय परिसर शैक्षणिक अराजकता के पर्याय बन गए हैं, उसके लिए छात्रसंघों को दोषी ठहराना सच्चाई पर पर्दा डालने और असली अपराधियों को बचाने की कोशिश भर है। सच यह है कि लंपट, अपराधी और अराजक छात्रसंघ और छात्र राजनीति मौजूदा शैक्षणिक अराजकता के कारण नहीं, परिणाम हैं। इस शैक्षणिक अराजकता के लिए केन्द्र और प्रदेश की सरकारों के साथ-साथ विश्वविद्यालय प्रशासन मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।

अगर ऐसा नहीं है तो उत्तर प्रदेश और बिहार के विश्वविद्यालयों में भ्रष्ट, लंपट, नाकारा और शैक्षणिक रूप से बौने कुलपतियों की नियुक्ति के लिए कौन जिम्मेदार है? आखिर क्यों पिछले एक दशक से भी कम समय में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल को कुलपतियों के खिलाफ भ्रष्टाचार, अनियमितता और अन्य गंभीर आरोपों के कारण सामूहिक कार्रवाई करनी पड़ी है? क्या इसके लिए भी छात्रसंघ और छात्र राजनीति जिम्मेदार है? तथ्य यह है कि उत्तरप्रदेश के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसरों में पढ़ाई-लिखाई को छोड़कर वह सब कुछ हो रहा है जो शैक्षणिक गरिमा और माहौल के अनुकूल नहीं है। उस सबके लिए सिर्फ छात्रसंघों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

सच यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश सहित उत्तर और मध्य भारत के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसर शिक्षा के कब्रगाह बन गए हैं। भ्रष्ट और नाकारा कुलपतियों और विभाग प्रमुखों ने पिछले तीन दशकों में परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और राजनीतिक दबाव के आधार पर निहायत नाकारा और शैक्षणिक तौर पर जीरो रहे लोगों को संकाय में भर्ती किया। इससे न सिर्फ परिसरों का शैक्षणिक स्तर गिरा बल्कि अक्षम अध्यापकों ने अपनी कमी छुपाने के लिए जातिवादी, क्षेत्रीय, अपराधी और अवसरवादी गुटबंदी शुरू कर दी।़ परिसरोंे में ऐसे अधिकारी-अध्यापक गुटों ने छात्रों में भी ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देना और आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। कालांतर में कुलपतियों और विश्वविद्यालयों के अन्य अफसरों ने भी अपने भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर पर्दा डालने के लिए ऐसे गुटों और गिरोहों का सहारा और संरक्षण लेना-देना शुरू कर दिया।

जाहिर है कि इससे परिसरों का शैक्षणिक माहौल बिगड़ने लगा। रही-सही कसर ९० के दशक में केन्द्र और राज्य सरकारों ने पूरी कर दी। नयी शिक्षा नीति और आर्थिक सुधारों के दबाव में केन्द्र और राज्य सरकारों ने उच्च शिक्षा से सब्सिडी खत्म करने के नाम पर विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के बजट में भारी कटौती शुरू कर दी और विश्वविद्यालयों को अपने संसाधन खुद जुटाने के लिए कह दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि परिसरों में लाइब्रेरी में नयी किताबें और जर्नल आने बंद हो गए, प्रयोगशाला में उपकरणों और रसायनों का टोटा पड़ गया और उनका आधारभूत ढांचा चरमराने लगा। इस स्थिति से निपटने की हड़बड़ी में विश्वविद्यालयों ने बिना किसी तैयारी और आधारभूत ढांचे के स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों के नाम पर डिग्रियां बेचने और मान्यता देने का धंधा शुरू कर दिया।

इसके साथ ही अधिकांश विश्वविद्यालयों का ध्यान शैक्षिक गुणवत्ता, शोध, अध्यापन के बजाय अधिक से अधिक धन कमाने पर केन्द्रित हो गया। इस बहती गंगा में कुलपतियों से लेकर राज्य सरकार के शिक्षा विभाग में बैठे अफसरों और मंत्रियों तक सभी हाथ धो रहे हैं। दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस आक्टोपसी रैकेट में राज्यपाल और मुख्यमंत्री से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन के आला अधिकारी तक सभी शामिल रहे हैं। विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक माहौल बिगाड़ने की पूरी जिम्मेदारी इसी प्रभावशाली शैक्षिक माफिया की है जिसने उत्तरप्रदेश-बिहार से लेकर मध्यप्रदेश-राजस्थान तक परिसरों को अपने कब्जे में ले रखा है।

तथ्य यह है कि इस शैक्षिक माफिया ने ही छात्रसंघों और छात्र राजनीति को भी भ्रष्ट बनाया है। यह एक सुनियोजित योजना के तहत किया गया है। असल में, परिसरों में एक ईमानदार, संघर्षशील और बौद्धिक रूप से प्रगतिशील छात्रसंघ और छात्र राजनीति की मौजूदगी शैक्षिक माफिया को हमेशा से खटकती रही है क्योंकि वह उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होता रहा है। इसलिए लड़ाकू और ईमानदार छात्र राजनीति को खत्म करने के लिए शैक्षिक माफिया ने परिसरों में जानबूझकर लंपट, अपराधी, जातिवादी और क्षेत्रवादी तत्वों को संरक्षण और प्रोत्साहन देना शुरू किया। दूसरी ओर, उन्होंने छात्रसंघों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को 'घूस खिलाना, भ्रष्ट बनाना, फिर बदनाम करना और आखिर में दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकने` की रणनीति पर काम करना शुरू किया। इसका सीधा उद्देश्य अपने भ्रष्टाचार पर पर्दा डालना था।

शैक्षिक माफिया को अपने इस अभियान में छात्रऱ्युवा राजनीति के अपराधीकरण की उस प्रक्रिया से बहुत मदद मिली जो ७० के दशक में युवा हृदय सम्राट संजय गांधी की अगुवाई में शुरू हुई थी। संजय गांधी और उनकी चौकड़ी के नेतृत्व में युवा कांग्रेस और बाद में एनएसयूआई के अपराधीकरण ने जल्दी ही एक संक्रामक रोग की तरह समाजवादी और कथित राष्ट्रवादी धारा के छात्र संगठनों को भी अपने चपेट में ले लिया। जनता पार्टी सरकार के पतन, संपूर्ण क्रांति के आकस्मिक गर्भपात और लालू-नीतिश से लेकर असम आंदोलन से निकले छात्र नेताओं के उसी दलदल में फंसते जाने के साथ ही छात्र राजनीति से आदर्शवाद और बदलाव की इच्छा भी अकाल मृत्यु की शिकार हो गयी। जाहिर है कि शैक्षिक माफिया और अपराधी-जातिवादी-लंपट छात्र गिरोहों ने इस स्थिति का सबसे अधिक फायदा उठाया। उन्होंने छात्र राजनीति और छात्रसंघों को अपराधीकरण और जातिवादी गिरोहबंदी का पर्याय बना दिया।

इससे एनएसयूआई से लेकर 'ज्ञान-शील-एकता` की दुहाई देनेवाली विद्यार्थी परिषद और समाजवादी छात्र सभा जैसा कोई छात्र संगठन नहीं बचा। अपवाद सिर्फ वे वामपंथी और क्रांतिकारी जनवादी छात्र संगठन रहे जिन्होंने ८० के दशक के मध्य में उत्तरप्रदेश, बिहार और दिल्ली के परिसरों में इस अपराधीकरण और शैक्षिक अराजकता को चुनौती देने की कोशिश की। लेकिन आश्चर्य की बात है कि परिसरोें में छात्र राजनीति के अपराधीकरण का रोना-रोनेवाले विश्वविद्यालय और राज्य प्रशासन ने छात्र राजनीति की इस धारा को कुचलने और खत्म करने की सबसे ज्यादा कोशिश की है। इसकी वजह बिल्कुल साफ है। ये छात्र संगठन शैक्षिक माफिया की कारगुजारियों को लगातार चुनौती देते रहे हैं।

इसलिए जो लोग यह सोचते और आशा बांधे हुए हैं कि मायावती के फैसले या सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित लिंगदोह समिति की सिफारिशों से परिसरों में शैक्षिक पुनर्जागरण हो जाएगा, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं। अगर ऐसा होना होता तो बिहार के सभी विश्वविद्यालय आज शैक्षणिक प्रगति की शानदार मिसाल होते क्योंकि इन विश्वविद्यालयों में पिछले २२ वर्षों से छात्रसंघ के चुनाव नहीं हुए हैं। लेकिन तथ्य इसके उल्टे हैं। बिहार के सभी विश्वविद्यालय शिक्षा की कब्रगाह बने हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि विश्वविद्यालयों के ढांचे में आमूलचूल बदलाव और उससे भ्रष्ट तत्वों की सफाई के बिना परिसरों की मौजूदा स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा क्योंकि मायावती मर्ज के बजाय लक्षण का इलाज कर रही हैं। अब तो खैर उन्होंने लक्षण का भी नहीं बल्कि सीधे मरीज को ही मार देने का उपाय कर दिया है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।

5 टिप्‍पणियां:

विनीत कुमार ने कहा…

ek jaruri sabaal mere man me baar-baar aata hai ki agar chatra rajniti me gundai hai aur isliyae ise khatma kar deni chahiyae to fir yahi formula kya besh ki rajniti par laagu karna sahi hoga..jiske bute apne ko vishva ka sabse bada loktantra hone ka dhol pitate hai

अफ़लातून ने कहा…

आनन्द प्रधान और उनके शिष्यों को बधाई। चिट्ठे के परिचय से लगता है आनन्द प्रधान का अपना चिट्ठा नहीं हैं,वे जिनके प्रोफ़ेसर हैं , उनका है। सतत पोस्ट करना बहुत जरूरी है।

सौरभ द्विवेदी ने कहा…

pranaam sir
sabse jaruri savaal ye hai ki kya sarkaar ye maan chuki hai ki student politics nahi samjhte isliye election na ho ya mayavati ye manti hain ki state machinery college ya university main fearless atmosphere create karne main saksham nahi hai..
padhkar achcha laga ..kya 90 ke dashak main up bihar main aaye student politics ke badlaav par kuch likha hua post karenge sir..

Faroghe Azzam ने कहा…

Apka blog dekha aur accha laga khaas tor se chatra rajniti ke vividh ayamon ka chir phadh karta hua woh lekh jisse apne blog ke uper dl hai...
patna ke patrkarita ke chatron ka chota sa internity prayas = www.mysamar.blogspot.com
ghaur kareinge...

प्रियदर्शन ने कहा…

आनंद जी, तीसरा रास्ता मालूम नहीं था। हम भी आपके रास्ते पर चलने को तैयार हैं। बताया तो कीजिए।
प्रियदर्शन