तमाम सीमाओं और कमियों के बावजूद यह एक जनतांत्रिक आंदोलन है
कहना मुश्किल है कि अन्ना हजारे के नेतृत्व में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल समर्थक आंदोलन से अंततः क्या निकलेगा? संभव है कि यह आंदोलन नाकाम रहे, यह भी संभव है कि इसे कुचल दिया जाए, यह भी कि आखिर में सरकार और अन्ना टीम में कोई डील हो जाए और एक बार फिर लोग छले जाएं.
इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह एक खिचड़ी क्रांति भर बनकर रह जाए जिससे यह भ्रष्ट व्यवस्था और मजबूत होकर निकले. इस आशंका को भी नाकारा नहीं जा सकता है कि इस आंदोलन को भगवा फासीवाद हाइजैक कर ले जाए.
यह भी काफी हद तक सही है कि इस आंदोलन के केन्द्र में मूलतः ‘शहरी, अभिजात्य, हिंदू-सवर्ण और मध्यमवर्गीय’ तबके शामिल हैं. यह भी कि इस आंदोलन का एजेंडा बहुत सीमित, सपाट और छिछला है और इसे ‘क्रांति’ और ‘आज़ादी की दूसरी लड़ाई’ बतानेवाले एक भावुक अतिरेक और अति-उत्साह के शिकार हैं.
यह भी कि इस आंदोलन में भांति-भांति के समूह शामिल हैं जिनमें मनुवादी आरक्षण विरोधियों से लेकर भगवा हिंदुवादियों जैसी प्रतिक्रियावादी शक्तियां भी हैं. इसके अलावा खुद अन्ना और उनकी टीम के कई साथियों का अतीत और उनके पिछले और नए बयान अंतर्विरोधी, भ्रामक, छिछले और यहाँ तक कि जनविरोधी रहे हैं.
यह भी कि इस आंदोलन के पक्ष में खड़े कई नेताओं, पूर्व नौकरशाहों, एन.जी.ओ और कारपोरेट मीडिया का खुद का चरित्र भ्रष्ट रहा है और उन्हें इनके साथ खड़े देखकर निराशा और बढ़ जाती है. यही नहीं, इस आंदोलन ने एक ऐसा राजनीति विरोधी माहौल बनाया है जो भ्रष्ट-सत्तापरस्त-अपराधी राजनीति और बदलाव की राजनीति करनेवालों को एक साथ खड़ा कर देता है.
कहने का आशय यह कि आप चाहें तो इस आंदोलन में कई कमियां, कमजोरियां और अंतर्विरोध खोज सकते हैं, इसके सीमित एजेंडे पर कई सवाल खड़े कर सकते हैं और इसे सिरे से ख़ारिज कर सकते हैं.
निश्चय ही, अन्ना के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर ये सवाल उठाये जाने चाहिए, उसकी कमियों की ओर इशारा किया जाना चाहिए और उसकी आलोचना भी होनी चाहिए. इससे यह आंदोलन वैचारिक, राजनीतिक रूप से और समृद्ध, व्यापक और मजबूत होगा.
यह भी और जोर देकर कहने की जरूरत है कि देश को गरीबों के नेतृत्व में एक रैडिकल बदलाव के जन आंदोलन की जरूरत है और इसका कोई विकल्प नहीं है. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि जब तक क्रांति नहीं होगी, देश में विभिन्न तबकाई, लोकतान्त्रिक मुद्दों और सवालों पर होने वाले आंदोलन बेमानी हैं.
जाहिर है कि तमाम सवालों और आलोचनाओं के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन को खारिज नहीं किया जा सकता है. इस आंदोलन की तमाम सीमाओं के बावजूद इससे कौन इनकार कर सकता है कि इसने नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के सबसे मुखर प्रवक्ता बन गए मध्यमवर्ग को भ्रष्टाचार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर सडकों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है.
यह भी कि इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार के सवाल को राष्ट्रीय एजेंडे पर स्थापित कर दिया है, अन्ना की गिरफ्तारी के सवाल पर लड़कर विरोध करने के जनतांत्रिक अधिकार को हासिल किया है और सबसे बढ़कर लोगों की राजनीतिक चेतना को आगे बढाया है.
साफ बात है कि जिन्हें क्रांति और मुकम्मल बदलाव से कम कुछ भी मंजूर नहीं है, वे इसके लिए तैयारी करें. इस आंदोलन से उनके लिए जमीन तैयार हो रही है. लेकिन जो बुद्धिजीवी और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के आन्दोलनों से जुड़े मित्र अनेक ज्ञात-अज्ञात कारणों से इस आंदोलन को लोकतंत्र, संविधान और संसद के खिलाफ बता रहे हैं, वे भी एक दूसरे अतिरेक के शिकार हैं.
अगर यह क्रांति नहीं है तो प्रतिक्रांति भी नहीं है. अगर यह मुकम्मल बदलाव की लड़ाई नहीं है तो यह अलोकतांत्रिक आंदोलन भी नहीं है. इससे कुछ नहीं बदलेगा, यह मानना भी सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की प्रक्रियाओं से आँख चुराना और निराशावाद का चरम है.
अगर इस तर्क को मान लें तो तमाम तबकाई संगठनों और उनकी छोटी-बड़ी मांगों को लेकर चलनेवाले आन्दोलन बेमानी दिखने लगेंगे. याद रहे, १९७४ का जयप्रकाश आंदोलन भी गुजरात में भ्रष्टाचार और छात्रावासों में मेस फीस में बढ़ोत्तरी जैसे मुद्दों पर शुरू हुआ था और धीरे-धीरे व्यापक लोकतान्त्रिक अधिकारों की लड़ाई में बदल गया.
भ्रष्टाचार विरोधी मौजूदा आंदोलन में भी ऐसी संभावनाएं हैं. अगर यह आंदोलन आगे बढ़ा तो इसमें कारपोरेट भ्रष्टाचार और गरीबों-किसानों-आदिवासियों-दलितों के जल-जंगल-जमीन-खनिज की लूट के सवाल जुड़ते चले जाएंगे. रैडिकल बदलाव के आन्दोलनों के अगुवा संगठनों और समूहों को इसके लिए कोशिश करनी चाहिए.
लेकिन इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि जो सत्तापरस्त, भ्रष्ट और जनविरोधी ताकतें अपने भ्रष्ट और अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों को लोकतंत्र, संविधान और संसद की आड़ लेकर इस आंदोलन को ख़ारिज करने की कोशिश कर रही हैं, उनकी पोल खोली जाए.
इसे कहते हैं, सूप तो सूप, चलनी भी हँसे, जिसमें सैकड़ों छेद. जिनका पूरा इतिहास लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाने, संविधान को तोड़ने-मरोड़ने और उसका मजाक बनाने और संसद को अपने हितों और स्वार्थों के लिए रबर स्टैम्प की तरह इस्तेमाल करने का है, वे लोकतंत्र, संविधान और संसद की सर्वोच्चता की दुहाई दे रहे हैं.
माफ कीजिये, आप महानुभावों से लोकतंत्र, संविधान और संसद की महत्ता पर कोई प्रवचन नहीं सुनना है. अगर इस देश में लोकतंत्र जिन्दा है तो श्रेय सिर्फ और सिर्फ इस देश की गरीब जनता को है. लोकतंत्र में जनता से बड़ा कोई नहीं है. न संविधान, न संसद, न कानून और न खुद भगवान.
संविधान की दुहाई देनेवाले यह क्यों भूल जाते हैं कि संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत “हम भारत के लोग” वाक्यांश से होती है. संसद भी लोगों की इच्छाओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति का मंच है. अगर आज लोग एक मजबूत और प्रभावी जन लोकपाल चाहते हैं तो यह अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक और प्रतिक्रियावादी मांग कैसे है?
अगर भारतीय लोकतंत्र इतनी सीमित मांग के साथ भी एडजस्ट करने और संवाद करने को तैयार नहीं है तो बुनियादी बदलाव की लड़ाई के साथ उसके व्यवहार का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. देश के अनेक हिस्सों में जल-जंगल-जमीन-खनिज बचाने, न्यूनतम मजदूरी से लेकर श्रम कानूनों को लागू करने, सामाजिक सम्मान और बुनियादी हक के लिए और मानवाधिकार हनन के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों के साथ यह लोकतान्त्रिक सत्ता और संसद क्या कर रही है, यह किसी से छुपा नहीं है?
कहने की जरूरत नहीं है कि इस मायने में भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई इन जनांदोलनों के साथ जुड़ती है. इसे आगे जाना है तो उनके साथ जुडना ही होगा.
आश्चर्य नहीं कि खुद अन्ना हजारे की आवाज़ में इन लड़ाइयों की धमक सुनाई पड़नी शुरू हो गई है. विश्वास न हो तो अनशन के चौथे और पांचवे दिन बोल रहे अन्ना को सुनिए. साथ ही यह भी देखिए कि इस आंदोलन का दायरा मध्यवर्ग और ‘खाए-पिए-अघाये’ लोगों से कैसे आगे बढ़ रहा है.
('दैनिक हरिभूमि' में २१ अगस्त को प्रकाशित आलेख )
1 टिप्पणी:
I read the entire article, rather I must say that I had to read it till the very end. I totally agree to the spirit of the matter. And I believe that we are leading to a big change at least a revolution.
एक टिप्पणी भेजें