साफ्ट लैंडिंग की कोशिश में अर्थव्यवस्था क्रैश लैंड कर सकती है
यू.पी.ए सरकार माने या न माने लेकिन अर्थव्यवस्था के बारे में सच्चाई सामने आने लगी है. भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेत अच्छे नहीं हैं. इससे साफ़ है कि सरकार की अर्थव्यवस्था पर से पकड़ ढीली पड़ रही है. नतीजा, अर्थव्यवस्था की रफ़्तार मंद पड़ने के साथ-साथ वह पटरी पर से उतरती भी दिखाई दे रही है.
महंगाई को ही लीजिए, रिजर्व बैंक की कोशिशों के बावजूद मुद्रास्फीति अभी भी काबू से बाहर है. दूसरी ओर, चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन की दर लुढककर सिर्फ ६.३ प्रतिशत रह गई है.
यही नहीं, पिछले साल नवंबर से मुंबई शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक में १२ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है जबकि इसी अवधि में दूसरे उभरते हर बाजारों में दो फीसदी से अधिक की बढोत्तरी देखी गई है. दूसरी ओर, पिछले वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) में २८.५ फीसदी की गिरावट आई है.
इसका असर निवेश दर पर भी साफ दिखाई पड़ रहा है जिसमें इस साल जनवरी से मार्च की तिमाही में मात्र ०.४ फीसदी की मामूली सी वृद्धि हुई है जबकि उसके पिछले साल इसमें २० फीसदी की बढोत्तरी हुई थी. निवेश में गिरावट के रुझानों से साफ है कि अर्थव्यवस्था में निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था, मानसून के बारे मौसम विभाग के ताजा पूर्वानुमान ने यह कहकर रही-सही कसर निकाल दी है कि मानसून की बारिश औसत से कम रह सकती है. जाहिर है कि इसका असर खरीफ की फसल पर पड़ सकता है. इससे मुद्रास्फीति पर भी दबाव और बढ़ेगा. इस सबका असर जी.डी.पी की वृद्धि दर पर पड़ना तय है.
आश्चर्य नहीं कि अधिकांश आर्थिक विश्लेषक और यहाँ तक कि सरकारी हलकों में भी इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर पिछले वर्ष के ८.६ प्रतिशत से गिरकर ८ फीसदी या उससे भी कम रहने की आशंकाएं जताई जाने लगी हैं.
लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंता के कारण केवल घरेलू नहीं हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाती हुई दिख रही है. खासकर यूरोप में ग्रीस से लेकर स्पेन और आयरलैंड तक अर्थव्यवस्थाएं जिस वित्तीय और आर्थिक संकट में घिरी हुई हैं, उसके कारण न सिर्फ यूरोप बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा बढ़ रहा है.
दूसरी ओर, कच्चे तेल की कीमतों में उछाल और अस्थिरता के अलावा सभी जिंसों खासकर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बढोत्तरी के कारण भी वैश्विक अर्थव्यवस्था डांवाडोल दिख रही है. जाहिर है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मौजूद इस अस्थिरता और अनिश्चितता का असर भारत समेत दुनिया भर की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय सरकार का सबसे अधिक ध्यान अर्थव्यवस्था की ओर होना चाहिए. लेकिन पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, आंतरिक गुटबंदी, खींचतान से घिरी सरकार न सिर्फ अपनी साख खोती जा रही है बल्कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हुई है. उसमें निर्णय लेने की इच्छाशक्ति भी नहीं दिखाई दे रही है.
ऐसा लगता है कि सरकार में सभी टाइम पास कर रहे हैं. तथ्य यह भी है कि यू.पी.ए सरकार एक तरह के दिशाभ्रम की भी शिकार हो गई है. परस्पर विरोधी दबावों के बीच उसे समझ में नहीं आ रहा है कि किस दिशा में आगे बढ़ा जाए?
साफ है कि इसके कारण मनमोहन सिंह सरकार एक तरह की ‘नीतिगत लकवे’ की शिकार हो गई है. नतीजा सबके सामने है. सरकार ने मुद्रास्फीति के आगे पहले ही घुटने टेक दिए थे, अब रिजर्व बैंक की भी लाचारी और थकान दिखने लगी है. यही नहीं, मुद्रास्फीति को काबू करने की जद्दोजहद में पिछले १५ महीनों में ब्याज दरों में दस बार बढोत्तरी करके रिजर्व बैंक ने उन लाखों मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर दी है जिन्होंने बैंकों से होम लोन और कंज्यूमर लोन आदि ले रखा है और जिनकी इ.एम.आई लगातार बढती जा रही है.
एक ओर आसमान छूती महंगाई का कहर और दूसरी ओर, ऊँची इ.एम.आई की मार – मध्यवर्ग के घरेलू बजट को बिगाड़ने के लिए काफी हैं. ऐसी आशंकाएं जाहिर की जाने लगी हैं कि आनेवाले महीनों में अगर इसी तरह ब्याज दरों में बढोत्तरी होती रही तो लोन चुकाने में डिफाल्ट के मामले तेजी से बढ़ सकते हैं.
यही नहीं, मौजूदा स्थिति के मद्देनजर कुछ विश्लेषक यह भी आशंका प्रकट कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन की ओर बढ़ रही है. मतलब यह कि ऊँची मुद्रास्फीति दर के साथ वृद्धि दर में गिरावट की ओर बढती अर्थव्यवस्था. यह स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक होती है क्योंकि यह एक तरह का दुष्चक्र है जिसमें फंसने के बाद उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है.
हालाँकि कुछ और विश्लेषकों का यह मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी जिसके कारण उसके क्रैश करने का खतरा बढ़ गया था. इस क्रैश को रोकने के लिए ही रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के जरिये अर्थव्यवस्था की साफ्ट लैंडिंग की कोशिश कर रहा है. लेकिन इस साफ्ट लैंडिंग के क्रैश में बदलने की आशंका बनी हुई है.
इसकी कई वजहें हैं. लेकिन उनकी चर्चा के बजाय मुश्किल में फंसी अर्थव्यवस्था को सहारा देने की जरूरत है. अर्थव्यवस्था की ढलान को रोकने के लिए पहल और फैसले करने का समय आ चुका है. अब और देरी और दुविधा से संकट बढ़ सकता है.
लेकिन असली सवाल यह है कि इस समय सरकार को नीतिगत स्तर पर क्या करना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था को फिसलने से रोका जा सके? हमेशा की तरह नव उदारवादी आर्थिक विश्लेषक, थिंक टैंक्स और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबियां नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं.
गोया आर्थिक सुधार सभी मर्जों की दवा हों. लेकिन सच यह है कि इन सुधारों से स्थिति और बिगड सकती है. जैसे अगर अभी डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि की मांग को स्वीकार कर लिया जाए तो इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति की दर और बेकाबू हो जायेगी बल्कि उसकी मार भी आम लोगों को झेलनी पड़ेगी.
इसी तरह, मुद्रास्फीति से निपटने के नाम पर अगर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया जाए तो लाखों छोटे व्यापारियों, दुकानदारों और वेंडरों की रोजी-रोटी के लिए उसके नतीजे बहुत घातक हो सकते हैं.
इसकी तुलना में बेहतर होगा कि देश के करोड़ों गरीबों के लिए रोजी-रोटी और आमदनी की व्यवस्था करके सरकार अर्थव्यवस्था के दायरे को फैलाने और उसे व्यापक आधार देने की कोशिश करे. इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले खाद्य अर्थव्यवस्था को दुरुस्त किया जाए. इस लिहाज से एक व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून को तुरंत पास कराने के अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहिए.
मनरेगा के दायरे को बढ़ाया जाना चाहिए. शिक्षा और स्वास्थ्य में सार्वजनिक पूंजी निवेश बढ़ाया जाना चाहिए. कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ना चाहिए ताकि उसकी मानसून पर निर्भरता खत्म हो सके.
साथ ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शक्तिशाली लोकपाल के जरिये शासन में लोगों और निवेशकों का भरोसा बहाल करने की पहल भी समय की मांग है. याद रखिये, कोई भी गतिशील अर्थव्यवस्था साफ-सुथरी राजनीति के बिना दौड नहीं सकती है.
यू.पी.ए सरकार माने या न माने लेकिन अर्थव्यवस्था के बारे में सच्चाई सामने आने लगी है. भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेत अच्छे नहीं हैं. इससे साफ़ है कि सरकार की अर्थव्यवस्था पर से पकड़ ढीली पड़ रही है. नतीजा, अर्थव्यवस्था की रफ़्तार मंद पड़ने के साथ-साथ वह पटरी पर से उतरती भी दिखाई दे रही है.
महंगाई को ही लीजिए, रिजर्व बैंक की कोशिशों के बावजूद मुद्रास्फीति अभी भी काबू से बाहर है. दूसरी ओर, चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन की दर लुढककर सिर्फ ६.३ प्रतिशत रह गई है.
यही नहीं, पिछले साल नवंबर से मुंबई शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक में १२ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है जबकि इसी अवधि में दूसरे उभरते हर बाजारों में दो फीसदी से अधिक की बढोत्तरी देखी गई है. दूसरी ओर, पिछले वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) में २८.५ फीसदी की गिरावट आई है.
इसका असर निवेश दर पर भी साफ दिखाई पड़ रहा है जिसमें इस साल जनवरी से मार्च की तिमाही में मात्र ०.४ फीसदी की मामूली सी वृद्धि हुई है जबकि उसके पिछले साल इसमें २० फीसदी की बढोत्तरी हुई थी. निवेश में गिरावट के रुझानों से साफ है कि अर्थव्यवस्था में निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था, मानसून के बारे मौसम विभाग के ताजा पूर्वानुमान ने यह कहकर रही-सही कसर निकाल दी है कि मानसून की बारिश औसत से कम रह सकती है. जाहिर है कि इसका असर खरीफ की फसल पर पड़ सकता है. इससे मुद्रास्फीति पर भी दबाव और बढ़ेगा. इस सबका असर जी.डी.पी की वृद्धि दर पर पड़ना तय है.
आश्चर्य नहीं कि अधिकांश आर्थिक विश्लेषक और यहाँ तक कि सरकारी हलकों में भी इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर पिछले वर्ष के ८.६ प्रतिशत से गिरकर ८ फीसदी या उससे भी कम रहने की आशंकाएं जताई जाने लगी हैं.
लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंता के कारण केवल घरेलू नहीं हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाती हुई दिख रही है. खासकर यूरोप में ग्रीस से लेकर स्पेन और आयरलैंड तक अर्थव्यवस्थाएं जिस वित्तीय और आर्थिक संकट में घिरी हुई हैं, उसके कारण न सिर्फ यूरोप बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा बढ़ रहा है.
दूसरी ओर, कच्चे तेल की कीमतों में उछाल और अस्थिरता के अलावा सभी जिंसों खासकर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बढोत्तरी के कारण भी वैश्विक अर्थव्यवस्था डांवाडोल दिख रही है. जाहिर है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मौजूद इस अस्थिरता और अनिश्चितता का असर भारत समेत दुनिया भर की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय सरकार का सबसे अधिक ध्यान अर्थव्यवस्था की ओर होना चाहिए. लेकिन पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, आंतरिक गुटबंदी, खींचतान से घिरी सरकार न सिर्फ अपनी साख खोती जा रही है बल्कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हुई है. उसमें निर्णय लेने की इच्छाशक्ति भी नहीं दिखाई दे रही है.
ऐसा लगता है कि सरकार में सभी टाइम पास कर रहे हैं. तथ्य यह भी है कि यू.पी.ए सरकार एक तरह के दिशाभ्रम की भी शिकार हो गई है. परस्पर विरोधी दबावों के बीच उसे समझ में नहीं आ रहा है कि किस दिशा में आगे बढ़ा जाए?
साफ है कि इसके कारण मनमोहन सिंह सरकार एक तरह की ‘नीतिगत लकवे’ की शिकार हो गई है. नतीजा सबके सामने है. सरकार ने मुद्रास्फीति के आगे पहले ही घुटने टेक दिए थे, अब रिजर्व बैंक की भी लाचारी और थकान दिखने लगी है. यही नहीं, मुद्रास्फीति को काबू करने की जद्दोजहद में पिछले १५ महीनों में ब्याज दरों में दस बार बढोत्तरी करके रिजर्व बैंक ने उन लाखों मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर दी है जिन्होंने बैंकों से होम लोन और कंज्यूमर लोन आदि ले रखा है और जिनकी इ.एम.आई लगातार बढती जा रही है.
एक ओर आसमान छूती महंगाई का कहर और दूसरी ओर, ऊँची इ.एम.आई की मार – मध्यवर्ग के घरेलू बजट को बिगाड़ने के लिए काफी हैं. ऐसी आशंकाएं जाहिर की जाने लगी हैं कि आनेवाले महीनों में अगर इसी तरह ब्याज दरों में बढोत्तरी होती रही तो लोन चुकाने में डिफाल्ट के मामले तेजी से बढ़ सकते हैं.
यही नहीं, मौजूदा स्थिति के मद्देनजर कुछ विश्लेषक यह भी आशंका प्रकट कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन की ओर बढ़ रही है. मतलब यह कि ऊँची मुद्रास्फीति दर के साथ वृद्धि दर में गिरावट की ओर बढती अर्थव्यवस्था. यह स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक होती है क्योंकि यह एक तरह का दुष्चक्र है जिसमें फंसने के बाद उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है.
हालाँकि कुछ और विश्लेषकों का यह मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी जिसके कारण उसके क्रैश करने का खतरा बढ़ गया था. इस क्रैश को रोकने के लिए ही रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के जरिये अर्थव्यवस्था की साफ्ट लैंडिंग की कोशिश कर रहा है. लेकिन इस साफ्ट लैंडिंग के क्रैश में बदलने की आशंका बनी हुई है.
इसकी कई वजहें हैं. लेकिन उनकी चर्चा के बजाय मुश्किल में फंसी अर्थव्यवस्था को सहारा देने की जरूरत है. अर्थव्यवस्था की ढलान को रोकने के लिए पहल और फैसले करने का समय आ चुका है. अब और देरी और दुविधा से संकट बढ़ सकता है.
लेकिन असली सवाल यह है कि इस समय सरकार को नीतिगत स्तर पर क्या करना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था को फिसलने से रोका जा सके? हमेशा की तरह नव उदारवादी आर्थिक विश्लेषक, थिंक टैंक्स और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबियां नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं.
गोया आर्थिक सुधार सभी मर्जों की दवा हों. लेकिन सच यह है कि इन सुधारों से स्थिति और बिगड सकती है. जैसे अगर अभी डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि की मांग को स्वीकार कर लिया जाए तो इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति की दर और बेकाबू हो जायेगी बल्कि उसकी मार भी आम लोगों को झेलनी पड़ेगी.
इसी तरह, मुद्रास्फीति से निपटने के नाम पर अगर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया जाए तो लाखों छोटे व्यापारियों, दुकानदारों और वेंडरों की रोजी-रोटी के लिए उसके नतीजे बहुत घातक हो सकते हैं.
इसकी तुलना में बेहतर होगा कि देश के करोड़ों गरीबों के लिए रोजी-रोटी और आमदनी की व्यवस्था करके सरकार अर्थव्यवस्था के दायरे को फैलाने और उसे व्यापक आधार देने की कोशिश करे. इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले खाद्य अर्थव्यवस्था को दुरुस्त किया जाए. इस लिहाज से एक व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून को तुरंत पास कराने के अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहिए.
मनरेगा के दायरे को बढ़ाया जाना चाहिए. शिक्षा और स्वास्थ्य में सार्वजनिक पूंजी निवेश बढ़ाया जाना चाहिए. कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ना चाहिए ताकि उसकी मानसून पर निर्भरता खत्म हो सके.
साथ ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शक्तिशाली लोकपाल के जरिये शासन में लोगों और निवेशकों का भरोसा बहाल करने की पहल भी समय की मांग है. याद रखिये, कोई भी गतिशील अर्थव्यवस्था साफ-सुथरी राजनीति के बिना दौड नहीं सकती है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २५ जून को प्रकाशित)