शनिवार, जून 25, 2011

गहरे संकट में फंस सकती है अर्थव्यवस्था

साफ्ट लैंडिंग की कोशिश में अर्थव्यवस्था क्रैश लैंड कर सकती है



यू.पी.ए सरकार माने या न माने लेकिन अर्थव्यवस्था के बारे में सच्चाई सामने आने लगी है. भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेत अच्छे नहीं हैं. इससे साफ़ है कि सरकार की अर्थव्यवस्था पर से पकड़ ढीली पड़ रही है. नतीजा, अर्थव्यवस्था की रफ़्तार मंद पड़ने के साथ-साथ वह पटरी पर से उतरती भी दिखाई दे रही है.

महंगाई को ही लीजिए, रिजर्व बैंक की कोशिशों के बावजूद मुद्रास्फीति अभी भी काबू से बाहर है. दूसरी ओर, चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन की दर लुढककर सिर्फ ६.३ प्रतिशत रह गई है.

यही नहीं, पिछले साल नवंबर से मुंबई शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक में १२ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है जबकि इसी अवधि में दूसरे उभरते हर बाजारों में दो फीसदी से अधिक की बढोत्तरी देखी गई है. दूसरी ओर, पिछले वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) में २८.५ फीसदी की गिरावट आई है.

इसका असर निवेश दर पर भी साफ दिखाई पड़ रहा है जिसमें इस साल जनवरी से मार्च की तिमाही में मात्र ०.४ फीसदी की मामूली सी वृद्धि हुई है जबकि उसके पिछले साल इसमें २० फीसदी की बढोत्तरी हुई थी. निवेश में गिरावट के रुझानों से साफ है कि अर्थव्यवस्था में निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है.

जैसे इतना ही काफी नहीं था, मानसून के बारे मौसम विभाग के ताजा पूर्वानुमान ने यह कहकर रही-सही कसर निकाल दी है कि मानसून की बारिश औसत से कम रह सकती है. जाहिर है कि इसका असर खरीफ की फसल पर पड़ सकता है. इससे मुद्रास्फीति पर भी दबाव और बढ़ेगा. इस सबका असर जी.डी.पी की वृद्धि दर पर पड़ना तय है.

आश्चर्य नहीं कि अधिकांश आर्थिक विश्लेषक और यहाँ तक कि सरकारी हलकों में भी इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर पिछले वर्ष के ८.६ प्रतिशत से गिरकर ८ फीसदी या उससे भी कम रहने की आशंकाएं जताई जाने लगी हैं.

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंता के कारण केवल घरेलू नहीं हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाती हुई दिख रही है. खासकर यूरोप में ग्रीस से लेकर स्पेन और आयरलैंड तक अर्थव्यवस्थाएं जिस वित्तीय और आर्थिक संकट में घिरी हुई हैं, उसके कारण न सिर्फ यूरोप बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा बढ़ रहा है.

दूसरी ओर, कच्चे तेल की कीमतों में उछाल और अस्थिरता के अलावा सभी जिंसों खासकर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बढोत्तरी के कारण भी वैश्विक अर्थव्यवस्था डांवाडोल दिख रही है. जाहिर है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मौजूद इस अस्थिरता और अनिश्चितता का असर भारत समेत दुनिया भर की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय सरकार का सबसे अधिक ध्यान अर्थव्यवस्था की ओर होना चाहिए. लेकिन पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, आंतरिक गुटबंदी, खींचतान से घिरी सरकार न सिर्फ अपनी साख खोती जा रही है बल्कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हुई है. उसमें निर्णय लेने की इच्छाशक्ति भी नहीं दिखाई दे रही है.

ऐसा लगता है कि सरकार में सभी टाइम पास कर रहे हैं. तथ्य यह भी है कि यू.पी.ए सरकार एक तरह के दिशाभ्रम की भी शिकार हो गई है. परस्पर विरोधी दबावों के बीच उसे समझ में नहीं आ रहा है कि किस दिशा में आगे बढ़ा जाए?

साफ है कि इसके कारण मनमोहन सिंह सरकार एक तरह की ‘नीतिगत लकवे’ की शिकार हो गई है. नतीजा सबके सामने है. सरकार ने मुद्रास्फीति के आगे पहले ही घुटने टेक दिए थे, अब रिजर्व बैंक की भी लाचारी और थकान दिखने लगी है. यही नहीं, मुद्रास्फीति को काबू करने की जद्दोजहद में पिछले १५ महीनों में ब्याज दरों में दस बार बढोत्तरी करके रिजर्व बैंक ने उन लाखों मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर दी है जिन्होंने बैंकों से होम लोन और कंज्यूमर लोन आदि ले रखा है और जिनकी इ.एम.आई लगातार बढती जा रही है.

एक ओर आसमान छूती महंगाई का कहर और दूसरी ओर, ऊँची इ.एम.आई की मार – मध्यवर्ग के घरेलू बजट को बिगाड़ने के लिए काफी हैं. ऐसी आशंकाएं जाहिर की जाने लगी हैं कि आनेवाले महीनों में अगर इसी तरह ब्याज दरों में बढोत्तरी होती रही तो लोन चुकाने में डिफाल्ट के मामले तेजी से बढ़ सकते हैं.

यही नहीं, मौजूदा स्थिति के मद्देनजर कुछ विश्लेषक यह भी आशंका प्रकट कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन की ओर बढ़ रही है. मतलब यह कि ऊँची मुद्रास्फीति दर के साथ वृद्धि दर में गिरावट की ओर बढती अर्थव्यवस्था. यह स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक होती है क्योंकि यह एक तरह का दुष्चक्र है जिसमें फंसने के बाद उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है.

हालाँकि कुछ और विश्लेषकों का यह मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी जिसके कारण उसके क्रैश करने का खतरा बढ़ गया था. इस क्रैश को रोकने के लिए ही रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के जरिये अर्थव्यवस्था की साफ्ट लैंडिंग की कोशिश कर रहा है. लेकिन इस साफ्ट लैंडिंग के क्रैश में बदलने की आशंका बनी हुई है.

इसकी कई वजहें हैं. लेकिन उनकी चर्चा के बजाय मुश्किल में फंसी अर्थव्यवस्था को सहारा देने की जरूरत है. अर्थव्यवस्था की ढलान को रोकने के लिए पहल और फैसले करने का समय आ चुका है. अब और देरी और दुविधा से संकट बढ़ सकता है.

लेकिन असली सवाल यह है कि इस समय सरकार को नीतिगत स्तर पर क्या करना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था को फिसलने से रोका जा सके? हमेशा की तरह नव उदारवादी आर्थिक विश्लेषक, थिंक टैंक्स और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबियां नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं.

गोया आर्थिक सुधार सभी मर्जों की दवा हों. लेकिन सच यह है कि इन सुधारों से स्थिति और बिगड सकती है. जैसे अगर अभी डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि की मांग को स्वीकार कर लिया जाए तो इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति की दर और बेकाबू हो जायेगी बल्कि उसकी मार भी आम लोगों को झेलनी पड़ेगी.

इसी तरह, मुद्रास्फीति से निपटने के नाम पर अगर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया जाए तो लाखों छोटे व्यापारियों, दुकानदारों और वेंडरों की रोजी-रोटी के लिए उसके नतीजे बहुत घातक हो सकते हैं.

इसकी तुलना में बेहतर होगा कि देश के करोड़ों गरीबों के लिए रोजी-रोटी और आमदनी की व्यवस्था करके सरकार अर्थव्यवस्था के दायरे को फैलाने और उसे व्यापक आधार देने की कोशिश करे. इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले खाद्य अर्थव्यवस्था को दुरुस्त किया जाए. इस लिहाज से एक व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून को तुरंत पास कराने के अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहिए.

मनरेगा के दायरे को बढ़ाया जाना चाहिए. शिक्षा और स्वास्थ्य में सार्वजनिक पूंजी निवेश बढ़ाया जाना चाहिए. कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ना चाहिए ताकि उसकी मानसून पर निर्भरता खत्म हो सके.

साथ ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शक्तिशाली लोकपाल के जरिये शासन में लोगों और निवेशकों का भरोसा बहाल करने की पहल भी समय की मांग है. याद रखिये, कोई भी गतिशील अर्थव्यवस्था साफ-सुथरी राजनीति के बिना दौड नहीं सकती है.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २५ जून को प्रकाशित)

गुरुवार, जून 23, 2011

तमाशा करते-करते तमाशा बने बाबा रामदेव

चौबे जी छब्बे बनने चले, दुब्बे बनकर रह गए




न्यूज चैनलों को तमाशा पसंद है. वजह यह कि तमाशे में नाटकीयता और दर्शकों को खींचनेवाले उसके भांति-भांति के रंग- रहस्य, रोमांच, उठा-पटक, टकराव, धूम-धडाका, करुणा और आक्रोश सभी कुछ शामिल रहता है. चैनलों को तमाशे के बिना अपना पर्दा बड़ा सूना सा लगने लगता है. उनकी जान तमाशे में बसती है. इसलिए वे हमेशा तमाशे की तलाश में रहते हैं.

कुछ इस हद तक कि अगर कहीं कोई तमाशा न हो तो वे तमाशा बनाने से भी पीछे नहीं रहते हैं. लेकिन चैनलों का भाग्य देखिए कि उन्हें तमाशे की कभी कमी नहीं पड़ती है. वैसे भी भारत जैसे विशाल और बहुरंगी देश में कभी तमाशों का टोटा नहीं रहता.

इस चक्कर में वे अच्छी-खासी और गंभीर चीजों का भी तमाशा बना देने में माहिर हो गए हैं. राजनीति उन्हीं में से एक है. न्यूज चैनलों की कृपा से राजनीति, नीति कम और तमाशा अधिक हो गई है. हालाँकि राजनीति को तमाशा बनाने में राजनेताओं का कम योगदान नहीं है लेकिन न्यूज चैनलों ने रही-सही कसर पूरी कर दी है.

वैसे भी जब से राजनीति, लोगों के लिए कम और टी.वी के लिए अधिक होनेवाली लगी है, वह राजनीति नहीं, तमाशा बन गई है. सच पूछिए तो न्यूज चैनलों का पर्दा राजनीति का नया अखाड़ा बन गया है.

हालत यह हो गई है कि जिसने टी.वी को साध लिया, वह रातों-रात बड़ा नेता बन जा रहा है. नेता के लिए टी.वी पर दिखना जरूरी हो गया है. जो जितना दीखता है, वह उतना बड़ा नेता माना जाने लगा है. माना जाता है कि टी.वी किसी को भी ‘१५ मिनट के लिए यश’ दे सकता है, रातों-रात स्टार बना सकता है. मतलब यह कि ‘जो दिखता है, वह बिकता है.’

ऐसे ही, दिखने और बिकने वालों में एक अपने ‘योगगुरु’ रामदेव भी हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि रामदेव को योगगुरु और बाबा रामदेव बनाने में धार्मिक चैनलों के साथ-साथ न्यूज चैनलों की बहुत बड़ी भूमिका रही है. खुद बाबा रामदेव भी इस सच्चाई से परिचित हैं.

यही कारण है कि बाबा के हजारों करोड़ के विशाल कारोबारी साम्राज्य में एक अपना धार्मिक चैनल भी है. इसके अलावा रामदेव बड़ी उदारता से न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों को समय देते रहे हैं. चैनल भी उन्हें इस्तेमाल करने में पीछे नहीं रहे हैं.

चैनलों को रामदेव का तमाशाई व्यक्तित्व आकर्षित करता रहा है. खासकर उनका बडबोलापन, मजाकिया अदाएं और तमाशाई अंदाज़ न्यूज चैनलों को अपने स्वभाव के माफिक लगती रही हैं. कहते हैं कि उनके कार्यक्रमों और इंटरव्यू आदि की अच्छी-खासी टी.आर.पी भी आती रही है. इससे रामदेव की अपनी रेटिंग भी बढती रही है.

इस तरह, पिछले कुछ वर्षों में दोनों एक दूसरे की जरूरत से बन गए हैं. चैनलों की मदद से रामदेव देश के उन मध्यमवर्गीय घरों में पहुँचने और अपने प्रशंसकों का एक बड़ा समुदाय तैयार करने में कामयाब हुए हैं जो अपनी आरामतलब/तनावपूर्ण जीवनशैली के कारण भांति-भांति के रोगों/तनाव/बेचैनी से परेशान और राहत की तलाश में था.

इसमें कोई शक नहीं है कि उसे रामदेव के योग अभ्यासों से थोड़ी राहत भी मिली है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में रामदेव ने योग के नाम पर एक तरह की ‘फेथ हीलिंग’ और डायबिटीज जैसे असाध्य रोगों को ठीक करने के अनाप-शनाप दावे करने शुरू कर दिए.

यही नहीं, प्रशंसकों की भीड़ और चैनलों के कैमरे देखकर उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी पैदा हो गईं. वे योग शिविरों में कसरत करते हुए देश और राजनीति पर प्रवचन के बहाने नेताओं और राजनीतिक दलों को गरियाने लगे. राजनेताओं के भ्रष्टाचार और कालेधन जैसे मुद्दों पर उनकी आधी सच्ची-आधी झूठी कहानियां उनके प्रशंसकों की तालियाँ बटोरने लगीं.

निश्चय ही, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की पाताल छूती साख से रामदेव जैसों को भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर खुद को एक ‘धर्मयोद्धा’ की तरह पेश करने में मदद मिली है. न्यूज चैनलों ने भी इन ‘धर्मयोद्धाओं’ को हाथों-हाथ लिया है.

वैसे भी खुद को देश का स्वयंभू प्रवक्ता माननेवाले न्यूज चैनल आजकल ‘राष्ट्रहित’ के सबसे बड़े रक्षक और पैरोकार हो गए हैं. उन्हें लगता है कि देश वही चला रहे हैं. इस भ्रम में वे कई बार किसी को आसमान पर चढा देते हैं. चैनल जिन्हें चढाते हैं, उनमें से भी कई लोगों को अपने बारे में नाहक भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता है कि योग गुरु रामदेव भी इस भ्रम के शिकार हो गए.

नतीजा, हमारे सामने है. तमाशा करते-करते बाबा रामदेव खुद तमाशा बन गए. चैनलों ने उनके अनशन को जिस तरह से उछाला और जिस तरह से मनमोहन सिंह सरकार उनके आगे दंडवत नजर आई, उससे बाबा झांसे में आ गए. वे अपने तमाशे को हकीकत मान बैठे जबकि तमाशे की पूर्व लिखित स्क्रिप्ट कुछ और थी.

वे उस स्क्रिप्ट से अलग जाकर तमाशे को फ़ैलाने लगे. इसके बाद जो हुआ, उसकी उम्मीद बाबा को भी नहीं थी. चौबे जी छब्बे बनने चले और दुब्बे बनकर रह गए. जो चैनल उन्हें आसमान पर चढाने में लगे हुए थे, वे उनकी हवा निकालने में लग गए.

चैनलों की भाषा रातों-रात बदल गई है. बाबा का मजाक उड़ रहा है. उनके सत्याग्रह का पोस्टमार्टम हो रहा है. वे बाबा से उनके कारोबारी साम्राज्य का हिसाब-किताब मांगने लगे हैं और सरकार से कालेधन का हिसाब मांग रहे बाबा का हलक सूख रहा है. हमेशा चहकने वाले बाबा निढाल दिखाई दे रहे हैं.

इस कहानी का सबक: चैनलों की दिलचस्पी तमाशे में है. वह किसी को आसमान में चढ़ाकर मिले या गिराकर, उन्हें इससे खास फर्क नहीं पड़ता. आखिर यह उनका धंधा है.

('तहलका' के ३० जून के अंक में प्रकाशित)


सोमवार, जून 20, 2011

पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था



ब्याज दरों में बढोत्तरी के बावजूद महंगाई आगे भी काबू से बाहर रहनेवाली है




बेकाबू महंगाई को काबू करने के लिए रिजर्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरों में चौथाई फीसदी की बढोत्तरी करने का एलान कर दिया है. इस ताजा बढोत्तरी के साथ रेपो रेट ७.५ फीसदी और रिवर्स रेपो रेट ६.५ फीसदी हो गया है. लेकिन ऐसा लगता है कि महंगाई की बेकाबू सुरसा के आगे आज के हनुमान और रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव भी लाचार पड़ते जा रहे हैं.

उनकी लाचारी का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले १५ महीनों में मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों यानी रेपो और रिवर्स रेपो रेट में ताजा बढोत्तरी को मिलाकर दस बार वृद्धि की है. यहाँ तक कि कोई डेढ़ महीने पहले मई के पहले सप्ताह में सुब्बाराव ने ब्याज दरों में आधा फीसदी की बढोत्तरी की थी.

लेकिन रिजर्व बैंक की लाख कोशिशों के बावजूद मुद्रास्फीति की आसमान छूती दर काबू में नहीं आ रही है. थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल के ८.६६ प्रतिशत से बढते हुए मई में ९.०६ तक पहुँच गई है. वैसे यह तात्कालिक अनुमान है और इस बात की पूरी आशंका है कि वास्तविक मुद्रास्फीति की दर दस फीसदी से कम नहीं होगी.

अक्सर यह देखा गया है कि मुद्रास्फीति दर के संशोधित अनुमान तात्कालिक अनुमान से कहीं ज्यादा होते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि रिजर्व बैंक की पिछले सवा साल की कोशिशों के बावजूद महंगाई की दर दहाई अंकों में बनी हुई है.

असल में, रिजर्व बैंक के लिए सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि महंगाई अब सिर्फ खाद्य वस्तुओं तक सीमित नहीं रह गई है और वह विनिर्मित वस्तुओं (मैन्युफैक्चर्ड गुड्स) तक फ़ैल गई है. इसका अर्थ यह हुआ कि महंगाई का दायरा न सिर्फ व्यापक हो गया है बल्कि उसकी जड़ें और गहरी हो रही हैं. इससे यह भी पता चलता है कि यह महंगाई कोई तात्कालिक और अस्थाई परिघटना के बजाय एक स्थाई परिघटना बनती जा रही है.

हालाँकि यू.पी.ए सरकार पिछले डेढ़ साल से हर दूसरे महीने दावा करती रही है कि महंगाई को अगले कुछ महीनों में काबू में कर लिया जाएगा. लेकिन महंगाई दर के ताजा आंकड़ों से साफ है कि वह अभी भी नियंत्रण से बाहर है. यहाँ तक कि रिजर्व बैंक के अनुमान भी उलटे पड़ रहे हैं.

उसका अनुमान था कि पिछले वित्तीय वर्ष में मुद्रास्फीति की दर मार्च तक गिरकर ६ से ६.५ फीसदी के बीच रह जायेगी लेकिन तथ्य यह है कि मार्च में मुद्रास्फीति की दर अनुमानों से काफी अधिक ९.६८ फीसदी रही. यही नहीं, वित्तीय वर्ष २०१०-११ में मुद्रास्फीति की औसत दर ९.५ फीसदी रही जोकि पिछले १६ वर्षों का एक रिकार्ड है.

हालत यह हो गई है कि कुछ विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि मुद्रास्फीति की नई सामान्य दर ८ से ९ फीसदी मान लेना चाहिए. पहले इसे ५ फीसदी के आसपास माना जाता था. आश्चर्य नहीं कि रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में ताजा बढोत्तरी के बावजूद अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि इससे मुद्रास्फीति की चढती दर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.

ऐसा माना जा रहा है कि नवंबर से पहले मुद्रास्फीति की दरों में नरमी की कोई उम्मीद नहीं है. यही नहीं, रिजर्व बैंक को अगले चार-छह महीनों में ब्याज दरों में कम से कम दो से तीन बार और चौथाई-चौथाई फीसदी की वृद्धि करनी पड़ेगी.

इसके बावजूद भी महंगाई दर ६ फीसदी से नीचे आ पायेगी, यह दावा करने की स्थिति में कोई नहीं है. सच पूछिए तो महंगाई के खिलाफ रिजर्व बैंक की कोशिशें अँधेरे में तीर चलाने की तरह लग रही हैं. दूसरी ओर, महंगाई न सिर्फ आमलोगों खासकर गरीबों का जीना मुहाल किये हुए है बल्कि उसकी मार से अर्थव्यवस्था भी पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है.

असल में, रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि के कारण निवेश और मांग पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. इसके कारण अब यह आम राय बनती जा रही है कि चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर ९ फीसदी के ऊँचे अनुमानों के विपरीत ८ फीसदी से भी नीचे गिर सकती है.

साफ है कि मुद्रास्फीति को काबू करने में नाकाम और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यू.पी.ए सरकार की राजनीतिक फिसलन का असर अर्थव्यवस्था पर भी दिखने लगा है. अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेत अच्छे नहीं हैं. चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने, अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर गिरकर मात्र ६.३ प्रतिशत रह गई है जबकि मार्च में यह ८.८ फीसदी थी. इसी तरह, पिछले वित्तीय वर्ष २०१०-११ की चौथी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर तीसरी तिमाही की ८.३ प्रतिशत की तुलना में गिरकर ७.८ प्रतिशत रह गई है.

यही नहीं, अर्थव्यवस्था की सेहत और भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण निवेश दर में भी चौथी तिमाही में मात्र ०.४ फीसदी की मामूली वृद्धि हुई है जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में निवेश में २० फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई थी. निवेश में गिरावट का एक सबूत यह भी है कि वर्ष २०१० में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) में लगभग ३२ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.

इसका असर विदेशी संस्थागत निवेश (एफ.एफ.आई) पर भी पड़ा है. कारपोरेट जगत, गुलाबी अख़बारों और नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों के थिंक टैंक इसके लिए मनमोहन सिंह सरकार की “नीतिगत लकवे” की स्थिति को जिम्मेदार बताते हुए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं.

गोया खुदरा व्यापार को एफ.डी.आई के लिए खोलने, श्रम कानूनों को ढीला करने, बैंक-बीमा सहित वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और नए भूमि अधिग्रहण कानून जैसे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से अर्थव्यवस्था की सभी समस्याएं पलक झपकते हल हो जाएँगी. सच यह है कि चाहे महंगाई का सवाल हो या गिरते औद्योगिक उत्पादन या निवेश दर का या फिर देश भर में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भडके युद्ध का, यह नव उदारवादी सुधारों का अनिवार्य नतीजा है.

इसे नव उदारवादी सुधारों के एक और बड़े डोज से नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के केन्द्र में आम आदमी को रखकर नीतियों में बदलाव से ठीक किया जा सकता है. अन्यथा मर्ज बढ़ता जाएगा, ज्यों-ज्यों दवा की. सुब्बाराव से ज्यादा बेहतर इसे और कौन समझ सकता है.

('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १७ जून'११ को प्रकाशित)

शनिवार, जून 18, 2011

भारत-पाकिस्तान में युद्ध कराने के लिए उतावले चैनल

जाने-अनजाने चैनल अमेरिकी और भारतीय-पाकिस्तानी शासक वर्गों के खेल में शामिल हो गए हैं

तीसरी और आखिरी किस्त

स्वाभाविक तौर पर इसका असर उनकी विश्व दृष्टि पर भी पड़ा है जो काफी हद तक दुनिया को अमेरिकी चश्मे से देखने लगे हैं. चाहे वह अफगानिस्तान और इराक पर हमले का मामला रहा हो या फिलिस्तीन का मसला या फिर अब लीबिया पर हमला – भारतीय मीडिया काफी हद तक अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के सुर में बोलने लगा है. लादेन मामले में भी यही हो रहा है.

नतीजा यह कि लादेन, अल कायदा और खासकर पाकिस्तान को लेकर देशी न्यूज चैनलों और अख़बारों में चल रही कई ख़बरों से किसी और के नहीं बल्कि अमेरिकी हित पूरे हो रहे हैं. इन खबरों के जरिये अमेरिका और ओबामा प्रशासन देश के अंदर ऐसा जनमत बनाने रहे हैं जिससे उन्हें इस उपमहाद्वीप में अपनी सैन्य उपस्थिति और आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने में मदद मिले.


असल में, ओसामा के मारे जाने और उसके बाद पैदा हुए राजनीतिक हालात के मद्देनजर अमेरिका दक्षिण एशिया में अपनी उपस्थिति और मजबूत करना चाहता है. लेकिन उसकी मुश्किल यह है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमेरिका विरोधी भावनाएं बढ़ती जा रही हैं.

ऐसे में, वह बहुत चतुराई के साथ भारत-पाकिस्तान के बीच मतभेद बढाने की कोशिश कर रहा है ताकि दोनों के बीच तनाव बना रहे. उस स्थिति में रणनीतिक रूप से दोनों देश अमेरिका को अपने पाले में रखना चाहेंगे. इससे उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी. दूसरे, वह दोनों देशों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने का नाटक करता हुआ अपने हित आगे बढ़ाता रहेगा.

लेकिन यह भी सच है कि इस बारीक़ खेल में दोनों देशों के शासक वर्ग भी शामिल हैं. यह खेल उनकी राजनीतिक और रणनीतिक जरूरतों के मुफीद भी है. यह किसे पता नहीं है कि अपनी गलतियों और कमियों का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ने में भारतीय और पाकिस्तानी शासक वर्गों का कोई जवाब नहीं है.

लादेन के मारे जाने के कुछ दिनों बाद ही जिस तरह से भारत और पाकिस्तान के बीच तू-तू,मैं-मैं शुरू हो गई है और दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा है, उसमें दोनों देशों के मीडिया की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है.

खासकर भारतीय न्यूज चैनलों ने जिस तरह से अमेरिका से प्रेरणा लेकर पाकिस्तान के अंदर घुसकर कथित आतंकवादी शिविरों को उड़ाने और भारत में मोस्ट वांटेड आतंकवादियों को मारने की पैरवी शुरू कर दी और इसे खुद सेनाध्यक्ष सिंह ने अपने बचकाने बयान से हवा दे दी. उससे अमेरिकी कार्रवाई के बाद अपनी ही जनता को सफाई देने में व्यस्त पाकिस्तानी हुकूमत और सेना को भारत विरोधी भावनाएं भड़काने का मौका मिल गया.

आश्चर्य नहीं कि इसके बाद से दोनों देश एक-दूसरे को चेतावनियां देने में लगे हैं. निश्चय ही, इससे सबसे अधिक खुशी अमेरिका को हो रही है. कहां अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ पाकिस्तान के अंदर अपनी एकतरफा सैन्य कार्रवाई के लिए वह और उसके पाकिस्तानी मित्र कठघरे में थे और कहां अब भारत-पाकिस्तान आपस में तू-तू,मैं-मैं कर रहे हैं?

इस स्थिति को पैदा करने में अपने न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है. आश्चर्य की बात नहीं है कि अपने न्यूज मीडिया में लादेन मामले से जुड़ी अधिकांश खबरें पाकिस्तान विरोधी भी हैं. न्यूज चैनलों के लिए तो यह जैसे पाकिस्तान के खिलाफ अंध राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काने के एक और मौके की तरह आया है.

यही कारण है कि लादेन की मौत के बाद न्यूज चैनलों पर पाकिस्तान विरोधी खबरें सबसे अधिक चली हैं. इनमें लादेन/अल कायदा/तालिबान से लेकर भारत विरोधी आतंकवादियों को संरक्षण देने में पाक सेना और आई.एस.आई की भूमिका और पाकिस्तान के एक ‘आतंकी राज्य’ या ‘विफल राज्य’ में बदलने जैसी खबरें शामिल हैं.

इनमें से काफी खबरें ऐसी हैं जो प्रोपगंडा का हिस्सा हैं. हालांकि इनमें कुछ सच्चाई भी होती है लेकिन उन्हें इतना मिर्च-मसाला लगाकर पेश किया जाता है कि उनका सच दब सा जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन ख़बरों का एकमात्र मकसद दोनों पड़ोसी देशों के बीच तनाव बनाए रखना और इस बहाने देशी-विदेशी निहित स्वार्थी तत्वों के हितों को पूरा करना होता है. यही कारण है कि इन खबरों/रिपोर्टों और उन पर आधारित स्टूडियो चर्चाओं में कभी भी ऐसे असुविधाजनक सवाल नहीं पूछे जाते जिनसे इन निहित स्वार्थों का पर्दाफाश होता हो.

असल में, न्यूज चैनलों पर होनेवाली इन चर्चाओं में ही असली खेल होता है. यहीं सत्ता प्रतिष्ठान के स्पिन डाक्टर्स और पी.आर मशीनरी ख़बरों को अपने हिसाब से तोडती-मरोड़ती और उनके मायने निकलती है. हैरानी की बात नहीं है कि इन टी.वी चर्चाओं में रिटायर्ड सैन्य अफसर, ख़ुफ़िया एजेंसियों के अफसर, डिप्लोमैट और उनके साथ नत्थी रक्षा-सुरक्षा बीट कवर करनेवाले पत्रकार हावी रहते हैं.

चैनल इस बात की पर्याप्त सावधानी रखते हैं कि चर्चा में आमंत्रित विशेषज्ञों में बहुमत उनका हो जो चर्चा में सत्ता प्रतिष्ठान की सोच को आगे बढ़ाएं. यही लोग चर्चा का एजेंडा और दिशा तय करते हैं. आमतौर पर इन चर्चाओं में विरोधी विचार रखनेवालों को नहीं बुलाया जाता है या अगर बुला भी लिया गया तो उन्हें बोलने या अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जाता है. उनकी बात को बात-बात पर काटने की कोशिश से लेकर ऐसे अप्रासंगिक सवाल पूछे जाते हैं कि वे अपनी बात नहीं कह सकें.

लादेन मामले में भी न्यूज चैनलों पर यही नजारा था. अधिकांश चर्चाओं में अपवादस्वरूप शायद किसी ने अमेरिकी कार्रवाई पर सवाल उठाया हो अन्यथा आम सुर अमेरिकी कमांडो कार्रवाई के प्रति प्रशंसा का था. सभी चैनल अमेरिकी पराक्रम की गाथाएं सुनाने में लगे थे. उनके हौसले की दाद देने में जुटे थे.

अमेरिकी कमांडो दस्ते- सील के शौर्य, साहस और क्षमता की बलैयां ली जा रही थीं. इसी का तार्किक विस्तार यह था कि भारत को भी ऐसी कार्रवाई करने की सलाह दी जाने लगी. लेकिन इसके क्या परिणाम हो सकते हैं, यह आमतौर पर चर्चा से गायब रही. सच पूछिए तो न्यूज चैनलों का वश चलता तो वे कब का भारत-पाकिस्तान में युद्ध करा चुके होते!

समाप्त

(कथादेश के जून'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

बुधवार, जून 15, 2011

गोपनीय स्रोतों के नाम पर..

सत्ता की जुबान बनता वैश्विक मीडिया




इसका सबूत यह है कि अधिकांश अखबार/न्यूज चैनल इन खबरों/कहानियों को बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के छाप और दिखा रहे हैं. अच्छी पत्रकारिता का यह बुनियादी सिद्धांत है कि किसी भी खबर की विश्वसनीयता के लिए जरूरी है कि न सिर्फ उसके स्रोत की पहचान स्पष्ट होनी चाहिए बल्कि किसी एकल स्रोत से मिलनेवाली खबर की हमेशा दूसरे-तीसरे स्रोत से पुष्टि और जांच-पड़ताल करनी चाहिए.

खासकर अगर खबर अगर विवादास्पद हो तो अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए. यही नहीं, जहां तक संभव हो, गुमनाम (एनानिमस) स्रोत यानी ऐसे स्रोत से बचना चाहिए जो अपनी पहचान उजागर करने के लिए तैयार नहीं है.


लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि कई बार स्रोत की पहचान छुपाना जरूरी हो जाता है. खासकर अगर पत्रकार और उसके स्रोत को पर्याप्त आशंका हो कि स्रोत का नाम उजागर होने से स्रोत के जीवन, परिवार और रोजगार को गंभीर खतरा है, उस स्थिति में स्रोत का नाम छुपाना सही है. लेकिन अगर स्रोत का नाम छुपाना जरूरी हो तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उस स्रोत से मिल रही जानकारी की अन्य संबंधित स्रोतों से क्रास-चेक और पड़ताल की जाए.

उनकी प्रामाणिकता की पुष्टि के लिए प्रासंगिक तथ्य और कागजात जुटाने की भी कोशिश होनी चाहिए. साथ ही, यह कोशिश भी होनी चाहिए कि उस खबर से प्रभावित पक्ष को भी अपना पक्ष रखने का पर्याप्त मौका दिया जाए. यही नहीं, गुमनाम स्रोतों से मिलनेवाली ऐसी खबरों को अत्यधिक महत्व देने से भी बचना चाहिए.

सच पूछिए तो गुमनाम स्रोतों पर आधारित ख़बरों से आम तौर पर बचना चाहिए क्योंकि इसके खतरे बहुत हैं. बहुत दिन नहीं हुए, जब अमेरिका में इराक युद्ध से पहले इराक में जनसंहार के हथियारों की मौजूदगी के बारे में और गुआंतन्माओ में कैदियों को प्रताड़ित करने के लिए कुरान की प्रतियाँ टायलेट में बहाने के मामले में न्यूजवीक की गुमनाम स्रोतों पर आधारित रिपोर्टों के बाद अमेरिकी समाचार मीडिया की काफी फजीहत हुई थी.

उस समय अमेरिकी मीडिया में काफी बहस चली थी. उस बहस के बाद अधिकांश समाचार माध्यमों ने यह तय किया था कि वे गुमनाम स्रोतों पर आधारित खबरों से बचेंगे या ऐसी खबरों के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतेंगे.

लेकिन लगता है कि अमेरिकी समाचार माध्यमों ने वह सबक जल्दी ही भुला दिया. यही कारण है कि वहां के मीडिया में आपरेशन ओसामा के बाबत गुमनाम स्रोतों पर आधारित एकतरफा और पी.आर ख़बरें बिना किसी रोकटोक के छप और दिख रही हैं. वहीँ से अपने अखबार और न्यूज चैनल भी बिना किसी संकोच के खबरें उठा और परोस रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि अपना देशी न्यूज मीडिया विदेशी खासकर अमेरिकी/ब्रिटिश अख़बारों और न्यूज चैनलों को विश्वसनीयता का पैमाना मानता है जबकि उनकी पक्षधरता और पूर्वाग्रह किसी से छुपे नहीं हैं. वैसे भी भारतीय समाचार माध्यमों में ८० प्रतिशत ख़बरें गुमनाम स्रोतों यानी विश्वस्त सूत्रों, आधिकारिक सूत्रों, उच्च-पदस्थ सूत्रों पर ही आधारित होती हैं.

नतीजा यह कि ओसामा के मारे जाने के मामले में भी देशी न्यूज मीडिया अमेरिकी मीडिया और स्रोतों से आ रही आधी सच्ची-आधी झूठी ख़बरों को अपने अति उत्साह में थोड़ा और नमक-मिर्च लगाकर छापने-दिखाने में जुटा हुआ है. मजे की बात यह है कि इन स्रोतों की विश्वसनीयता का हाल यह है कि ओसामा के मारे जाने और आपरेशन जेरोनिमो के बारे में शुरू से ही परस्पर विरोधी, गढ़ी हुई और तथ्यों को तोड़-मरोड़ पेश करनेवाली जानकारियां दी गईं.

दुनिया भर के मीडिया ने उसे आँख मूंदकर छापा और दिखाया. उदाहरण के लिए, आपरेशन ओसामा के तुरंत बाद जो आधिकारिक ब्रीफिंग हुई, उसे 24 घंटे के अंदर बदल दिया गया. पहले कहा गया कि ओसामा ने अपनी पत्नी के पीछे छुपने और हथियार उठाने की कोशिश की जिसके बाद कमांडोज ने उसे गोली मार दी.

फिर यह बताया गया कि ओसामा निहत्था था. उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया. एक ब्रीफिंग में कहा गया कि गोलीबारी में उसकी पत्नी भी मारी गई. फिर कहा गया कि उसकी पत्नी के पैर में गोली मारी गई. इसी तरह बताया गया कि आपरेशन के दौरान तीन (कुछ खबरों में चार) लोग मारे गए जिसमें लादेन का कुरियर और कुरियर का भाई, लादेन का बेटा खालिद भी शामिल हैं.

फिर कहा गया कि उसका मारा गया बेटा खालिद नहीं हमजा है. उसके बाद फिर खबर आई कि हमजा वहां से भागने में कामयाब हो गया है. कैसे? किसी को पता नहीं. यह भी पता नहीं कि वहां उसके कितने बेटे और पत्नियाँ मौजूद थीं? क्योंकि बाद में यह खबर भी चली कि उसकी तीन पत्नियाँ पाकिस्तानी हिरासत में हैं.

इसी तरह, शुरूआती ख़बरों में बताया गया कि वह ‘मिलियन डालर (यानी लगभग ४.५ करोड़ रूपये) की आलिशान कोठी’ में रह रहा था. यह भी कि ओसामा उस शानदार हवेली में तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ बहुत ठाट से रह रहा था.

लेकिन सच यह है कि वह कथित हवेली किसी भी तरह से न तो आलिशान थी और न ही वहां ओसामा ठाट से रह रहा था. उस हवेली के जो भी विजुअल्स और विवरण आए हैं, उनसे कहीं से भी नहीं लगता है कि वह ४.५ करोड़ का बंगला है और उसमें सभी आधुनिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं.

तात्पर्य यह कि आपरेशन जेरोनिमो और ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बारे में इतनी अंतर्विरोधी, तथ्यहीन, भ्रामक और अस्पष्ट ख़बरें छपी और दिखाई गईं हैं कि कहना मुश्किल है कि उस आपरेशन के बारे में सामने आए अनेकों ब्यौरों में सबसे तथ्यपूर्ण और सही ब्यौरा कौन सा है? यही नहीं, सफाई देने के लिए जितने ब्यौरे आए, उनसे कहानी सुलझने के बजाय और उलझती चली गई.

मजे की बात यह है कि शुरूआती ७२ घंटों में आए सभी ब्यौरे किसी न किसी बड़े अमेरिकी अधिकारी के हवाले से आए. उदाहरण के लिए, सी.आई.ए के मुखिया लियोन पनेटा, राष्ट्रपति ओबामा के मुख्य सुरक्षा सलाहकार जान ब्रेनन और राष्ट्रपति भवन (व्हाइट हाउस) के प्रवक्ता जे कार्नी के आधिकारिक विवरणों में काफी अंतर और विसंगतियाँ थीं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ओबामा प्रशासन इस आपरेशन के बारे में जितना बता रहा था, उससे ज्यादा छुपाने की कोशिश कर रहा था. ओसामा के मारे जाने के बारे में बहुत कुछ ऐसा है जो अभी सामने नहीं आया है. यही नहीं, इस आपरेशन के जितने तरह के आधिकारिक विवरण आए हैं, उससे एक बात तो साफ है कि ओबामा प्रशासन की सच्चाई बताने में कोई रूचि नहीं है. संभव है कि वह सच आनेवाले महीनों या सालों में सामने आए या शायद कभी सामने नहीं आ पाए.

लेकिन इतना तय है कि पूरे सच के सामने आने तक मीडिया के जरिये लोगों को काफी दिनों तक नई-नई कहानियां सुनने को मिलती रहेंगी. मजे की बात यह है कि ये कहानियां भी ओबामा प्रशासन के अधिकारियों के हवाले से ही आ रही हैं लेकिन फर्क यह है कि इनमें से ज्यादातर खबरें बिना स्रोत की पहचान उजागर किए आ रही हैं.

यह कहने का आशय कतई नहीं है कि गुमनाम स्रोतों से आ रही सभी खबरें पूरी तरह से गलत या झूठ हैं. उनमें से कई ख़बरों में कुछ सच्चाई हो सकती है. लेकिन समस्या यह है कि इस सच्चाई के इर्द-गिर्द झूठ का तानाबाना इस कदर बुना जाता है कि उसमें उस सच्चाई के मायने बदल जाते हैं.

इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी अधिकांश खबरें किसी न किसी मकसद के साथ प्लांट की जाती हैं. इसके लिए चुनिन्दा तौर पर सूचनाएं लीक करने से लेकर आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग का जमकर इस्तेमाल किया जाता है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अमेरिकी प्रशासन अपने राजनीतिक, रणनीतिक और कूटनीतिक फायदों के लिए समाचार मीडिया के इस्तेमाल में महारत हासिल कर चुका है.

अमेरिकी कारपोरेट मीडिया कई कारणों से बहुत सहजता के साथ अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के इस खेल में शामिल हो जाता है. हालांकि अब यह हैरान करनेवाली बात नहीं रह गई लेकिन चिंतित जरूर करती है कि भारतीय न्यूज मीडिया भी जाने-अनजाने इस खेल का हिस्सा बनता जा रहा है. वह भी बिना यह सोचे-समझे और जांचे-परखे उन्हीं ख़बरों/कहानियों को छापने/दिखाने में लगा है जो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अपने रणनीतिक और राजनीतिक हितों के तहत आगे बढ़ा रहा है.

हालांकि यह कोई नई बात नहीं है. भारतीय न्यूज मीडिया का एक हिस्सा काफी लंबे समय से अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान का भोंपू बना हुआ है. यही नहीं, हाल के वर्षों में जैसे-जैसे भारतीय शासक वर्ग अमेरिकी खेमे के करीब होता गया है, उसके साथ ही, भारतीय कारपोरेट मीडिया का एक प्रभावशाली हिस्सा अमेरिकी मीडिया कंपनियों के साथ व्यावसायिक गठजोड़ के जरिये जुड़ता गया है.

जारी...

(कथादेश के जून'११ अंक में प्रकाशित आलेख)

सोमवार, जून 13, 2011

लादेन की मौत पर बावले होते चैनल

अमेरिकी भोंपू बनते भारतीय समाचार मीडिया को खबरों की विश्वसनीयता की परवाह नहीं रह गई है


पहली किस्त
एक अमेरिकी कमांडो आपरेशन में मारे जाने के एक पखवाड़े बाद भी अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन से जुड़ी ख़बरें देशी-विदेशी समाचार मीडिया की सुर्ख़ियों में बनी हुई हैं. उस कमांडो आपरेशन, बिन लादेन और पाकिस्तानी शहर एबटाबाद में उसके छुपने के ठिकाने, उसकी जीवनशैली और उसके खतरनाक मंसूबों के बारे में हर दिन कुछ नयी, सनसनीखेज और चटपटी ख़बरें (या कहानियां) अख़बारों में छप और न्यूज चैनलों पर दिखाई जा रही हैं.

इन ‘खबरों’ को छापने और दिखाने को लेकर देशी अख़बारों और न्यूज चैनलों में भी होड़ लगी हुई है. खासकर ओसामा के ‘सीक्रेट्स’ और उसे छुपाकर रखने में पाकिस्तान की भूमिका का पर्दाफाश करने को लेकर अपने अख़बारों और न्यूज चैनलों का उत्साह देखने लायक है.

आश्चर्य नहीं कि न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों पर तो जैसे ओसामा पुराण शुरू हो गया है. कोई भी न्यूज चैनल पीछे नहीं रहना चाहता है. नतीजा, बिना नागा हर दिन ओसामा के बारे में कुछ सच्ची-कुछ झूठी, कुछ कच्ची-पक्की, कुछ सुनी-सुनाई ख़बरें और आधा घंटे के विशेष कार्यक्रम धड़ल्ले से चल रहे हैं. वैसे भी अपने न्यूज चैनलों का ख़बरें/कहानियां गढ़ने में कोई सानी नहीं है.

ख़बरों को फ़ैलाने और तानने की कला में उनका कोई जवाब नहीं है. इसका ताजा प्रमाण यह है कि लादेन की भले ही मौत हो चुकी हो लेकिन चैनलों पर वह अब भी अपनी सनसनीखेज कहानियों के साथ जिन्दा है. लगता नहीं कि न्यूज चैनल उसे जल्दी मरने देंगे.
लेकिन न्यूज चैनलों से ज्यादा अमेरिका और राष्ट्रपति ओबामा नहीं चाहते हैं कि लादेन की कहानी जल्दी समाप्त हो जाए. उन्हें इस कहानी को अगले राष्ट्रपति चुनावों तक जिन्दा रखना है. यही कारण है कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को लादेन के बारे में विभिन्न अमेरिकी स्रोतों से खुदरा भाव से ख़बरों/कहानियों की सप्लाई हो रही है.

नतीजा यह कि अमेरिकी मीडिया आपरेशन ओसामा को इतनी कवरेज दे रहा है कि पिछले चार साल के सारे रिकार्ड टूट गए हैं. प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी’२००७ से जब से सेंटर ने अमेरिकी मीडिया में खबरों की साप्ताहिक मानिटरिंग शुरू की है, इतनी ज्यादा कवरेज किसी भी मुद्दे को नहीं मिली है.

यह सही है कि ओसामा बिन लादेन का मारा जाना एक बड़ी खबर है लेकिन वह इतनी भी बड़ी खबर नहीं है कि उसे इतने दिनों तक और इतनी ज्यादा कवरेज दी जाए. सच यह है कि राजनीतिक और रणनीतिक दृष्टि से लादेन न सिर्फ बहुत कमजोर और अप्रासंगिक हो चुका था बल्कि अल कायदा के संचालन में भी उसकी भूमिका बहुत सीमित रह गई थी.

यही नहीं, अरब जगत में लोकतान्त्रिक उभार ने लादेन और अल कायदा को और अधिक अप्रासंगिक बना दिया था. अलबत्ता, उनके अप्रासंगिक होने से सबसे ज्यादा परेशानी खुद अमेरिका को थी क्योंकि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उनके डर के जरिये ही अपनी जनता को काबू में रखता रहा है.

इसलिए लादेन के मरने के बाद भी ओबामा प्रशासन उसका और अल कायदा का डर जिन्दा रखेगा. इसलिए हैरानी नहीं होगी, अगर आपरेशन में मारे गए लादेन की तस्वीरें जारी करने से इनकार कर रहा अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अगले कुछ महीनों में किसी बड़े अमेरिकी अखबार/ चैनल को वे तस्वीरें लीक कर दे. आखिर अमेरिकी ‘पराक्रम’ की इस कहानी को अगले कई महीनों तक जिन्दा रखना राष्ट्रपति ओबामा की राजनीतिक जरूरत है.

लेकिन इसके साथ ही, अल कायदा का डर बनाए रखकर ही ‘पराक्रमी राष्ट्रपति’ अपने लिए दोबारा वोट मांग पाएंगे. इसके लिए जरूरी है कि न सिर्फ लादेन प्रकरण जिन्दा रहे बल्कि अल कायदा के पुनर्संगठित होने और उसके नए नेतृत्व और उनकी आतंकी योजनाओं की सच्ची-झूठी कहानियां मीडिया के जरिये लोगों तक पहुँचती रहें.

यही कारण है कि लादेन के मारे जाने और अल कायदा के जिन्दा होने की कहानी को एक टी.वी धारावाहिक की तरह परोसा जा रहा है. राष्ट्रपति ओबामा की पी.आर मशीनरी जानती है कि ओसामा के मारे जाने लेकिन अल कायदा के डर को बनाए रखने के लिए ख़बरें/कहानियां कैसे गढ़नी और कब, कैसे और कहां लीक और प्लांट करनी है.

उसे यह भी अच्छी तरह से पता है कि ऐसी सनसनीखेज ख़बरों/कहानियों के लिए घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कितनी जबरदस्त भूख है. उनके बीच ऐसी ‘एक्सक्ल्यूसिव’ खबरों के लिए होड़ रहती है जिसका फायदा सरकारी पी.आर मशीनरी उठाती रही हैं.

आपरेशन लादेन भी इस प्रवृत्ति का अपवाद नहीं है. नतीजा सबके सामने है. लादेन के मारे जाने के बाद से अमेरिकी मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में ऐसी खबरों/कहानियों की बाढ़ सी आई हुई है. भारतीय समाचार मीडिया भी इस होड़ में पीछे नहीं है जहां अमेरिकी मीडिया और स्रोतों से आ रहे जूठन को छापने और दिखाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है.

आश्चर्य नहीं कि इनमें से अधिकांश ‘ख़बरें’ अमेरिका और अमेरिकी स्रोतों से आ रही हैं. कुछ ख़बरें पाकिस्तान और मध्य पूर्व के देशों से भी आ रही हैं. लेकिन ज्यादातर खबरों या कहानियों की आपूर्ति अमेरिकी स्रोतों से ही हो रही है. इन स्रोतों में अमेरिकी मीडिया भी शामिल है.

लेकिन अमेरिकी मीडिया का भी मूल स्रोत अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के मुख्य केन्द्र - व्हाइट हाउस, विदेश और रक्षा मंत्रालय, सी.आई.ए/एफ.बी.आई जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियां हैं. कहने का अर्थ यह कि अधिकांश ख़बरें आधिकारिक अमेरिकी स्रोतों से मिल रही सूचनाओं और जानकारियों पर आधारित हैं.

लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि इन आधिकारिक स्रोतों से निकली खबरों में से ९० फीसदी खबरों में स्रोत की पहचान छुपाई गई है यानी स्रोत ने आन द रिकार्ड नहीं बताया है. इसके बावजूद ऐसी ख़बरें बिना अन्य स्रोतों से जांच-पड़ताल और छानबीन किए धड़ल्ले से चल रही हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे अधिकांश ख़बरों/कहानियों में अमेरिकी कमांडो आपरेशन जेरोनिमो, लादेन के छुपने की जगह, एबटाबाद की उस बिल्डिंग, उसकी जीवनशैली, परिवार, पत्नी/पत्नियों, शौक, उसकी आतंकी योजनाओं से लेकर अल कायदा के अगले नेतृत्व आदि के बारे में अपुष्ट, अंतर्विरोधी, आधारहीन, एकतरफा और तथ्यों को तोड़-मरोडकर पेश किया जा रहा है. साथ ही, इन खबरों/कहानियों को खूब बढ़ा-चढाकर छापा और दिखाया जा रहा है.

ऐसा लगता है कि जैसे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने लादेन के मारे जाने के बाद एक जबरदस्त पी.आर अभियान छेड दिया है. अफसोस और चिंता की बात यह है कि हमेशा की तरह एक बार फिर अमेरिकी कारपोरेट मीडिया के साथ-साथ भारतीय मीडिया भी जाने-अनजाने इस अमेरिकी वैश्विक पी.आर अभियान का औजार बन गया है.

जारी...

('कथादेश' के जून'११ अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

मंगलवार, जून 07, 2011

कौन कर रहा है सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों की मदद ?



कांग्रेस इमरजेंसी के दौर की भाषा बोलने लगी है



कांग्रेस अब अपने असली फार्म में आ गई है. कल तक बाबा रामदेव की अगवानी में बिछी और उनसे अंदरखाते की ‘डील’ के लिए बेचैन कांग्रेस को अब इलहाम हुआ है कि रामदेव न सिर्फ ‘ठग’ हैं बल्कि वे संघ परिवार के मुखौटे हैं. कांग्रेस के मुताबिक, राष्ट्रविरोधी सांप्रदायिक ताकतें देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं, देश में दंगा भडकाने और अराजकता फैलाने की कोशिश की जा रही है और सरकार के खिलाफ दुर्भावना पैदा करने का अभियान चलाया जा रहा है.

कांग्रेस ने इसके साथ ही यह भी एलान कर दिया है कि वह सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों से निपटने और उनका मुकाबला करने से पीछे नहीं हटेगी. माफ़ कीजियेगा, कांग्रेस की यह भाषा नई नहीं है. ७० और ८० के दशक में खासकर इमरजेंसी के दौरान देश यह भाषा सुन और भुगत चुका है. याद करिये, भ्रष्टाचार और तानाशाही के आरोपों में घिरी इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गाँधी के ज़माने में भी कांग्रेस लगभग यही भाषा बोलती सुनी गई थी. तब और अब में फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के साथ-साथ अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए को भी जिम्मेदार ठहराया जाता था.

लेकिन सी.आई.ए का नाम इसलिए नहीं लिया जा रहा है क्योंकि अब सी.आई.ए इस सरकार को ‘स्थिर करने में’ खासी दिलचस्पी ले रही है (सौजन्य: विकिलिक्स). यह भी देश से छुपा नहीं है कि जब कांग्रेस ऐसी भाषा बोलना शुरू करती है तो उसका मतलब क्या होता है? देश का हालिया इतिहास इसका गवाह है. इसका मतलब होता है कि सरकार आनेवाले दिनों में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ मध्यमवर्गीय समाज के शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक आन्दोलनों को भी बर्दाश्त नहीं करने जा रही है. गरीबों, आदिवासियों, दलितों और खेतिहर मजदूरों के खिलाफ तो ग्रीन हंट पहले से ही जारी है.

साफ है कि यह बाबा रामदेव के अनशन और मजमे के साथ जो हुआ, वह शुरुआत भर है. कांग्रेस ने संकेतों में अपनी असली मंशा भी जाहिर कर दी है. अब किसी को कोई शंका नहीं रह जाना चाहिए कि अगला निशाना अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन है. कांग्रेस और सरकार से आ रहे आक्रामक बयानों से साफ है कि सिविल सोसायटी के साथ हनीमून लगभग सभी व्यवहारिक अर्थों में खत्म हो चुका है. कांग्रेस को संसद की सर्वोच्चता और संविधान की याद आने लगी है. उसने तय कर लिया है कि देश को ‘भीड़तंत्र’ से नहीं चलाया जा सकता है और शनिवार की रात उसने ‘रेडलाइन’ खींच दी है.

सवाल है कि क्या सचमुच, कांग्रेस रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्रवाई के जरिये सांप्रदायिक फासीवाद से लड़ रही है? सच यह है कि वह संघ परिवार से नहीं बल्कि भ्रष्टाचार विरोधी नागरिक आंदोलन से लड़ रही है और इस तरह संघ परिवार-भाजपा को मजबूत करने में लगी है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस को चुपचाप देखनेवाली और वैचारिक-राजनीतिक तौर पर संघ परिवार के आगे घुटने टेक चुकी कांग्रेस सांप्रदायिक फासीवाद से नहीं लड़ रही है बल्कि संघ परिवार को नई राजनीतिक जमीन मुहैया करवाने में लगी है.

राजनीतिक रूप से कोई अंधा भी देख सकता है कि कांग्रेस के रवैये से राजनीतिक तौर पर किसे फायदा हो रहा है? कांग्रेस और यू.पी.ए की मदद से खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी और येदियुरप्पा से लेकर निशंक तक भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों की पैरोकार भाजपा को गंगा नहाने और भ्रष्टाचार विरोध की अगुवाई करने का मौका मिल गया है. इस हकीकत को अनदेखा करना मुश्किल है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी और विदेशों में जमा कालेधन के मुद्दे पर मुंह चुरा रही मनमोहन सिंह सरकार की साख और विश्वसनीयता दिन-पर-दिन और जैसे-जैसे नीचे गिर रही है, उसका सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा भाजपा और संघ परिवार को हो रहा है.

सच पूछिए तो कांग्रेस भी यही चाहती है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खड़ी हो रही देशव्यापी लड़ाई उसके और संघ परिवार के बीच की राजनीतिक कुश्ती में बदल जाये. इसमें उसे कम से कम अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण और उससे होनेवाला राजनीतिक फायदा दिखाई पड़ रहा है. यह राजनीतिक रूप से भाजपा और संघ परिवार को भी मुफीद बैठता है. उन्हें इसमें अपने राजनीतिक पुनरुद्धार का सुनहरा मौका दिखाई दे रहा है.

जाहिर है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों लोकतान्त्रिक ताकतों की अगुवाई में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल और हाइजैक करने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें कोई दोराय नहीं है कि बाबा रामदेव भी इस कांग्रेसी-भाजपाई नूराकुश्ती के एक मोहरे भर बनकर रह गए. लेकिन अब जरूरत इस खेल को समझने और उसका पर्दाफाश करने की है.

सच यह है कि संघ परिवार की सबसे बड़ी मददगार खुद कांग्रेस है. विश्वास नहीं हो तो आनेवाले दिनों में सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक से लेकर सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू करने के मुद्दे पर कांग्रेस की नीति और रवैये पर नजर रखियेगा. सच सामने आ जायेगा कि कांग्रेस सांप्रदायिकता से कितनी मजबूती से लड़ती है.

 
(जल्दी ही, भ्रष्टाचार विरोधी सिविल सोसायटी के आन्दोलन की कमजोरियों और अंतर्विरोधों पर भी बात करेंगे...आप इस बहस पर अपनी राय से जरूर दीजिये)

रविवार, जून 05, 2011

दमन पर उतर आई है यू.पी.ए सरकार

कांग्रेस और भाजपा दोनों रामदेव का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही हैं



जैसीकि आशंका थी, वही हुआ. भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर चारों ओर से घिरी यू.पी.ए सरकार और खासकर कांग्रेस अब दमन पर उतर आई है. सिविल सोसायटी के साथ भ्रष्टाचार से लड़ने का नाटक कर रही सरकार अपने असली रूप में आ गई है. इसके साथ ही, यू.पी.ए सरकार और सिविल सोसायटी के राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी हिस्से के साथ शुरू हुआ संक्षिप्त हनीमून कल रात जबरदस्त कड़वाहट के बीच समाप्त हो गया.


कहने की जरूरत नहीं है कि विदेशों में जमा कालाधन को वापस देश में लाने के मुद्दे पर शनिवार से अनशन (या तप) पर बैठे बाबा रामदेव के सत्याग्रह को जिस तरह से आधी रात की पुलिसिया कार्रवाई के जरिये तहस-नहस किया गया, उससे साफ़ है कि मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सिविल सोसायटी के साथ दिखावे के लिए ही सही सहयोग और समावेश की राजनीति के बजाय टकराव और दमन का इरादा बना लिया है. इस तरह यू.पी.ए सरकार ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है.

आश्चर्य नहीं होगा, अगर आनेवाले दिनों में लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति का भी यही हश्र हो. इसके संकेत मिलने भी लगे हैं. लोकपाल समिति की पिछली बैठक में सरकारी प्रतिनिधियों ने जिस तरह से प्रधानमंत्री और शीर्ष न्यायपालिका से लेकर सांसदों और अफसरों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने की वकालत और इस मुद्दे पर अड़ियल रूख अपनाना शुरू कर दिया है, उसके बाद सरकार के इरादों को लेकर संदेह बढ़ने लगा है. सरकार के रवैये से साफ है कि वह एक प्रभावी और सख्त लोकपाल के पक्ष में नहीं है और इस पूरी प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए हर तिकड़म करेगी.

वैसे इसकी शुरुआत पहले से ही हो चुकी है. जिस तरह से लोकपाल समिति के गठन के बाद इसके सिविल सोसायटी सदस्यों खासकर शांति भूषण और प्रशांत भूषण के खिलाफ सरकार की शह पर दुष्प्रचार शुरू हुआ, उससे साफ हो गया था कि आगे क्या होनेवाला है? हैरानी की बात नहीं है कि कल रात रामलीला मैदान में यू.पी.ए सरकार खुले दमन पर उतर आई. यही नहीं, सरकार ने जिस तरह से ऐसे सभी आन्दोलनों को सख्ती की चेतावनी दी है, उससे भी साफ है कि रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ, वह सिर्फ ट्रेलर है. आनेवाले दिनों में सरकार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को तोड़ने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति का खुलकर इस्तेमाल करेगी.

यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मैं खुद बाबा रामदेव और उनके विचारों और तौर-तरीकों का समर्थक नहीं हूँ. इस बात को स्वीकार करते हुए भी कि भ्रष्टाचार और कालेधन खासकर विदेशों में जमा कालेधन को देश में वापस लाने के लिए एक बड़े जनांदोलन की जरूरत है, मैं बाबा रामदेव के अभियान के साथ कई कारणों से असहज महसूस करता हूँ. उनके अभियान में जिस तरह से सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों और उनके नेताओं से लेकर कुख्यात खाप पंचायत तक के लोग शामिल हैं और उसका नेतृत्व कर रहे हैं, उसके साथ किसी भी जनतांत्रिक व्यक्ति के लिए खड़ा होना मुश्किल होगा. यही नहीं, खुद बाबा रामदेव के विचारों में अलोकतांत्रिक और सांप्रदायिक फासीवादी रुझान साफ देखे जा सकते हैं.

लेकिन कोई भी जनतांत्रिक व्यक्ति एक शांतिपूर्ण सत्याग्रह पर बर्बर पुलिसिया कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता है. खासकर जिस तरह से सरकार ने आधी रात को आंसू गैस, लाठीचार्ज और वृद्धों-महिलाओं के साथ बदसलूकी की है, उसकी जितनी निंदा की जाये, वह कम है. यह समझ से बिलकुल बाहर है कि जो सरकार कल तक रामदेव के स्वागत में बिछी जा रही थी, उनसे डील कर रही थी और यहाँ तक कि रात में ११.३० बजे मांगे मानने की चिट्ठी भेजने के बाद अचानक ऐसा क्या हो गया कि रात १.३० बजे पुलिसिया कार्रवाई करनी पड़ी? निश्चय ही, सरकार को इस यू टर्न के कारण स्पष्ट करने होंगे.

इसमें भी कोई शक नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) और उसके अनुषांगिक संगठनों जैसे विहिप, बजरंग दल आदि की बाबा रामदेव के इस आंदोलन में गहरी दिलचस्पी है. यह किसी से छुपा नहीं है कि संघ परिवार बाबा रामदेव को कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि खुद बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं. यही कारण है कि खुद भाजपा इस आंदोलन को लेकर संशय में थी और उसे लग रहा था कि कहीं कांग्रेस रामदेव को इस्तेमाल न कर ले जाये. उसे यह भी डर सता रहा था कि कांग्रेस बाबा रामदेव को चढ़ाकर उसके समानांतर एक राजनीतिक ताकत खड़ा करने की कोशिश कर रही है.

इस प्रकरण पर भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया में भी वह खिन्नता छुपाये नहीं छुप सकी कि विदेशों में जमा कालेधन का मुद्दा सबसे पहले भाजपा ने उठाया था. भाजपा का यह डर तब और बढ़ गया, जब कांग्रेस ने बाबा को हाथों-हाथ लेना शुरू किया. हालाँकि तुलनाएं हमेशा बिलकुल सही नहीं होती हैं लेकिन बाबा रामदेव को कांग्रेस और यू.पी.ए सरकार जिस तरह से आसमान पर चढा रही थी, वह काफी हद तक ८० के दशक में अकालियों को राजनीतिक रूप से मात देने के लिए इंदिरा गाँधी ने पंजाब में भिंडरावाले को खड़ा करने की रणनीति से मिलता-जुलता था.

कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों राजनीतिक रूप से बाबा रामदेव को इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं. जब कांग्रेस को लगा कि बाबा रामदेव हाथ में नहीं आ रहे हैं तो उसने रणनीति बदलते हुए एक ओर पुलिसिया दमन और दूसरी ओर, राजनीतिक रूप से बाबा को आर.एस.एस एजेंट घोषित करने का अभियान छेड दिया है. कांग्रेस और सरकार ने अब भाजपा को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को हाइजैक करने का मौका दे दिया है. इस तरह एक बार फिर भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा के बीच नूराकुश्ती शुरू हो गई है. दोनों इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में जुट गए हैं.

लेकिन इसका मौका खुद बाबा रामदेव और उनके समर्थकों ने दिया है. उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, सांप्रदायिक विचारों और मनमाने तौर-तरीकों ने भ्रष्टाचार और कालेधन के गंभीर मुद्दे को जिस तरह से हल्का और मजाक का विषय बना दिया है, वह देश में इस मुद्दे पर खड़ा हो रहे एक बड़े आंदोलन के लिए बड़ा झटका है.