गुरुवार, जून 23, 2011

तमाशा करते-करते तमाशा बने बाबा रामदेव

चौबे जी छब्बे बनने चले, दुब्बे बनकर रह गए




न्यूज चैनलों को तमाशा पसंद है. वजह यह कि तमाशे में नाटकीयता और दर्शकों को खींचनेवाले उसके भांति-भांति के रंग- रहस्य, रोमांच, उठा-पटक, टकराव, धूम-धडाका, करुणा और आक्रोश सभी कुछ शामिल रहता है. चैनलों को तमाशे के बिना अपना पर्दा बड़ा सूना सा लगने लगता है. उनकी जान तमाशे में बसती है. इसलिए वे हमेशा तमाशे की तलाश में रहते हैं.

कुछ इस हद तक कि अगर कहीं कोई तमाशा न हो तो वे तमाशा बनाने से भी पीछे नहीं रहते हैं. लेकिन चैनलों का भाग्य देखिए कि उन्हें तमाशे की कभी कमी नहीं पड़ती है. वैसे भी भारत जैसे विशाल और बहुरंगी देश में कभी तमाशों का टोटा नहीं रहता.

इस चक्कर में वे अच्छी-खासी और गंभीर चीजों का भी तमाशा बना देने में माहिर हो गए हैं. राजनीति उन्हीं में से एक है. न्यूज चैनलों की कृपा से राजनीति, नीति कम और तमाशा अधिक हो गई है. हालाँकि राजनीति को तमाशा बनाने में राजनेताओं का कम योगदान नहीं है लेकिन न्यूज चैनलों ने रही-सही कसर पूरी कर दी है.

वैसे भी जब से राजनीति, लोगों के लिए कम और टी.वी के लिए अधिक होनेवाली लगी है, वह राजनीति नहीं, तमाशा बन गई है. सच पूछिए तो न्यूज चैनलों का पर्दा राजनीति का नया अखाड़ा बन गया है.

हालत यह हो गई है कि जिसने टी.वी को साध लिया, वह रातों-रात बड़ा नेता बन जा रहा है. नेता के लिए टी.वी पर दिखना जरूरी हो गया है. जो जितना दीखता है, वह उतना बड़ा नेता माना जाने लगा है. माना जाता है कि टी.वी किसी को भी ‘१५ मिनट के लिए यश’ दे सकता है, रातों-रात स्टार बना सकता है. मतलब यह कि ‘जो दिखता है, वह बिकता है.’

ऐसे ही, दिखने और बिकने वालों में एक अपने ‘योगगुरु’ रामदेव भी हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि रामदेव को योगगुरु और बाबा रामदेव बनाने में धार्मिक चैनलों के साथ-साथ न्यूज चैनलों की बहुत बड़ी भूमिका रही है. खुद बाबा रामदेव भी इस सच्चाई से परिचित हैं.

यही कारण है कि बाबा के हजारों करोड़ के विशाल कारोबारी साम्राज्य में एक अपना धार्मिक चैनल भी है. इसके अलावा रामदेव बड़ी उदारता से न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों को समय देते रहे हैं. चैनल भी उन्हें इस्तेमाल करने में पीछे नहीं रहे हैं.

चैनलों को रामदेव का तमाशाई व्यक्तित्व आकर्षित करता रहा है. खासकर उनका बडबोलापन, मजाकिया अदाएं और तमाशाई अंदाज़ न्यूज चैनलों को अपने स्वभाव के माफिक लगती रही हैं. कहते हैं कि उनके कार्यक्रमों और इंटरव्यू आदि की अच्छी-खासी टी.आर.पी भी आती रही है. इससे रामदेव की अपनी रेटिंग भी बढती रही है.

इस तरह, पिछले कुछ वर्षों में दोनों एक दूसरे की जरूरत से बन गए हैं. चैनलों की मदद से रामदेव देश के उन मध्यमवर्गीय घरों में पहुँचने और अपने प्रशंसकों का एक बड़ा समुदाय तैयार करने में कामयाब हुए हैं जो अपनी आरामतलब/तनावपूर्ण जीवनशैली के कारण भांति-भांति के रोगों/तनाव/बेचैनी से परेशान और राहत की तलाश में था.

इसमें कोई शक नहीं है कि उसे रामदेव के योग अभ्यासों से थोड़ी राहत भी मिली है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में रामदेव ने योग के नाम पर एक तरह की ‘फेथ हीलिंग’ और डायबिटीज जैसे असाध्य रोगों को ठीक करने के अनाप-शनाप दावे करने शुरू कर दिए.

यही नहीं, प्रशंसकों की भीड़ और चैनलों के कैमरे देखकर उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी पैदा हो गईं. वे योग शिविरों में कसरत करते हुए देश और राजनीति पर प्रवचन के बहाने नेताओं और राजनीतिक दलों को गरियाने लगे. राजनेताओं के भ्रष्टाचार और कालेधन जैसे मुद्दों पर उनकी आधी सच्ची-आधी झूठी कहानियां उनके प्रशंसकों की तालियाँ बटोरने लगीं.

निश्चय ही, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की पाताल छूती साख से रामदेव जैसों को भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर खुद को एक ‘धर्मयोद्धा’ की तरह पेश करने में मदद मिली है. न्यूज चैनलों ने भी इन ‘धर्मयोद्धाओं’ को हाथों-हाथ लिया है.

वैसे भी खुद को देश का स्वयंभू प्रवक्ता माननेवाले न्यूज चैनल आजकल ‘राष्ट्रहित’ के सबसे बड़े रक्षक और पैरोकार हो गए हैं. उन्हें लगता है कि देश वही चला रहे हैं. इस भ्रम में वे कई बार किसी को आसमान पर चढा देते हैं. चैनल जिन्हें चढाते हैं, उनमें से भी कई लोगों को अपने बारे में नाहक भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता है कि योग गुरु रामदेव भी इस भ्रम के शिकार हो गए.

नतीजा, हमारे सामने है. तमाशा करते-करते बाबा रामदेव खुद तमाशा बन गए. चैनलों ने उनके अनशन को जिस तरह से उछाला और जिस तरह से मनमोहन सिंह सरकार उनके आगे दंडवत नजर आई, उससे बाबा झांसे में आ गए. वे अपने तमाशे को हकीकत मान बैठे जबकि तमाशे की पूर्व लिखित स्क्रिप्ट कुछ और थी.

वे उस स्क्रिप्ट से अलग जाकर तमाशे को फ़ैलाने लगे. इसके बाद जो हुआ, उसकी उम्मीद बाबा को भी नहीं थी. चौबे जी छब्बे बनने चले और दुब्बे बनकर रह गए. जो चैनल उन्हें आसमान पर चढाने में लगे हुए थे, वे उनकी हवा निकालने में लग गए.

चैनलों की भाषा रातों-रात बदल गई है. बाबा का मजाक उड़ रहा है. उनके सत्याग्रह का पोस्टमार्टम हो रहा है. वे बाबा से उनके कारोबारी साम्राज्य का हिसाब-किताब मांगने लगे हैं और सरकार से कालेधन का हिसाब मांग रहे बाबा का हलक सूख रहा है. हमेशा चहकने वाले बाबा निढाल दिखाई दे रहे हैं.

इस कहानी का सबक: चैनलों की दिलचस्पी तमाशे में है. वह किसी को आसमान में चढ़ाकर मिले या गिराकर, उन्हें इससे खास फर्क नहीं पड़ता. आखिर यह उनका धंधा है.

('तहलका' के ३० जून के अंक में प्रकाशित)


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