सोमवार, जून 13, 2011

लादेन की मौत पर बावले होते चैनल

अमेरिकी भोंपू बनते भारतीय समाचार मीडिया को खबरों की विश्वसनीयता की परवाह नहीं रह गई है


पहली किस्त
एक अमेरिकी कमांडो आपरेशन में मारे जाने के एक पखवाड़े बाद भी अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन से जुड़ी ख़बरें देशी-विदेशी समाचार मीडिया की सुर्ख़ियों में बनी हुई हैं. उस कमांडो आपरेशन, बिन लादेन और पाकिस्तानी शहर एबटाबाद में उसके छुपने के ठिकाने, उसकी जीवनशैली और उसके खतरनाक मंसूबों के बारे में हर दिन कुछ नयी, सनसनीखेज और चटपटी ख़बरें (या कहानियां) अख़बारों में छप और न्यूज चैनलों पर दिखाई जा रही हैं.

इन ‘खबरों’ को छापने और दिखाने को लेकर देशी अख़बारों और न्यूज चैनलों में भी होड़ लगी हुई है. खासकर ओसामा के ‘सीक्रेट्स’ और उसे छुपाकर रखने में पाकिस्तान की भूमिका का पर्दाफाश करने को लेकर अपने अख़बारों और न्यूज चैनलों का उत्साह देखने लायक है.

आश्चर्य नहीं कि न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों पर तो जैसे ओसामा पुराण शुरू हो गया है. कोई भी न्यूज चैनल पीछे नहीं रहना चाहता है. नतीजा, बिना नागा हर दिन ओसामा के बारे में कुछ सच्ची-कुछ झूठी, कुछ कच्ची-पक्की, कुछ सुनी-सुनाई ख़बरें और आधा घंटे के विशेष कार्यक्रम धड़ल्ले से चल रहे हैं. वैसे भी अपने न्यूज चैनलों का ख़बरें/कहानियां गढ़ने में कोई सानी नहीं है.

ख़बरों को फ़ैलाने और तानने की कला में उनका कोई जवाब नहीं है. इसका ताजा प्रमाण यह है कि लादेन की भले ही मौत हो चुकी हो लेकिन चैनलों पर वह अब भी अपनी सनसनीखेज कहानियों के साथ जिन्दा है. लगता नहीं कि न्यूज चैनल उसे जल्दी मरने देंगे.
लेकिन न्यूज चैनलों से ज्यादा अमेरिका और राष्ट्रपति ओबामा नहीं चाहते हैं कि लादेन की कहानी जल्दी समाप्त हो जाए. उन्हें इस कहानी को अगले राष्ट्रपति चुनावों तक जिन्दा रखना है. यही कारण है कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को लादेन के बारे में विभिन्न अमेरिकी स्रोतों से खुदरा भाव से ख़बरों/कहानियों की सप्लाई हो रही है.

नतीजा यह कि अमेरिकी मीडिया आपरेशन ओसामा को इतनी कवरेज दे रहा है कि पिछले चार साल के सारे रिकार्ड टूट गए हैं. प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी’२००७ से जब से सेंटर ने अमेरिकी मीडिया में खबरों की साप्ताहिक मानिटरिंग शुरू की है, इतनी ज्यादा कवरेज किसी भी मुद्दे को नहीं मिली है.

यह सही है कि ओसामा बिन लादेन का मारा जाना एक बड़ी खबर है लेकिन वह इतनी भी बड़ी खबर नहीं है कि उसे इतने दिनों तक और इतनी ज्यादा कवरेज दी जाए. सच यह है कि राजनीतिक और रणनीतिक दृष्टि से लादेन न सिर्फ बहुत कमजोर और अप्रासंगिक हो चुका था बल्कि अल कायदा के संचालन में भी उसकी भूमिका बहुत सीमित रह गई थी.

यही नहीं, अरब जगत में लोकतान्त्रिक उभार ने लादेन और अल कायदा को और अधिक अप्रासंगिक बना दिया था. अलबत्ता, उनके अप्रासंगिक होने से सबसे ज्यादा परेशानी खुद अमेरिका को थी क्योंकि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उनके डर के जरिये ही अपनी जनता को काबू में रखता रहा है.

इसलिए लादेन के मरने के बाद भी ओबामा प्रशासन उसका और अल कायदा का डर जिन्दा रखेगा. इसलिए हैरानी नहीं होगी, अगर आपरेशन में मारे गए लादेन की तस्वीरें जारी करने से इनकार कर रहा अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अगले कुछ महीनों में किसी बड़े अमेरिकी अखबार/ चैनल को वे तस्वीरें लीक कर दे. आखिर अमेरिकी ‘पराक्रम’ की इस कहानी को अगले कई महीनों तक जिन्दा रखना राष्ट्रपति ओबामा की राजनीतिक जरूरत है.

लेकिन इसके साथ ही, अल कायदा का डर बनाए रखकर ही ‘पराक्रमी राष्ट्रपति’ अपने लिए दोबारा वोट मांग पाएंगे. इसके लिए जरूरी है कि न सिर्फ लादेन प्रकरण जिन्दा रहे बल्कि अल कायदा के पुनर्संगठित होने और उसके नए नेतृत्व और उनकी आतंकी योजनाओं की सच्ची-झूठी कहानियां मीडिया के जरिये लोगों तक पहुँचती रहें.

यही कारण है कि लादेन के मारे जाने और अल कायदा के जिन्दा होने की कहानी को एक टी.वी धारावाहिक की तरह परोसा जा रहा है. राष्ट्रपति ओबामा की पी.आर मशीनरी जानती है कि ओसामा के मारे जाने लेकिन अल कायदा के डर को बनाए रखने के लिए ख़बरें/कहानियां कैसे गढ़नी और कब, कैसे और कहां लीक और प्लांट करनी है.

उसे यह भी अच्छी तरह से पता है कि ऐसी सनसनीखेज ख़बरों/कहानियों के लिए घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कितनी जबरदस्त भूख है. उनके बीच ऐसी ‘एक्सक्ल्यूसिव’ खबरों के लिए होड़ रहती है जिसका फायदा सरकारी पी.आर मशीनरी उठाती रही हैं.

आपरेशन लादेन भी इस प्रवृत्ति का अपवाद नहीं है. नतीजा सबके सामने है. लादेन के मारे जाने के बाद से अमेरिकी मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में ऐसी खबरों/कहानियों की बाढ़ सी आई हुई है. भारतीय समाचार मीडिया भी इस होड़ में पीछे नहीं है जहां अमेरिकी मीडिया और स्रोतों से आ रहे जूठन को छापने और दिखाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है.

आश्चर्य नहीं कि इनमें से अधिकांश ‘ख़बरें’ अमेरिका और अमेरिकी स्रोतों से आ रही हैं. कुछ ख़बरें पाकिस्तान और मध्य पूर्व के देशों से भी आ रही हैं. लेकिन ज्यादातर खबरों या कहानियों की आपूर्ति अमेरिकी स्रोतों से ही हो रही है. इन स्रोतों में अमेरिकी मीडिया भी शामिल है.

लेकिन अमेरिकी मीडिया का भी मूल स्रोत अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के मुख्य केन्द्र - व्हाइट हाउस, विदेश और रक्षा मंत्रालय, सी.आई.ए/एफ.बी.आई जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियां हैं. कहने का अर्थ यह कि अधिकांश ख़बरें आधिकारिक अमेरिकी स्रोतों से मिल रही सूचनाओं और जानकारियों पर आधारित हैं.

लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि इन आधिकारिक स्रोतों से निकली खबरों में से ९० फीसदी खबरों में स्रोत की पहचान छुपाई गई है यानी स्रोत ने आन द रिकार्ड नहीं बताया है. इसके बावजूद ऐसी ख़बरें बिना अन्य स्रोतों से जांच-पड़ताल और छानबीन किए धड़ल्ले से चल रही हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे अधिकांश ख़बरों/कहानियों में अमेरिकी कमांडो आपरेशन जेरोनिमो, लादेन के छुपने की जगह, एबटाबाद की उस बिल्डिंग, उसकी जीवनशैली, परिवार, पत्नी/पत्नियों, शौक, उसकी आतंकी योजनाओं से लेकर अल कायदा के अगले नेतृत्व आदि के बारे में अपुष्ट, अंतर्विरोधी, आधारहीन, एकतरफा और तथ्यों को तोड़-मरोडकर पेश किया जा रहा है. साथ ही, इन खबरों/कहानियों को खूब बढ़ा-चढाकर छापा और दिखाया जा रहा है.

ऐसा लगता है कि जैसे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने लादेन के मारे जाने के बाद एक जबरदस्त पी.आर अभियान छेड दिया है. अफसोस और चिंता की बात यह है कि हमेशा की तरह एक बार फिर अमेरिकी कारपोरेट मीडिया के साथ-साथ भारतीय मीडिया भी जाने-अनजाने इस अमेरिकी वैश्विक पी.आर अभियान का औजार बन गया है.

जारी...

('कथादेश' के जून'११ अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

कोई टिप्पणी नहीं: