ब्याज दरों में बढोत्तरी के बावजूद महंगाई आगे भी काबू से बाहर रहनेवाली है
बेकाबू महंगाई को काबू करने के लिए रिजर्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरों में चौथाई फीसदी की बढोत्तरी करने का एलान कर दिया है. इस ताजा बढोत्तरी के साथ रेपो रेट ७.५ फीसदी और रिवर्स रेपो रेट ६.५ फीसदी हो गया है. लेकिन ऐसा लगता है कि महंगाई की बेकाबू सुरसा के आगे आज के हनुमान और रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव भी लाचार पड़ते जा रहे हैं.
उनकी लाचारी का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले १५ महीनों में मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों यानी रेपो और रिवर्स रेपो रेट में ताजा बढोत्तरी को मिलाकर दस बार वृद्धि की है. यहाँ तक कि कोई डेढ़ महीने पहले मई के पहले सप्ताह में सुब्बाराव ने ब्याज दरों में आधा फीसदी की बढोत्तरी की थी.
लेकिन रिजर्व बैंक की लाख कोशिशों के बावजूद मुद्रास्फीति की आसमान छूती दर काबू में नहीं आ रही है. थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल के ८.६६ प्रतिशत से बढते हुए मई में ९.०६ तक पहुँच गई है. वैसे यह तात्कालिक अनुमान है और इस बात की पूरी आशंका है कि वास्तविक मुद्रास्फीति की दर दस फीसदी से कम नहीं होगी.
अक्सर यह देखा गया है कि मुद्रास्फीति दर के संशोधित अनुमान तात्कालिक अनुमान से कहीं ज्यादा होते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि रिजर्व बैंक की पिछले सवा साल की कोशिशों के बावजूद महंगाई की दर दहाई अंकों में बनी हुई है.
असल में, रिजर्व बैंक के लिए सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि महंगाई अब सिर्फ खाद्य वस्तुओं तक सीमित नहीं रह गई है और वह विनिर्मित वस्तुओं (मैन्युफैक्चर्ड गुड्स) तक फ़ैल गई है. इसका अर्थ यह हुआ कि महंगाई का दायरा न सिर्फ व्यापक हो गया है बल्कि उसकी जड़ें और गहरी हो रही हैं. इससे यह भी पता चलता है कि यह महंगाई कोई तात्कालिक और अस्थाई परिघटना के बजाय एक स्थाई परिघटना बनती जा रही है.
हालाँकि यू.पी.ए सरकार पिछले डेढ़ साल से हर दूसरे महीने दावा करती रही है कि महंगाई को अगले कुछ महीनों में काबू में कर लिया जाएगा. लेकिन महंगाई दर के ताजा आंकड़ों से साफ है कि वह अभी भी नियंत्रण से बाहर है. यहाँ तक कि रिजर्व बैंक के अनुमान भी उलटे पड़ रहे हैं.
उसका अनुमान था कि पिछले वित्तीय वर्ष में मुद्रास्फीति की दर मार्च तक गिरकर ६ से ६.५ फीसदी के बीच रह जायेगी लेकिन तथ्य यह है कि मार्च में मुद्रास्फीति की दर अनुमानों से काफी अधिक ९.६८ फीसदी रही. यही नहीं, वित्तीय वर्ष २०१०-११ में मुद्रास्फीति की औसत दर ९.५ फीसदी रही जोकि पिछले १६ वर्षों का एक रिकार्ड है.
हालत यह हो गई है कि कुछ विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि मुद्रास्फीति की नई सामान्य दर ८ से ९ फीसदी मान लेना चाहिए. पहले इसे ५ फीसदी के आसपास माना जाता था. आश्चर्य नहीं कि रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में ताजा बढोत्तरी के बावजूद अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि इससे मुद्रास्फीति की चढती दर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.
ऐसा माना जा रहा है कि नवंबर से पहले मुद्रास्फीति की दरों में नरमी की कोई उम्मीद नहीं है. यही नहीं, रिजर्व बैंक को अगले चार-छह महीनों में ब्याज दरों में कम से कम दो से तीन बार और चौथाई-चौथाई फीसदी की वृद्धि करनी पड़ेगी.
इसके बावजूद भी महंगाई दर ६ फीसदी से नीचे आ पायेगी, यह दावा करने की स्थिति में कोई नहीं है. सच पूछिए तो महंगाई के खिलाफ रिजर्व बैंक की कोशिशें अँधेरे में तीर चलाने की तरह लग रही हैं. दूसरी ओर, महंगाई न सिर्फ आमलोगों खासकर गरीबों का जीना मुहाल किये हुए है बल्कि उसकी मार से अर्थव्यवस्था भी पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है.
असल में, रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि के कारण निवेश और मांग पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. इसके कारण अब यह आम राय बनती जा रही है कि चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर ९ फीसदी के ऊँचे अनुमानों के विपरीत ८ फीसदी से भी नीचे गिर सकती है.
साफ है कि मुद्रास्फीति को काबू करने में नाकाम और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यू.पी.ए सरकार की राजनीतिक फिसलन का असर अर्थव्यवस्था पर भी दिखने लगा है. अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेत अच्छे नहीं हैं. चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने, अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर गिरकर मात्र ६.३ प्रतिशत रह गई है जबकि मार्च में यह ८.८ फीसदी थी. इसी तरह, पिछले वित्तीय वर्ष २०१०-११ की चौथी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर तीसरी तिमाही की ८.३ प्रतिशत की तुलना में गिरकर ७.८ प्रतिशत रह गई है.
यही नहीं, अर्थव्यवस्था की सेहत और भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण निवेश दर में भी चौथी तिमाही में मात्र ०.४ फीसदी की मामूली वृद्धि हुई है जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में निवेश में २० फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई थी. निवेश में गिरावट का एक सबूत यह भी है कि वर्ष २०१० में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) में लगभग ३२ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
इसका असर विदेशी संस्थागत निवेश (एफ.एफ.आई) पर भी पड़ा है. कारपोरेट जगत, गुलाबी अख़बारों और नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों के थिंक टैंक इसके लिए मनमोहन सिंह सरकार की “नीतिगत लकवे” की स्थिति को जिम्मेदार बताते हुए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं.
गोया खुदरा व्यापार को एफ.डी.आई के लिए खोलने, श्रम कानूनों को ढीला करने, बैंक-बीमा सहित वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और नए भूमि अधिग्रहण कानून जैसे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से अर्थव्यवस्था की सभी समस्याएं पलक झपकते हल हो जाएँगी. सच यह है कि चाहे महंगाई का सवाल हो या गिरते औद्योगिक उत्पादन या निवेश दर का या फिर देश भर में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भडके युद्ध का, यह नव उदारवादी सुधारों का अनिवार्य नतीजा है.
इसे नव उदारवादी सुधारों के एक और बड़े डोज से नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के केन्द्र में आम आदमी को रखकर नीतियों में बदलाव से ठीक किया जा सकता है. अन्यथा मर्ज बढ़ता जाएगा, ज्यों-ज्यों दवा की. सुब्बाराव से ज्यादा बेहतर इसे और कौन समझ सकता है.
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १७ जून'११ को प्रकाशित)
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