बुधवार, जून 15, 2011

गोपनीय स्रोतों के नाम पर..

सत्ता की जुबान बनता वैश्विक मीडिया




इसका सबूत यह है कि अधिकांश अखबार/न्यूज चैनल इन खबरों/कहानियों को बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के छाप और दिखा रहे हैं. अच्छी पत्रकारिता का यह बुनियादी सिद्धांत है कि किसी भी खबर की विश्वसनीयता के लिए जरूरी है कि न सिर्फ उसके स्रोत की पहचान स्पष्ट होनी चाहिए बल्कि किसी एकल स्रोत से मिलनेवाली खबर की हमेशा दूसरे-तीसरे स्रोत से पुष्टि और जांच-पड़ताल करनी चाहिए.

खासकर अगर खबर अगर विवादास्पद हो तो अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए. यही नहीं, जहां तक संभव हो, गुमनाम (एनानिमस) स्रोत यानी ऐसे स्रोत से बचना चाहिए जो अपनी पहचान उजागर करने के लिए तैयार नहीं है.


लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि कई बार स्रोत की पहचान छुपाना जरूरी हो जाता है. खासकर अगर पत्रकार और उसके स्रोत को पर्याप्त आशंका हो कि स्रोत का नाम उजागर होने से स्रोत के जीवन, परिवार और रोजगार को गंभीर खतरा है, उस स्थिति में स्रोत का नाम छुपाना सही है. लेकिन अगर स्रोत का नाम छुपाना जरूरी हो तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उस स्रोत से मिल रही जानकारी की अन्य संबंधित स्रोतों से क्रास-चेक और पड़ताल की जाए.

उनकी प्रामाणिकता की पुष्टि के लिए प्रासंगिक तथ्य और कागजात जुटाने की भी कोशिश होनी चाहिए. साथ ही, यह कोशिश भी होनी चाहिए कि उस खबर से प्रभावित पक्ष को भी अपना पक्ष रखने का पर्याप्त मौका दिया जाए. यही नहीं, गुमनाम स्रोतों से मिलनेवाली ऐसी खबरों को अत्यधिक महत्व देने से भी बचना चाहिए.

सच पूछिए तो गुमनाम स्रोतों पर आधारित ख़बरों से आम तौर पर बचना चाहिए क्योंकि इसके खतरे बहुत हैं. बहुत दिन नहीं हुए, जब अमेरिका में इराक युद्ध से पहले इराक में जनसंहार के हथियारों की मौजूदगी के बारे में और गुआंतन्माओ में कैदियों को प्रताड़ित करने के लिए कुरान की प्रतियाँ टायलेट में बहाने के मामले में न्यूजवीक की गुमनाम स्रोतों पर आधारित रिपोर्टों के बाद अमेरिकी समाचार मीडिया की काफी फजीहत हुई थी.

उस समय अमेरिकी मीडिया में काफी बहस चली थी. उस बहस के बाद अधिकांश समाचार माध्यमों ने यह तय किया था कि वे गुमनाम स्रोतों पर आधारित खबरों से बचेंगे या ऐसी खबरों के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतेंगे.

लेकिन लगता है कि अमेरिकी समाचार माध्यमों ने वह सबक जल्दी ही भुला दिया. यही कारण है कि वहां के मीडिया में आपरेशन ओसामा के बाबत गुमनाम स्रोतों पर आधारित एकतरफा और पी.आर ख़बरें बिना किसी रोकटोक के छप और दिख रही हैं. वहीँ से अपने अखबार और न्यूज चैनल भी बिना किसी संकोच के खबरें उठा और परोस रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि अपना देशी न्यूज मीडिया विदेशी खासकर अमेरिकी/ब्रिटिश अख़बारों और न्यूज चैनलों को विश्वसनीयता का पैमाना मानता है जबकि उनकी पक्षधरता और पूर्वाग्रह किसी से छुपे नहीं हैं. वैसे भी भारतीय समाचार माध्यमों में ८० प्रतिशत ख़बरें गुमनाम स्रोतों यानी विश्वस्त सूत्रों, आधिकारिक सूत्रों, उच्च-पदस्थ सूत्रों पर ही आधारित होती हैं.

नतीजा यह कि ओसामा के मारे जाने के मामले में भी देशी न्यूज मीडिया अमेरिकी मीडिया और स्रोतों से आ रही आधी सच्ची-आधी झूठी ख़बरों को अपने अति उत्साह में थोड़ा और नमक-मिर्च लगाकर छापने-दिखाने में जुटा हुआ है. मजे की बात यह है कि इन स्रोतों की विश्वसनीयता का हाल यह है कि ओसामा के मारे जाने और आपरेशन जेरोनिमो के बारे में शुरू से ही परस्पर विरोधी, गढ़ी हुई और तथ्यों को तोड़-मरोड़ पेश करनेवाली जानकारियां दी गईं.

दुनिया भर के मीडिया ने उसे आँख मूंदकर छापा और दिखाया. उदाहरण के लिए, आपरेशन ओसामा के तुरंत बाद जो आधिकारिक ब्रीफिंग हुई, उसे 24 घंटे के अंदर बदल दिया गया. पहले कहा गया कि ओसामा ने अपनी पत्नी के पीछे छुपने और हथियार उठाने की कोशिश की जिसके बाद कमांडोज ने उसे गोली मार दी.

फिर यह बताया गया कि ओसामा निहत्था था. उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया. एक ब्रीफिंग में कहा गया कि गोलीबारी में उसकी पत्नी भी मारी गई. फिर कहा गया कि उसकी पत्नी के पैर में गोली मारी गई. इसी तरह बताया गया कि आपरेशन के दौरान तीन (कुछ खबरों में चार) लोग मारे गए जिसमें लादेन का कुरियर और कुरियर का भाई, लादेन का बेटा खालिद भी शामिल हैं.

फिर कहा गया कि उसका मारा गया बेटा खालिद नहीं हमजा है. उसके बाद फिर खबर आई कि हमजा वहां से भागने में कामयाब हो गया है. कैसे? किसी को पता नहीं. यह भी पता नहीं कि वहां उसके कितने बेटे और पत्नियाँ मौजूद थीं? क्योंकि बाद में यह खबर भी चली कि उसकी तीन पत्नियाँ पाकिस्तानी हिरासत में हैं.

इसी तरह, शुरूआती ख़बरों में बताया गया कि वह ‘मिलियन डालर (यानी लगभग ४.५ करोड़ रूपये) की आलिशान कोठी’ में रह रहा था. यह भी कि ओसामा उस शानदार हवेली में तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ बहुत ठाट से रह रहा था.

लेकिन सच यह है कि वह कथित हवेली किसी भी तरह से न तो आलिशान थी और न ही वहां ओसामा ठाट से रह रहा था. उस हवेली के जो भी विजुअल्स और विवरण आए हैं, उनसे कहीं से भी नहीं लगता है कि वह ४.५ करोड़ का बंगला है और उसमें सभी आधुनिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं.

तात्पर्य यह कि आपरेशन जेरोनिमो और ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बारे में इतनी अंतर्विरोधी, तथ्यहीन, भ्रामक और अस्पष्ट ख़बरें छपी और दिखाई गईं हैं कि कहना मुश्किल है कि उस आपरेशन के बारे में सामने आए अनेकों ब्यौरों में सबसे तथ्यपूर्ण और सही ब्यौरा कौन सा है? यही नहीं, सफाई देने के लिए जितने ब्यौरे आए, उनसे कहानी सुलझने के बजाय और उलझती चली गई.

मजे की बात यह है कि शुरूआती ७२ घंटों में आए सभी ब्यौरे किसी न किसी बड़े अमेरिकी अधिकारी के हवाले से आए. उदाहरण के लिए, सी.आई.ए के मुखिया लियोन पनेटा, राष्ट्रपति ओबामा के मुख्य सुरक्षा सलाहकार जान ब्रेनन और राष्ट्रपति भवन (व्हाइट हाउस) के प्रवक्ता जे कार्नी के आधिकारिक विवरणों में काफी अंतर और विसंगतियाँ थीं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ओबामा प्रशासन इस आपरेशन के बारे में जितना बता रहा था, उससे ज्यादा छुपाने की कोशिश कर रहा था. ओसामा के मारे जाने के बारे में बहुत कुछ ऐसा है जो अभी सामने नहीं आया है. यही नहीं, इस आपरेशन के जितने तरह के आधिकारिक विवरण आए हैं, उससे एक बात तो साफ है कि ओबामा प्रशासन की सच्चाई बताने में कोई रूचि नहीं है. संभव है कि वह सच आनेवाले महीनों या सालों में सामने आए या शायद कभी सामने नहीं आ पाए.

लेकिन इतना तय है कि पूरे सच के सामने आने तक मीडिया के जरिये लोगों को काफी दिनों तक नई-नई कहानियां सुनने को मिलती रहेंगी. मजे की बात यह है कि ये कहानियां भी ओबामा प्रशासन के अधिकारियों के हवाले से ही आ रही हैं लेकिन फर्क यह है कि इनमें से ज्यादातर खबरें बिना स्रोत की पहचान उजागर किए आ रही हैं.

यह कहने का आशय कतई नहीं है कि गुमनाम स्रोतों से आ रही सभी खबरें पूरी तरह से गलत या झूठ हैं. उनमें से कई ख़बरों में कुछ सच्चाई हो सकती है. लेकिन समस्या यह है कि इस सच्चाई के इर्द-गिर्द झूठ का तानाबाना इस कदर बुना जाता है कि उसमें उस सच्चाई के मायने बदल जाते हैं.

इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी अधिकांश खबरें किसी न किसी मकसद के साथ प्लांट की जाती हैं. इसके लिए चुनिन्दा तौर पर सूचनाएं लीक करने से लेकर आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग का जमकर इस्तेमाल किया जाता है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अमेरिकी प्रशासन अपने राजनीतिक, रणनीतिक और कूटनीतिक फायदों के लिए समाचार मीडिया के इस्तेमाल में महारत हासिल कर चुका है.

अमेरिकी कारपोरेट मीडिया कई कारणों से बहुत सहजता के साथ अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के इस खेल में शामिल हो जाता है. हालांकि अब यह हैरान करनेवाली बात नहीं रह गई लेकिन चिंतित जरूर करती है कि भारतीय न्यूज मीडिया भी जाने-अनजाने इस खेल का हिस्सा बनता जा रहा है. वह भी बिना यह सोचे-समझे और जांचे-परखे उन्हीं ख़बरों/कहानियों को छापने/दिखाने में लगा है जो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अपने रणनीतिक और राजनीतिक हितों के तहत आगे बढ़ा रहा है.

हालांकि यह कोई नई बात नहीं है. भारतीय न्यूज मीडिया का एक हिस्सा काफी लंबे समय से अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान का भोंपू बना हुआ है. यही नहीं, हाल के वर्षों में जैसे-जैसे भारतीय शासक वर्ग अमेरिकी खेमे के करीब होता गया है, उसके साथ ही, भारतीय कारपोरेट मीडिया का एक प्रभावशाली हिस्सा अमेरिकी मीडिया कंपनियों के साथ व्यावसायिक गठजोड़ के जरिये जुड़ता गया है.

जारी...

(कथादेश के जून'११ अंक में प्रकाशित आलेख)

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