शनिवार, दिसंबर 29, 2007

योजना की निरर्थकता के बीच ग्यारहवीं योजना...

बड़े-बड़े दावों के बावजूद पिटे-पिटाए फार्मूलों पर भरोसा

राष्ट्रीय विकास परिषद की 52 वीं बैठक में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के मसौदे को मंजूर करने की औपचारिकता पूरी कर दी गयी है। इसके साथ ही अगले पांच सालों के लिए देश के विकास की दिशा और रणनीति पर मुहर लग गयी। यह ठीक है कि केन्द्रीय कैबिनेट ग्यारहवीं योजना के मसौदे को पहले ही मंजूरी दे चुकी थी और राट्रीय विकास परिषद की बैठक महज एक औपचारिकता ही थी। इसके बावजूद इस बैठक के महत्व को कम करके आंकना सही नहीं होगा। लेकिन हैरत की बात यह हैकि देश के सबसे प्रमुख गुलाबी आर्थिक अखबार सहित विश्व के सबसे अधिक बिकने वाले अंग्रेजी अखबार और अधिकांश समाचार चैनलों ने राट्रीय विकास परिषद की बैठक में 11वीं योजना की मंजूरी की खबर को पहले पन्ने लायक नहीं समझा।

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण से परिचालित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योजना आधारित अर्थनीति किस हद तक अप्रासंगिक हो चुकी है। दोहराने की जरुरत नहीं है कि पिछले डेढ़ दशक में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय खिलाड़ी के बतौर जैसे-जैसे राज्य की भूमिका घटती गयी है, वैसे-वैसे योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाएं भी महत्वहीन होते चले गए हैं। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे जब उदारीकरण के उत्साही और बेचैन समर्थक बदले हुए आर्थिक परिदृश्य में योजना आयोग को सफेद हाथी बताते हुए उसे समाप्त करने और अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को निजी क्षेत्र के मददगार (फेसिलिटेटर) के बतौर सीमित करने की मांग कर रहे थे। उन्हें अपने अपने अभियान में काफी हद तक सफलता भी मिली है।

संभव है कि इसे योजना आयोग के उपाध्यक्ष और उदारीकरण के प्रमुख पैरोकार में से एक मोंटेक सिंह अहलुवालिया स्वीकार न करें लेकिन सच यह है कि आज राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की तुलना में मुंबई शेयर बाजार की भूमिका और हैसियत कहीं जयादा बड़ी और निर्णायक हो गयी है। आखिर आज योजना आयोग की परवाह कौन करता है? पंचवर्षीय योजनाएं महज रस्म अदायगी भर बनकर रह गयी हैं जिनका उपयोग सिर्फ राज्यों को उनकी सालाना योजना के लिए आवंटन तय करने और कुछ हद तक राष्ट्रीय बजट में विकास योजनाओं के लिए धन आवंटन करते समय होता है। अन्यथा राष्ट्रीय विकास का एजेंडा, दिशा, नीति और कार्यक्रम तय करने के मामले में पंचवर्षीय योजनाओं की भूमिका सीमित हो गयी है।

11वीं पंचवर्षीय योजना भी इसकी अपवाद नहीं है। अलबत्ता उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशक खासकर मोंटेक सिंह अहलुवालिया के नेतृत्व में योजना आयोग का कायांतरण हुआ है और पंचवर्षीय योजनाओं का नया रुपांतरण। इसके तहत बहुत सफाई से योजना आयोग को उदारीकरण आयोग में और पंचवर्षीय योजनाओं को योजना आधारित ढ़ाचें के भीतर उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के एजेंडे नीति और कार्यक्रम के वाहक में बदल दिया है।

जाहिर है कि ऐसा करके अहलुवालिया योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं को प्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके इस अभियान को उदारीकरण समर्थकों का पूरा समर्थन भी मिल रहा है। आश्चर्य नहीं कि आमतौर पर योजना शब्द से चिढ़नेवाला बाजार 11वीं योजना के मसौदे से खुश हैं।

हालांकि वह उसे बहुत महत्व देने के लिए तैयार नहीं है लेकिन सच यह है कि 11वीं योजना पूरी तरह से उदारीकरण और बाजार की चाशनी में पगी हुई है। योजना का मुख्य लक्ष्य आर्थिक विकास की दर को पहले चार वर्षों में 9 प्रतिशत और आखिरी वर्ष (2011-12) में 10 प्रतिशत तक पहुंचाने का है। हालांकि 11वीं योजना में समावेशी विकास(इनक्लूसिव ग्रोथ) के नारे को मंत्र की तरह कई बार दोहराया गया है लेकिन सच्चाई यह है कि पिछली योजनाओं की तरह इस योजना में भी उच्च विकास दर (9 से 10 फीसदी सालाना) को सभी समस्याओं का रामबाण इलाज मान लिया गया है।

जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है। खुद 11वीं योजना के स्वीकृत मसौदे में गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले भारतियों की संख्या में सिर्फ 8 फीसदी की कमी दर्ज की गयी है। स्वीकार किया गया है कि तीव्र विकास दर के बावजूद पिछले डेढ़ दशकों में गरीबी और बेरोजगारी हटाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। जीडीपी की तेज रफतार के बावजूद 1993-1994 से 2004-2005 के बीच 12 वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन अर्थ यह हुआ कि औसतन 6 से 7 प्रतिशत की सालाना विकास दर के बावजूद गरीबों की संख्या में सालाना औसतन 0.6 प्रतिशत की दर से कमी दर्ज की गयी है। यह न सिर्फ निराशाजनक बल्कि शर्मनाक है। यह शर्मनाक इसलिए भी है क्योंकि गरीबी रेखा का पैमाना वही है जो 1973-74 में प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग के आधार तय किया किया गया था और जब प्रति व्यक्ति आय आज की तुलना में कम थी।

कहने की जरुरत नहीं है कि गरीबी रेखा का मौजूदा सरकारी पैमाना न सिर्फ धोखा है बल्कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कुल आबादी का 28 फीसदी होने का दावा भी फर्जी है। इस दावे की पोलपट्ठी हल ही में जारी असंगठित क्षेत्र के उस सरकारी सर्वेक्षण ने खोल दी है जिसके मुताबिक देश की कुल आबादी का 77 प्रतिशत हिस्सा प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम की आय में गुजर-बसर करता है। लेकिन योजना आयोग अभी गरीबी रेखा के अपने संदिग्ध दावे के साथ न सिर्फ चिपका हुआ है बल्कि उसे उम्मीद है कि 11 पंचवर्षीय योजना के दौरान 9 प्रतिशत आर्थिक विकास दर के जरिए वह गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाली आबादी में 10 फीसदी की कमी लाने में कामयाब रहेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि योजना आयोग ने 11वीं योजना के दौरान 9 प्रतिशत की तीव्र विकास दर के बावजूद गरीबों की संख्या में सालाना औसतन 2 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य तय किया है।

इससे 11वीं योजना की दरिद्रता का अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे गरीबों की तादाद में सालाना 2 फीसदी की कमी का लक्ष्य भी काफी महत्वाकांक्षी दिखता है, अगर उसकी तुलना गरीबी उन्मूलन के हालिया प्रदर्शन से की जाए। लेकिन अगर योजना आयोग के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम मान भी लिया जाए तो इस रफ्तार से देश से सरकारी गरीबी रेखा को मिटाने में अभी तीन पंचवर्षीय योजनाएं और खप जाएंगी।

साफ है कि पिछली पंचवर्षीय योजनाओं की तरह 11वीं योजना भी गरीबी के अभिशाप को मिटाने में कामयाब नहीं हो पाएगी। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि गरीबी खत्म करना संभव नहीं है या यह कोई ऐसी समस्या है जो पंचवर्षीय योजनाओं या अर्थनीति के जरिए हल नहीं हो सकती है।

लेकिन गरीबी खत्म करने के लिए सिर्फ 9 से 10 प्रतिशत की विकास दर के टोटके पर भरोसा करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला हैं। विकास दर को साध्य मानकर चलने वाली 11वीं योजना गरीबी और बेरोजगारी उन्नमूलन को उच्च विकास दर के बाइ प्रोडक्ट के रुप में देखने की भूल दोहरा रही है। जबकि अनुभव यह बताता है कि उदारीकरण के दौर में उच्च विकास दर का लाभ देश के कुछ हिस्सों और आबादी के 15-20 फीसदी हिस्से तक ही सीमित हो गया है। यही कारण है कि इस बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर-बराबरी के साथ-साथ अमीर और गरीब, शहर और गॉंव, कृषि और उद्योग/ सेवा क्षेत्र के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे काफी समय तक नकारने के बाद अब उदारीकरण के पैरोकार भी स्वीकार करने लगे हैं।

11वीं योजना का दस्तावेज भी इस सच्चाई को स्वीकार करता है। लेकिन जैसे आदतें बहुत मुश्किल से छुटती हैं, वैसे ही उदारीकरण के विचार और बाजार में अटूट आस्था से पीछा छुड़ाने में भी यूपीए सरकार नाकाम रही हैं। 11वीं योजना का प्रारुप इसका सबूत है। इसमें कृषि संकट से निपटने को प्राथमिकता देने की बात कही गयी है। लेकिन तथ्य यह है कि कृषि संकट का सीधा संबंध उदारीकरण की अर्थनीति से है जिसके तहत न सिर्फ कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गयी, सब्सिडी कटौती के नाम पर बिजली-पानी-खाद-कीटनाशकों की कीमतें बेतहाशा बढ़ायी गयीं बल्कि किसानों को सस्ते कृषि उत्पादों के आयात से मुकाबले के लिए अकेला छोड़ दिया गया।

ऐसे में 11वीं योजना से यह उम्मीद थी कि वह कृषि संकट से निपटने के लिए वैकल्पिक उपायों का प्रस्ताव करेगा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वह न सिर्फ पिटे-पिटाए उपायों को ही नई शब्दावली में फिर पेश करता है बल्कि कृषि संकट से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल देता है। इसी तरह, 11वीं योजना के दौरान रोजगार के 7 करोड़ नए अवसर पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन सारी उम्मीद निजी क्षेत्र से हैं। इस तरह से कोई 27 राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो मौजूदा नीतियों, कार्यक्रमों की रफ्तार और दिशा को देखते हुए आकाशकुसुम से दिखते हैं। जैसे 2012 तक 24 घंटे बिजली की उपलब्धता और सभी गांवों को ब्राडबैंड से जोड़ने का दावा। साफ है, आप चाहें तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने 11 वीं योजना के दस्तावेज में भी देख सकते हैं।

मंगलवार, दिसंबर 18, 2007

समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण का बढ़ता खतरा...

यह लोकतंत्र के लिए जरूरी विविधता और बहुलता के लिए खतरे की घंटी है

लंबे अरसे बाद भारतीय समाचारपत्र उद्योग में इन दिनों काफी हलचल है। समाचारपत्र उद्योग में इस बीच कई ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिनके कारण यह उद्योग एक बार फिर चर्चाओं में है। बीच के दौर में टेलीविजन और इंटरनेट के तीव्र विस्तार के कारण समाचारपत्र उद्योग फोकस में नहीं रह गया था। लेकिन पिछले साल से समाचारपत्र उद्योग में खासकर बड़े समाचारपत्र समूहों के विस्तार के कारण गतिविधियां काफी तेज हो गई हैं। न सिर्फ समाचारपत्रों के नए संस्करण शुरू हो रहे हैं और उनके बीच प्रतियोगिता तीखी होती जा रही है बल्कि समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में भी महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई पड़ रहा है।

इस सिलसिले में समाचारपत्र उद्योग में उभर रही कुछ महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों पर गौर करना जरूरी है। समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे प्रतिस्पर्द्धा तीखी होती जा रही है, वैसे-वैसे छोटे और मंझोले अखबारों के लिए अपना अस्तित्व बचाना कठिन होता जा रहा है। कुछ महीने पहले देश के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह) ने कन्नड के जानेमाने अखबार "विजय टाइम्स" को खरीद लिया। ऐसी अपुष्ट खबरें हैं कि झारखंड का एक बड़ा और अपनी अलग पहचान के लिए मशहूर समाचारपत्र "प्रभात खबर" भी बिकने के लिए तैयार है। उसे खरीदने के लिए देश के कई बड़े अखबार समूह कतार में हैं। हालांकि इन दो घटनाओं के आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है लेकिन इससे एक निश्चित प्रवृत्ति का संकेत जरूर मिलता है।

पूंजीवादी समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। दुनिया के अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में यह पहले ही हो चुका है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और जैसे बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को हजम कर जाती हैं, वैसे ही बड़े अखबार समूह छोटे और मंझोले अखबारों को खा जाते हैं। हालांकि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में यह प्रवृत्ति अभी सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति नहीं है लेकिन यह आशंका लंबे अरसे से प्रकट की जा रही है कि जैसे-जैसे समाचारपत्र उद्योग में बड़ी और विदेशी पूंजी का प्रवेश बढ़ रहा है, प्रतिस्पर्द्धा तीखी हो रही है, वैसे-वैसे छोटे समाचारपत्रों के लिए अपने अस्तित्व को बचा पाना मुश्किल होता जाएगा।

हाल की घटनाओं से यह आशंका पुष्ट हुई है। क्या इसका अर्थ यह है कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में भी कंसोलिडेशन की प्रक्रिया शुरू हो गई है ? क्या समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का खतरा बढ़ रहा है ? इसका अभी कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इस प्रश्न पर मीडिया उद्योग के विशेषज्ञों के बीच सहमति नहीं है। बहुतेरे ऐसे मीडिया विशेषज्ञ हैं जो यह मानते हैं कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का कोई खतरा नहीं है। उनके अनुसार भारत की भाषाई और क्षेत्रीय विविधता और बहुलता ऐसे किसी भी संकेन्द्रण और एकाधिकार के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी है।

इन मीडिया विशेषज्ञों का तर्क है कि देश के अधिकांश राज्यों की अलग-अलग भाषाओं और क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण किसी एक या दो मीडिया कंपनियों के लिए यह संभव नहीं है कि वे सभी भाषाओं में अखबार निकालें और पूरे बाजार पर कब्जा कर लें। भारत में समाचारपत्र उद्योग के विकास पर निगाह डाले तो वह इस तर्क की पुष्टि करता है। भारतीय समाचारपत्र उद्योग में क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों का बढ़ता दबदबा इसका प्रमाण है।
 
पिछले कुछ दशकों में साक्षरता, तकनीक, उपभोक्तावाद और राजनीतिक जागरूकता के विकास का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी ताकत और हैसियत में लगातार इजाफा किया है। आज लगभग हर प्रमुख भाषा में क्षेत्रीय अखबार समूहों का दबदबा है। इस दबदबे को बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूह चुनौती नहीं दे पाए और पिछले कुछ वर्षों में इन क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपना कद राष्ट्रीयस्तर तक बढ़ा लिया है। इनमें से कई समूह आज बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूहों को चुनौती दे रहे हैं।
ये तथ्य अपनी जगह पूरी तरह सही है। लेकिन इनसे सिर्फ अबतक के विकास का पता चलता है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग ने अपने विकास का एक वृत्त पूरा कर लिया है। यहां से आगे उसकी विकासयात्रा की दिशा पहले की तरह नहीं होगी, यह तय है। ऐसा कहने के पीछे कई ठोस तथ्य और तर्क हैं।
 
दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में आ रहे परिवर्तनों को देश के आर्थिक ढांचे में आ रहे परिवर्तनों के संदर्भ में देखने की जरूरत है। 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से भारतीय अर्थतंत्र में बड़ी देशी और विदेशी पूंजी का दबदबा बढ़ा है। भारतीय उद्योगों का कारपोरेटीकरण हुआ है। जाहिर है कि इसका असर भारतीय समाचारपत्र उद्योग पर भी पड़ा है।
 
आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के तहत देशी अखबारों में 26 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत को एक बड़ी घटना माना जाना चाहिए। इस फैसले का शुरू में लगभग सभी बड़े और छोटे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूह विरोध कर रहे थे। लेकिन कुछ साल पहले कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों को छोड़कर कई बड़े और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूहों ने विदेशी पूंजी को इजाजत देने का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके बाद समाचारपत्र उद्योग में बड़ी देशी पूंजी के साथ-साथ बड़ी विदेशी पूंजी का प्रवेश हुआ है। इससे समाचारपत्र उद्योग में कई परिवर्तन हुए हैं।
 
भाषाई और क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपने छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर निकलकर व्यावसायिक जोखिम उठाना, प्रबंधन को प्रोफेसनल हाथों में सौपना, मार्केटिंग के आधुनिक तौर तरीकों को अपनाना और ब्राडिंग पर जोर देना शुरू कर दिया है। उनमें शेयर और पूंजी बाजार से पूंजी उठाने या विदेशी पूंजी से हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं रह गई है। कई क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों ने कारपोरेटीकरण के जरिए अपना पूरा कायांतरण कर लिया है। हिंदी के दो अखबार समूहों-जागरण और भाष्कर, जो पाठक संख्या के मामले में देश के पहले और दूसरे नंबर के अखबार हैं, ने आधुनिक और व्यावसायिक प्रबंधन और मार्केटिंग के तौर-तरीकों को अपनाने में गजब की आक्रामकता दिखाई है।
 
जागरण भाषाई समाचारपत्र समूहों में पहला ऐसा समूह है जिसने आर्थिक उदारीकरण के बाद अपने पुराने स्टैंड से पलटते हुए सबसे पहले आयरलैंड के इंडिपेडेंट न्यूज एंड मीडिया समूह से डेढ़ सौ करोड रूपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आमंत्रित किया। यही नहीं, वह हिंदी का पहला और भारतीय भाषाओं का भी संभवत: पहला समाचारपत्र है जो आईपीओ लेकर पूंजी बाजार में आया। आज जागरण प्रकाशन शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी है जिसका बाजार पूंजीकरण (मार्केट कैप) 1789 करोड रूपये है। विदेशी और शेयर बाजार की पूंजी ने जागरण समूह को कानपुर के एक छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर एक कारपोरेट कंपनी के रूप में खड़ा कर दिया है।

निश्चय ही समाचारपत्र घरानों का शेयर बाजार में आना और विदेशी पूंजी के साथ हाथ मिलाना हाल के वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में हुआ सबसे बड़ा परिवर्तन है। हालांकि यह परिवर्तन अभी तक हिंदी के जागरण समूह के अलावा हिंदुस्तान टाइम्स, डेक्कन क्रानिकल और मिड डे समूह तक ही पहुंचा है। लेकिन इसका समाचारपत्र उद्योग पर गहरा असर पड़ा है। इससे उद्योग में प्रतियोगिता तीखी हुई है और होड़ में आगे रहने के लिए समाचारपत्र समूह न सिर्फ अपने क्षेत्रीय/स्थानीय वर्चस्व के क्षेत्र से बाहर निकलने और फैलने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि एक दूसरे के वर्चस्व के क्षेत्र में घुसकर चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं, कई अखबार समूह मीडिया के नए क्षेत्रों जैसे- टीवी, रेडियो, इंटरनेट में घुसने और पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं तो कई समूह अपने ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबले के लिए आपस में हाथ मिलाते और गठबंधन करते दिख रहे हैं।

इस सब के कारण कुछ अखबार समूह पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं जबकि कुछ अन्य अखबार समूह कमजोर हुए हैं। उदाहरण के लिए समाचारपत्र उद्योग में जहां टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भाष्कर, डेक्कन क्रानिकल, आनंद बाजार आदि ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है वहीं कई बड़े, मझोले और छोटे समाचारपत्र समूहों-आज, देशबंधु, नई दुनिया, पायनियर, इंडियन एक्सप्रेस, स्टेटसमैन, अमृत बाजार आदि को होड़ में टिके रहने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। यही नही, कुछ और बड़े अखबार समूहों- अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (मध्यप्रदेश), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस आदि पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है।

दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में अपने राजस्व के लिए विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता के कारण छोटे और मझोले समाचारपत्रों के साथ-साथ कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों के लिए भी खुद को प्रतिस्पर्धा में टिकाए रख पाना मुश्किल होता जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि अखबारों के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय और विज्ञापन आय के बीच का संतुलन पूरी तरह से विज्ञापनों के पक्ष झुक गया है। बड़े अंग्रेजी अखबारों में विज्ञापन आय कुल राजस्व का 85 से लेकर 95 फीसदी तक हो गई है। जबकि भाषाई समाचारपत्रों के राजस्व में विज्ञापनों का हिस्सा 65 से 75 फीसदी तक पहुंच गया है। आज बिना विज्ञापन के अखबार या पत्रिका चलाना संभव नहीं रह गया है।

लेकिन विज्ञापन देनेवाली कंपनियां और विज्ञापन एजेंसियां विज्ञापन देते हुए किसी उदारता के बजाय उन्हीं बड़े अखबारों और मीडिया समूहों को पसंद करती हैं जिनके पाठक अधिक हों और वे उच्च और मध्यवर्ग से आते हों। असल में, समाचारपत्र उद्योग में एक 'तीन का नियम` (रूल ऑफ थ्री) चलता है। जिसे सबसे पहले एमोरी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगदीश सेठ ने पेश किया था।
 
इस नियम के अनुसार अधिकतर स्थानीय/क्षेत्रीय बाजारों में नम्बर एक अखबार (गुणवत्ता नहीं बल्कि पाठक/प्रसार संख्या के आधार पर) राजस्व और मुनाफे का बड़ा हिस्सा उडा ले जाता है। दूसरे नंबर का अखबार भी संतोषजनक मुनाफा कमा लेता है जबकि तीसरे नंबर का अखबार किसी तरह ब्रेक इवेन यानि थोड़ा बहुत मुनाफा बना पाता है। इन तीन के अलावा बाकी सभी अखबार व्यावसायिक रूप से घाटा झेलते हैं। वे तभी चल सकते हैं जब उनका कोई और संस्करण मुनाफा कमा रहा हो या किसी और व्यावसाय से उसकी भरपाई हो रही हो।
गौरतलब है कि वर्ष 2005 में देश के सभी समाचारपत्रों को मिलनेवाला कुल विज्ञापन राजस्व 7,929 करोड रूपये तक पहुंच गया। यह 1980 में मात्र 150 करोड रूपये था और उस समय कुल राजस्व में प्रसार और विज्ञापन आय का हिस्सा 50-50 फीसदी था। लेकिन आज समाचारपत्र उद्योग में विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता का नतीजा यह हुआ है कि छोटे, मंझोले और वैसे बड़े अखबारों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है जो किसी शहर या क्षेत्र में पहले या दूसरे या अधिक से अधिक तीसरे नंबर के अखबार नहीं हैं।
 
इस तरह से हर क्षेत्र में दो या तीन अखबार ही प्रतियोगिता में रह गए हैं। प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अखबार समूह के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिए क्योंकि पाठकों को आकर्षित करने के लिए मार्केटिंग के आक्रामक तौर-तरीकों पर काफी पैसा बहाना पड़ रहा है।

लेकिन जो अखबार समूह विज्ञापनों से पर्याप्त पैसा नहीं कमा रहा है और पहले तीन में नहीं है तो उसके लिए ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला करना लगातार कठिन होता जा रहा है। छोटे और मंझोले अखबार समूहों के लिए बड़े समाचारपत्र समूहों से कीमतों में कटौती (प्राइसवार) और मुफ्त उपहार आदि का मुकाबला करना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि वे विज्ञापनों से उतनी कमाई नहीं कर रहे हैं और वे अपनी आय के लिए पाठको पर निर्भर होते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे बड़ी देशी विदेशी पूंजी का दबाव बढ़ता जाएगा, छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर होते जाएंगे। जैसे एक क्षेत्र या बाजार में दो या तीन अखबार समूहों का वर्चस्व होगा, वैसे ही राष्ट्रीयस्तर पर भी धीरे-धीरे अधिग्रहण और विलयन (एक्वीजीशन और मर्जर) के जरिए दो-तीन बड़े समाचारपत्र समूह उभरकर आएंगे।

विज्ञापनों पर निर्भरता का एक नतीजा यह भी हुआ है कि समाचारपत्रों में विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए होड़ शुरू हो गई है। एक तरह से विज्ञापनदाता समाचारपत्रों को निर्देशित कर रहें हैं कि उन्हें किस तरह का अखबार निकालना चाहिए। इस कारण अधिकतर सफल अखबार एक-दूसरे की कॉपी बन गए हैं। इस तरह समाचारपत्रों के बीच बढ़ती प्रतियोगिता के बावजूद उनके बीच की विविधता खत्म होती जा रही है। व्यावसायिक रूप से सफल सभी समाचारपत्रों में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। आखिर टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में क्या फर्क है ? इसी तरह भाष्कर और दैनिक जागरण के बीच का फर्क मिटता जा रहा है।

जाहिर है कि इससे भारतीय समाचारपत्र उद्योग में मौजूदा विविधता और बहुलता की स्थिति खतरे में पड़ती जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है। किसी भी लोकतंत्र की ताकत उसके मीडिया की विविधता और बहुलता पर निर्भर करती है। नागरिकों के पास सूचना और विचार के जितने विविधतापूर्ण और अधिक स्रोत होंगे, वे अपने मताधिकार का उतना ही बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। यही कारण है कि अधिकांश विकसित पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में मीडिया में संकेन्द्रण और एकाधिकार की स्थिति को रोकने के लिए क्रॉस मीडिया होल्डिंग को लेकर कई तरह की पाबंदियां हैं।
 
भारत में अब तक ऐसा कोई कानून नहीं है। बड़े मीडिया समूह ऐसे कानून का विरोध करते रहे हैं। लेकिन भारतीय समाचारपत्र उद्योग में जिस तरह से कुछ बड़े अखबार समूहों का दबदबा बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए ऐसे कानून के बारे में विचार करने का समय आ गया है। यही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनजर समाचारपत्र उद्योग में घटती विविधता और बहुलता पर विचार करने का समय भी आ गया है।

एक कदम आगे दो कदम पीछे...

ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार प्रगतिशील और जनहित से जुड़े मामलों में एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलने की आदी हो गई है। इस तरह वह घूम-फिरकर जहां से चली थी, उससे पीछे पहुंचती दिख रही है।
 
ताजा मामला सूचना के अधिकार कानून से जुड़ा हुआ है। मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों के दबाव में सूचना के अधिकार कानून में संशोधन कर फाइलों पर की जाने वाली नोटिंग को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करने का फैसला किया है। इस संशोधन के बाद अब केवल विकास और सामाजिक मामलों से जुड़ी फाइलों की नोटिंग ही सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध होगी। इस तरह सरकार ने एक ही झटके में महत्वपूर्ण मामलों में नीति निर्णय की प्रक्रिया को एक बार फिर गोपनीयता के पर्दे में बंद कर नौकरशाही को मनमानी करने की खुली छूट दे दी है।

निश्चय ही, इस फैसले से सूचना के अधिकार की आत्मा को गहरा धक्का लगा है और भ्रष्ट तंत्र में इसका बहुत गलत और नकारात्मक संदेश जाएगा। अफसोस की बात यह है कि लोकतंत्र की दुहाइयां देनेवाली यूपीए सरकार ने यह फैसला करने से पहले न तो केन्द्रीय सूचना आयोग से सलाह-मशविरा किया और न ही उन जन संगठनों को विश्वास में लिया जो सूचना के अधिकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकप्रिय हथियार बनाने में सक्रिय हैं। हैरत की बात यह है कि यूपीए सरकार का यह फैसला केन्द्रीय सूचना आयोग के इस साल 31 जनवरी के उस निर्णय के बाद आया है जिसमें उसने फाइलों पर की जानेवाली नोटिंग को सूचना के अधिकार के तहत मुहैया कराने को कहा था।

वैसे यह बात किसी से छुपी नहीं थी कि नौकरशाही शुरू से न सिर्फ इस प्रावधान का खुलकर विरोध कर रही थी बल्कि उसने सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी हर संभव कोशिश की कि फैसलों और नीति निर्णयों से संबंधित फाइलों पर की जानेवाली टिप्पणियों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाए। लेकिन इस मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग के प्रतिकूल फैसले के बाद नौकरशाही और राजनेताओं के भ्रष्ट गठजोड़ ने मनमोहन सिंह सरकार को बाध्य कर दिया कि वह सूचना के अधिकार कानून के लागू होने के दस महीनों के अंदर ही कानून में संशोधन करके उसे निरर्थक बनाने पर तुल गई है।

दरअसल, नौकरशाही सूचना के अधिकार के कानून की बढ़ती लोकप्रियता और बड़े पैमाने पर जनसंगठनों और नागरिको की ओर से सूचनाओं की मांग और उनकी सक्रियता से घबरा गई है। ऐसा लगता है कि स्वयं यूपीए सरकार को यह कानून बनाते हुए यह उम्मीद थी कि लोग इसका बहुत कम इस्तेमाल करेंगे और कुल मिलाकर यह एक दिखावटी कानून होगा। लेकिन उसकी यह सोच गलत साबित हुई। हालांकि अभी वह इस कानून के कारण किसी बड़ी मुसीबत में नहीं फंसी है लेकिन लोगों की सक्रियता के कारण इसके आसार जरूर पैदा हो गए थे।
 
बोफर्स मामले में अरूण जेतली ने सूचना के अधिकार के तहत क्वात्रोकी से जुड़ी कुछ सूचनाएं मांगी थी। इसी तरह नागरिक संगठनों ने गुजरात नरसंहार के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच हुए पत्र व्यवहार को सार्वजनिक करने की मांग की हुई थी। जाहिर है कि यह तो शुरूआत थी और नौकरशाही को यह भय होने लगा था कि आने वाले दिनों में ऐसी सूचनाओं की मांग बढ़ेगी और उसे नकारना मुश्किल होगा।

कहने की जरूरत नहीं है कि किसी भी निर्णय तक पहुंचने या किसी नीति को बनाने की प्रक्रिया में शामिल नौकरशाहों और मंत्रियों ने क्या कहा या टिप्पणी की, यह जानना बहुत जरूरी है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ही अधिकारी और मंत्री मनमानी और अनियमितता बरतते हैं। फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के अधिकार के तहत खोलने से अधिकारियों और मंत्रियों की जवाबदेही तय करना और उस पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना आसान हो जाता। इसके जरिए ही किसी अधिकारी के फैसलों या कोई फैसला न लेने और अनिर्णय की जिम्मेदारी तय की जा सकती है। जाहिर है कि फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के दायरे से बाहर करके सूचना के अधिकार को एक तरह से बेमानी बना दिया गया है। 

आखिर फाइलों पर की गई नोटिंग को गोपनीय बनाकर और सिर्फ फैसले को सूचना के अधिकार के तहत सार्वजनिक करने का क्या अर्थ है ? इससे तो किसी अधिकारी या मंत्री की जवाबदेही नहीं तय हो सकती है। अब कोई नागरिक किसी सरकारी विभाग या अफसर से यह सवाल कैसे पूछ सकता है कि फलां काम क्यों नहीं हुआ या किस कारण उसमें देर हुई या हो रही है?
 
साफ है कि इस अधिकार के बिना सूचना के अधिकार का कानून नखदंतविहीन हो गया है। जिन लोगों को उम्मीद थी कि सूचना का अधिकार सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, काहिली और अनियमितताओं पर रोक लगाने का एक सशक्त हथियार साबित होगा, उन्हें यूपीए सरकार के इस फैसले से निश्चय ही बहुत निराशा होगी। इस फैसले से साफ हो गया है कि मनमोहन सिंह सरकार जिस सुशासन और उसके लिए जरूरी पारदर्शिता की दुहाइयां देती रहती है, उसके प्रति उसकी प्रतिबद्धता किस हद तक है ?

इस मामले में यूपीए सरकार का यह तर्क न सिर्फ खोखला बल्कि तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया तर्क है कि अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में भी सूचना के अधिकार के तहत फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के दायरे से बाहर रखा गया है। तथ्य यह है कि अमेरिका में फैसलों और नीतियों पर पहुंचने की प्रक्रिया में की गई टिप्पणियों को केवल तब तक सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है, जब तक कि फैसला नहीं हो जाता। फैसला हो जाने के बाद उसे सार्वजनिक किया जा सकता है। इसी तरह आस्ट्रेलिया में भी केवल उन्हीं सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया जाता जिसके बारे में एजेंसी यह साबित कर दे कि यह जानकारी सार्वजनिक हित में नहीं है और यह किसी व्यक्ति के निजी या बिजनेस से संबंधित मामला है।

यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि सूचना के अधिकार के जिस कानून को यूपीए सरकार ने इतने धूमधाम के साथ पेश किया और उसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताती रही है, उसे ही वह सालभर से भी कम समय में खत्म करने पर तुल गई है। इससे उसकी असलियत सामने आ गई है। उसने अपने को प्रगतिशील और ईमानदार सरकार की तरह पेश करने की कोशिश की लेकिन जैसे ही उसकी प्रगतिशीलता भ्रष्ट तंत्र के लिए चुनौती बनने लगी, उसने प्रगतिशीलता और पारदर्शिता के लबादे को उतार फेंकने में समय बिलकुल नहीं लगाया। 

वैसे भी सूचना का अधिकार कानून बनाने के बावजूद उसके प्रति यूपीए सरकार की प्रतिबद्धता हमेशा ही संदेह के घेरे में रही है। उसने और अन्य राज्य सरकारों ने शुरू से ही इस कानून को लागू करने में जिस तरह से लगातार अडचने पैदा कीं, उससे साफ था कि पारदर्शिता का यह ढोंग बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला है।
 
क्या यह हैरत की बात नहीं है कि कानून लागू होने के दस महीनों बाद भी कई राज्यों में सूचना आयोग के गठन का काम अधूरा है। इसी तरह सभी लोक प्राधिकरणों में जनसूचना अधिकारी की नियुक्ति नहीं की गई है जिसके कारण नागरिकों को सूचना हासिल करने में अब भी काफी मुश्किल हो रही है। यही नहीं इस कानून की धारा 4(1) (ख) के तहत विभिन्न सूचनाओं को स्वत: सार्वजनिक करने का काम भी नहीं किया जा रहा है।
 
यही हाल रहा तो सूचना का अधिकार एक मजाक बनकर रह जाएगा। यूपीए सरकार शायद यही चाहती है।

बुधवार, नवंबर 28, 2007

आनंद प्रधान आईआईएमसी लौटे...

मित्रों,
 
हमारे प्रिय शिक्षक डॉ. आनंद प्रधान भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) लौट गए हैं.
 
इससे पहले भी वे लंबे समय तक आईआईएमसी में अपनी सेवा दे चुके हैं.
 
खास बात यह है कि इस बार वे बतौर एसोसिएट प्रोफेसर नियमित सेवा के तहत आईआईएमसी आए हैं.
 
आज बुधवार, 28 नवंबर को आनंद सर ने कार्यभार संभाल लिया.
 
आपको याद ही होगा कि आनंद सर ने इसी साल की पहली अगस्त से गुरु गोविन्द सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग को बतौर व्याख्याता ज्वाईन किया था.
 
आनंद सर की वापसी पर आपको और सर को बधाईयाँ....

सोमवार, नवंबर 12, 2007

अरबपतियों और करोड़पतियों पर मेहरबान लक्ष्मी

इस दीपावली पर ऐसा लगता है कि लक्ष्मी देश पर पूरी तरह से मेहरबान हो गई हैं। शेयर बाजार का सेंसेक्स रोज नई उचाईंयां छू रहा है। अर्थव्यवस्था की विकास दर नौ फीसदी से ऊपर चल रही है। निर्यात तेजी से बढ़ रहा है। देश के विदेशी मुद्रा भंडार में 150 अरब डॉलर से अधिक की रिकॉर्ड विदेशी मुद्रा जमा हो गई है। इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि डॉलर के मुकाबले रूपए की कीमत लगातार बढ़ रही है।

दूसरी ओर, शॉपिंग मॉल देशी-विदेशी ब्रांडेड सामानों से भरे पड़े हैं और बाजार में खरीददार एक-दूसरे के कंधे छील रहे हैं। गुलाबी अखबारों में रोज भारत की आर्थिक कामयाबी की शानदार कहानियां छप रही हैं। अखबारों और आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत की प्रगति की यही रफ्तार बनी रही तो अगले कुछ वर्षों में लोग यह भूल जाएंगे कि भारत एक गरीब देश है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि लक्ष्मी सचमुच भारत पर मेहरबान हो गई हैं और हमारी दरिद्रता अब अतीत की बात हो गई है?

काश यह बात सच होती। यह सच है कि भारत में न जाने कितनी शताब्दियों से लक्ष्मी की पूजा होती आई है। लेकिन हकीकत में वह अपने करोड़ों भारतवासी भक्तों पर कभी मेहरबान नहीं हुईं। अलबत्ता मुट्ठी भर भारतीयों पर उनकी उदारता हमेशा से बनी रही है। बचपन में अपने गांव में हम बच्चे अपने घर के बड़ों के साथ दीपावली की अगली सुबह मुंह अंधेरे सूप बजाते हुए घर के कमरे-कमरे में ``अइसर-पइसर दरिदर निकसे, लछमी घरवास हो`` कहते जाते और दरिदर को घर से खदेड़ने की कोशिश करते। जाहिर है कि यह सिर्फ मेरे गांव तक सीमित प्रथा नहीं थी। देश के अधिकांश गांवों में आज भी लक्ष्मी पूजा की यह या कोई और दूसरी रिवायत जारी है।

लेकिन अफसोस की बात यह है कि दरिद्रता को हटाने की हर प्रार्थना को लक्ष्मी ने लगभग अनसुना कर दिया है। हमारे गांवों पर लक्ष्मी की अब तक वैसी कृपा नहीं हुई है, जैसी उन्होंने देश के बड़े शहरों पर दिखाई है। इस बीच यह भी सच है कि लक्ष्मी का खुद का रूप बहुत बदल गया है। अमीरों के साथ रहते-रहते उनके चरित्र में भी ऐसा बदलाव आया है कि वे गांवों और गरीबों की झोपड़ियों से बिलकुल मुंह मोड़ चुकी हैं। यही नहीं उनका रंग भी कुछ और काला पड़ गया है।

दोहराने की जरूरत नहीं है कि उदारीकरण के पिछले दो दशकों में देश में जबरदस्त आर्थिक समृद्धि आई है। लेकिन इस समृद्धि का समुचित बंटवारा नहीं हुआ है। अमीर और अमीर हुए हैं और गरीब और गरीब। दरअसल, अगर हम उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को मिथकीय सागर मंथन से जोड़कर देखें तो एक बार फिर उदारीकरण और भूमंडलीकरण के सागर मंथन से जो भी रत्न और अमृत निकला है उसे आज के देवता यानी अमीर हड़प ले रहे हैं। जबकि इस सागर मंथन से निकला विष गरीबों के हिस्से आया है।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की सालाना मानव विकास रिपोर्ट, 2006 के अनुसार भारत में आर्थिक विषमता और गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के सबसे गरीब दस प्रतिशत लोगों को देश की कुल आय में सिर्फ 3.9 फीसदी हिस्सा मिलता है। लेकिन दूसरी ओर देश के सर्वाधिक अमीर दस प्रतिशत आबादी की झोली में देश की कुल आय का 28.5 प्रतिशत हिस्सा चला जाता है। इसी तरह देश की सर्वाधिक गरीब 20 प्रतिशत आबादी को देश की कुल आय में से सिर्फ 8.9 फीसदी में अपना काम चलाना पड़ता है जबकि देश की सर्वाधिक अमीर 20 प्रतिशत आबादी देश की की कुल आय का  43.3 प्रतिशत हिस्सा ले उड़ती है।

साफ है कि लक्ष्मी किन लोगों पर मेहरबान हैं। गांधी जी ने आजादी की लड़ाई के दौरान वॉयसराय को मिलने वाली तनख्वाह पर यह कहते हुए सवाल उठाया था कि एक आम भारतीय की तुलना में वॉयसराय की आमदनी पांच हजार गुना अधिक कैसे हो सकती है? लेकिन आजाद भारत में एक आम भारतीय और एक सबसे अमीर भारतीय की आमदनी के बीच का यह फर्क लगातार बढ़ता जा रहा है। आज गांधीजी होते तो यह कहना मुश्किल है कि वे इन खबरों पर किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करते कि आज भारत में एक आम आदमी की आय और सबसे अमीर आदमी की आय के बीच नब्बे लाख गुने का अंतर आ चुका है।

सच पूछिए तो लक्ष्मी की वास्तविक कृपा इस देश के अरबपतियों और करोड़पतियों पर हुई है। गुलाबी अखबारों में आए दिन भारत के अरबपतियों और करोड़पतियों की बढती तादाद पर खबरें छपती रहती हैं। अरबपतियों और करोड़पतियों की बढ़ती संख्या और उसकी वृद्धिदर के मामले में भारत एशिया के तमाम देशों को पीछे छोड़ चुका है। उनकी संख्या हर साल अर्थव्यवस्था की विकास दर से भी दोगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। लेकिन यूएनडीपी का कहना है कि अरबपतियों और करोड़पतियों के साथ देश में गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। देश की लगभग 80 फीसदी आबादी आज भी प्रतिदिन 2 डॉलर से कम की आय पर अपना जीवन निर्वाह कर रही है।

असल में, अरबपतियों और करोड़पतियों के घरों में लक्ष्मी बरस रही हैं। यह आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण सभव हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1987-88 से 1999-2000 के बीच देश के सबसे अमीर 0.1 प्रतिशत हिस्से की आय में 285 फीसदी की वृद्धि हुई है और वह सालाना लगभग 1,60,000  डॉलर प्रति व्यक्ति तक पहुंच गई है। पिछले पांच वर्षों में यह प्रक्रिया और सघन हुई है। शेयर बाजार से लेकर कमोडिटी बाजार तक जो बूम दिखाई पड़ रहा है, उसका लाभ कुल आबादी के मुश्किल से चार से पांच फीसदी लोगों को मिला है। उनके लिए यह दीवाली है लेकिन बाकी लोगों के लिए यह दीवाला है।
 
इसे देखकर ऐसा लगता है कि लक्ष्मी अमीरों के घरों में कैद हो गई हैं। इस लक्ष्मी का रंग काला है। यह तथ्य है कि देश में काले धन में लगातार वृद्धि हो रही है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण और कर सुधारों के समर्थकों का दावा था कि जैसे-जैसे आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, देश में काला धन कम होता चला जाएगा। लेकिन सच यह है कि 1983 में देश में कुल काले धन का अनुमान लगभग 36,786 करोड़ रूपए का था जो आज बढ़कर लगभग 9 लाख करोड़ रूपए तक पहुंच गया है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में हर साल जीडीपी के 40 फीसदी के आसपास काला धन पैदा होता है।

यही वह काला धन है जो शॉपिंग मॉल्स में चमकता और बिखरता हुआ दिखाई पड़ता है। यह यूं ही नहीं है कि देश में अचानक दुनिया भर के सभी लक्जरी ब्रांडों के निर्माता भागे चले आ रहे हैं। लुई वितां से लेकर पोर्श कार तक दुनिया का कोई भी ऐसा लक्जरी ब्रांड नहीं है जो आज भारत में उपलब्ध नहीं है। करोड़ों रूपए के लक्जरी फ्लैट से लेकर कारों तक के खरीददारों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार पिछले साल अमीर भारतीयों ने लगभग पचास हजार करोड़ रूपए का सोना और छह हजार करोड़ रूपए के हीरे खरीदे। कहने की जरूरत नहीं है कि सोना, हीरा और दूसरे सभी लक्जरी ब्रांड्स काले धन को छुपाने और खर्चने के सबसे आसान रास्ते हैं।

निश्चय ही, इस दीपावली पर देश के बड़े महानगरों में पिछले साल की तुलना में कुछ ज्यादा रोशनी होगी और पटाखे छूटेंगे। जिनपर लक्ष्मी मेहरबान हुई हैं, उनके घरों में कुछ ज्यादा जोर-शोर से लक्ष्मी की आरती भी होगी। लेकिन उसी समय देश के एक बड़े हिस्से में जहां आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंची है और जिधर का रास्ता खुद लक्ष्मी भूल चुकी हैं, वहां अंधकार और गहरा होगा। लोगों में बेचैनी होगी। पटाखे तो नहीं लेकिन कुछ और युवाओं के हाथ में कट्टे और बम होंगे। इस तरह इस दीपावली पर एक बार फिर इंडिया और भारत के बीच का फासला थोड़ा और बड़ा हो जाएगा।

दुर्घटना को जानलेवा बनने से रोके सेबी

तेजी से कुलांचे भर रहा शेयर बाजार उसी तेजी से लुढ़कने लगा है। मुंबई शेयर बाजार के जिस संवेदी सूचकांक को 18,000 अंकों से रिकार्ड 19,000 अंकों तक पहुंचने में सिर्फ चार दिन लगे, वह पिछले शुक्रवार तक सिर्फ तीन दिनों में 1,942 अंक लुढ़ककर 17,560 अंकों पर बंद हुआ। जाहिर है कि शेयर बाजार में घबराहट, अस्थिरता और बेचैनी का माहौल है। हालांकि वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम से लेकर शेयर बाजार की विनियामक संस्था-सेबी तक सभी लुढ़कते बाजार को संभालने और उसे सहारा देने में जुट गए हैं लेकिन बाजार में अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है।

इस स्थिति और शेयर बाजार का माहौल बिगड़ने के लिए सेबी की जमकर लानत-मलामत हो रही है। सेबी पर आरोप है कि उसने पिछले सप्ताह भागीदारी नोट्स (पार्टिसिफेट नोट्स या पीएन) के जरिए शेयर बाजार में आ रहे विदेशी निवेश पर अंकुश लगाने के लिए जिन प्रावधानों का प्रस्ताव किया है, उसके कारण विदेशी निवेशक नाराज हैं और इससे शेयर बाजार में विदेशी निवेश का तेज प्रवाह रूक जा सकता है। जाहिर है कि इस आशंका मात्र से शेयर बाजार में थरथराहट और भूचाल सी स्थिति पैदा हो गयी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय शेयर बाजार की गहराई और उसकी मजबूती को लेकर किए जानेवाले बड़े-बड़े दावे कितने खोखले हैं और शेयर बाजार किस हद तक विदेशी निवेशकों की इच्छा और मनमर्जी पर निर्भर हो गया है।

अब सबकी निगाहें सेबी पर हैं। सेबी को इस सप्ताह यह फैसला करना है कि वह पीएन पर अंकुश लगाने के अपने प्रस्ताव को कड़ाई और ईमानदारी से अमली जामा पहनाने के लिए तैयार है या नहीं? जाहिर है कि सेबी बहुत दबाव में है। सेबी के प्रस्ताव मात्र पर शेयर बाजार खासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) की जैसी तीखी प्रतिक्रिया आई है, उसे अगर चेतावनी माना जाए तो साफ है कि सेबी के फैसले के साथ एक बड़ा जोखिम जुड़ा हुआ है। पीएन पर रोक की स्थिति में शेयर बाजार  में गिरावट जरूर आएगी क्योंकि इस फैसले के कारण न सिर्फ विदेशी निवेश का प्रवाह का धीमा हो या थम जा सकता है। बल्कि यह भी संभव है कि अब तक पीएन के जरिए शेयर बाजार में आए विदेशी निवेश का एक हिस्सा वापस लौट सकता है।

इससे शेयर बाजार में गिरावट का दौर शुरू हो सकता है। सेबी इस आशंका से अधिक परेशान और चिंतित है कि बाजार में घबराहट और भगदड़ का ऐसा माहौल न बन जाए कि एक-दूसरे की देखा-देखी सभी बिकवाली पर उतर आएं और बाजार पूरी तरह से मंदड़ियों के कब्जे में चला जाए। दरअसल, सेबी किसी भी कीमत पर यह स्थिति नहीं आने देना चाहती है। यही कारण है कि पीएन पर अंकुश या रोक के मामले में उसके रुख में काफी नरमी दिख रही है। सेबी की मुश्किल यह भी है कि शुरू में पीएन के मुद्दे पर सेबी के प्रस्तावों के प्रति समर्थन जाहिर कर चुके वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम भी बाजार के डेढ़ हजार अंकों से अधिक का गोता लगाते ही सुर बदलकर पीएन का पक्ष लेने लगे हैं।

ऐसे में, सेबी के लिए पीएन पर अंकुश या रोक लगाने का फैसला करना आसान नहीं रह गया है। असल में, वित्त मंत्री से लेकर शेयर बाजार के ताकतवर खिलाड़ियों तक कोई नहीं चाहता है कि चढ़ते हुए शेयर बाजार के साथ कोई छेड़छाड़ की जाए। आखिर चढ़ने का रिकार्ड बनाता शेयर बाजार वित्त मंत्री और उनकी सरकार के लिए एक ऐसी उपलब्धि है जिसे वह अपनी आर्थिक नीतियों की सफलता के मेडल की तरह पेश करते रहते हैं। यही कारण कि जब भी शेयर बाजार गिरने लगता है, वित्त मंत्री सारा कामधाम छोड़कर दौड़े हुए उसे संभालने और देशी-विदेशी निवेशकों को आश्वस्त करने और मनाने में जुट जाते हैं। इसलिए इस बात की बहुत कम संभावना है कि सेबी, पीएन पर रोक या अंकुश लगाने का फैसला कर पाएगी। अधिक से अधिक वह चेहरा बचाने के लिए बीच का कोई रास्ता निकालने की कोशिश कर सकती है।

लेकिन ऐसी कोई भी कोशिश लीपापोती और उससे अधिक विदेशी पूंजी के आगे घुटने टेकने और नीति निर्णय की प्रक्रिया को पूरी तरह से उसके हाथों में गिरवी रख देने की तरह होगी। दरअसल, पीएन के मुद्दे पर अब बीच का कोई रास्ता नहीं है। इस मुद्दे पर सेबी को या तो अब आगे बढ़कर अपने प्रस्तावों पर अमल करना होगा या फिर पीछे हटना होगा। इसमें बीच का रास्ता इसलिए नहीं है क्योंकि पीएन के मुद्दे पर सेबी के प्रस्तावित कदम पहले ही बीच के रास्ते के तौर पर पेश किए गए है। वे पीएन के रास्ते आ रहे विदेशी निवेश को पूरी तरह से बंद करने के बजाय उसे एक सीमा में रखने और उसके प्रवाह की गति को थोड़ा धीमा करने के प्रस्ताव हैं सेबी अगर इस बीच के रास्ते को भी लागू करने में नाकाम रहती है तो शेयर बाजार के विनियामक (रेग्यूलेटर) के बतौर उसकी रही-सही साख भी दांव पर लग जाएगी।

लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि पीएन के मुद्दे पर सेबी और वित्त मंत्रालय के पैर पीछे खींचने के कारण शेयर बाजार के बड़े देशी-विदेशी खिलाड़ियों को खुलकर खेलने की छूट मिल जाएगी। इससे थोड़े समय के लिए शेयर बाजार में भले ही सब कुछ सामान्य हो जाए लेकिन दूरगामी तौर पर यह उस जोखिम से कहीं बड़ा जोखिम और खतरा साबित होगा जो सेबी के पीएन पर अंकुश लगाने के साथ जुड़ा हुआ है। तथ्य यह है कि पीएन के जरिए आ रहा विदेशी निवेश न सिर्फ शेयर बाजार की स्थिरता और सेहत के लिए बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गया है। मनमोहन सिंह सरकार भी इस तथ्य से वाकिफ है। यही कारण है कि वह पीएन पर अंकुश लगाना चाहती है। सेबी ने वित्त मंत्रालय के इशारे पर ही पीएन पर अंकुश लगाने का प्रस्ताव किया था।
 
लेकिन वित्त मंत्री उन विदेशी संस्थागत निवेशकों को भी नाराज नहीं करना चाहते हैं जो पीएन के जरिए शेयर बाजार में भारी मात्रा में विदेशी निवेश ठेल रहे हैं और जिनके कारण शेयर बाजार रोज नयी ऊंचाईयां छू रहा है। चिदम्बरम की यह दुविधा नई नहीं है। पिछले तीन साल से वे इस दुविधा में फंसे हुए हैं। शुरू में यह जानते हुए भी कि पीएन के जरिए शेयर बाजार में आनेवाले विदेशी निवेश के साथ भारी जोखिम जुड़ा हुआ है, मनमोहन सिंह सरकार ने विदेशी पूंजी के प्रति अपने अगाध प्रेम और विश्वास के कारण उसे इस आधार पर प्रोत्साहित किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था की ताकत और विदेशी निवेश को पचा सकने की उसकी बढ़ती क्षमता के कारण यह कोई खास जोखिम नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार के इस नजरिए का सबूत 2005 में वित्त मंत्री के तत्कालीन आर्थिक सलाहकार अशोक लाहिरी की अध्यक्षता में गठित उस विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में भी मिलता है जिसमें रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि की लिखित आपत्ति के बावजूद पीएन को जारी रखने की सिफारिश की गयी थी।

दरअसल, पीएन के जरिए आनेवाला विदेशी निवेश शुरू से ही विवादों और सवालों के घेरे में रहा है। पीएन यानी पार्टिसिपेटरी नोट्स निवेश का एक ऐसा उपकरण या माध्यम है जो भारत में पंजीकृत विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) उन विदेशी निवेशकों को अपने सह-खाते के जरिए जारी करते हैं जो पंजीकृत न होते हुए भी भारतीय बाजार में निवेश करना चाहते हैं। पीएन को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसमें निवेशक की पहचान और इस कारण धन का स्रोत भी गोपनीय रहता है। इस कारण पीएन के जरिए आनेवाले विदेशी निवेश के वास्तविक लाभकर्ता का पता नहीं चलता। यह आशंका लंबे समय से जाहिर की जा रही है कि पीएन से जुड़ी इस गोपनीयता का लाभ न सिर्फ वे हेज फंड उठा रहे हैं जो सिर्फ तात्कालिक लाभ के लिए किसी शेयर बाजार में अल्पकालिक निवेश करते हैं बल्कि आतंकवादी तत्व, नशीले पदार्थों के कारोबारी और वे भ्रष्ट नेता, अफसर और उद्योगपति उठा रहे हैं जो हवाला के जरिए विदेशों में जमा अपनी पूंजी को शेयर बाजार में लगाकर मुनाफा कूट रहे हैं।

साफ है कि पीएन काले धन, आतंकवादी और नशीले पदार्थों के कारोबारियों और आवारा पूंजी की ऐसी कानूनी आड़ बन गया है जिसका जमकर दुरुपयोग हो रहा है। हालांकि पीएन के समर्थक इन आरोपों से इंकार करते हैं और उनकी सफाई यह है कि भारत में विदेशी संस्थागत निवेशकों के पंजीकरण की प्रक्रिया इतनी जटिल और धीमी है कि उसमें वर्षों लग जाते हैं। ऐसे में, उन विदेशी निवेशकों के पास जो भारतीय शेयर बाजार में निवेश करना चाहते हैं, पीएन के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। यह सफाई पीएन के जरिए आ रहे भारी विदेशी निवेश के एक हिस्से के लिए सही हो सकती है लेकिन उसका बड़ा हिस्सा निश्चय ही, ऐसा निवेश है जो किसी न किसी कारण से अपनी पहचान छुपाना चाहता है। आखिर वह अपनी पहचान क्यों छुपाना चाहता हैं ?

दूसरे, पीएन का इस्तेमाल वे हेज फंड भी कर रहे हैं जिनका वैध तरीके से भारतीय बाजारों में पंजीकरण संभव नहीं है क्योंकि उनके तौर-तरीकों और निवेश व्यवहार को शेयर बाजार की स्थिरता और दूरगामी हितों के अनुकूल नहीं माना जाता है। दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में वित्तीय संकट से लेकर रूस और अर्जेंटीना तक के वित्तीय संकट में हेज फंडों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है। वे अपने अस्थिर और चंचल स्वभाव के लिए बदनाम रहे हैं। वे जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए न सिर्फ शेयर बाजार में सट्टेबाजी और तमाम तरह की अनियमितताएं करने से नहीं हिचकते हैं बल्कि आमतौर किसी शेयर बाजार में जितनी तेजी से आते हैं, उससे तेज गति से निकल जाते हैं। लेकिन जब वे शेयर बाजार से निकलते हैं तो बाजार के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी वित्तीय संकट में फंसा जाते है।

पीएन को लेकर भी चिंता की वजह यही है कि कहीं हेज फंड और ऐसे ही दूसरे अपराधी-असामाजिक तत्व इसका दुरुपयोग न कर रहे हों। यह चिंता इसलिए भी और बढ़ गयी है कि पिछले तीन वर्षों में ही भारतीय शेयर बाजार में पीएन निवेश का बाजार मूल्य मार्च 2004 के 31,875 करोड़ रुपये से बढ़कर इस साल अगस्त में 3,53,484 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। सेबी के ताजा विमर्शपत्र के अनुसार, मार्च, 04 में विदेशी संस्थागत निवेशकों की कुल नियंत्रित परिसंपत्ति (एयूसी) में पीएन का हिस्सा सिर्फ 20 प्रतिशत था जो इस साल अगस्त तक बढ़कर  51.6 फीसदी से उपर पहुंच गया है। इससे पीएन की बढ़ती ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह काफी हद तक एक तो करेला, दूसरे नीम चढ़ा का मामला बनता जा रहा है। शेयर बाजार पहले से ही एफआईआई की धुन पर नाच रहा था, उस पर अब पीएन ने पूरी तरह से बाजार को 'ता-ता, थैया` करने के लिए मजबूर कर दिया है।

एफआईआई-पीएन गठजोड़ की मनमानी और मैनीपुलेशन का खुलासा खुद सेबी की उस जांच से हो जाता है जो उसने मई,04 में यूपीए सरकार के गठन की खबर के बाद शेयर बाजार में भारी गिरावट के लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान के लिए की थी। उस जांच में सेबी ने एक प्रमुख एफआईआई यूबीएस सेक्यूरिटीज को उसकी भूमिका के कारण एक साल तक पीएन कारोबार करने से रोक दिया था। लेकिन लगता है कि न तो यूपीए सरकार ने और न ही सेबी ने उस प्रकरण से कोई सबक लिया। एफआईआई पर अंकुश लगाने के बजाय पिछले कुछ महीनों में यूपीए सरकार और सेबी ने शेयर बाजार को पूरी तरह से उन्हीं के हवाले कर दिया है।
 
हालांकि इस बीच, रिजर्व बैंक लगातार सरकार को विदेशी संस्थागत निवेश खासकर पीएन निवेश की अत्यंत तेज रफ्तार को लेकर चेतावनी दे रहा है। उसकी सबसे बड़ी चिंता या सिरदर्द विदेशी निवेश के तीव्र प्रवाह को संभालने की है। डालर के भारी अन्तर्प्रवाह के कारण रिजर्व बैंक के लिए रुपए की कीमत का प्रबंधन करना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है। डालर के मुकाबले रुपए की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है।

डालर के तेज बहाव का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस साल अक्तूबर तक एफआईआई के जरिए अब तक 17.69 अरब डालर का निवेश आ चुका है जबकि पिछले वर्ष यह रकम 7.99 अरब डालर थी। अकेले अक्तूबर माह में 5.45 अरब डालर का विदेशी संस्थागत निवेश आया है। यही कारण है कि संेसेक्स सिर्फ एक महीने से भी कम समय में यानी 19 सितम्बर से 16 अक्तूबर के बीच 3,383 अंकों की भारी उछाल के साथ 15,669 अंकों से 19,052 अंकों तक पहुंच गया। बाजार विश्लेषकों का अनुमान है कि इस साल 17 अरब डालर से अधिक के एफआईआई निवेश में लगभग 60 से 70 फीसदी पीएन के जरिए आया है।

जाहिर है कि शेयर बाजार की तूफानी गति के साथ-साथ एफआईआई पीएन निवेश की बेकाबू बाढ़ ने सेबी, रिजर्व बैंक सहित वित्त मंत्रालय के भी कान खड़े कर दिए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शेयर बाजार और एफआईआई-पीएन निवेश की गति न सिर्फ असामान्य है बल्कि यह आशंका जोर पकड़ने लगी है कि शेयर बाजार में दाल में कुछ काला है। इतना तो साफ है कि शेयर बाजार जिस उंचाई पर पहुंच गया है, वह एक बुलबुले से अधिक कुछ नहीं है। यह बुलबुला एफआईआई-पीएन निवेश ने बनाया है। यह भी तय है कि आज नहीं तो कल इस बुलबुले को फूटना है।

अफसोस और हैरानी की बात यह है कि सेबी से लेकर वित्त मंत्रालय तक इस बुलबुले को बनते देखते रहे लेकिन पहले वे शेयर बाजार के रोज नए रिकार्ड बनाने पर खुशियां मनाते रहे और जब लगने लगा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो रही है तो पीएन पर अंकुश लगाने के आधे-अधूरे मन से उठाए प्रस्ताव के जरिए उसपर ब्रेक लगाने की कोशिश की जिससे दुर्घटना का खतरा पैदा हो गया है। इससे नार्थ ब्लॉक से लेकर दलाल स्ट्रीट तक घबराहट का माहौल बन गया है। अब इस दुर्घटना को टालने के लिए शेयर बाजार और एफआईआई-पीएन निवेश की ओर से आंख मूंदने की कोशिश होती दिख रही है। लेकिन इससे दुर्घटना टलनेवाली नहीं है बल्कि यह एक और बड़ी दुर्घटना को दावत है।
 
सेबी के सामने अब एक ही विकल्प है कि ब्रेक पर से पैर न हटाए और जहां तक संभव है दुर्घटना को जानलेवा बनने से रोके। पीएन पर अभी रोक नहीं लगी तो आगे भारी दुर्घटना तय है। फैसला सेबी को करना है लेकिन क्या वित्त मंत्रालय उसे ही झंडी दिखाने को तैयार है?

अमृत अमीरों के लिए, गरीबों को विष

अपने बड़े भाई मुकेश अंबानी के बाद अब अनिल अंबानी देश के दूसरे खरबपति हो गए हैं। गुलाबी आर्थिक अखबारों की तरह चाहें तो आप भी मुकेश और अनिल अंबानी की इस उपलब्धि के लिए उनकी बलैयां ले सकते हैं। अगर आप चाहें तो भारत जैसे गरीब देश में मुकेश और अनिल के रूप में दो खरबपति मिलने को एक बड़ी कामयाबी मान सकते हैं। शेयर बाजार में उछाल का मौजूदा दौर जारी रहा तो कुछ और अरबपति जल्दी ही खरबपतियों की सूची में शामिल हो जाएंगे। डीएलएफ समूह के केपी सिंह की कुल परिसंपत्तियां लगभग 85 हजार करोड़ तक पहुंच चुकी हैं और वे अगले खबरपति बन सकते हैं।

कुछ ही दिनों पहले मशहूर अमेरिकी पत्रिका ''फोर्ब्स`` की दुनियाभर के अरबपतियों की सालाना सूची में भारत के 36 डॉलर अरबपतियों के नाम छपे थे। पत्रिका के अनुसार पूरे एशिया में सबसे अधिक डॉलर अरबपति भारत में हैं जिनकी कुल परिसंपत्तियां 191 अरब डॉलर तक पहुंच चुकी हैं। लेकिन क्या सचमुच देश में पहले अरबपतियों और अब खरबपतियों की बढ़ती तादाद पर खुशियां मनाने का समय आ गया है ? आखिर अरबपतियों और खरबपतियों की बढ़ती तादाद के क्या मायने हैं ? क्या यह देश में बढ़ती समृद्धि और विकास का प्रतीक है या बढ़ती आर्थिक विषमता और असमानता का ?

अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि देश में अरबपतियों और खरबपतियों की तेजी से बढ़ती संख्या के साथ गरीबों की तादाद में उस तेजी से कमी नहीं आ रही है जिसकी आर्थिक उदारीकरण से अपेक्षा की गई थी। इस मायने में यह एक उदास करनेवाली परिघटना है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समुद्र मंथन से पिछले 15 सालों में निकले तीव्र आर्थिक विकास का अमृत अमीर पी रहे हैं जबकि गरीबों के हिस्से में एक बार फिर विष आया है। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रतिदिन एक डॉलर से कम की आय में गुजर-बसर करनेवाले लोगों की तादाद 1994 में कुल आबादी की 45 फीसदी थी जो पिछले दस सालों में घटने के बावजूद अब भी  34.3 फीसदी पर बनी हुई है।

स्वयं योजना आयोग ने स्वीकार किया है कि 1993 से 2004 के बीच गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले भारतीयों की तादाद में प्रति वर्ष सिर्फ 0.74 प्रतिशत की कमी आई है। जबकि इससे पहले 1983 से 1993-94 के बीच गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करनेवाले लोगों की तादाद में प्रति वर्ष  0.85 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले 15 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर में वृद्धि के बावजूद उसका फायदा गरीबों को नहीं मिला है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समर्थकों का यह दावा रहा है कि तीव्र आर्थिक विकासदर के साथ आनेवाली समृद्धि की बाढ़ में गरीबों की नौकाएं भी उपर आ जाती हैं।

लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। सच यह है कि जिस तेजी से कारपोरेट क्षेत्र के मुनाफे में वृद्धि हो रही है, उसकी तुलना में लोगों के वेतन में वृद्धि नहीं हो रही है बल्कि उसमें गिरावट दर्ज की जा रही है। पिछले पांच वर्षों में जीडीपी के अनुपात में कारपोरेट क्षेत्र का मुनाफा वर्ष 2002 के  3.7 प्रतिशत से उछलकर 2007 में 9.1 प्रतिशत पर पहुंच गया है जबकि वेतन जीडीपी की तुलना में 2002 के 31 फीसदी से घटकर 28.7 फीसदी रह गया है।

दोहराने की जरूरत नहीं है कि तीव्र आर्थिक विकासदर से देश में गरीबी घटने के बजाय आर्थिक विषमता और गैर बराबरी बहुत तेजी से बढ़ी है। अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण तथा समृद्ध और पिछड़े राज्यों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। विश्व बैंक ने भी स्वीकार किया है कि भारत में आय/ उपभोग पर आधारित असमानता तेजी से बढ़ रही है। इसकी वजह यह है कि हाल के वर्षों में आई समृद्धि मुख्यत: तीन क्षेत्रों- शेयर बाजार, रीयल इस्टेट और प्रोपर्टी तथा सोने तक सीमित रही है।

दुनिया की जानीमानी कंसल्टेंसी कंपनी मार्गन स्टेनली के भारतीय कार्यकारी निदेशक चेतन आहया के मुताबिक पिछले चार वर्षों में भारत की संपदा में लगभग एक खरब डॉलर से अधिक की वृद्धि हुई है। लेकिन इस संपदा वृद्धि का लाभ बहुत सीमित तबके को मिला है। आहया के अनुसार भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण मार्च 2003 के 120 अरब डॉलर से बढ़कर मई 2007 में एक खरब डॉलर तक पहुंच गया है। अगर इसमें विदेशी और सरकारी कंपनियों के स्वामित्व वाले हिस्से को निकाल दिया जाए तो घरेलू शेयर धारकों की परिसंपत्तियों में लगभग 570 अरब डॉलर की वृद्धि दर्ज की गई है। लेकिन इसका लाभ कितने लोगों को मिला है?

सेबी के अनुसार देश में कुल आबादी के सिर्फ 4 से 7 फीसदी लोगों के पास शेयर हैं। इसमें भी कंपनियों के मालिकों का हिस्सा बहुत बड़ा है। आहया के मुताबिक 570 अरब डॉलर में 350 अरब डॉलर कंपनियों के मालिकों के हिस्से में गया है। दरअसल, अनिल और मुकेश अंबानी के खरबपति होने का राज भी इसी में छुपा हुआ है। दोनों के खरबपति होने की वजह यह है कि उनकी कंपनियों के शेयरों की कीमतों में हाल के महीनों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। इस कारण उनका बाजार पूंजीकरण खरबों में पहुंच गया है और उन कंपनियों में उनका हिस्सा 55 फीसदी से अधिक होने के कारण ही वे भी खरबपति हो गए हैं।

लेकिन अनिल और मुकेश अंबानी के खरबपति होने से जुड़ी एक विडम्बना यह भी है कि एक आम भारतीय और इन खरबपति भाईयों के बीच आय का अनुपात जो कुछ वर्षों पहले तक 1: 90000 का था, वह बढ़कर 1:100000 से उपर पहुंच गया है। यानि सुपर अमीरों और आम आदमी के बीच की खाई और गहरी और चौड़ी होती जा रही है। साफ है कि उदारीकरण की लक्ष्मी गरीबों और आम आदमी के घर का रूख करने के बजाय आबादी के एक छोटे सुपर अमीरों के घर में कैद होकर रह गई है। जाहिर है कि यह खुश होने का नहीं बल्कि उदास होने का वक्त है।

बिना संघर्ष के नहीं मिलेगा रोजगार का अधिकार...

वित्तीय कठमुल्लावाद से उबरे बिना रोजगार का अधिकार संभव नहीं है

कहते हैं कि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। देश में अधिकांश लोक कल्याणकारी योजनाओं और कानूनों का कुछ यही हाल है। 2 फरवरी को बहुत धूमधाम के साथ देश के 200 जिलों में लागू किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून के साथ भी कुछ यही त्रासदी दोहराई जा रही है। कहने को इस कानून के लागू होने के बाद अब कोई भी ग्रामीण बेरोजगार एक अधिकार के बतौर सरकार से कम से कम 100 दिनों के रोजगार की मांग कर सकता है। लेकिन कानून लागू हुए दो महीने से अधिक गुजर जाने के बावजूद सच्चाई यह है कि इस कानून के तहत रोजगार की मांग करने वाले लाखों लोगों के लिए 100 दिन का रोजगार सपना ही बना हुआ है।

रोजगार तो दूर उन्हें इस कानून के तहत रोजगार कार्ड हासिल करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। राजधानी दिल्ली के साउथ ब्लाक में बैठे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सरकार के सबसे बडे  वायदे को पूरा करने के लिए भले ही अपनी पीठ ठोंक रहे हों लेकिन देश के अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरों पर भरोसा किया जाए तो रोजगार के लिए पंजीकरण कराने और रोजगार कार्ड मांगने आ रहे ग्रामीणों को न सिर्फ तरह-तरह से टरकाया जा रहा है बल्कि स्थानीय स्तर पर नौकरशाही इस कानून का मजाक बनाने पर तुली हुई है। ऐसा लगता है कि इस कानून के लागू होने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार मांगने वाले लोगों के उत्साह और दिन पर दिन बढ़ती उनकी तादाद से न सिर्फ केन्द्र सरकार घबरा गई है बल्कि स्थानीय नौकरशाही को भी समझ में नहीं आ रहा है कि वह लोगों की अपेक्षाओं को कैसे पूरा करे ?

दरअसल, केन्द्र सरकार और इस कानून को जिलास्तर पर लागू करने वाली राज्य सरकारों को इसका बिल्कुल अनुमान नहीं था कि इस कानून के तहत रोजगार की मांग करने वाले लोगों की तादाद इतनी अधिक होगी। प्रारंभिक अनुमानों के मुताबिक इस कानून के तहत रोजगार के लिए पंजीकरण के वास्ते आवेदन करने वाले लोगों की तादाद लगभग 2 करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। इतने लोगों को एक साथ 100 दिनों का रोजगार मुहैया कराने में स्थानीय प्रशासन के पसीने छूट रहे हैं। सच तो यह है कि जिन जिलों में यह योजना लागू की गई है, वहां के स्थानीय प्रशासन ने इसे ईमानदारी से लागू करने के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की है। इस योजना को लागू करने के लिए स्थानीय स्तर पर जिस तरह के सार्वजनिक कार्यों को शुरू करने की योजना बननी चाहिए थी, वह नहीं बनाई गई है और न ही उसके लिए उपयुक्त संसाधनों की व्यवस्था की गई है।
 
कहने की जरूरत नहीं है कि जल्दी ही केन्द्र और राज्य सरकारें इस योजना को ठीक तरीके से न लागू किए जाने को लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू कर देंगी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस कानून को लागू करने को लेकर कई राज्य सरकारों खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार सरकार का रवैया कतई उचित नहीं है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि इस कानून को ईमानदारी से लागू करने को लेकर यूपीए सरकार का मन भी बहुत साफ नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार चाहे जो कहे लेकिन हकीकत यह है कि यह एक केन्द्रीय योजना है और इसकी सफलता बहुत हद तक केन्द्र सरकार के रवैये पर निर्भर करती है। यह उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी भी है।
 
लेकिन यह एक कडवी सच्चाई है कि इस कानून के बनने से पहले से ही इसके प्रति यूपीए सरकार का रवैया दोमुहां रहा है। यह किसी से छुपी हुई बात नहीं है कि इस योजना की सफलता जिन केन्द्रीय वित्त मंत्री पी चिदम्बरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया पर निर्भर करती है, वे शुरू से ही इसका विरोध करते रहे हैं। उनके मुताबिक यह योजना एक तरह से वित्तीय संसाधनों की बरबादी है और इससे गरीबों और बेरोजगारों को कोई लाभ नहीं होगा। उल्टे केन्द्र सरकार का वित्तीय घाटा बहुत अधिक बढ़ जाएगा।
 
इस विरोध के कारण ही यूपीए सरकार ने एक सार्वभौमिक रोजगार के अधिकार का कानून बनाने के बजाए एक सीमित और आधा-अधूरा ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया। अफसोस की बात यह है कि यूपीए सरकार इस सीमित और आधे-अधूरे कानून को भी ईमानदारी से लागू करने से कतरा रही हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वित्तमंत्री पी चिदम्बरम चालू वित्तीय वर्ष 2006-07 के लिए ग्रामीण रोजगार कानून को लागू करने के वास्ते बजट में पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में कम धनराशि का प्रावधान नहीं करते। उन्होंने चालू वित्तीय वर्ष में ग्रामीण रोजगार के कानून को लागू करने के लिए लगभग 11,300 करोड रूपये का प्रावधान किया है जो रोजगार की मांग करने वाले 2 करोड से अधिक ग्रामीण बेरोजगारों को 100 दिनों का रोजगार देने के लिए नाकाफी है।

आश्चर्य नहीं कि रोजगार की मांग करने वाले ग्रामीणों को टरकाया जा रहा है। दुर्भाग्य से ऐसा लगता है कि इस योजना का भी हश्र अन्य दूसरी विकास योजनाओं की तरह ही होगा। यह योजना भी स्थानीय स्तर पर नौकरशाही, ठेकेदार, राजनेता और माफिया गठजोड़ की भेंट चढ़ती हुई दिखाई पड़ रही है। दरअसल, अगर इस योजना को ईमानदारी से लागू किया जाना है तो न सिर्फ यूपीए सरकार को पी चिदम्बरम के ''वित्तीय कठमुल्लावाद`` से पीछा छुड़ाना होगा बल्कि राज्य सरकारों को भी कुंभकर्णी निद्रा से बाहर निकलना होगा। इसके लिए जरूरी है कि  इस कानून को लागू करने के लिए संघर्षरत जनांदोलनों को स्थानीय स्तर पर अफसर-ठेकेदार-राजनेता और माफिया गठजोड़ के खिलाफ मुहिम छेड़नी होगी।
 
पिछले अनुभवों से यह साफ है कि यह कानून तब तक आम लोगों का अधिकार नहीं बन सकता है जब तक लोग सड़कों पर उतरकर इसके लिए संघर्ष न करें। दरअसल, अधिकार कभी तोहफे या मुफ्त में नहीं मिलते, उनके लिए जूझना पड़ता है। ग्रामीण रोजगार अधिकार कानून पर तो यह बात और भी अधिक लागू होती है।

सातवें आसमान पर अर्थव्यवस्था...

सबसे बड़ी चुनौती है ऊंची विकास दर का लाभ आम आदमी तक पहुंचाना
 
अगर वित्तमंत्री पी चिदम्बरम की मानें तो भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल सातवें आसमान पर है। नहीं, यह कोई मजाकिया टिप्पणी नहीं है। दरअसल, वित्तमंत्री ने संसद में पिछले सप्ताह पेश मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की विकास दर 7 प्रतिशत से अधिक रहने की उम्मीद जाहिर की है। यानी अर्थव्यवस्था सातवें आसमान।
 
हालांकि चालू वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में जीडीपी की विकास दर 8.1 प्रतिशत दर्ज की गई है और अधिकांश विश्लेषकों और आर्थिक एजेंसियों का कहना है कि चालू साल में अर्थव्यवस्था की विकास दर कम से कम 7.5 फीसदी रहेगी लेकिन मध्यावधि समीक्षा में बड़ी विनम्रता से इसके 7 प्रतिशत के आसपास रहने का भरोसा जताया गया है।

चिदम्बरम को उम्मीद है कि चालू वित्तीय वर्ष में औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की विकास दर 8.5 फीसदी से लेकर 10 फीसदी के बीच रहेगी जबकि अच्छे मानसून के कारण कृषि क्षेत्र की विकास दर 3 से 3.5 फीसदी तक पहुंच जाएगी। इस आधार पर वित्तमंत्री को वर्ष 2005-06 में 7 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेने का भरोसा है। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस दौर में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का एकमात्र पैमाना जीडीपी की विकास दर हो गई हो, उसमें 7 फीसदी की विकास दर को हासिल कर लेना भी एक बड़ी उपलब्धि है। खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि मानसून की गड़बड़ी के बावजूद पिछले वित्तीय वर्ष में भी जीडीपी की विकास दर  6.9 प्रतिशत रही थी। उससे पहले वर्ष 2003-04 में विकास दर 8.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थी।
 
इस तरह पिछले तीन वर्षों (2003-06) से अर्थव्यवस्था की सालाना औसत विकास दर 7 प्रतिशत से ऊपर चल रही है। हालांकि यह दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में 8 फीसदी सालाना औसत विकास दर की तुलना में कम है लेकिन उससे पहले के वर्षों की तुलना में इस प्रदर्शन को भी कम नहीं माना जा सकता है। गौरतलब है कि दसवी पंचवर्षीय योजना के पहले वर्ष (2002-03) में जबरदस्त सूखे और औद्योगिक मंदी के कारण विकास दर गिरकर मात्र  4.1 फीसदी रह गई थी। इस कारण दसवी योजना के शुरूआती तीन वर्षों की औसत सालाना विकास दर 6.5 प्रतिशत रह गई जो कि 8 फीसदी के लक्ष्य से काफी दूर है।
 
लेकिन दसवी योजना के शुरूआती वर्ष के खराब प्रदर्शन को अलग कर दिया जाए तो अर्थव्यवस्था एक उच्च विकास दर की ओर बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उंची विकास दर में एक स्थिरता और निरंतरता आती हुई दिखाई पड़ रही है। असल में, उंची विकास दर हासिल करना बड़ी चुनौती नहीं होती है, उसे बनाए रखना बड़ी चुनौती होती है। इस कारण अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारतीय अर्थव्यवस्था अगले चार-पांच सालों तक 7 प्रतिशत या उससे अधिक की सालाना औसत विकास दर को बनाए रख सकेगी या नहीं ?
 
ऐसी आशंका के पीछे कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन लगातार बद से बदतर होता जा रहा है। कृषि न सिर्फ अब भी इन्द्र देव की कृपा पर निर्भर है बल्कि उदारीकरण और विश्व व्यापार संगठन के बाद के दौर में भारतीय कृषि का संकट लगातार गहराता जा रहा है। इसका सीधा असर कृषि क्षेत्र की विकास दर में दिखाई पड़ रहा है। कृषि की विकास दर सबसे ज्यादा अस्थिर है। वह किसी वर्ष 9 फीसदी से ऊपर चली जाती है और अगले ही वर्ष (-)10 फीसदी नीचे गिर जाती है। कृषि के इस संकट को मध्यावधि समीक्षा में भी स्वीकार किया गया है। 
 
इसी तरह औद्योगिक क्षेत्र के प्रदर्शन में भी स्थायित्व का अभाव दिखाई पड़ता है। हालांकि पिछले दो वर्षों से औद्योगिक क्षेत्र विशेषकर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का प्रदर्शन बेहतर प्रतीत हो रहा है लेकिन यह बिजनेस साइकिल का असर है या वास्तव में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र प्रतियोगी और सक्षम हुआ है, यह कहना मुश्किल है। दरअसल, 1995 से 97 तक मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की विकास दर 14 फीसदी से उपर चली गई थी लेकिन बाद के वर्षों में न सिर्फ उसे बनाए नहीं रखा जा सका बल्कि वह मंदी का शिकार हो गया। एक बार फिर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में हलचल दिखाई पड़ रही है लेकिन इसे स्थाई बनाने के लिए वित्त मंत्री को काफी सावधानी से और सोच समझकर कदम आगे बढ़ाना पडेग़ा।
 
पर मुश्किल यह है कि पी चिदम्बरम द्वारा पेश मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए जो उपाय सुझाए गए हैं, वे वही पिटे-पिटाए नवउदारवादी आर्थिक सुधारों से प्रेरित हैं जो हर वित्त मंत्री के लिए गीता बने हुए है। मध्यावधि समीक्षा के मुताबिक टेक्सटाइल क्षेत्र की संभावनाओं को साकार करने के लिए श्रम सुधार जरूरी हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि श्रम सुधारों से तात्पर्य कंपनी प्रबंधकों को छटनी नीति और ''हायर एंड फायर`` का अधिकार देने के अलावा न्यूनतम मजदूरी के कानून को खत्म करना है। श्रमिकों को संगठन बनाने और मोलतोल का अधिकार नहीं होगा और न ही वे हड़ताल कर सकते है।
 
साफ है कि श्रम सुधारों के नाम पर मजदूरों के खुले और कानूनी शोषण की मांग की जा रही है। इसी तरह कृषि क्षेत्र की समस्याओं को हल करने के लिए जो सुझाव दिए जा रहे हैं, उनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को समाप्त करने और ठेका खेती को बढ़ावा देने के सुझाव प्रमुख हैं। हालांकि यह सुझाव नए नहीं हैं और पिछले कई वर्षों से दोहराए जा रहे हैं लेकिन यूपीए की सरकार ने वायदा किया था कि वह आम आदमी का ख्याल रखेगी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि उंची विकास दर हासिल करने के लिए जो सुझाव दिए जा रहे हैं वे बुनियादी रूप से आम आदमी के हितों के खिलाफ हैं।
 
दरअसल, जिस तरह से उंची विकास दर को साधन मानने की बजाए  साध्य मान लिया गया है, उससे सारा जोर इस बात पर है कि अधिक से अधिक विकास दर कैसे हासिल की जाए ? आश्चर्य नहीं कि इस सोच के कारण नब्बे के दशक में उंची विकास दर के बावजूद आम लोगों को उसका लाभ नहीं मिला है। इसी वजह से इसे 'रोजगार विहीन विकास` का दशक भी कहते हैं। लेकिन ''आम आदमी`` का नारा लगाकर सत्ता में पहुंची यूपीए के लिए भी लक्ष्य आम आदमी नहीं बल्कि उंची विकास दर है जिसका लाभ अब भी आम आदमी को नहीं बल्कि देश की दस से पन्द्रह फीसदी की आबादी को मिल रहा है।

ऐसे में अर्थव्यवस्था भले सातवें आसमान पर हो लेकिन आम आदमी के लिए तो यह अब भी एक सपना ही बनी हुई है।

टाटा-कोरस की 'बेमेल शादी` का रहस्य...

बड़ी वित्तीय पूंजी करा रही है कारपोरेट भूमंडलीकरण में रिश्ते
 
दीपावली से ठीक पहले टाटा समूह ने अपने करीब चार गुना बड़ी और यूरोप की जानी-मानी स्टील कंपनी कोरस को 10.3 अरब डालर में खरीदकर सचमुच, एक बड़ा धमाका किया है। हालांकि यह कुछेक महीने पहले सुर्खियों में छाए रहे मित्तल-आर्सेलर सौदे की तुलना में यह बहुत छोटा सौदा है लेकिन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इस अधिग्रहण के बाद टाटा स्टील एक झटके में दुनिया की 56 वें नंबर की कंपनी से 5वीं सबसे बड़ी स्टील कंपनी बन जाएगी। टाटा समूह के लिए निश्चय ही यह एक बड़ी छलांग है।
 
टाटा समूह के लिए संतोष की बात यह है कि इस सौदे के लिए उसे लक्ष्मी मित्तल की तरह विरोध नहीं झेलना पड़ा। कोरस ने टाटा के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया है। हालांकि अभी इस सौदे की कई औपचारिकताएं पूरी होनी है और कोरस को खरीदने के लिए रूसी और ब्राजीलियाई स्टील कंपनियों की ओर से कांउटर ऑफर की चर्चाएं हैं लेकिन कोरस का प्रबंधन साफ तौर पर टाटा समूह के साथ ही गठबंधन के पक्ष में दिख रहा है।

कुछ लोगों को यह 'बेमेल विवाह` भी लग सकता है। आखिर भारत जैसे एक विकासशील देश की कंपनी अपने से आकार में चार गुनी बड़ी 'यूरोपीय` कंपनी को कैसे खरीद सकती है? लेकिन विवाह एक 'सामाजिक समझौता` है तो टाटा-कोरस सौदे को भूमंडलीकरण के दबाव से पैदा  हुआ एक ऐसा 'आर्थिक समझौता` माना जा सकता हे जिसकी जरूरत दोनों पक्षों को थी। दरअसल, इस सौदे की नींव मित्तल स्टील द्वारा आर्सेलर के अधिग्रहण के साथ ही पड़ गयी थी। मित्तल-आर्सेलर सौदे ने दुनिया के बिखरे हुए स्टील उद्योग में समेकन (कंसोलिडेशन) की एक ऐसी प्रक्रिया की शुरूआत कर दी, जिसके बाद कोरस और टाटा स्टील जैसी कंपनियों के पास गलाकट प्रतियोगिता के बीच बाजार में टिके रहने के लिए एक-दूसरे के अधिग्रहण और विलयन (मर्जर) के अलावा और कोई रास्ता नहीं बच गया है।

इसलिए अभी यह शुरूआत है। आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ महीनों में टाटा-कोरस जैसे कई और सौदे अधिग्रहण या विलयन के रूप में सामने आएं। उदाहरण के लिए टाटा-कोरस सौदे की खबरों के बीच दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी स्टील कंपनी निप्पान स्टील (जापान) और तीसरे नंबर की स्टील कंपनी पास्को (दक्षिण कोरिया) ने एक-दूसरे में अपनी क्रास होल्डिंग को बढ़ाने का फैसला किया है। इसी तरह, रूस और लातिन अमेरिका के साथ-साथ चीन में भी स्टील कंपनियों के बीच अधिग्रहण और विलयन की प्रक्रिया तेज हो गयी है।

इस प्रक्रिया को तेज करने में बड़ी वित्तीय पूंजी की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। दरअसल, भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के केन्द्र में रही बड़ी वित्तीय पूंजी ही आज के दौर की वह अगुवा या ब्राह्मण है जो कंपनियों के बीच रिश्ते तय कराने से लेकर उनके विवाह तक में अहम भूमिका निभा रही हैं। टाटा-कोरस रिश्ते की कुंजी भी उन्हीं के  पास है। सौदे के लिए  9.6 अरब  डालर में से टाटा संस  और टाटा स्टील एक-एक अरब डालर का योगदान करेंगे जबकि 1.8 अरब डालर का ब्रिज लोन एबीएन एमरो और स्टैंडर्ड चार्टड बैंक की ओर से आएगा जबकि 5.6 अरब  डालर का कर्ज एबीएन एमरो और ड्यूश बैंक से मिलेगा। इस तरह यह पूरा सौदा बड़ी वित्तीय पूंजी के आशीर्वाद से संभव हुआ है।

जाहिर है कि इस वित्तीय पूंजी के अपने हित हैं। इस तरह के बड़े सौदे कराने के लिए मिलने वाली मोटी फीस के अलावा वित्तीय पूंजी का सबसे बड़ा स्वार्थ यह है कि इस तरह के सौदों के जरिए वे स्टील कंपनियों में लगी अपनी शेयर पूंजी या स्टॉक की उंची कीमत बनाए रखने की कोशिश करती हैं। इससे वे प्रतियोगिता  को 'मैनेज` करने और बाजार को अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास करती हैं। टाटा-कोरस डील से जहां कोरस को एक कम लागत वाली स्टील निर्माता कंपनी के साथ-साथ एक बड़ा बाजार और लौह अयस्क जैसे कच्चे माल का आकर्षक स्रोत मिल गया, वहीं टाटा स्टील को एक बेहतर टेक्नोलॉजी से उन्नत किस्म के स्टील बनाने वाली कंपनी और यूरोपीय बाजार में घुसने का मौका मिल जाएगा। लेकिन इससे स्टील उद्योग में प्रतियोगिता घट जाएगी और इसका सर्वाधिक लाभ बड़ी वित्तीय पूंजी को होगा।

इसलिए इस रिश्ते को लेकर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। यह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवान जैसा होगा। यही नहीं, टाटा-कोरस रिश्ते में ऐसे पेंच हैं कि इस बात की संभावना अधिक है कि टाटा, कोरस से विवाह के बाद घर जमाई बन जाए। यानी टाटा के 'बहुराष्ट्रीय कंपनी` बनने की ओर बढ़ने का एक नतीजा यह भी हो सकता है कि टाटा स्टील जल्दी ही एक ब्रिटिश या डच कंपनी बन जाए। वैसे ही जैसे मित्तल स्टील को हम कितना भी भारतीय कहें लेकिन सच यह है कि लक्ष्मी मित्तल एक ब्रिटिश नागरिक हैं और मित्तल स्टील हालैंड में रजिस्टर्ड है। टाटा समूह ने कहा भी है कि अधिग्रहण के बावजूद कोरस एक ब्रिटिश-डच कंपनी बनी रहेगी।

दरअसल, भूमंडलीकरण के इस दौर में गुलाबी पेपर्स टाटा-कोरस सौदे में एक 'भारतीय कंपनी` की कामयाबी को लेकर जितना उछलें, सच्चाई यह है कि वित्तीय पूंजी की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती है। उसके लिए अपना स्वार्थ सबसे उपर है और उसे पूरा करने के लिए वह 'बेमेल शादी` भी कराने में परहेज नहीं करता है। हैरानी की बात नहीं है कि मित्तल और आर्सेलर में 'तू-तू, मैं-मैं` के बावजूद रिश्ता हुआ तो इसकी वजह भी यही बड़ी वित्तीय पूंजी थी। उस सौदे में गोल्डमैन साक्स, मेरिल लिंच, जेपी मार्गन चेज, लेजार्ड, मार्गन स्टैनली, ड्यूश बैंक जैसी वित्तीय संस्थाओं और मर्चेंट बैंकरों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है।

इस तरह बड़ी वित्तीय पूंजी दुनियाभर की स्टील कंपनियों को अधिग्रहण और विलयन के जरिए कंसोलिडेशन की दिशा में ढकेल रही है। इस कारण पहले मित्तल-आर्सेलर और अब टाटा-कोरस के सौदे से स्टील उद्योग के कुछेक बड़े खिलाड़ियों के चंगुल में चले जाने की आशंका बढ़ गयी है। इस प्रक्रिया में स्टील बाजार 'ओलिगोपोलिस्टिक` बाजार में बदलता जा रहा है जहां कुछेक बड़ी स्टील कंपनियों के एक कार्टेल की तरह काम करने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसका सीधा खामियाजा स्टील उपभोक्ताओं को उठाना पड़ेगा। भारतीय स्टील उपभोक्ताओं को पिछले दो-तीन वर्षों से घरेलू स्टील उत्पादकों के कार्टेल की मार झेलनी पड़ रही है। इस कड़वे अनुभव से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में स्टील कंपनियों के बीच कंसोलिडेशन से दुनियाभर के स्टील उपभोक्ताओं को किस कदर जेब ढीली करनी पड़ेगी।

इस सौदे का एक और खास पहलू यह है कि टाटा द्वारा कोरस के अधिग्रहण के बाद भारतीय उद्योग समूहों को मैत्रीपूर्ण या आक्रामक टेकओवर प्रस्तावों के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे कई बड़े उद्योग समूह हैं जिन्हें ऐसे अधिग्रहण प्रस्तावों के लिए उपयुक्त प्रत्याशी माना जा रहा है क्योंकि उनमें प्रोमोटरों की अंश पूंजी बहुत कम है। सच तो यह है कि खुद टाटा और कोरस ऐसे अधिग्रहण के 'साफ्ट  टार्गेट` बने हुए थे और दोनों का साथ आना एक मजबूरी भी थी क्योंकि लक्ष्मी मित्तल जैसी बड़ी मछलियां उन्हें निगलने के  लिए मौके का  इंतजार कर रही थीं।

टाटा-कोरस के एक साथ आने के बावजूद खतरा टला नहीं है। अब या तो उन्हें कुछ और छोटी मछलियों को अपना शिकार बनाना होगा या फिर खुद किसी बड़ी मछली का भोजन बनना पड़ेगा। अभी तो खेल की शुरूआत हुई है। दम साधकर देखिए आगे क्या होता है ?

बजट में सामाजिक क्षेत्रः ऊंट के मुंह में जीरा...

बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा जारी है
यूपीए सरकार के चौथे बजट ने एक बार फिर सामाजिक क्षेत्र को निराश किया है। सामाजिक क्षेत्र खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार आदि को इस बजट से बड़े प्रावधानों की बहुत उम्मीद थी। यह उम्मीद इसलिए थी कि अर्थव्यवस्था की विकासदर 9 फीसदी से उपर पहुंच गई है लेकिन इस तेज विकासदर का लाभ आम आदमी तक नहीं पहुंच पा रहा है। इस तीव्र विकास का लाभ आम लोगों तक पहुंचे इसके लिए सामाजिक क्षेत्र पर खर्च बढ़ाने की मांग लगातार तेज होती जा रही है। यूपीए सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में सामाजिक क्षेत्र पर बजट बढ़ाने का वायदा भी किया है।

लेकिन वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट में सामाजिक क्षेत्र के लिए कोई बड़ी और महत्वाकांक्षी योजना और प्रावधानों की घोषणा करने के बजाय वित्तीय और राजस्व घाटे को काबू में रखने को प्राथमिकता दी है। हालांकि उन्होंने केन्द्रीय आयोजना के तहत सामाजिक सेवाओं के बजट में करीब 27 फीसदी की बढ़ोत्तरी करते हुए 80,315 करोड रूपये का प्रावधान किया है। लेकिन यह रकम पिछले वर्ष की तुलना में सिर्फ 17 हजार करोड़ रूपये अधिक है। यह दरियादिली भी तब दिखायी है जब उन्होंने केन्द्रीय करों पर लगनेवाले शिक्षा उपकर को दो फीसदी से बढ़ाकर तीन फीसदी करने की घोषणा की है। जाहिर है कि सामाजिक क्षेत्र के लिए प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। 

मुद्दा सिर्फ सामाजिक क्षेत्र के लिए अधिक बजटीय प्रावधान का ही नहीं है बल्कि उस प्रावधान को उचित तरीके से और पूरा खर्च करने का भी है। आमतौर पर वित्तीय घाटे को काबू में रखने के लिए जब खर्चों में कटौती की बात आती है तो सबसे पहली गाज सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर ही गिरती है। यह एक नियम सा बन गया है। उदाहरण के लिए वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष में सामाजिक सेवाओं के लिए 63,313 करोड़ रूपये की केन्द्रीय आयोजना का प्रावधान किया था लेकिन संशोधित अनुमान के मुताबिक इसमें 7 फीसदी की कटौती के साथ सरकार सिर्फ 59,143 करोड़ रूपए ही खर्च कर पायी। ऐसे में, अगले वर्ष के लिए सामाजिक क्षेत्र के वास्ते घोषित 80 हजार करोड़ रूपये में से सरकार कितना खर्च करेगी, अभी यह कह पाना मुश्किल है।

शिक्षा क्षेत्र: वायदे से दूर

वित्त मंत्री ने बजट में शिक्षा के लिए कुल 32,351 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है जिसमें से 28,671 करोड़ रूपये आयोजना के मद में और 3,680 करोड़ रूपये गैर योजना मद में खर्च किए जाएंगे। चिदम्बरम का दावा है कि शिक्षा के बजट में  34.2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गई है। यह दावा इसलिए भ्रामक है क्योंकि इसमें सर्वशिक्षा अभियान के लिए 10,761 करोड़ रूपए का प्रावधान करते हुए यह मान लिया गया है कि राज्य सरकारें भी इतनी रकम का इंतजाम कर लेंगी। लेकिन यह एक कोरी कल्पना के अलावा और कुछ नहीं है। सच पूछिए तो शिक्षा क्षेत्र की मौजूदा जरूरतों और चुनौतियों को देखते हुए यह बढ़ोत्तरी उम्मीद से बहुत कम है। दरअसल, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने चालू साल के 20,745 करोड़ रूपये के आयोजना व्यय को बढ़ाकर 45 हजार करोड़ रूपये करने की मांग की थी। साफ है कि शिक्षा उपकर में एक फीसदी की बढ़ोत्तरी के बावजूद वित्त मंत्री शिक्षा क्षेत्र के लिए अपनी झोली खोलने में कहीं न कहीं हिचक गए।

ध्यान रहे कि यूपीए सरकार ने शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने का वायदा किया है। लेकिन ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 2.87 प्रतिशत खर्च कर रही हैं। अगले साल के बजट में यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक सर्व शिक्षा अभियान के बजट पर सबसे अधिक गाज गिरी है। वित्त मंत्री ने सर्व शिक्षा अभियान के लिए चालू साल के 11 हजार करोड़ रूपये की तुलना में अगले साल के लिए 10,671 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है। इस कटौती के पीछे केन्द्र सरकार का तर्क है कि अगले साल से सर्व शिक्षा अभियान के लिए राज्य सरकारों को 25 फीसदी के बजाय 50 फीसदी संसाधन खुद जुटाने होंगे और केन्द्र सरकार 75 फीसदी की बजाय 50 फीसदी रकम मुहैया कराएगी।

लेकिन अधिकांश शिक्षाविद और खुद केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय का मानना है कि सर्वशिक्षा अभियान के लिए केन्द्र और राज्य के बीच संसाधन जुटाने के मौजूदा फार्मूले 75/ 25 को बदलकर 50/ 50 करने का अर्थ उसे असमय मौत के मुंह में धकेलने की तरह है। आर्थिक तंगी और बदहाली की शिकार राज्य सरकारें इतनी बड़ी रकम जुटाने में सक्षम नहीं होंगी और इस तरह से यह योजना 2010 तक 100 फीसदी बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लक्ष्य को हासिल करने से पहले ही दम तोड़ देगी।

इसी तरह, वित्त मंत्री ने उच्च शिक्षा का बजट 3,617 करोड़ रूपए से बढ़ाकर 6,483 करोड़ रूपये करने का ऐलान किया है। लेकिन उच्च शिक्षा के सामने जिस तरह की चुनौतियां हैं उनकी तुलना में यह बहुत मामूली वृद्धि है। याद रहे कि योजना आयोग ने हाल ही में यह चेतावनी दी थी कि अगर उच्च शिक्षा का व्यापक विस्तार नहीं हुआ तो तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी प्रशिक्षित प्रोफेशनलों की भारी कमी हो जाएगी। यही नहीं, ज्ञान आयोग ने भी देश में 2015 तक 1,150 नए विश्वविद्यालय खोलने की जरूरत बताई है। इसके अलावा अगले वित्तीय वर्ष से केन्द्रीय शिक्षण संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के छात्रों के लिए आरक्षण लागू करने के कारण 54 फीसदी सीटें बढ़ाई जानी है। इसके लिए मोइली समिति ने केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों को 5,500 करोड़ रूपए देने की सिफारिश की थी लेकिन बजट में चिदम्बरम ने सिर्फ 576 करोड़ रूपए का आवंटन किया है।

स्वास्थ्य: उपेक्षा जारी है

बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा जारी है। हालांकि वित्त मंत्री का दावा है कि स्वास्थ्य के मद में बजटीय प्रावधानों में 22 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई है लेकिन यह उम्मीदों से काफी कम है। बजट में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए कुल 15,855 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है जिसमें से 14,363 करोड़ रूपये आयोजना के मद में खर्च होंगे। लेकिन यह रकम जीडीपी के  0.4 फीसदी से अधिक नहीं है जबकि यूपीए सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का तीन प्रतिशत खर्च करने का वायदा किया है। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारें अभी मिलकर स्वास्थ्य पर जीडीपी का मात्र 1.39 फीसदी खर्च कर रही हैं। यह हाल तब है जब यूएनडीपी के मानव विकास रिपोर्ट में स्वास्थ्य के हर सूचकांक पर भारत का प्रदर्शन दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले बहुत बदतर है।

बजट से पहले इस तरह की चर्चाएं थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए केन्द्रीय करों पर 2 फीसदी का स्वास्थ्य उपकर लगाया जा सकता है। लेकिन वित्त मंत्री ने शिक्षा उपकर में एक फीसदी की बढ़ोत्तरी करते हुए स्वास्थ्य उपकर लगाने से परहेज किया और इसका खामियाजा स्वास्थ्य क्षेत्र को इस रूप में उठाना पड़ा है कि उसके लिए बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं किया गया है। इस कारण स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति दिन पर दिन बदतर होती जा रही है। विश्व बैंक के मुताबिक भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सर्वाधिक निजीकृत स्वास्थ्य सेवा बन गई है। ऐसोचैम के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों की तो बात दूर रही, शहरी क्षेत्रों में 18 करोड़ लोगों के लिए सिर्फ 1,083 स्वास्थ्य केन्द्र हैं।

इसी तरह, हाल ही में जारी तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि 46 फीसदी बच्चे कुपोषण और बीमारी के शिकार है जिसके कारण उनके विकास पर बुरा असर पड़ रहा है। 56 फीसदी महिलाएं रक्ताल्पता (एनीमिया) की शिकार हैं। 28 प्रतिशत पुरूष और 33 फीसदी महिलाओं का वजन सामान्य से कम पाया गया है। इससे स्पष्ट है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी कितना कुछ किया जाना बाकी है।

रोजगार : हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और

चिदम्बरम ने बजट में यूपीए सरकार की एक और महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को मौजूदा 200 जिलों से बढ़ाकर 330 जिलों में करने का ऐलान किया है। लेकिन इसके लिए उन्होंने पिछले वर्ष के 11,300 करोड़ रूपए के प्रावधान की तुलना में अगले साल के लिए सिर्फ 700 करोड़ बढ़ाकर 12 हजार करोड़ रूपए का आवंटन किया है। यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि इस योजना को 200 जिलों के बजाय अब 330 जिलों तक फैलाने के बावजूद बजट में अपेक्षित प्रावधान क्यों नहीं किया गया है ? क्या वित्त मंत्री ने यह मान लिया है कि इस योजना से गारंटी शब्द को हटा दिया गया है ? अगर ऐसा नहीं भी है तो इस योजना के लिए किए गए प्रावधान से यह साफ है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और हो गए हैं।

कारपोरेट खेती के खतरे...

भारतीय कृषि गहरे संकट से गुजर रही है। इस तथ्य को अब आर्थिक सुधारों के रचनाकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी स्वीकार कर रहे हैं। एक मायने में यह स्वीकारोक्ति कृषि क्षेत्र के मामले में आर्थिक उदारीकरण की विफलता को भी स्वीकार करना है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण न सिर्फ कृषि क्षेत्र को बाइपास करके आगे बढ़ रहा हैं बल्कि उदारीकरण की सबसे तगड़ी मार भी कृषि क्षेत्र को ही झेलनी पड़ रही है। लाखों किसानों को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है।

लेकिन हजारों-लाखों किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद पहले एनडीए और अब यूपीए सरकार कृषि क्षेत्र के प्रति अपने रवैये को बदलने और उदारीकरण के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। कृषि संकट से निपटने के लिए वही उपाय सुझाए और आजमाए जा रहे हैं जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ और गहराया है। पूर्ववर्ती एनडीएसरकार की तरह मनमोहन सिंह सरकार भी कृषि संकट का हल कृषि के कारपोरेटीकरण यानी कृषि क्षेत्र में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश का रास्ता खोलने में देख रही है।

एक तरह से यूपीए सरकार ने मान लिया है कि कृषि संकट से निपटना उसके वश का नहीं है और न ही यह आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के अनुकूल है। ध्यान रहे कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप और सक्रिय भूमिका की विरोधी रही है। असल में, कृषि क्षेत्र का मौजूदा संकट बहुत हद तक नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत उठाए गए कदमों जैसे कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश में भारी कटौती, सब्सिडी में कमी के नाम पर उर्वरकों, बिजली, बीज, कीटनाशकों आदि की कीमतों में वृद्धि और डब्ल्यूटीओ समझौते के तहत घरेलू बाजार को सस्ते कृषि उत्पादों के लिए खोलने आदि के कारण पैदा हुआ है।

लेकिन कृषि क्षेत्र के संकट और किसानों की बढ़ती बदहाली को लेकर आंसू बहानेवाली यूपीए सरकार नव उदारवादी कृषि नीतियों से पीछे हटने या उसे पलटने के लिए तैयार नहीं है। उल्टे वह इन नीतियों को उनकी तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए कृषि क्षेत्र को कारपोरेट क्षेत्र के हवाले करने की तैयारी कर रही है। यूपीए सरकार की समझ यह है कि भारतीय कृषि को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्द्धा में टिकने के लिए कॉरपोरेट कृषि ही एकमात्र रास्ता है क्योंकि कृषि में बड़ी पूंजी, तकनीक, आधुनिक बीज, खाद, संग्रहण, प्रसस्करण, बाजार तक पहुंचाने आदि का काम उसी के जरिए हो सकता है।

मनमोहन सिंह सरकार यह मान चुकी है कि छोटे और मंझोले किसानों के पास न तो उतना संसाधन और सामर्थ्य है कि वे अपने बलबूते कृर्षि उत्पादन बढ़ा सकें और न ही उनमें अंतर्राष्ट्रीय कृषि बाजार में प्रतियोगिता करने की क्षमता है। यही नहीं, यूपीए सरकार छोटे और मंझोले किसानों को कृषि क्षेत्र में आर्थिक सुधारों को लागू करने के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा मानती है। इसलिए वह छोटे और मंझोले किसानों की कीमत पर कृषि क्षेत्र में बड़ी पूंजी यानी कारपोरेट क्षेत्र को प्रोत्साहित कर रही है। केंद्र ने इसके लिए कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) का एक मॉडल कानून बनाकर राज्य सरकारों को भेजा और उन्हें अपने यहां लागू करने के लिए बाध्य किया। भूमि हदबंदी कानून में कानून में ढील दी गयी ताकि बड़े कारपोरेट फार्म स्थापित करने में दिक्कत न आए।

इसी के तहत ठेका कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। ठेका कृषि में छोटी-बड़ी कंपनियां किसानों से अनुबंध पर किसी खास उत्पाद (विशेषकर व्यावसायिक कृषि उत्पादों) की खेती करवा रही हैं और उसकी उपज खरीदने का वायदा कर रही हैं, बशर्ते वह गुणवत्ता और अन्य शर्तों पर खरा उतरे। असल में, बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों से ठेका खेती को तरजीह दी है जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्हें इसमें कोई जोखिम नहीं है और ठेके पर खेती करनेवाले किसान को सारा जोखिम उठाना पड़ता है।

ठेका कृषि में सारी जिम्मेदारी और जवाबदेही किसान की होती है कि वह निश्चित समय और गुणवत्ता के साथ संबंधित उत्पाद एक पूर्व निश्चित कीमत पर उपलब्ध कराएगा। लेकिन खराब मौसम, कीड़ों की मार या किसी अन्रू कारण से फसल खराब होगयी या उसकी गुणवत्ता पर असर पड़ा तो कंपनी वह माल खरीदने से इंकार कर सकती है। उस स्थिति में सारा घाटा किसान का होगा। यह किसी काल्पनिक स्थिति का ब्यौरा नहीं है बल्कि पंजा से लेकर आंध्र प्रदेश तक में टमाटर, मटर से लेकर कपास की ठेका खेती करनेवाले हजारों किसानों का कड़वा अनुभव है। ऐसे सैकड़ों मामले सामने आए हैं जिसमें पेप्सिको (पेप्सी की अनुषांगिक कंपनी) से लेकर छोटी-बड़ी दर्जनों देशी-विदेशी कंपनियों ने इस या उस बहाने किसानों के साथ किए गए करार को माने से इंकार कर दिया है।

उस स्थिति में मजबूर किसानों को अपना माल औने-पौने दामों पर स्थानीय मंडी में बेचना और भारी घाटा उठाना पड़ा है। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब किसी कंपनी ने ये देखकर करार तोड़ दिया है कि खरीद के समय स्थानीय मंडी में उस उत्पाद का भाव ठेके में तय भाव से कम था। आमतौर पर कंपनियां यह बहाना बनाती हैं कि फसल उस गुणवत्ता की नहीं है जो अनुबंध में तय हुई थी। उसके बाद वेवही माल बिचौलियों के जरिए स्थानीय मंडी से या कम कीमत पर किसान से खरीद लेती हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि कंपनियों के मुकाबले किसान की मोलतोल (बारगेन) की क्षमता न के बराबर है। किसानों की कहीं सुनवाई भी नहीं होती है क्योंकि अभी तक ठेका कृषि में अनुबंध को लेकर विवाद होने पर उसके निस्तारण की कोई न्यायपूर्ण, सक्षम और तीव्र व्यवस्था तो दूर कोई व्यवस्था ही नहीं है। वैसे भी किसान कंपनियों से कानूनी तौर पर लड़ने में सक्षम नहीं हैं।

जाहिर है कि किसानों को पूरी तरह से कंपनियों की दया पर छोड़ दिया गया है। ऐसा नहीं है कि कुछ मामलों में ठेका खेती से किसानों को लाभ नहीं हुआ है। लेकिन ऐसे मामले बहुत कम हैं और किसानों को ठेका खेती के लिए लुभाने के लिए उनका खूब प्रचार किया जाता है। यह सही है कि कृषि संकट की मार झेल रहे किसान कंपनियों की ओर से किए जा रहे लुभावने वायदों के कारण इस ओर आकर्षित भी हो रहे हैं। उनके पास विकल्प भी नहीं हैं। फिर वे कंपनियों के ट्रैप में फंस जा रहे हैं। कंपनियों की तिकड़म और मनमानी के आगे उनका कोई वश नहीं चलता और सरकार तथा स्थानीय प्रशासन भी उनकी मदद में आगे नहीं आते।

आश्चर्य नहीं कि देश के कई बड़े कारपोरेट समूहों जैसे रिलायंस, भारती, टाटा, महिन्द्रा, आइटीसी आदि के साथ-साथ कई क्षेत्रीय स्तर की छोटी-बड़ी कंपनियां भी ठेका खेती में कूद पड़ी हैं। इस प्रक्रिया को खुदरा व्यापार में बडी देशी-विदेशी कंपनियों के जोरशोर से प्रवेश से और बल मिला है। रिलायंस, भारती (वाल मार्ट) और आइटीसी तो बड़े पैमाने पर कारपोरेट कृषि और ठेका खेती के क्षेत्र में घुसने की तैयारी कर रही है। यूपीए सरकार न सिर्फ इसे प्रोत्साहित कर रही है बल्कि अपनी उपलब्धि के बतौर देख रही है। लेकिन वह अति उत्साह और जल्दबाजी में कारपोरेट कृषि और ठेका खेती के नतीजों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं है।

हकीकत यह है कि ठेका खेती और कृषि का कारपोरेटीकरण कृषि संकट को हल करने के बजाय और बढ़ाएगा। इससे बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और कुछ धनी किसानों को तो  लाभ होगा लेकिन करोड़ों सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो जाएगा। खासकर सीमांत और छोटे किसानों का तो पूरी तरह से सफाया हो जाएगा क्योंकि बड़ी कंपनियां सीमांत और छोटे किसानों से लाखों की संख्या मं अनुबंध करने के बजाय कुछ बड़े किसानों से अनुबंध करना पसंद करती हैं। इस कारण पंजाब  जैसे  राज्योंमें उल्टी बंटाईदारी (रिवर्स टीनेंसी) की व्यवस्था शुरू हो गई है जिसके तहत बड़े किसानों कंपनियों के दबाव मंे अपने कृषि रकबे को और बड़ा करने के लिए सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों की जमीन बंटाई पर ले ले रहे हैं। इस तरह बड़ी संख्या में सीमांत, छोटे और मंझोले किसान खेती से बाहर हो रहे हैं और कृषि या औद्योगिक मजदूर बनने को विवश हैं।

असल में, यह कृषि के कारपोरेटीकरण यानी पूंजीवादी कृषि का सहज और स्वाभाविक तर्क है कि कृषि जोत बड़ी से बड़ी हो ताकि कृषि का मशीनीकरण, लागत खर्च में कमी और 'इकॉनामी ऑफ स्केल` का अर्थशास्त्र लागू हो सके। यह भारतीय कृषि से सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों को बाहर किए बिना संभव नहीं है। लेकिन यह खुद में कितने बड़े संकट को निमंत्रण है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2000-01 में छोटे किसान (2 हेक्टेयर से कम जमीनवाले) कुल ऑपरेशन जोतों के 81 प्रतिशत के स्वामी थे और अनुमान है कि 2010-11 तक छोटी जोतों की यह संख्या कुल जोतों की 83 प्रतिशत हो जाएगी। ये जोतें कुल जोतों के क्षेत्रफल की 39 फीसदी से बढ़कर 45 फीसदी हो जाएंगी।

कृषि अर्थव्यवस्था में छोटे किसानों के महत्व का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन का 41 प्रतिशत उत्पादन छोटी जोतों से ही होता है। यही नहीं वे देश के कुल फल और सब्जी उत्पादन का आधा से अधिक पैदा करते हैं। तमाम समस्याओं और बाधाओं के बावजूद छोटे और सीमांत किसानों की उत्पादन बड़ी जोतों से कम नहीं है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि कृषि क्षेत्र देश के 60 फीसदी से अधिक श्रमशक्ति को रोजगार देता  है। जाहिर है कि इनमें तीन चौथाई से अधिक छोटे, सीमांत और मंझोले किसान या भूमिहीन मजदूर हैं जो अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं।

कारपोरेट खेती इन करोड़ों किसानों की आजीविका के लिए एक बड़ा खतरा है। इसमें उनके लिए कोई जगह नहीं है और बड़े फार्मों में भूमिहीन मजदूरों की जरूरत भी बहुत कम हो जाएगी क्योंकि कारपोरेट खेती में श्रम के बजाय पूंजी और तकनीक की भूमिका ज्यादा होती है। खासकर भूमिहीन मजदूरों के लिए कृषि का कारपोरेटीकरण जीवन-मरण का मुद्दा है। ध्यान रहे कि कुल ग्रामीण परिवारों में 42 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं और उनकी आर्थिक स्थिति सबसे दयनीय है। हालांकि वे पहले भी कृषि मजदूर थे और आगे भी रहेंगे लेकिन कारपोरेट खेती में उतने मजदूरों की जरूरत नहीं रह जाएगी। जिन्हें काम  मिलेगा, उनमें महिलाएं, बुजुर्ग और किशोर नहीं होंगे क्योंकि वयस्क पुरूषों की तादाद ही काफी होगी। इस तरह खेतिहर मजदूरों के  पास गांव छोड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाएगा।

साफ है कि कृषि क्षेत्र के कारपोरेटीकरण से ग्रामीण क्षेत्रों में जबरदस्त विस्थापन होगा। करोड़ों किसान और खेतिहर मजदूर अपनी जमीन से उखड़ जाएंगे क्योंकि कारपोरेट खेती के विस्तार के साथ छोटे किसानों के लिए उनके साथ प्रतियोगिता करना संभव नहीं रह जाएगा। क्या यूपीए सरकार इस ग्रामीण विस्थापन से निपटने के लिए तैयार है जो एक बड़ी मानवीय त्रासदी का रूप ले सकती हैं ? जाहिर है कि सरकार इसके लिए कतई तैयार नहीं है और ऐसा लगता है कि नीति नियंताओं ने इस भवितव्य  को  मान लिया है कि मौजूदा कृषि संकट से  बाहर निकलने और आर्थिक उदारीकरण को कृषि क्षेत्र तक ले जाने के लिए यह कीमत चुकानी ही पड़ेगी। आखिर 10 फीसदी की विकास दर हासिल करने के लिए कृषि क्षेत्र को सालाना औसतन 4 फीसदी की विकासदर तक पहुंचना ही होगा और मौजूदा विकास मॉडल में यह कारपोरेट कृषि के बिना संभव नहीं है।

सरकार ने विकल्प चुन लिया है। उसने कृषि के कारपोरेटीकरण की राह पकड़ ली है। अब गेंद छोटे, सीमांत, मंझोले किसानों और भूमिहीन मजदूरों के पाले में है। उन्हें अपना विकल्प चुनना है।

खतरे की 'सेज`...

सेज नाम की लूट है, लूट सके तो लूट
 
देश भर में सेज के खिलाफ लगातार बढ़ते विरोध और नंदीग्राम के नरसंहार के बावजूद यूपीए सरकार सेज के मुद्दे पर पैर पीछे खींचने के लिए तैयार नहीं है। उसने इसे अपनी मूंछ का सवाल बना लिया है। यही कारण है कि सेज कानून को वापस लेने की लगातार तेज होती मांग के बीच खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जोर देकर कहा कि सेज की नीति जारी रहेगी।
 
प्रधानमंत्री के इस बयान से साफ हो गया था कि बढ़ते विरोध के बीच यूपीए सरकार द्वारा विगत 22 जनवरी को सेज परियोजनाओं की मंजूरी पर स्थगन का फैसला किसी गंभीर पुनर्विचार के कारण नहीं बल्कि तात्कालिक तौर पर नंदीग्राम नरसंहार के बाद सेज के खिलाफ भड़के जनाक्रोश को ठंडा करने और सेज के नियमों में कुछ दिखावटी फेरबदल के लिए समय लेने के खातिर किया गया है।

यह आशंका सच साबित हुई। अपै्रल के पहले सप्ताह में सेज के मुद्दे पर विचार कर रही केन्द्रीय मंत्रियों की अधिकारप्राप्त समिति ने न सिर्फ सेज की मंजूरी पर लगे स्थगन के फैसले को वापस ले लिया बल्कि 83 और सेज परियोजनाओं को औपचारिक अनुमति दे दी। इस तरह यूपीए सरकार ने अब तक 234 सेज परियोजनाओं को औपचारिक मंजूरी और 162 को सिद्धांतत: मंजूरी दे दी है जबकि 63 सेज परियोजनाएं अधिसूचित (नोटिफाइड) हो चुकी हैं। हालांकि मंत्रियों के समूह ने सेज की मौजूदा नीतियों में कुछ फेरबदल की भी घोषणाएं की हैं लेकिन इन बदलावों को लीपापोती और सेज के खिलाफ बढ़ते विरोध की धार को कमजोर करने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है।

प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह ने सेज की मौजूदा नीतियों में किसी बुनियादी बदलाव के बजाय दो उल्लेखनीय फेरबदल किए हैं। पहला, सेज परियोजना के अधिकतम आकार को 5 हजार हेक्टेयर (12,500 एकड़) कर दिया है और दूसरे, राज्य सरकारों से कहा है कि सेज परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण उनकी जिम्मेदारी नहीं है। इस तरह सेज के लिए जमीन खरीदने की जिम्मेदारी खुद सेज डेवलपर की होगी। इसके साथ ही मंत्रियों के समूह ने यह भी कहा है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय सेज परियोजनाओं से विस्थापित होनेवाले लोगों के लिए एक विस्तृत पुनर्वास नीति तैयार करेगा जिसमें यह शामिल होगा कि हर विस्थापित परिवार से कम से कम एक व्यक्ति को सेज में नौकरी जरूरी दी जाएगी।

वाणिज्य मंत्रालय के साथ-साथ सेज के समर्थक इन घोषणाओं को सेज विरोधियों के लिए बड़ी रियायत बता रहे हैं। लेकिन यह तथ्य नहीं है। उदाहरण के लिए सेज परियोजनाओं के अधिकतम आकार की 5 हजार हेक्टेयर करने के फैसले को लीजिए। इससे कितनी सेज परियोजनाओं पर असर पड़ेगा? अब तक जिन 459 सेज परियोजनाओं को मंजूरी मिली है या अधिसूचित की गयी हैं, उनमें से सिर्फ 4 परियोजनाओं का आकार अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेयर से अधिक है। इनमें से दो सेज परियोजनाएं मुकेश अंबानी के नेतृत्ववाली रिलायंस समूह की हैं जो हरियाणा के झज्जर-गुड़गांव और मुंबई के पास रायगढ़ के पास 10 हजार हेक्टेयर से अधिक इलाके में बननी थी जबकि दो अन्य परियोजनाओं में एक डीएलएफ समूह की गुडगांव सेज (8,097 हेक्टेयर) और एक ओमैक्स की अलवर सेज (6,070 हेक्टेयर) थी।

स्पष्ट है कि इन चार सेज परियोजनाओं को छोड़कर अधिकांश सेज परियोजनाओं पर इस फेरबदल से कोई असर नहीं पड़ेगा। इससे साफ जाहिर है कि 5 हजार हेक्टेयर की सीमा का कोई खास मतलब नहीं है। यही नहीं, रिलायंस और डीएलएफ जैसे बड़े कारपोरेट समूहों ने इससे बच निकलने का चोर दरवाजा भी खोज लिया है। वे अपनी मौजूदा सेज परियोजनाओं को दो हिस्से में विभाजित करके 5 हजार हेक्टेयर की सीमा से बच निकलने की तैयारी कर रहे हैं। वाणिज्य मंत्रालय इसके लिए चोर दरवाजा खोलने की तैयारी कर रहा है।

दूसरी ओर, सेज के लिए राज्य सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण के बजाय डेवलपरों को किसानों से सीधे जमीन खरीदने का निर्देश देने का फैसला समस्या के समाधान से अधिक स्थिति को और बदतर बनाना है। इस फैसले के बाद सेज के डेवलपरों के गुर्गों और प्रापर्टी डीलरों की बन आएगी। इससे सेज के प्रस्तावित इलाकों में भूमि माफिया के पनपने का रास्ता साफ होगा। किसानों को और अधिक दबाव और गुंडागर्दी का सामना करना पड़ेगा। उन्हें मनमानी कीमत पर जमीन बेचने के लिए बाध्य किया जाएगा। स्थानीय गुंडों, नेताओं और अफसरों की तिकड़ी की मदद से किसानों पर अपनी जमीन बेचने के लिए दबाव डाला जाएगा।

इसी तरह पुनर्वास और मुआवजे के लिए एक व्यापक नीति बनाने की बात सरकार जरूर कर रही है लेकिन यह नीति पिछले एक दशक से बन रही है और अब तक एक आधिकारिक ड्रॉफ्ट तक सामने नहीं आया है। पिछले छह दशकों में जितनी परियोजनाएं बनी और उसमें जो लोग विस्थापित हुए, उनसे न जाने कितने वायदे किए गए लेकिन उनमें से शायद ही कोई वायदा पूरा किया गया हो। इसलिए सेज के मामले में भी सरकार चाहे जो वायदे कर रही हो लेकिन सेज का विरोध कर रहे किसान और मजदूर जानते हैं कि इसमें से कुछ पूरा नहीं होगा।

यही कारण है कि यूपीए सरकार द्वारा मरहम लगाने की कोशिशों के बावजूद सेज परियोजनाओं को लेकर विवाद और विरोध भी बढ़ता ही जा रहा है। कमलनाथ के उत्साह को एक ओर कर दिया जाए तो सेज के विरोधियों की संख्या दिन-पर-दिन बढ़ती ही जा रही है। सेज को लेकर यूपीए सरकार की स्थिति यह हो गई है कि न उगलते बन रहा है और न निगलते। देशभर में जिस तरह से खासकर नीचे जमीन पर किसानों की ओर से सेज परियोजनाओं का विरोध बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए यह यूपीए सरकार के लिए जादुई चिराग से अधिक राजनीतिक सिरदर्द बनता जा रहा है।

सेज यानि जमीन कब्जा अभियान : किसानों की कीमत पर

दरअसल, सेज परियोजनाओं का विरोध कई कारणों से हो रहा है। इनमें सबसे प्रमुख है- भारी मात्रा में कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण। एक मोटे अनुमान के अनुसार अब तक मंजूर सेज परियोजनाओं के लिए लगभग 2,50,000 एकड़ से ज्यादा भूमि के अधिग्रहण की योजना है और इसमें से लगभग 40 से 45 फीसदी जमीन का अधिग्रहण पहले ही किया जा चुका है। कुछ सेज परियोजनाओं के लिए तो जिस तरह से अनाप-शनाप तरीके से जमीन कब्जाने की कोशिश की जा रही है, वह चौकाने वाला है। इसी कारण कई विश्लेषक सेज परियोजनाओं को 'रीयल इस्टेट घोटाला` मानते हैं।

उदाहरण के लिए हरियाणा के गुड़गांव-झज्जर में रिलायंस की बहुउत्पाद सेज परियोजना के लिए 25,000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है जबकि महाराष्ट्र में मुंबई के निकट रायगढ़ जिले में रिलायंस की ही बहुउत्पाद सेज परियोजना के लिए भी लगभग इतनी ही जमीन के अधिग्रहण की तैयारी है। इसी तरह, उत्तर प्रदेश के दादरी में राज्य सरकार ने सेज के लिए अनिल अंबानी समूह को 2,500 एकड़ जमीन दे दी है। सेज के विरोधियों का सवाल है कि सेज परियोजनाओं के लिए इतनी भारी मात्रा में जमीन क्यों अधिग्रहित की जा रही है ? खुद वाणिज्य मंत्रालय के सचिव जीके पिल्लई रिलायंस परियोजना के लिए इतनी बड़ी मात्रा में जमीन अधिग्रहण से हैरान हैं। उनका कहना है कि सरकार ने रिलायंस को जरूरत से ज्यादा जमीन अधिग्रहीत नहीं करने के लिए कहा है। लेकिन रिलायंस अपने फैसले से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है।  

वाणिज्य मंत्रालय का यह कहना है कि उसने राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि सेज के लिए केवल बेकार और अनुपजाऊ जमीन ली जाएं। दो फसली जमीन न ली जाए और अगर लेने की नौबत आए तो कुल सेज क्षेत्रफल के 10 प्रतिशत से अधिक जमीन दो फसली न हो। लेकिन कमलनाथ की तरह सेज को जादुई चिराग माननेवाली राज्य सरकारें व्यवहार में इस निर्देश का पालन नहीं कर रही हैं। अपने-अपने राज्यों में अधिक से अधिक सेज परियोजनाओं को आकर्षित करने के लिए राज्य सरकारों को जोर जबरदस्ती उपजाऊ और जरूरत से ज्यादा भूमि का अधिग्रहण करने में कोई संकोच नहीं हो रहा है।

अपने निर्देशों की खिल्ली उड़ने के बावजूद वाणिज्य मंत्रालय यह कहकर अपना पल्ला झाड़ ले रहा है कि भूमि अधिग्रहण का मामला राज्य सरकारों के क्षेत्राधिकार में आता है, इसलिए वह कुछ नहीं कर सकता। लेकिन किसान इतनी आसानी से अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। रायगढ़ में रिलायंस सेज परियोजना का विरोध कर रहे किसानों का कहना है कि वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं छोड़ेगें। उरान तालुका के कलामबसरी गांव की पूरी पंचायत ने सर्वसम्मति से रिलायंस परियोजना के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया है। पेन तालुका के वासी गांव के जयवंत माधवी इस परियोजना के विरोध में विदर्भ के किसानों की तरह आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या तक करने के लिए तैयार हैं।
 
किसानों की एक प्रमुख शिकायत यह भी है कि उनकी जमीने तो ली जा रही हैं लेकिन उन्हें न तो बाजार दर पर मुआवजा मिल रहा है और न ही उनके पुनर्वास का कोई पक्का इंतजाम किया जा रहा है। सवाल यह भी उठ रहा है कि निजी कंपनियों द्वारा विकसित की जा रही सेज परियोजनाओं के लिए राज्य सरकारें जमीन का अधिग्रहण क्यों कर रही हैं ? जबकि राज्य को सार्वजनिक हित की परियोजनाओं के लिए ही जमीन अधिग्रहण का अधिकार है।

एमएस स्वामीनाथन जैसे कई कृषि वैज्ञानिक और विशेषज्ञ सेज परियोजनाओं के लिए उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण को खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक खतरा मान रहे हैं। उनका कहना है कि जिस तरह से सेज परियोजनाओं की संख्या बेलगाम तरीके से बढ़ती जा रही है और उनके लिए बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहित की जा रही है, उससे खेती योग्य जमीन कम होगी और इसका सीधा असर कृषि उत्पादन पर पड़ेगा।

सेज परियोजना की विसंगतियां : लाभ से अधिक नुकसान

दूसरी ओर, सेज परियोजनाओं के स्वरूप को लेकर भी कई सवाल उठाए जा रहे हैं। मजे की बात यह है कि खुद यूपीए सरकार के अंदर सेज के सवाल पर मतभेद खुलकर सामने आ गए है। सेज को लेकर सबसे गंभीर आपत्ति वित्त मंत्रालय की तरफ से आई है। हालांकि वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम सेज के खिलाफ नहीं हैं लेकिन वे सेज की संख्या को सीमित रखने के पक्षधर है। साथ ही, वे सेज परियोजनाओं के जरिये राजस्व के नुकसान और चोरी की आंशकाओं को लेकर भी चिंतित है। दरअसल, सेज परियोजनाओं को सैद्धांतिक तौर पर 'विदेशी भूमि` मानकर हर तरह के टैक्स से मुक्त रखा गया है और देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों में उनके प्रति आकर्षण की सबसे बड़ी वजह यही है। 

लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि सरकार उतना राजस्व गंवाएगी। राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त और नीति संस्थान (एनआईपीएफपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक शुरूआती 150 विशेष आर्थिक क्षेत्रों के कारण अगले पांच वर्षों में केन्द्र सरकार को लगभग 97,695 हजार करोड़ रूपये के संभावित राजस्व का नुकसान उठाना पड़ेगा। अब जब सेज की संख्या बढ़कर 459 हो गई है। वैसे में टैक्स छूटों के कारण सरकारी खजाने को होनेवाला नुकसान और बढ़कर डेढ़ करोड़ लाख से अधिक पहुंच जाएगा।
 

इसी से जुड़ी हुई एक और चिंता यह है कि सेज को जिस तरह की टैक्स रियायतें दी गई हैं, उसके कारण सेज क्षेत्र के बाहर स्थापित औद्योगिक इकाईयों पर भी खुद को सेज क्षेत्र में स्थानांतरित करने का दबाव बढ़ेगा। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) के मुख्य अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने इस बाबत चेतावनी देते हुए कहा है कि सेज के कारण न सिर्फ सरकार को राजस्व का नुकसान उठाना पड़ेगा बल्कि इसके कारण मौजूदा औद्योगिक इकाईयों में खुद को सेज क्षेत्र में स्थानांतरित करने का लोभ भी पनपेगा जिसकी समाज को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हालांकि वाणिज्य मंत्रालय का यह कहना है कि सेज में सिर्फ नई इकाईयों को ही लगाने की इजाजत दी जाएगी। लेकिन कारपोरेट समूहों को ऐसे नियमों का चोर दरवाजा खोलते देर नहीं लगती है।

अगर ऐसा होता है और इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता है तो इसका न सिर्फ पूरी अर्थव्यवस्था पर घातक असर होगा बल्कि सरकारी खजाने को दोहरी मार झेलनी पड़ेगी। सेज परियोजनाओं का एक और नकारात्मक असर क्षेत्रीय संतुलन और विकास पर भी पड़ता हुआ दिखायी पड़ रहा है। सेज के लिए अभी तक जो परियोजनाएं मंजूर हुईं हैं, उनमें से अधिकांश उन्ही विकसित राज्यों और बड़े शहरों के करीब हैं जो पहले से ही विकसित हैं। उदाहरण के लिए अब तक मंजूर सेज परियोजनाओं में से दो तिहाई से अधिक परियोजनाएं सिर्फ छह राज्यों- तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात में ही सिमटी हुई हैं। बिहार और उत्तर पूर्व के राज्यों में एक भी सेज परियोजना को मंजूरी नहीं मिली है जबकि झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सिर्फ एक-एक परियोजना को मंजूरी मिली है।

साफ है कि सेज परियोजनाओं के कारण क्षेत्रीय विषमता और ज्यादा गहरी होगी। इसका एक और नकारात्मक परिणाम यह दिख रहा है कि राज्य सरकारों के बीच अधिक से अधिक सेज परियोजनाओं को आकर्षित करने के लिए होड़ सी शुरू हो गई है। नतीजे में राज्य सरकारें कारपोरेट समूहों को आकर्षित करने के लिए मौजूदा रियायतों और छूटों के अलावा अपनी ओर से भी कई छूटों और रियायतों का ऐलान कर रही हैं। सेज परियोजनाओं को लुभाने के लिए राज्य सरकारें लगभग कौड़ियों के मोल पर जमीन आवंटित कर रही हैं।

हैरानी की बात यह है कि पिछले साल प्रधानमंत्री ने चंडीगढ़ में उत्तर भारत के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्हें चेताया था कि वे कारपोरेट निवेश को आकर्षित करने के लिए गैर जरूरी और प्रतियोगी टैक्स रियायतें न दें क्योंकि इससे राज्य सरकारों के खजाने और विकास पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। लेकिन सेज परियोजनाओं को लेकर जिस तरह से लूट मची हुई हैं, उसमें कोई भी मुख्यमंत्री इस सलाह पर कान नहीं दे रहा है और ध्यान दे भी क्यों जब खुद केन्द्र सरकार ने ही इस प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया है।

सेज परियोजनाओं के स्वरूप को लेकर रिजर्व बैंक अलग परेशान है। उसने राष्ट्रीयकृत और वाणिज्यिक बैंकों को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वे सेज परियोजनाओं को कर्ज देते हुए पर्याप्त सावधानी बरतें। रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि वे सेज को रीयल इस्टेट मानकर कर्ज दें। इससे एक नया विवाद खड़ा हो गया है और उन आरोपों को बल मिला है कि सेज परियोजनाएं वास्तव में रीयल इस्टेट परियोजनाएं हैं। इन आरोपों के पीछे कई आधार हैं। सेज परियोजनाओं के लिए जारी नए दिशा निर्देशों के मुताबिक किसी सेज परियोजना के कुल क्षेत्रफल के सिर्फ 50 प्रतिशत क्षेत्र में ही उत्पादक इकाईयां लगाना जरूरी होगा। इससे पहले यह सीमा सिर्फ 25 से 35 प्रतिशत तक थी जिसे अब बदलकर 50 प्रतिशत कर दिया गया है। लेकिन पहले से मंजूरी पाई सेज परियोजनाओं के लिए संभवत: यह नियम लागू नहीं होगा।

नियमों के मुताबिक सेज के बाकी 50 प्रतिशत क्षेत्र में सेज के डेवलपर को 'सामाजिक ढांचा` खड़ा करने की इजाजत होगी। यहां सामाजिक ढांचे से तात्पर्य यह है कि सेज के डेवलपर को स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, मनोरंजन केन्द्र, गोल्फ कोर्स, शॉपिंग माल के अलावा आवासीय फ्लैट तैयार करने की छूट होगी। सेज को लेकर यह आशंका जाहिर की जा रही है कि सेज के डेवलपर मौजूदा नियमों का फायदा उठाकर सेज क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आवासीय इकाईयां बनाएंगे और बेचेंगे। इस आशंका को इस बात से भी बल मिलता है कि रीयल इस्टेट क्षेत्र के कई बड़े नाम जैसे यूनीटेक, डीएलएफ, सहारा, रहेजा, हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्शन आदि सेज स्थापित करने की दौड़ में कूद पड़े हैं।

सेज को लेकर सवाल यही नहीं खत्म हो जाते हैं। हैरत की बात यह है कि सेज परियोजनाओं को लेकर वाणिज्य मंत्रालय और राज्य सरकारों के अति उत्साह के बावजूद इस बुनियादी सवाल पर अब भी अस्पष्टता बनी हुई है कि क्या सचमुच सेज परियोजनाओं से भारत का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में मौजूदा  0.8 प्रतिशत हिस्सा बढ़ पाएगा? इस बारे में सरकार ने अभी तक कोई स्पष्ट अध्ययन या अनुमान नहीं पेश किया है कि आगामी 10 से 20 वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत किस तरह और किन क्षेत्रों तथा उत्पादों में अपना हिस्सा बढ़ाएगा ? उसके लिए उसकी रणनीति क्या होगी ? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में दिन-पर-दिन गलाकट प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह मानना सबसे बड़ी भूल साबित होगी कि सिर्फ सेज परियोजनाओं के कारण भारत का निर्यात बढ़ जाएगा।

असल मे, सेज परियोजनाओं के मामले में चीन के जिस सफल मॉडल को पेश किया जा रहा है, उसमें एक बड़ी सच्चाई को छुपाया भी जा रहा है। अगर दुनिया भर में सेज की सफलता के कुछ मॉडल हैं तो उसकी विफलता की मिसालें भी कम नहीं हैं। यही नहीं, चीन का उदाहरण देने वाले यह भूल जाते हैं कि वहां सेज की सफलता का कारण सिर्फ टैक्स में छूट और रियायतें ही नहीं है बल्कि उसके बुनियादी कारण और हैं। यही नहीं, दुनिया भर में सेज के एक सफल मॉडल पर दर्जन भर से ज्यादा असफल मॉडल भी हैं जो मलेशिया, फिलीपिंस, ब्राजील, मैक्सिको, श्रीलंका, बांगलादेश और कोलंबियां तक फैले हुए हैं। दूर क्यों जाएं, तमाम रियायतों के बावजूद सेज के भारतीय पूर्वज निर्यात संबर्धन क्षेत्रों (ईपीजेड) का प्रदर्शन भी कोई खास उल्लेखनीय नहीं रहा है।

लेकिन सेज के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये और केन्द्र सरकार तथा मुख्यमंत्रियों के खुले समर्थन के बावजूद जमीन पर जिस तरह से सेज परियोजनाओं का विरोध तीखा होता जा रहा है, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि कमलनाथ के इस जोश का राजनीतिक खामियाजा यूपीए सरकार कहां तक उठा पाएगी ?

शेयर बाजार में कत्लेआम के निहितार्थ...

बाजार में अत्यधिक उतार-चढ़ाव संकेत है खतरनाक सट्टेबाजी का

मुंबई शेयर बाजार के लिए यह सप्ताह एक दु:स्वप्न साबित हो रहा है। लंबे अरसे बाद बाजार में एक बार फिर जबरदस्त उठापटक और अनिश्चितता का माहौल है। गुरुवार को शेयर बाजार में कत्लेआम का दिन था। बाजार का संवेदी सूचकांक (सेंसेक्स) एक झटके में रिकार्ड 826 अंक लुढ़क गया। इससे पहले बीते सोमवार को भी सेंसेक्स ने 463 अंकों का गोता लगाया था। आज से ठीक दो वर्ष पहले 17 मई 2004 को आम चुनावों में एनडीए की हार के बाद सेंसेक्स 565 अंक लुढ़क गया था। लेकिन उसके बाद सेंसेक्स की लगातार चढ़ान के बीच गुरुवार को 826 अंको की गिरावट पिछले दो वर्षों में सबसे बड़ी गिरावट थी।

लेकिन उससे भी हैरत की बात यह है कि शेयर बाजार में गिरावट का मौजूदा दौर पिछले सप्ताह गुरुवार से शुरू हुआ था। उस समय ऐसा लगा जैसे इतिहास खुद को दोहरा रहा हो। एक ओर विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे थे और दूसरी ओर वामपंथी दलों की बढ़ती ताकत से घबराया सेंसेक्स 177 अंक नीचे लुढ़क गया। 12 मई को भी बाजार में गिरावट का रुख बना रहा और सेंसेक्स 150 अंक और गिर गया। लेकिन इस सप्ताह सेंसेक्स किसी सरकस की तरह व्यवहार करता दिख रहा है। सोमवार को 463 अंक लुढ़कने के बाद सेंसेक्स मंगलवार को 51 अंकों की बढ़त के साथ बंद हुआ। इसके बाद बुधवार को उसने 344 अंकों की ऊंची छलांग लगाई। लेकिन गुरुवार को फिर रिकार्ड गिरावट के साथ बंद हुआ।
 
दरअसल, इस सप्ताह बाजार में जिस तरह से उतार-चढ़ाव और अफरातफरी का माहौल बना हुआ है, उससे साफ है कि बाजार अनिश्चितता की चपेट में आ चुका है। हालांकि सोमवार को बाजार गिरने के बाद मंगलवार को भी जब बाजार एक समय 443 अंक गिर चुका था, तब स्वयं वित्तमत्री पी. चिदम्बरम ने यह कहकर बाजार को संभालने की कोशिश की थी कि घबराने की कोई बात नहीं है और यह बाजार में सामान्य ''करेक्शन`` (सुधार) है। हालांकि इससे बाजार संभल गया लेकिन गुरुवार की गिरावट ने यह साफ कर दिया है कि बाजार में सबकुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। वित्तमंत्री चाहे जो कहें सेंसेक्स में इस तरह की उठा-पटक सामान्य बात नहीं है।
 
सेंसेक्स में इतना उतार-चढ़ाव बाजार के स्वास्थ्य के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। इससे यह आशंका जोर पकड़ रही है कि शेयर बाजार में कुछ गडबड़ घोटाला तो नहीं चल रहा है ? इस आशंका के कारण बाजार की साख पर सीधा असर पड रहा है। निवेशकों में घबराहट और बेचैनी का माहौल है। इसे भांपकर लंबी चुप्पी के बाद मंदड़िए एक बार फिर बाजार पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि बाजार में सट्टेबाजों का बोलबाला किस हद तक बढ़ गया है। जब शेयर बाजार एक-एक दिन में 400 से 800 अंक चढ़ने या गिरने लगे तो यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि बाजार ठोस फंडामेंटल्स के बजाय देशी-विदेशी सट्टेबाजों की धुन पर नाच रहा है। यही वह समय होता है जब छोटा निवेशक दुविधा और लालच में अपनी गाढ़ी कमाई गंवा देता है और सट्टेबाजों की चांदी हो जाती है।

दरअसल, मुंबई शेयर बाजार में पिछले काफी समय से एक अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। बाजार जिस रफ्तार से लगातार उपर चढ़ रहा था, उसे कतई स्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। हालांकि वित्त मंत्रालय से लेकर दलाल स्ट्रीट के जानेमाने बाजार विशेषज्ञ तक शेयर बाजार के इस 'अतार्किक उत्साह` को स्वाभाविक, ठोस फंडामेंटल्स पर आधारित और टिकाऊ बताने में जुटे रहे लेकिन जब सेंसेक्स ने दस हजार अंकों को पार किया, उस समय से ही यह साफ हो गया था कि बाजार बेकाबू हो रहा है।

अगर पिछले दो वर्षों में सेंसेक्स की उठान का ग्राफ देखा जाए तो यह छलांग हैरत में डालनेवाली है। 22 जुलाई 2004 को सेंसेक्स 5,045 अंक पर था। वहां से 17 नवम्बर' 04 को 6,017 अंक और 21 जून'05 को 7,070 अंक से छलांग लगाता हुआ 2 नवम्बर'05 को 8,073 और 30 दिसम्बर' 05 को 9,323 अंक को पार कर गया। इस साल सेंसेक्स पहले 10 हजार, फिर 11 हजार और आखिर में 12 हजार अंकों की 'मनोवैज्ञानिक बाधा` को पार करते हुए 10 मई को रिकार्ड 12,612 अंकों की रिकार्ड उंचाई तक पहुंच गया। सेंसेक्स की इस रफ्तार को देखते हुए विशेषज्ञ इस साल बाजार के 15,000 अंकों को भी फलांग जाने की उम्मीद जाहिर कर रहे थे।

लेकिन दूसरी ओर, शेयर बाजार में अदंर ही अंदर घबराहट का भी माहौल था। सेंसेक्स की तेजी से बाजार का दम फूल रहा था। इस बात की आशंका बहुत दिनों से जतायी जा रही थी कि बाजार बहुत ज्यादा 'गर्म` हो गया है और कभी भी बिकवाली और मुनाफा वसूली का दौर शुरू हो सकता है। बाजार की भाषा में इसे सुधार या करेक्शन कहते हैं। ऐसी स्थित में केवल एक ट्रिगर या छोटी-बड़ी वजह की जरूरत होती है और बाजार के बड़े खिलाड़ी सक्रिय  हो जाते हैं। इस बार भी ट्रिगर के रूप में विधानसभा चुनावों में वामपंथी दलों की जीत को इस्तेमाल किया गया और रही-सही कसर अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में धातुओं और जिंसों की कीमत में आयी गिरावट ने पूरी कर दी। इसके साथ ही अमरीकी रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की खबरों से भी बाजार पर असर पड़ा है।

लेकिन अगर विधानसभा चुनावों के नतीजे ऐसे नहीं आते तो भी कुछ और वजह होती और बाजार का गिरना तय था। बाजार जिस उंचाई पर पहुंच गया है, उसे वहां टिकाए रहना बहुत मुश्किल है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उसे यहां तक लाने में सट्टेबाजी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। हालांकि मुंबई शेयर बाजार में सट्टेबाजी कोई नयी चीज नहीं है और उसे बाजार का अभिन्न हिस्सा समझा जाता है। लेकिन पिछले दो वर्षों में इस सट्टेबाजी ने न सिर्फ संगठित रूप ले लिया है बल्कि बाजार पूरी तरह से विदेशी सट्टेबाजों खासकर मुट्ठीभर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के कब्जे में आ गया है। अब वे ही बाजार के असली नियंता हैं।
 
यही कारण है कि विदेशी बाजारों को छींक आती है तो मुंबई शेयर बाजार को निमोनिया हो जाता है। भारतीय शेयर बाजार पर एफआईआई के दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2005 में उन्होंने शेयर बाजार में लगभग 10.5 अरब डालर का निवेश किया जबकि घरेलू म्युचुअल फंडों ने उसके एक तिहाई से भी कम यानी  2.9 अरब डालर का निवेश किया। इसी तरह चालू साल में अब तक एफआईआई ने लगभग 4.7 अरब डालर का निवेश किया है जबकि घरेलू म्युच्युअल फंडों ने मात्र 1.6 अरब डालर का। साफ है कि एफआईआई शेयर बाजार के प्रमुख खिलाड़ी बन गए हैं। सेंसेक्स की 30 प्रमुख कंपनियों में से अधिकांश में एफआईआई का हिस्सा 20 से 40 प्रतिशत तक पहुंच गया है।
 
ऐसे में, कोई हैरत की बात नहीं है कि शेयर बाजार के दूसरे खिलाड़ी भी उनकी देखादेखी अपना रूख तय करते हैं। यहां दोहराने की जरूरत नहीं है कि एफआईआई उस विदेशी आवारा पूंजी के प्रतिनिधि हैं जिनका एकमात्र मकसद अधिक से अधिक मुनाफे की खोज में इस बाजार से उस बाजार तक बेरोकटोक घुमना है। यही कारण है कि एफआईआई जितनी तेजी से किसी बाजार में आते हैं, उससे कहीं अधिक तेजी से मुनाफा वसूलकर निकल जाते हैं। दक्षिण पूर्णी एशियाई देशों से लेकर अर्जेंटीना तक में यह कहानी पिछले दस वर्षों मे कई बार अलग-अलग समयों पर दोहरायी जा चुकी है।

हैरत की बात यह है कि दबे-खुले स्वरों में रिजर्व बैंक ने एफआईआई की भूमिका को लेकर अपनी चिंता कई बार जाहिर की है लेकिन यूपीए सरकार सेंसेक्स के आकर्षण में इस कदर मोहग्रस्त हो गयी है कि वह संभावित खतरे से निपटने के लिए उपयुक्त कदम उठाने के बजाय एफआईआई को रिझाने में लगी हुई है। लेकिन ऐसा लगता है कि भारतीय बाजारों से एफआईआई के हनीमून का मौजूदा दौर अब खत्म होने की ओर बढ़ रहा है। पिछले एक सप्ताह से एफआईआई ने जिस तरह से शेयरों की बिकवाली की है, उससे ऐसा लगता है कि वे मुनाफा वसूलकर लौटने के मूड में हैं।

लेकिन हो सकता है कि ऐसा न हो। इसके बावजूद बाजार जिस तरह से चढ़ और गिर रहा है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि बाजार में जबरदस्त सट्टेबाजी चल रही है। इतनी अधिक सट्टेबाजी बाजार की सेहत के लिए ठीक नहीं है और इसकी असली कीमत छोटे और मंझोले निवेशकों को चुकानी पड़ती है। इसलिए संभव है कि शेयर बाजार इसबार भी मौजूदा झटके से उबर जाए लेकिन अगर मनमोहन सिंह सरकार ने गुरुवार को शेयर बाजार के ऐतिहासिक गिरावट में छिपी सामयिक चेतावनी को नजरअंदाज किया तो वह शेयर बाजार को लंबे समय तक बचा नहीं पाएगी। खतरे की घंटी बज चुकी है और समय बहुत कम है। अब यह इस सरकार को तय करना है कि वह इतिहास को खुद को दोहराने का मौका देगी या समय रहते हस्तक्षेप करेगी।