सोमवार, अक्तूबर 17, 2011

क्यों नाराज़ है सरकार सूचना के अधिकार से?


फ़ाइल नोटिंग के बिना सूचना का अधिकार बेमानी है  



कहते हैं कि क्रांतियां अपने संतानों को खा जाती हैं. ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. कम से कम सरकार खुद ऐसा ही सोचती है. आश्चर्य नहीं कि कल तक सूचना के अधिकार के कानून को क्रांति बतानेवाली मनमोहन सिंह सरकार खुद इस कानून से डरने लगी है.

उसे लगता है कि उसकी मौजूदा राजनीतिक मुश्किलों खासकर भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों के खुलासे के लिए काफी हद तक यह कानून जिम्मेदार है. इस कानून के कारण भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में ऐसी कई सूचनाएं आईं हैं जिनके कारण सरकार डावांडोल होती दिखाई दे रही है.

उदाहरण के लिए, कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना के अधिकार कानून के जरिये हासिल किये गए वित्त मंत्रालय के नोट को लीजिए. इसके कारण न सिर्फ वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और गृह मंत्री पी. चिदंबरम के बीच जारी शीत युद्ध खुलकर सामने आ गया बल्कि २ जी घोटाले को रोकने में तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम की विफलता भी सवालों के घेरे में आ गई.

इससे पहले २ जी घोटाले में प्रधानमंत्री और तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा के पत्राचार से लेकर और कई महत्वपूर्ण जानकारियां सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके ही हासिल की गईं. इसके अलावा कामनवेल्थ घोटाले से लेकर आदर्श हाउसिंग घोटाले तक में सरकार की किरकिरी करानेवाली कई जानकारियां इस कानून के जरिये ही सामने आईं.

इस कारण यू.पी.ए सरकार और खासकर कांग्रेस को यह लगने लगा है कि सूचना के अधिकार कानून की ‘क्रांति’ अपनी ही संतान यानि मनमोहन सिंह सरकार को खाने पर उतारू हो गई है. इसलिए सरकार की इस कानून को लेकर नाराजगी और असहजता बढ़ती जा रही है.

यही वजह है कि पिछले कुछ सप्ताहों में केन्द्र सरकार के तीन महत्वपूर्ण कैबिनेट मंत्रियों – वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद और अम्बिका सोनी ने सूचना के अधिकार कानून के कारण सरकार चलाने में आ रही परेशानियों का जिक्र करते हुए इस कानून में संशोधन की जरूरत बताई है. अब खुद प्रधानमंत्री मैदान में उतर आए हैं. उन्होंने पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आलोक में इस कानून की आलोचनात्मक समीक्षा की वकालत की है.

आखिर प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट मंत्रियों को यह जरूरत क्यों महसूस हो रही है? उन्हें इस कानून से क्या शिकायतें हैं? सूचना के अधिकार पर केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा पिछले शुक्रवार को आयोजित सम्मेलन में मुख्य रूप से प्रधानमंत्री की दो शिकायतें सामने आईं.

पहली, इस कानून का फायदा उठाकर बहुतेरे फर्जी और सतही आवेदन डाले जा रहे हैं जिनका जवाब देने में सरकारी महकमों और अधिकारियों की बहुत सारी उर्जा और समय जाया हो रहा है. इससे सरकार का कामकाज प्रभावित हो रहा है. दूसरे, इस कानून के कारण सरकार के अंदर खुली और बेबाक चर्चा और विचार-विमर्श पर भी असर पड़ रहा है. अधिकारी और मंत्री अपनी स्पष्ट और ईमानदार राय देने से बच रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री का इशारा फ़ाइल नोटिंग की ओर है जिसे सूचना के अधिकार के तहत माँगा जा सकता है. असल में, सरकार में सभी महत्वपूर्ण फैसले और नीतिगत निर्णय फाइलों पर लिए जाते हैं जिसमें विभिन्न विभागों के निचले अधिकारी से लेकर सर्वोच्च अधिकारियों और मंत्रियों की नोटिंग या टिप्पणियां होती हैं.

इन टिप्पणियों में उन आधारों/कारणों/नियमों/पूर्व निर्णयों का हवाला होता है जिसके आधार पर सक्षम अधिकारी अंतिम फैसला लेता है. इसी तरह, किसी फैसले पर पहुँचने से पहले बैठकों में हुई चर्चा भी मीटिंग के मिनट्स दर्ज की जाती है.

हालांकि नौकरशाही शुरू से इसकी विरोधी रही है और यू.पी.ए सरकार ने कोई ढाई साल पहले फ़ाइल नोटिंग को आर.टी.आई के दायरे से बाहर रखने के लिए कानून में संशोधन तक की कोशिश की. लेकिन भारी विरोध के कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा और काफी हीला-हवाली और ना-नुकुर के बाद आखिरकार सरकार को मानना पड़ा कि सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदकों के मांगने पर सरकारी विभाग और मंत्रालय फ़ाइल नोटिंग्स/मिनट्स उपलब्ध कराएँगे.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आर.टी.आई में इस प्रावधान के कारण सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी है. नौकरशाहों और मंत्रियों को नोटिंग करते हुए अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ती है.

निश्चय ही, इसके कारण फैसलों और नीतिगत निर्णयों में अनियमितताओं, भ्रष्टाचार और तोड़-मरोड़ की गुंजाइश कम हुई है. याद रहे कि भ्रष्टाचार और अनियमितताएं हमेशा गोपनीयता के अंधेरों में फलती-फूलती हैं. यही नहीं, प्रधानमंत्री की चिंता के विपरीत इससे ईमानदार नौकरशाहों और मंत्रियों के लिए निर्भीक होकर काम करना और अपनी स्पष्ट और बेबाक राय देना ज्यादा आसान हुआ है.

इस प्रावधान के कारण उनपर मनमाने फैसले लेने का दबाव कम हुआ है. सच पूछिए तो ईमानदार अफसरों और मंत्रियों के लिए आर.टी.आई और खासकर उसका यह प्रावधान बहुत बड़ा संरक्षण और अनुचित दबावों के आगे खड़ा होने का आधार बना है.

इस कारण यह समझना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री समेत उनकी कैबिनेट के कई मंत्री इस प्रावधान को सरकार के कामकाज में बाधा क्यों मान रहे हैं? वे किस अनुभव के आधार पर ऐसा कह रहे हैं कि इस प्रावधान के कारण नौकरशाहों और मंत्रियों को निर्भीक, बेबाक और ईमानदार राय देने में संकोच हो रहा है?

क्या यह सच नहीं है कि हम वह राय देने में संकोच करते हैं जिसका बाद में सार्वजनिक तौर पर कानूनी और नैतिक रूप से बचाव करना मुश्किल हो? अगर हमें पता हो कि किसी बैठक में कही या फ़ाइल पर लिखी टिप्पणी कल को सार्वजनिक हो सकती है तो हम न सिर्फ जिम्मेदारी से और खूब सोच-समझकर टिप्पणी करेंगे बल्कि मनमानी और हडबडी से बचेंगे.

सच यह है कि यह प्रावधान आर.टी.आई कानून की आत्मा है क्योंकि सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए सिर्फ यह जानना काफी नहीं है कि सरकार का फैसला क्या है?

उससे कई गुना महत्वपूर्ण यह जानना है कि वह फैसला कैसे और किन आधारों पर हुआ और उनमें विभिन्न अधिकारियों/मंत्रियों की राय क्या थी? कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान के बिना आर.टी.आई भी एक सजावटी कानून बनकर रह जाएगा.

लगता है कि आर.टी.आई के मामले में इतिहास को पलटने की कोशिश हो रही है. यहाँ क्रांति नहीं, संतान खुद क्रांति को खाने के लिए बेचैन दिख रही है. आर.टी.आई कानून में संशोधन की पेशकश इसी का सबूत है.

(दैनिक 'नया इंडिया' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख)

1 टिप्पणी:

अफ़लातून ने कहा…

प्रतिक्रांतियां अक्सर थोड़े समय तक ही टिक पाती हैं ? सुना था.