आँखें खोलिए इसमें आपको नए दौर के जनांदोलनों की धमक सुनाई देगी
दूसरी किस्त
पिछले कुछ दिन मेरे लिए बहुत पीड़ा और जबरदस्त आत्मसंघर्ष के रहे हैं. अपने कई मित्रों और बुद्धिजीवियों जिनके प्रति मेरे मन में बहुत आदर और वैचारिक दोस्ताना है और रहेगा, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन पर उनके रुख के कारण उनसे असहमतियां और दूरी बढ़ी है.
कई बार यह असहमतियां कटुता की हद तक पहुँच गई हैं, एक-दूसरे पर व्यंग्य बाण छोड़े गए हैं और कुछ साथी गली-गलौज और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप पर भी उतर आए. अरुंधती राय से लेकर अनेक निजी मित्रों और यहाँ तक कि पत्नी अमृता राय की सोच के विपरीत खड़ा होने के अलगाव और पीड़ा का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं.
हालांकि यह पहली बार नहीं है. १९८९-९२ के बीच बाबरी मस्जिद को लेकर चले सांप्रदायिक फासीवादी अभियान और उसके बाद मंडल कमीशन के जरिये पिछड़े वर्गों के लिए २७ फीसदी आरक्षण लागू करने के खिलाफ हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान हमारे रूख के कारण मेरे कई निजी मित्र खिलाफ हो गए. यह वह दौर था जब अधिकांश कांग्रेसी रातों-रात भगवा हो चुके थे और आरक्षण विरोधियों के आगे बोलने का मतलब पिटाई और सार्वजनिक अपमान को आमंत्रित करना था.
इसके बावजूद बी.एच.यू में हम सिर्फ मुट्ठी भर लोग थे जो खुलकर भगवा साम्प्रदायिकता और आरक्षण विरोधी सामंती-जातिवादी शक्तियों के खिलाफ बोल रहे थे और गालियाँ सुन रहे थे. अपने कुछ साथियों के साथ मारपीट भी हुई.
लेकिन हम डटे रहे और अपनी बात जोर-शोर से कहते रहे. दबाव इतना अधिक था कि छात्रसंघ चुनावों के दौरान ब्रोचा छात्रावास की सभा में आरक्षण का समर्थन कर रहे छात्र जनता के सवर्ण और बाहुबली प्रत्याशी ने कह दिया कि वह आरक्षण के विरोध में है. हम आरक्षण के समर्थन में थे. आइसा ने नारा दिया कि ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए, जीने का अधिकार चाहिए.’
इलाहाबाद में आइसा के नेतृत्व में छात्रों ने विहिप नेता अशोक सिंघल को यूनिवर्सिटी से खदेड़ दिया. इसके बाद का इतिहास सबको पता है. इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमायूं और जे.एन.यू विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनावों में आइसा की जीत हुई.
उससे पहले, पंजाब में आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पहले इंदिरा गाँधी और फिर राजीव गाँधी सरकार ने जो उन्माद पैदा किया था, उसके खिलाफ बोलना देशद्रोह से कम नहीं था. इसके बावजूद राजीव सरकार द्वारा लाये गए काले कानून ५९ वें संविधान संशोधन के खिलाफ बनारस में राष्ट्रीय सम्मेलन करवाने में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की.
बाबरी मस्जिद के खिलाफ सांप्रदायिक अभियान के दौरान अखबारों की सांप्रदायिक और निहायत ही शर्मनाक भूमिका के खिलाफ प्रेस काउन्सिल की टीम से शिकायत करनेवालों में आगे रहे जिसका खामियाजा यह भुगता कि अगले कई महीनों तक बनारस के अखबारों में आइसा की प्रेस विज्ञप्तियों को बैन कर दिया गया, धरना-प्रदर्शन की रिपोर्टों से हमारे नाम हटा दिए जाते थे.
लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि हम अलग-थलग पड़ गए हैं, कभी अपने स्टैंड को लेकर सफाई देने की जरूरत नहीं महसूस की और खम ठोंकर लड़ते रहे. लेकिन पहली बार एक अलगाव सा महसूस हो रहा है जबकि इस बार हम “भीड़” के साथ हैं. कुछ असहज सा महसूस हो रहा है. खासकर दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों में इस आंदोलन को लेकर साफ तौर पर दिख रहे डर, शक और आशंकाओं के कारण यह असहजता बढ़ी है.
बेशक, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है. फिर भी कहना चाहूँगा कि अन्ना के जन लोकपाल आंदोलन को लेकर अपने कई वाम मित्रों और बुद्धिजीवियों की कुछ आलोचनाओं और असहमतियों से आंशिक सहमति के बावजूद उनके अंतिम निष्कर्षों से असहमत हूँ.
मैं यह भी जानता हूँ कि आनेवाले सप्ताहों और महीनों में अनेकों मुद्दों और बड़े सवालों पर हम फिर साथ होंगे और कई नई बहसें भी होंगी. असल में, हमारी एकता और मित्रता की बुनियाद ये बहसें भी हैं. निश्चय ही, ऐसी बहसों से कई बार धुंधली सी दिख रही चीजें साफ़ होती हैं. इस आंदोलन के प्रति अपनी राय पहले के एक पोस्ट में भी रख चुका हूँ, इसलिए उसे यहाँ नहीं दोहराऊंगा. आइये, उससे आगे कुछ और मुद्दों और सवालों पर बहस को आगे बढ़ाएं.
आखिर इन आरोपों को बार-बार क्यों दोहराना पड़ रहा है?
इस आंदोलन की सबसे ज्यादा आलोचना इस बात के लिए हुई है कि इसे आर.एस.एस और हिंदू सांप्रदायिक संगठन चला रहे हैं और इसमें शामिल “उन्मादी और हिंदू अंधराष्ट्रवादी भीड़” में मुख्यतः “शहरी हिंदू-सवर्ण इलीट” हैं जो आरक्षण विरोधी भी हैं. इन आरोपों के प्रमाण के बतौर आर.एस.एस/बी.जे.पी नेताओं के इस आंदोलन के समर्थन में दिए बयानों, उनके कुछ नेताओं खासकर वरुण गाँधी के रामलीला मैदान में पहुँचने, आरक्षण विरोधी संगठन- यूथ फार इक्वालिटी की सक्रियता से लेकर इस आंदोलन में लगाये जा रहे नारों – ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ और तिरंगे फहराने को पेश किया जा रहा है.
पहली बात तो यह है कि इस आंदोलन में सिर्फ यही वर्ग नहीं हैं बल्कि सबसे ज्यादा इसमें निम्न मध्यवर्गीय शहरियों, छात्र-नौजवानों, छोटे दुकानदारों, व्यापारियों, नई अर्थव्यवस्था के प्रोफेशनलों के अलावा समाज के सभी वर्गों के लोग शामिल हैं. दिल्ली-मुंबई से बाहर निकलने पर छोटे-छोटे शहरों और कस्बों और यहाँ तक कि गांवों में भी आम किसान, मजदूर, गरीब, नौजवान और कमजोर वर्ग के लोग भी जुलूसों-धरना और प्रदर्शनों में शामिल हुए हैं. ये भी सच है कि इनमें से सभी सिर्फ जन लोकपाल के लिए ही नहीं बल्कि अपनी समस्याओं और तकलीफों के साथ-साथ एक बड़े बदलाव की उम्मीद में इस आंदोलन के साथ जुड़े हैं.
सच पूछिए तो इसमें शामिल लोगों में इतनी विविधता दिखती है कि इसके आलोचकों को इसे आर.एस.एस या आरक्षण विरोधी वाई.एफ.इ का आंदोलन साबित करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ रही है. याद रखिये कि इससे पहले बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले सांप्रदायिक फासीवादी अभियान या आरक्षण विरोधी आन्दोलनों को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी. उसके लिए प्रमाण जुटाने में इतना पसीना नहीं बहाना पड़ा था.
इसका अर्थ यह है कि इस आंदोलन में ऐसा बहुत कुछ है जिसके कारण इसकी पहचान बताने के लिए मित्रों को इतना जोर लगाना पड़ रहा है. साफ है कि जो मित्र इसे “शहरी-हिंदू-सवर्ण और इलीट” और तिरंगा लहरानेवाली “अंधराष्ट्रवादी उन्मादी भीड़” बता रहे हैं, उन्होंने या तो निष्कर्ष पहले से तय कर लिया था और उसके लिए जान-बूझकर कुछ तथ्यों को अनदेखा किया और कुछ को जरूरत से ज्यादा उछाला या फिर लगता है कि वे मौजूदा दौर की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सच्चाइयों को अनदेखा करने की कोशिश कर रहे हैं. इस कारण वे इस आंदोलन को पहले से बने बनाए वैचारिक सांचे में जांचने-परखने की कोशिश कर रहे हैं.
नई अर्थव्यवस्था के मजदूरों और उनकी तकलीफों को पहचानिये
मैं रामलीला मैदान और इससे पहले अप्रैल में जंतर-मंतर पर गया था. कुछ मित्र जिन्हें “खाए-पिए-अघाये” मध्यवर्ग बता रहे हैं और जो उनके मुताबिक, “संसद, संविधान और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं” को उलटने की तैयारी के साथ इस आंदोलन में कूदा है और जिसे “कारपोरेट पूंजी और उससे निर्देशित मीडिया” का पूरा समर्थन मिल रहा है, उन मित्रों की कल्पनाशक्ति, तर्कशक्ति और राजनीतिक समझ की दाद देनी पड़ेगी.
अगर वह “खाया-पिया-अघाया” मध्यवर्ग है तो इसका मतलब इस व्यवस्था के बने रहने में उसका निहित स्वार्थ है. फिर वह इस व्यवस्था को “ऊपर से पलटने” की कोशिश क्यों कर रहा है? क्या इसलिए कि “राज्य और उसकी शक्तियों और सार्वजनिक सेवाओं को और अधिक निजी हाथों यानि बड़ी कारपोरेट पूंजी” को सौंपा जा सके?
असल में, जिसे “खाया-पिया-अघाया” मध्यवर्ग बताया जा रहा है, वह कौन है? अगर गौर से देखें तो वह भारतीय अर्थव्यवस्था में पिछले बीस वर्षों में खासकर शहरों में तेजी से फले-फूले और लगातार फैलते सेवा क्षेत्र में काम करनेवाला २० से लेकर ४० वर्ष का वह युवा है जो औसतन १० से लेकर २५ हजार रुपये महीने की तनख्वाह पर काल सेंटरों, होटलों-रेस्तराओं, शापिंग मालों, स्टोर्स, टेलीकाम-बैंक-बीमा-वित्तीय संस्थाओं, मार्केटिंग, सेल्स, प्राइवेट स्कूलों से लेकर मीडिया आदि विभिन्न सेवा क्षेत्रों में काम कर रहा है. अगर इनमें आटोमोबाइल से लेकर उपभोक्ता सामान बनानेवाली मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के कुशल और अकुशल मजदूरों को जोड़ दिया जाए तो नई अर्थव्यवस्था के इन नए श्रमिकों का दायरा बहुत बड़ा हो जाता है.
निश्चय ही, नई अर्थव्यवस्था के इन सेवाकर्मियों की तनख्वाहें और उनका रहन-सहन देश के असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले उन ७८ फीसद श्रमिकों की तुलना में काफी बेहतर है जो सिर्फ २० रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करने के लिए मजबूर हैं. लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि अपेक्षाकृत बेहतर वेतन के बावजूद शहरों में लगातार बढ़ती महंगाई और दैनिक रहन-सहन की बढ़ती लागत ने इन तनख्वाहों को भी बेमानी बना दिया है. अधिकतर शहरी परिवारों में पति-पत्नी दोनों के काम किये बिना गुजर मुश्किल है.
यही नहीं, नई अर्थव्यवस्था के उजाले के पीछे का गहरा और घुटन भरा अँधेरा भी कम लोगों को दिखाई देता है. तथ्य यह है कि इन सेवाकर्मियों की सेवाशर्तें बहुत बदतर हैं. कोई जाब सेक्युरिटी नहीं है. श्रमिकों को मिलनेवाली कानूनी सुविधाएँ भी नहीं मिलती हैं. काम के लंबे, थकाऊ और तनाव भरे घंटों के बावजूद छुट्टी से लेकर स्वास्थ्य सुविधा का कोई ठिकाना नहीं है.
ऊपर से बैक, कार, टी.वी-फ्रिज से लेकर घर की खातिर लिए गए बैंक लोन की ई.एम.आई का दबाव. ऐसा लगता है जैसे इसमें काम करनेवालों का कोई भविष्य नहीं है. आप कभी इन युवाओं से बात करें, आपको उनकी कुंठा, चिंता, निराशा-हताशा, आशंकाओं, मुश्किलों का अंदाज़ा लगेगा. नई अर्थव्यवस्था के इन सबसे बड़े पैरोकारों का इससे मोहभंग होने लगा है.
यह सही है कि किसी बड़े लोकतान्त्रिक आंदोलन में शिक्षित-प्रशिक्षित न होने के कारण उसके अंदर राजनीति को लेकर एक खास तरह की नाराजगी, उब और नफ़रत भी है. यह भी सही है कि कई मौकों पर उसकी कुंठा-निराशा आक्रामक राष्ट्रवाद और अराजनीतिक भड़ासों में जैसे वर्ल्ड कप में जीत में तिरंगा फहराने में निकलती रही है.
यह भी सही है कि इसका एक बहुत छोटा हिस्सा ९० के दशक और २००६-०७ के आसपास आरक्षण विरोधी या उससे पहले सांप्रदायिक फासीवादी अभियानों में भी शामिल रहा है. लेकिन यह भी सच है कि वह अब वहीँ नहीं खड़ा है और उसने पिछले और उसके पहले के चुनावों में बी.जे.पी के खिलाफ वोट दिया है.
आर.एस.एस अप्रासंगिक हो रहा है, उससे डरने की नहीं उसे और अलग-थलग करने की जरूरत है
यही नहीं, वह आर.एस.एस के सांप्रदायिक फासीवाद की असलियत समझ चुका है. आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशक में आर.एस.एस की शाखाओं में न सिर्फ युवाओं की संख्या घटी है बल्कि इस कारण उनकी कुल शाखाओं में गिरावट आई है. सच यह है कि धीरे-धीरे आर.एस.एस अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है. इसके बावजूद मैं सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे को कम करके नहीं आंकने की भूल नहीं करूँगा.
बेशक, आर.एस.एस और उसके सहोदरों को अलग-थलग करने और उनके खिलाफ राजनीतिक-वैचारिक अभियान जारी रहना चाहिए लेकिन मैं उसके खतरे को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के पक्ष में भी नहीं हूँ. निश्चय ही, कांग्रेस और कुछ कथित सेक्युलर राजनीतिक दलों और नेताओं को यह मुफीद बैठता है लेकिन उनकी धर्मनिरपेक्षता की असलियत अब किसी से छुपी नहीं है.
बहरहाल, यह पहली बार है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जरिये नई अर्थव्यवस्था का यह मध्यमवर्गीय मजदूर तबका अपनी सीमित, अकेली और बंद दुनिया से न सिर्फ बाहर आया बल्कि मौजूदा व्यवस्था में व्यापक बदलाव के प्रति उसकी ललक साफ़ दिखी. सबसे बड़ी बात यह कि उसका जबरदस्त राजनीतिकरण हुआ है.
वह आज की राजनीति पर बात कर रहा है, उसके विकल्पों पर बात करने और सुनने के लिए तैयार दिख रहा है और इस आंदोलन को आगे ले जाने की प्रतिबद्धता जाहिर कर रहा है. निश्चय ही, बड़े बदलाव के वाम-रैडिकल आन्दोलनों के लिए जमीन तैयार है और वाम-रैडिकल राजनीतिक शक्तियों को यह मौका नहीं गंवाना चाहिए.
आप अब भी चाहें तो इसे “खाया-पिया-अघाया” मध्यवर्ग कहें लेकिन मुझे तो यही आज और खासकर भविष्य का मजदूर वर्ग दिखता है. याद रखिये, अगले १०-१५ वर्षों में देश में गांवों से ज्यादा लोग शहरों में होंगे और उनमें से सबसे ज्यादा इसी नई ‘होटल-रेस्तरों’ अर्थव्यवस्था (गेल ओम्वेट से उधार) में काम कर रहे होंगे. और हाँ, उसमें सबसे ज्यादा दलित-पिछड़े ही होंगे.
यही नहीं, देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय और हजारों कालेज परिसरों में लाखों छात्र एक अनिश्चित भविष्य की आशंकाओं के बीच बेचैन और अपनी राह खोज रहे हैं. क्या इन्हें अनदेखा करके देश में कोई भी जनतांत्रिक आंदोलन चल सकेगा या सफल हो सकेगा? यहाँ तक कि किसानों-मजदूरों-आदिवासियों-दलितों और अल्पसंख्यक समुदायों के तबकाई आंदोलन भी बिना इन्हें साथ लिए कामयाब नहीं हो सकते हैं.
इसलिए मित्रों, नई अर्थव्यवस्था के इन मजदूरों और छात्र-युवाओं के राष्ट्रीय राजनीतिक रंगमंच पर आगमन का अभिनन्दन कीजिये. इससे डरने की नहीं, इसका स्वागत करने की जरूरत है. इसमें बहुत संभावनाएं हैं.
जारी...कल तीसरी किस्त में इस आन्दोलन और साम्प्रदायिकता विरोधी लड़ाई के बारें में कुछ और बातें करेंगे... अपनी राय बताते रहिये...
3 टिप्पणियां:
सर ऐसा कहा जाता है कि मीडिया हमेशा सत्ता पक्ष या समाज में प्रभावशाली वर्ग की सहमति बनाने का कार्य करता है, जैसा कि नोम चोम्सकी ने "Manufacturing Consent" में भी लिखा है. परन्तु यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि पहली बार मुख्यधारा के मीडिया ने अन्ना हजारे के आंदोलन को पूरा समर्थन दिया और इतने हद तक जाकर सत्ता पक्ष के लिए असहमति बनाने का काम किया है. ऐसा बदलाव मीडिया में कैसे आया या इसके पीछे वजह क्या है? ये प्रश्न निश्चय ही विचारयोग्य है. आपसे अनुरोध है कि कृपया मीडिया के इस रुख के पीछे क्या कारण है? इस पर लेख लिख कर हमारी इस जिज्ञासा को शांत करें.
सर तिरंगा और भारत माता मेरे ख्याल से देश के हर उश नागरिक का है जो इसमें विश्वास रखता है और अगर कुछ लोगो ने इस्पे अपना कब्ज़ा कर लीया था तो हम उनसे इसे वापस ले आये हैं.....
bahs nahi ahsas chahiye ek lambi si sans chahiye,badi dur hai sansad mujh seab thoda pas chahiye.terk nahi fherk dikhao ab to kuch khas chahiye......prashun joshi
एक टिप्पणी भेजें